सोमवार, 30 जनवरी 2012
ओसारे घुप्प पड़े हैं
शनिवार, 28 जनवरी 2012
फ़ुरसत में ... दिल की खेती .. “प्यार” बोऊं या “नफ़रत” ?
फ़ुरसत में ... 90
दिल की खेती .. “प्यार” बोऊं या “नफ़रत” ?
कहीं पढ़ा था, “किसी की मदद करते वक़्त उसके चेहरे की तरफ़ मत देखो, ... क्योंकि उसकी झुकी हुई आंखें आपके दिल में गुरूर न भर दे ...।” इस सूक्ति को मैंने दिल में गांठ की तरह बांध ली थी। मुझे नहीं पता था कि यह गांठ दिल को सुकून पहुंचाएगी या किसी दिन गले की फांस बन जाएगी।
बात उन दिनों की है जब सौ, दो सौ, चार सौ, पांच सौ रुपए भी काफ़ी बड़े होते थे, आज भी हैं, तब कुछ ज़्यादा थे। क्योंकि तब यह राशि हमारी कुल मासिक तनख़्वाह की दस परसेंट हुआ करती थी ! तकरीबन पंद्रह-सोलह साल पहले की बात है। पंद्रह या सोलह? छोड़िए न, एक साल इधर-उधर होने से पांच सौ रुपए की सेहत पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
उन दिनों अपनी पोस्टिंग हैदराबाद के निकट मेदक ज़िले के एद्दुमैलारम नामक जगह में थी। दिल्ली किसी काम से आना हुआ था। काम ख़तम कर वापसी के लिए ट्रेन पकड़ने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पहाड़गंज वाली साइड के प्लेटफ़ॉर्म पर पहुंचा, तो मालूम हुआ कि ट्रेन परली साइड के प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी है। गरमियों के दिन थे। दोपहर के ठीक बाद का समय था, जो काफ़ी गरम होता है। तपती धूप की वजह से पसीने से लथपथ ए.सी-II टियर की कोच में पिछले सोलह प्लेटफ़ॉर्म की थकान बढ़ाने वाले कारक, मेरे एक मात्र बक्से, को अपनी सीट, संख्या चार के ऊपर फेंका एवं दिल्ली की गरमी और उस ऑटो वाले को (जिसे बोला था कि हैदराबाद जाने वाली ट्रेन जिस साइड होगी उसी साइड उतारना ) भला बुरा कहते हुए अपनी सीट पर पसर गया।
बॉगी में ए.सी. ऑन थी या नहीं, उसकी परवाह किए बग़ैर मैंने पंखे को अभी ऑन किया ही था कि पीछे की किसी सीट से एक सज्जन मेरे पास आए। उन्होंने अंगरेज़ी में वार्तालाप करना शुरू किया। यह कोई नई या अचरज की बात नहीं थी मेरे लिए। अन्य भाषाओं के जानते हुए भी अंगरेज़ी इसीलिए तो बोली जाती है कि सामने वाले पर आपके सभ्य, बुद्धिजीवी, और पढ़ेलिखे ओहदेदार होने का रौब जमे। उन दिनों इस तरह की अंगरेज़ी बोलने वाले अधिकांश यात्री, यानी हमारे देश के शासन तंत्र (ब्यूरोक्रेसी) को चलाने वाले रहनुमा, ए.सी-II में ही सफ़र करते थे (आपका यह खादिम भी उसी तंत्र का एक मुलाजिम था), क्योंकि तब सिक्स्थ क्या फ़िफ़्थ पे कमीशन भी नहीं आया था। आज तो सिक्स्थ पे कमीशन का ज़माना है, ए.सी-II वाले मुसाफ़िर टर्मिनल थ्री की ओर शिफ़्ट कर गए हैं और ए.सी-II में स्थानीय भाषाओं ने अपनी जगह बनानी शुरू कर दी है। ऐसा नहीं था कि तब ए.सी-II में स्थानीय भाषाएं अपनी जगह नहीं बनाती थीं, बनाती थीं, बस उत्तर और मध्य भारत के हिंदी बोले जाने वाले आंचलिक भाषा-भाषी को छोड़कर। शायद शर्मिंदगी ... या कुछ और कारण था।
बहरहाल, अंगरेज़ी में उस सज्जन से जो वार्तालाप हुआ उसका लब्बो-लुआब यह था कि उनकी सीट मेरी सीट से दो-तीन खिड़की छोड़कर है, कि अपना सामान उन्होंने अपनी सीट पर छोड़ रखा है, कि वे हैदराबाद जा रहे हैं, कि उन्होंने चार्ट (जो बॉगी के बाहर चिपकी है) पर मेरा नाम पढ़ा और उन्हें मालूम था कि मैं भी हैदराबाद जा रहा हूं, कि वे आंध्र प्रदेश राज्य सरकार के सरकारी पदाधिकारी हैं, कि क्लॉक रूम में सामान रख कर वे इंडिया गेट आदि भ्रमण को गए थे, कि वापस क्लॉक रूम में जब वो सामान लेने गए, तो वहां काफ़ी भीड़ और लंबी लाइन थी, कि उस लंबी लाइन में जब वे खड़े अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे, तो किसी ने उनका बटुआ मार लिया था, कि उसी बटुए में उनका सारा पैसा और ट्रेन की टिकट थे, कि उन्होंने पता लगाया है, रेलवे के नियमों के तहत दुबारा टिकट बनवाने के उन्हें ढाई सौ रुपए लगेंगे, कि उन्हें मदद चाहिए।
उन्होंने जब मुझे सोचता पाया तो झट से बोले हैदराबाद स्टेशन पर उनका ड्राइवर उनको लेने आएगा। वे स्टेशन पर उतरते ही मुझे मेरा पैसा वापस कर देंगे। उनकी बातें सुनते वक़्त मैंने डिब्बे में इधर-उधर नज़र दौड़ाई, तो लगा कि उन सज्जन का एकमात्र सहयात्री, उस बॉगी में, अभी तक मैं ही था। दिमाग ने अपनी रफ़्तार तेज़ की, और मुझे सूचित किया कि दिल्ली के क्लॉक रूम से सामान निकालते वक़्त अकसर लंबी लाइन लगी ही रहती है। ... और वहां … आए दिन बटुआ मार ही लिया जाता है। यह सज्जन कोई अपवाद नहीं हैं।
फिर मेरी आंखों ने उन सज्जन की स्कैनिंग की। भाषा तो वे साहबों वाली बोल ही रहे थे, पोशाक भी (सफ़ारी सूट) साहबों वाली पहन रखी थी, मतलब सिर्फ़ चेहरे से ही नहीं उनके पूरे बदन से सहबियत टपक रही थी। इस मामले में, मेरी नज़रों ने मुझे ही धिक्कारते हुए कहा कि तुम ही तृतीय श्रेणी के यात्री लग रहे हो।
फिर मेरे कानों ने कहा कि सुन ही चुके हो ये सज्जन कितनी मोहक अंगरेज़ी बोल रहे हैं। साहबों वाले स्टाइल का जादू, साहबों वाली भाषा का ज़ोर और उस सूक्ति के प्रति मेरे कमिटमेंट ने मुझमें ऐसी हलचल पैदा की कि मैं बिना उनकी ओर देखे अपने बटुए से पांच सौ का नोट निकाल कर उनकी तरफ़ बढ़ा दिए।
उन सज्जन की सज्जनता बोल पड़ी, “इतना नहीं! बस ढाई सौ दीजिए। उसी में टिकट बन जाएगा।” कहते हैं संगत का असर होता है। उनकी सज्जनता संक्रामक थी। मुझसे चिपक कर मुझसे कहवा गई, “रखिए। हैदराबद स्टेशन पर वापस ले लूंगा। रास्ते में खाने-पीने के लिए भी तो आपको कुछ चाहिए।” उस सज्जन ने कृतज्ञता प्रकट करते हुए अंगरेज़ी जैसी शिष्ट भाषा के शालीन नमूने और कई सुने-अनसुने जुमले मेरी शान में पेश कर दिए। मैं उनके द्वारा प्रकट किए गए आभार के भार तले दबा जा रहा था, मानों खुद को उस से बचाने के लिए मुझे कहना पड़ा, “बिना समय गंवाए आप अपनी डुप्लिकेट टिकट बनवा लाइए। बातें और आभार प्रदर्शन हम आगे भी कह-सुन लेंगे। अगले चौबीस घंटे की यात्रा तो हम साथ ही कर रहे हैं।” सज्जन बाहर की ओर लपके, मैं एक लंबी सांस छोड़ता हुआ अपने प्रिय लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक की करिश्माई लेखनी के मायाजाल “पैंसठ लाख की डकैती” के थ्रिल में डूबने-उतराने लगा।
गाड़ी चल पड़ी थी। मैं अपनी हिचक के साथ अपनी तरफ़ से कोई पहल नहीं कर रहा था, पर मन में कहीं न कहीं यह इंसानी लालच तो था ही कि सज्जन आएं और इस ब्रेक के बाद स्टाइल में अपने आभार प्रदर्शन के वाधित सुरों को फिर से आगे बढ़ाएं। वो न तो दिखे, न आए ही। गाड़ी आगरा क्रॉस कर रही थी। अब मैंने आंखों-आंखों में ही अन्य सीटों की टोह लिया। फिर भी न दिखे। शायद बाथ रूम में हों। उनके बताए सीट संख्या बीस पर गया। खबर ली, सीट पर उनके द्वारा बताए नाम के सज्जन ही थे, पर वो नहीं। हैदराबाद भी आ गया। उन सज्जन को न तो आना था, न वो आए ही। उनकी सज्जनता के संक्रमण ने मुझे मुर्गा बना डाला था, और मैं हलाल भी किया जा चुका था।
उस घटना को आज फ़ुरसत में याद करते हुए मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि ऐसे ज़रूरतमंद इंसानों के लिए, ऐसे मदद मांगने वालों के लिए, अपने दिल में “प्यार” बोऊं या “नफ़रत”। इसी सप्ताह बुधवार को करण की “स्मृति-शिखर से” वाली “रहिमन वे नर मर चुके...” पोस्ट ने तो मेरी दुविधा और बढ़ा दी है। उस पर से आप तो जानते ही हैं कि
“दिल से ज़्यादा उपजाऊ जगह और कोई नहीं है – क्योंकि यहां कुछ भी बोया जाए बढ़ता ज़रूर है --- फिर वो “प्यार” हो या “नफ़रत”।”
आज फ़ुरसत में दिल की खेती करने चला हूं। मेरी उलझन अभी तक मिटी नहीं है। आप ही मेरी मदद कीजिए और मुझे बताइए कि मैं ऐसी मदद मांगने वाले ऐसे लोगों के लिए अपने दिल की ज़मीन पर “प्यार” बोऊं या “नफ़रत”??
बुधवार, 25 जनवरी 2012
रहिमन वे नर मर चुके...
स्मृति शिखर से... 4:
रहिमन वे नर मर चुके...
हमारा परिवार अभी तक गाँव में ही रहता है। विगत कुछ वर्षों के महानगरीय जीवन के उपरांत भी वह ‘अल्हड़ गँवई’ मेरे अस्तित्व से भिन्न नहीं हो पाया है या यूँ कहें कि वही मेरा वास्तविक अस्तित्व है। हलाँकि अब तो गाँव में भी शहर बो दिए गए हैं और तेजी से बोये जा रहे हैं किन्तु अभी भी वहाँ कुछ संस्कार अक्षुण्ण हैं। एक आत्मीयता है, उद्गार है, प्राकृतिक जीवन शैली है... हाँ ईर्ष्या-द्वेष भी है, लोभ-लालच भी है किन्तु आनुपातिक और अपेक्षित दृष्टि से कम। भले जीर्णा ही सही... भारतीय संस्कृति के दर्शन वहाँ आप अधुनैव कर सकते हैं। जीवन-मूल्यों का पूर्ण लोप अभी नहीं हुआ है वहाँ।
मेरे पिताजी उसी तरह हैं जैसे रेवाखंड का कोई भी सामान्य ग्रामीण। श्रमसाध्य, निष्कपट, धर्मावलंबी, सनातन मूल्यों के प्रति आस्थावान, माता-पिता-गुरु और श्रेष्ठ जनों का सम्मान करने वाले, जो मिल गया उस में प्रसन्न रहने वाले, क्रोध में ‘कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं और काचे घट जिमि डारौं फोरी।’ और प्रसन्न होने पर ‘एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा....!’ आर्थिक विपन्नता के बावजूद ‘साधु न भुखा जाए’ की प्रवृति दृढ़ रही।
नित्य प्रातः ‘आपदानां हर्तारं... लोकाभिराम-रामं... नमामीशमीशान निर्वाणरूपं’ पढ़ते हैं। रात को सोने से पहले ‘हमसे भी पढवाते थे, ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:...।’ जीवन में उतारने का प्रयास भी रहा होगा...। समय मिलते ही ‘नितिश्लोका:’ और ‘सुभाषितानि’ के श्लोक, तुलसी, रहीम, कबीर के दोहे साखियों के अर्थ-भावर्थ समझाने लगते थे। बाल्यावस्था में ये सूक्तियाँ बहुत सरस और श्रेष्ठ लगती थी।
पुश्तांतर से विचारांतर आना स्वाभिक है। माध्यमिक कक्षाओं में सामंतवादी प्रथा के गुण-दोष, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद का अंत, साम्यवाद का उदय आदि का आंशिक परिचय के बाद महाविद्यालय तक पहुँचते-पहुँचते अनेक विचारधाराओं से भेंट हो जाती है। वर्ग-भेद, वर्ण-भेद, सर्वहारा, शोषक, शोषित इत्यादि शब्दों का गढ़ित अर्थ समझ में आने लगता है। प्रगतिशील युवा-मन ‘क्रांति’ का सूत्रधार और समाज-सुधार का अग्रदूत बनने के सपने देखता है। उम्र के अस्थाई परिवर्तन के साथ-साथ विचार और आस्थाओं में तीव्र किन्तु अस्थाई परिवर्तन आते जाते हैं। स्थाई रहती है तो बस कौतुहल और विनोद-प्रियता।
श्रमिकों के एक-एक बूंद पसीने का हिसाब होता है। कृषक-समुदाय को ॠण भी दुष्कर मगर पंडे-पुजारी-भिखारी मुफ़्त की मलाई पर उदर-देव बने फिरते हैं। इनकी मुफ़्तखोरी जीडीपी और अर्थ-व्यवस्था के लिए अनर्थकारी है। मैं ने ऐसे हट्ठे-कट्ठे पहलवानों को कभी भीख न देने का प्रण कर लिया था।
वह रात्रि का दूसरा प्रहर था। मैं और मेरे कुछ मित्र बच्चों को शाम का ट्युशन देकर स्टेशन चौक स्थित ‘आम्रपाली होटल’ में ‘सात रुपए में भर पेट भोजन’ कर रहे थे। एक नेत्रहीन भिखारी वहाँ आता है। किन्तु अभी वह याचक नहीं ग्राहक है। वह कैशियर के पास अपना कटोरा नहीं खनकाता... बल्कि हमारे बराबर वाले मेज पर अपना डंडा-कमंडल टिकाकर मद्धिम स्वर में ‘मुर्गा-भात’ का आर्डर देता है। हमलोग हतप्रभ हो जाते हैं। वह मुफ़्त में नहीं खाता पूरे पंद्रह रुपए चुकाता है। हमारा आश्चर्य बढ़ता जा रहा है।
मांसाहार के उपरांत वह निकलता है... स्टेशन के पास ही भिखारियों की बस्ती है। मगर उसके कदम विपरीत दिशा में बढ़ रहे हैं। ओह... बेचारा नेत्रहीन है च...च...! हमलोग सहायता के लिये बढ़ते हैं। किन्तु वह तो अनवरोध बढ़ा जा रहा है। लोहे के सिखंचों से घिरे एक दूकाननुमा जगह पर वह रुकता है। उपर काष्ठ-पट्ट पर लिखा है, “रिम-झिम – अँगरेजी, मसालेदार शराब की दूकान”। जिस विश्वास के साथ वह बंधी मुट्ठी छोटी-सी लेन-देन खिड़की के अंदर करता है, उससे हमें उसकी नेत्रहीनता पर शंका होती है। फिर उसी लेन-देन खिड़की से वह हाथ बाहर करता है। इस बार मुट्ठी बंधी नहीं बल्कि हथेली पर पीले द्रव्य से भरी एक शीशी है जिसपर चिपके श्यामपत्र पर अंकित है, “अधिकारी की पसंद”।
अब तक करुण भाव तिरोहित हो चुके थे। कौतुहल और क्रांति एक साथ सर उठाने लगे थे। आखिर हम पूछ ही बैठे, “क्यों सूरदास जी, मुर्गा... दारू...! क्या बात है?” वह हमारी बातों से चिढ़ता नहीं बल्कि तर्कपूर्ण उत्तर देता है, “क्या करें बाबू साहब ! सुबह से शाम तक ‘ई उ टरेन-बस, समस्तीपुर-दरभंगा’ करते-करते थक कर चूर हो जाते हैं। रात में एकाध पैग नहीं देंगे तो फिर कल उठा ही नहीं जाएगा...।”
उस दिन हमें ज्ञात हुआ कि भीक्षाटन भी कम श्रमसाध्य नहीं है। शरीर और मन दोनो को कठोर बनाना पड़ता है। संभवतः निर्लज्ज भी। अन्यथा दो जगह झिड़की मिल जाए तो तीसरी जगह जाने की हिम्मत ही न हो...! धन्य हैं वह एकसाध्य श्रमरत जीव जो आलोचना, तिरस्कार, गाली-झिड़की से अप्रभावित अपने ‘कर्म’ पर दृढ रहते हैं। लोग आए तो कारवां बनता गया नहीं आए तो ‘एकला चलो...!’
खैर इस घटना ने हमें समाज-सुधार का अवसर और मार्ग भी दे ही दिया था। हमने गाँव आकर ‘भिखारी भगाओ आंदोलन’ का शंखनाद कर दिया। हमारी युवक-मंडली मेरे हर निर्णय से अनायास ही सहमत रहती है। तीन-चार दिनों से चल रहे इस अभियान का पता मेरे पिताजी को तब चला जब डाकखाने में रविवार की छुट्टी हुई। दोपहर एक भिखारी को मैंने कठोरतापूर्वक लौटा दिया था। पिताजी की आस्था आहत हो गई थी। अपनी आँखों से अपनी संतान में शाश्वत मूल्यों का ह्रास देख काफ़ी क्षोभ हुआ था। बहुत ही व्यथित स्वर में मुझे बचपने में पढ़ाए गए रहीम के दोहे याद दिलाया था उन्होंने, “रहिमन वे नर मर चुके जे कहिं माँगन जाहिं। उन से पहिले वे मुए जा मुख निकसत नाहिं॥” माँ के बार-बार समझाने पर बड़ी कठिनाई से रात का भोजन ग्रहण किया था उन्होंने। दमित क्षोभ एक-एक ग्रास पर फूट पड़ता था, “द्वार से साधु को लौट दिया...! आज इस परिवार की परंपरा टूट गई। संस्कारों का पतन हो गया... मानवता मर गई... उनसे पहिले वे मुए जा मुख निकसत नाहिं!”
पिताजी के खेद को कम करने की गरज से मैंने वचन दिया था कि अब द्वार पर आए किसी भी याचक को ‘नहीं’ नहीं कहूँगा। उन्होंने यह भी वचन लिया कि सबसे सविनय और सप्रेम व्यावहार करूँगा। बड़ा मजा आया था पिताजी को वचन देने में। मैंने “बाय टू, गेट वन फ़्री” की तर्ज़ पर पिताजी को तीसरा वचन भी दे दिया, “मैं इन वचनों का अक्षरशः पालन करूँगा।” फिर सब कुछ सामान्य होता रहा था।
कुछ दिनों बाद फिर से एक याचक देवता का आगमन हो गया। मैं भोजन कर रहा था। पिताजी घर पर नहीं थे किन्तु उनको दिए वचन मुझे अक्षरशः याद थे। भोजन करते हुए ही मैंने बाबाजी का अभिवादन किया और दालान पर आसन-ग्रहण करने का अनुरोध भी। बाबाजी ने आशीषों की झड़ी लगा दी। बाबाजी दालान पर देवी-देवताओं की स्तुती कर रहे थे। बीच में गृहवासियों की जयकार भी जयकार भी कर देते थे जो यह बात का संकेत होता था कि उन्हें कुछ देकर विदा किया जाए। माँ ने बाबाजी से थोड़ा रुकने का आग्रह किया। हमारे गाँव में यह मान्यता है कि जब घर के पुरुष-पात्र भोजन कर रहे हों तो भिक्षा नहीं दी जाती। माँ के सविनय अनुरोध पर बाबाजी प्रफ़्फ़ुलित हो विद्यापति का गीत गाने लगे।
मेरा भोजन समाप्त होने को आ गया था। मुझे एक युक्ति सूझी। हमारा अभियान भी नहीं टूटेगा और पिताजी को दिया हुआ वचन भी। मैंने यथासंभव सुस्पष्ट स्वर में माँ से कहा, “माँ...! वो जो आंटा है, जिसमें तुमने चूहे मारने की दवा मिला रखी है, वो बाबाजी को दे दो ना...!” माँ ने अपनी जीभ दाँतों के बीच दबा लिया था। अकस्मात बाहर से बाबाजी के गीत का स्वर भी आना बंद हो गया था। मैं ने बाहर निकल कर देखा जटा-जूट-छाप-तिलक-कमंडल धारी एक सज्जन बाँए कंधे में एक लंबी सी झोली और दाँए हाथ में पलास्टिक के पादुका उठाए द्रुत वेग से भागे चले जा रहे हैं। माँ पीछे से पुकारती रही थी मगर वे उनके अनुरोध को अनसूना कर चलते बने।
मूक माँ की प्रश्नवाचक दृष्टि पूछ रही थी, “ये क्या किया...? पिताजी का वचन...?” मैंने बड़ी सरलता से समझा दिया, “हाँ...! मैंने तो याचक को ‘नहीं’ नहीं कहा न...! मैं तो देने की बात कह रहा था, उन्होंने स्वयं अस्वीकार कर दिया तो....इसमे मेरा क्या दोष?” माँ की ममता तो मान गई मगर पिताजी के आदर्श और सिद्धांत...!
माँ ने हँसते हुए पिताजी को बताया था। शायद मैं हँसने की चेष्टा न कर रहा होता तो पिताजी को भी हँसी आ जाती। लेकिन मुझे प्रत्यक्ष पाकर बिफ़र पड़े। उस दिन कई नई उपाधियाँ, नई उपमाएँ, उपनाम और विशेषण मिल गए थे। मुझे भी ऐसा लग रहा था कि चलो कम से कम आज इस विद्या में स्नातक तो हो ही गया। पिताजी का कोप-वाचन भी किसी ‘दीक्षांत-भाषण’ जैसा ही लग रहा था। नैतिक-पतन, उच्च विचार, जीवन-मूल्य, मानव-धर्म... और क्या-क्या... बड़ी-बड़ी बातें।
रात का भोजन माँ ने अंगीठी के पास ही लगाया था। पिताजी मौन थे। मैंने अपने इस अभियान की पृष्ठभूमि स्पष्ट किया। फिर पिताजी “बाबा भारती और खड़ग सिंह” वाली कहानी का सारांश समझाने लगे। एक भिखारी ने अनुचित किया तो तुम उसकी सजा पूरे समाज को दोगे...अगर एक यादृच्छ चयन तुम्हारे निर्णय का आधार है तो तुमने जो भद्दा मजाक किया है उससे पूरे सभ्य-समाज की पहचान की जानी चाहिए? क्या यह समझा जाए कि इस गाँव के लोग विष-मिला खाद्य भिखारियों को देते हैं...? बात सिर्फ़ दो रुपए या पाव भर आंटे की नहीं हमारे आचरण की है। जिस प्रकार तुमने एक भिखारी के आचरण से उस पूरे समुदाय को धुर्त मान लिया उसी प्रकार तुम्हारे इस नीच परिहास से हमारा समाज कलंकित नहीं हो जाएगा...? इसीलिए हमें अपने आचरण के प्रति सदैव सचेष्ट रहना चाहिए।”
मैं ने अनेक उदाहरणों के साथ कहा कि “अधिसंख्य भिखारी ऐसे ही हैं... वे हमारे विश्वास और दान दोनों का दुरुपयोग करते हैं।” खाने की थाली पर ही पिता जी की अगली कहानी शुरु हो गई, “साधु और केंकड़े” वाली कहानी। तात्पर्य यह कि यदि हम श्रेष्ठ मनुष्य हैं तो अपनी आदत और अपना कर्तव्य क्यों छोड़ दें? मेरा कहना था कि देश-काल के अनुसार आचरण में परिवर्तन भी आवश्यक होता है। भोजन के बड़ी देर बाद तक भी हमारे बीच तर्क-वितर्क चलता रहा। अंततः अनिर्णित समाप्त हुए इस वाक-युद्ध में हम इस बात पर सहमत हुए कि हम भले किसी को कुछ दें या न दें...किन्तु कटु-वचन तो नहीं ही कहें। ऐसा मज़ाक न करें जिससे व्यक्ति या समाज की साख को आघात पहुँचे। आखिर चरण से तो पशु भी चलते हैं, यदि मनुष्य आचरण से नहीं चला तो फिर दोनों में क्या अंतर है?
चित्र : साभार गूगल सर्च
सोमवार, 23 जनवरी 2012
ऐसा ही बचा हुआ गाँव है
मंगलवार, 17 जनवरी 2012
स्मृति शिखर से… 3 : गोली बंदूक कुछ नहीं समझता है।
सोमवार, 16 जनवरी 2012
लौट आए फिर सुए
लौट आए फिर सुए
श्यामनारायण मिश्र
छोड़कर
पर्वत, पवन, पानी
टपकते रस भरे महुए।
पींजरों में लौट आए
लौट आए फिर सुए।
समय
साथी
सोच
सुख की
नित नई अनुभूतियां।
नदी
निर्झर
नीड़
मौसम की
नई आठखेलियां
तोड़कर
नवजात किरणों के
महकते अंखुए!
शनिवार, 14 जनवरी 2012
फ़ुरसत में .. मुसकराहट बिखेरने की प्रैक्टिस
फ़ुरसत में .. 89
मुसकराहट बिखेरने की प्रैक्टिस
कुछ दिनों से रोज़ उसे देख रहा हूँ। मेरे दफ़्तर में घुसते ही वह कुछ विशेष रुचि से मुझे देखती है। आज भी ज्यों ही दफ़्तर की सीढ़ियाँ चढ़ता हूँ, उस पर नज़र पड़ती है। वह मुसकराती है। ‘जिगर’ का एक शे’र मन में कौंधता है,
मेरे चुप रहने पै क्या वो बाज़ रहते छेड़ से,
मुसकरा कर देखते फिर मुसकरा कर देखते।
मैं ऐसी मुसकराहटों का आदी हो गया हूँ। काम के सिलसिले में कई मल्टीनेशनल कंपनियों और अन्य दफ़्तरों में आना-जाना लगा रहता है। ऐसे दफ़्तरों की रिसेप्शनिस्ट लड़कियाँ मुसकराती हैं। जब भी फ़्लाइट से कहीं आता-जाता हूँ, तो एयरहोस्टेस मुसकराती हैं। खुदा न ख़ास्ता जाते वक़्त रास्ते में तथाकथित वर्जित “एरिया” से गुज़रना पड़ा, तो वहाँ के कुछ अजनबी चेहरे मुसकराते हैं। बड़े-बड़े मॉल की दुकानों की सेल्स गर्ल्स मुसकराती हैं। व्यापार जगत या मार्केट के दलाल मुसकराते हैं। यहाँ तक कि वोट माँगने आया नेता मुसकराता है। … सबकी मुसकान एक-सी ही होती है।
मुझे अपने बॉस की बातों में कोई दम नज़र नहीं आता, जो मुझसे अकसर कहता है, “अन्य व्यक्ति को तुम कम से कम एक मुसकान तो दे ही सकते हो --- प्रेम और आनंद से भरी मुसकान।”
खैर मैं बात ‘उसकी’ कर रहा था। उसकी मुसकान पर ध्यान दिए बिना, उसके चेहरे पर झुक आए बालों के बीच से निकल रही चाँदनी की तरह की मुसकान की परवाह किए बग़ैर, चेहरे को निर्विकार बनाए हुए मैं आगे बढ़ा जाता हूँ। मेरे इस आचरण से वह मुझे कठोर समझ सकती है, ......समझे। समझा भी हो तो…..... इससे मुझे फ़र्क़ क्या पड़ता है? शायद उसके मन में यह भी आया हो कि यह (मैं) आदमी रह ही नहीं गया। पत्थर है, पत्थर! हो भी गया होऊँ, तो भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। शेक्सपियर ने सही ही कहा है, “One may smile, and smile and be a villain.’’ (यह संभव है कि व्यक्ति मुसकराता रहे और मुसकराता रहे और दुष्ट रहे।)
मैं लिफ़्ट की ओर लपकता हूँ। लिफ़्ट में कॉलीग मिलते हैं। वे मुझे देखकर मुसकराते हैं। मुझे प्रेमचंद की याद आती है, जिन्होंने कहा था, “नहीं सह सकता उनकी मुसकान, जो अपने बराबर के हैं, क्योंकि उनकी इस मुसकराहट में ईर्ष्या, व्यंग्य और जलन है।”
तेज़ क़दमों से चलते दफ़्तर में घुसता हूँ, तो सबसे पहले अर्दली दफ़्तर का दरवाज़ा खोलते हुए --- “सलाम साहब!” की रोज़ाना दुहराए जाने वाली औपचारिकता पूरी करते हुए मुसकराता है। उसके अभिवादन का सिर हिलाकर जवाब देते हुए मैं आगे बढ़ता हूँ। अपनी सीट पर बैठा पी.ए. मुझे देख कर मुसकराता है। दफ़्तर के कमरे में जब आता हूँ और अपनी कुर्सी पर बैठता हूँ तो पाता हूँ कि कल की डाक मुसकरा रही है, अभी-अभी आए फैक्स मुसकराते हैं, सारी अनक्लियर फाइलें मुसकराती हैं, यहां तक कि साइड टेबुल पर पड़े अख़बार मुसकराते हैं। इन सारी मुसकराहटों का जवाब देते-देते मेरी ही मुसकराहट ग़ायब हो जाती है। मैं धीरे-धीरे सख़्त होता जाता हूँ – सख़्त .. पत्थर की तरह ? हर उस आगन्तुक की मुसकराहट देखकर मुझे लगने लगता है कि वे अपनी मुसकान के बदले मुझसे कोई जायज-नाजायज काम लेना चाहते हैं। मैं और सख़्त हो जाता हूँ। हर मुसकराहट के बदले मेरे इस तरह से सख़्त-से-सख़्त होते जाने को पत्थर ही तो कहा जा सकता है, -- कहलाता भी हूँ। हूँ भी, कह नहीं सकता।
विलियम कान्ग्रीव ने सही ही कहा है, “मनुष्य के लिए मुसकराने से अधिक अशोभन कुछ नहीं है।”
कलाई पर नज़र डालता हूँ, घड़ी नहीं है। शायद पहनना भूल गया। दीवार घड़ी की ओर देखता हूँ, वह भी नदारत है, रिपेयर में होगी। वक़्त क्या हुआ है, जान नहीं पाता। वक़्त समझ भी नहीं पाता। क्या वक़्त होगा अभी ? ........कैसा वक़्त है ? .........छोड़ो, क्या फ़र्क़ पड़ता है? मन में महाभारत की पंक्ति आती है, “न कालस्य प्रियः कश्चिन्न द्वेष्य कुरुसत्तम”। काल या समय या वक़्त के लिए न तो कोई प्रिय है और न कोई द्वेष्य … मेरे लिए किसी की मुसकराहट न प्रिय है, न द्वेष्य!
अपनी सोच और समझ को नई दिशा देता हूँ। डाक पैड की ओर झाँकता हूँ। डाक में नए साल के बहुत से ग्रीटिंग्स कार्ड हैं। अभी भी लोग अपनी मुसकराहट समेट कर ग्रीटिंग्स में भरकर भेज रहे हैं। मैं उन्हें बिना देखे दराज में रख देता हूँ। उस दराज में वे अन्य सभी काग़ज़ात और फाइलें हैं, जिन्हें मुझे क्लियर करना ही नहीं है।
यदि फूल सूखा आज तो, मुरझाएँगी कल को कली।
सब काल के हैं गाल में, यह काल है सबसे बली॥
कौन ग्रीटिंग्स पर ध्यान दे? अगले साल का बजट एस्टीमेट बनाना है। प्रगति रिपोर्ट की समीक्षा करनी है। यूनियन से मीटिंग भी तो है ! वहाँ पर सारे नेताओं से मैं सख़्त चेहरे से नहीं मिल सकता। मुझे अपने चेहरे पर मुसकान रखनी होगी। अपने-आपको फ़ुरसत में पाकर मैं मुसकराहट बिखेरने की प्रैक्टिस करने लगता हूँ। मेरी इस हरकत पर आप कह रहे होंगे - ये क्या मज़ाक़ है? अजी ….......
सलीक़े का मज़ाक़ अच्छा, करीने की हँसी अच्छी,
अजी जो दिल को भा जाए वही बस दिल्लगी अच्छी।
गुरुवार, 12 जनवरी 2012
आंच-104 : ग़ज़ल (जंजाल आते हैं)
आंच-104
ग़ज़ल (जंजाल आते हैं)
श्री संजय मिश्र ‘हबीब’ ब्लॉग जगत में काफी जाना पहचाना नाम है. सेक्युलर बयार में आप भी अपना नाम एस. एम्. हबीब (संजय मिश्र हबीब) लिखते हैं. जिसे जैसा लगे उसी के मुताबिक़ अपनी राय बना ले या सूरत गढ़ ले. बड़े सधे हुए साहित्यकार हैं और गज़ल, कविता और कहानियों पर बराबर दखल रखते हैं. गज़लें कहना इनकी खासियत है और ब्लॉग पर गज़ल प्रकाशित करने का इनका ढंग भी निराला है. वास्तव में गज़ल पढते वक्त सबसे पहले लोगों के सामने यह समस्या होती है कि गज़ल की बहर क्या है. जिसके कारण बाज मर्तबा लोगों को गज़ल पढने में परेशानी का सामना करना पडता है. हबीब साहब, गज़ल की शुरुआत से पहले बहर की बाबत इत्तिला दे देते हैं, ताकि गज़ल कहने वाले और पढ़ने वाले के बीच मतले से ही रिश्ता सा कायम हो और गज़ल का मज़ा बरकरार रहे.
यह गज़ल बहरे हजज मुसम्मन सालिम मफाइलुन/ मफाइलुन/ मफाइलुन/ मफाइलुन बहर में कही गयी है. इस बहर में गज़ल कहने पर एक सुविधा रहती है कि अपनी बात कहने के लिए समुचित जगह मिल जाती है. और यही इस गज़ल (जंजाल आते हैं) की सुंदरता भी है. यहाँ शायर ने अपनी बात बहुत खुलकर लोगों के सामने रखी है.
विदेशी बेचने हमको, हमारा माल आते हैं,
हमारी जान की खातिर बड़े जंजाल आते हैं.
गज़ल का मतला बहुत ही सामयिक है और देश के एक ज्वलंत मुद्दे की और इशारा करता है और तुरत बाद अगला शेर देश की राजनैतिक व्यवस्था पर व्यंग्य करता हुआ दिखाई देता है. एक ओर वॉलमार्ट और दूसरी ओर भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने वाले के खिलाफ जांच शुरू कर देना, आज के दौर की सचाई है जो इन दोनों शेर में खुलकर सामने आई है.
रहो खामोश अपने देश की बातें न करना तुम,
जुबां खोली अगर, माजी तिरा खंगाल आते हैं ।
गज़ल की परम्परा के अनुसार मतला देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल होता है कि गज़ल का मिज़ाज कैसा है. लेकिन आजकल जिस तरह गज़लें कही जा रही हैं उनमें कमोबेश एक तरह की ही बात को सारे अशार में कहने का चलन है. जैसे सरकार की नाकामी, मुल्क की बदअमनी, फिरकापरस्ती या साम्प्रदायिक सद्भाव. ऐसे में यहाँ पर अलग-अलग भावों को अशार में पिरोने की कोशिश की गयी है. लेकिन अंतर में एक व्यथा, एक पीड़ा, एक कसक कहीं है जो पूरी गज़ल में स्पष्ट है. कारण यही है कि समाज में जो माहौल बन रहा है वहाँ शायद ऐसी ही फिजां बन गयी है. शायर ने भी वही महसूस किया है कि लुटेरे मेहमानों की तरह आ रहे हैं, रहनुमा झूठे सपने दिखाए जा रहे हैं, मरे इंसान की खाल तक नोची जा रही है, इंसानों को कंकाल बनाया जा रहा है उनका सबकुछ निचोडकर और फिर से एक गुलामी का दौर आ गया या आने वाला है. बातें अलग-अलग कही हैं हबीब साहब ने, लेकिन उन सब बातों में अंडरकरेंट एक ही है- बदहाली. उनके कहने का अंदाज़ सादगी से भरा है, जो उनकी ग़ज़लों की खासियत रही है.
सभी मिहमान को हम देव की भांती बुला लेते,
लुटेरे भी अगर आये बजाते गाल आते हैं ।
गज़ल कहने की एक और महत्वपूर्ण ज़रूरत यह है कि गज़ल सिर्फ दिल से नहीं कही जा सकती. दो मिसरों में कही गयी बात की सार्थकता इसमें नहीं कि बात दिल से निकले, बल्कि इसमें है कि दिल तक पहुंचे. बिना चीरा लगाये सर्जरी करने वाली बात. पहला मिसरा कहे जाने तक यह गुमान भी नहीं होता कि अगला मिसरा कौन सा मोड लेगा और जब कहा जाए तो आप हैरत में पड़ जाते हैं. वज़ह इतनी कि आपको अनुमान भी नहीं होता कि बात यूँ कही जायेगी. यहाँ आश्चर्य पैदा करने वाला तत्व नहीं दिखाई पड़ता है. मगर बयान में नयापन है जो बाँध लेता है और वाह कहने पर मजबूर करता है.
मशीनों की नई इक खेप बस आने ही वाली है,
उधर इनसान डालो तो इधर कंकाल आते हैं ।
लफ़्ज़ों की बाबत यह कहना होगा कि जितनी आसानी से ‘जंजाल’ कहा गया, उतनी आसानी से ‘खंगाल’ या ‘विकराल’ नहीं कहा जा पा रहा है. ये दोनों शब्द जिन मिसरों में आये हैं उनमें एक रुकावट आ रही है. गज़ल में गहरी बात भी कोमल लफ़्ज़ों में कहने का रिवाज़ है और यही इस विधा की खूबसूरती है. अंत में एक और त्रुटि की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है, “टेढ़े चाल” और “उनके खाल” के स्थान पर ‘टेढी चाल’ और ‘उनकी खाल’ होना चाहिए क्योंकि चाल और खाल दोनों स्त्रीलिंग शब्द हैं. ऐसे प्रयोग गज़ल पर शायर की पकड़ ढीली होने का संकेत करते हैं, जहां प्रतीत होता है कि लफ़्ज़ों को जबरन बिठाया जा रहा है.
कुल मिलाकर संजय मिश्रा ‘हबीब’ साहब की गज़लें आनंदित करती हैं, नई सोच को जन्म देती हैं और गज़ल की मांग के साथ इन्साफ करती हैं.
बुधवार, 11 जनवरी 2012
"स्मृति शिखर से... 2 : मैं हूँ मोहम्मद सगीर
"स्मृति शिखर से... 2
मैं हूँ मोहम्मद सगीर
सोमवार, 9 जनवरी 2012
उदासी के धुएं में
उदासी के धुएं में
श्यामनारायण मिश्र
लौट आईं
भरी आंखें
भींगते रूमाल-आंचल
छोड़कर सीवान तक तुमको,
ये गली-घर-गांव अब अपने नहीं हैं।
अनमने से लग रहे हैं
द्वार-देहरी
खोर-गैलहरे
दूर तक फैली उदासी के धुएं में।
आज वे मेले नहीं
दो चार छोटे घरों के
घैले घड़े हैं
घाट पर प्यारे प्यासी के कुएं में।
खुक्ख
सन्नाटा उगलती है
चौधरी की कहकहों वाली चिलम
नीम का यह पेड़,
चौरे पर शकुन सी छांव अब अपने नहीं हैं।
पर्वतों के पार
घाटी से गुज़रती
लाल पगडंडी
भर गई होगी किसी के प्रणय फूलों से।
भरी होगी पालकी
फूलों सजी तुमसे
औ’ तुम्हारा मन
लड़कपन में हुई अनजान भूलों से।
झाम बाबा की
बड़ी चौपाल
रातों के पुराने खेल-खिलवाड़ें
वे पुराने पैंतरे
वे दांव अब अपने नहीं हैं।
रविवार, 8 जनवरी 2012
भारतीय काव्यशास्त्र – 97
भारतीय काव्यशास्त्र – 97
आचार्य परशुराम राय
पिछले कुछ अंकों में लगातार वाक्यदोषों पर चर्चा का समापन हुआ। इस अंक से अर्थदोषों पर चर्चा प्रारम्भ हो रही है। आज अपुष्ट, कष्ट, व्याहत और पुनरुक्त अर्थदोषों पर चर्चा की जा रही है।
जब कविता में ऐसे विशेषण या पद प्रयोग किए जाँय जिनकी उपस्थिति न तो काव्य में कोई विशेष अर्थ की सिद्धि कर रही हो अथवा न ही जिनकी अनुपस्थिति से उसमें किसी प्रकार के अर्थ की हानि हो रही हो, वहाँ अपुष्ट अर्थदोष माना जाता है। जैसे-
अतिविततगगन-सरणि-परिमुक्तविश्रमानन्दः।
मरुदुल्लासितसौरभकमलाकरहासकृद्रविर्जयति।।
अर्थात् अत्यन्त विस्तीर्ण आकाश मार्ग में अनवरत चलने के कारण विश्राम के सुख से मुक्त रहनेवाले और पवन जिस कमल-समूह के सौरभ को चारों ओर फैला रहा है, उसको विकसित करनेवाले सूर्य की जय हो (सूर्य उत्कर्षशाली हो)।
उक्त श्लोक में गगन रूपी पथ के लिए अतिवितत (अत्यन्त विस्तीर्ण) विशेषण का प्रयोग जिस अर्थ के लिए किया गया है, गगन शब्द स्वयं वैसा अर्थ देने में सक्षम है। इस पद को हटा देने से भी अर्थ की कोई क्षति नहीं है। अतएव यहाँ अपुष्ट अर्थदोष है।
निम्नलिखित दोहे में भी यही दोष है। यहाँ भी गगन पद के लिए अति बड़े और मयंक के लिए उज्जल विशेषण प्रयोग किए गए हैं, जो अनावश्यक हैं।
उयो अति बड़े गगन में, उज्जल चारु मयंक।
मानव मानिनि मोचिबे हेतु मनहु इक अंक।।
जहाँ काव्य के अर्थ का बोध बड़ी कठिनाई से हो, वहाँ कष्टत्व अर्थदोष होता है। उदाहरण के रूप में निम्नलिखित श्लोक लिया जा रहा है-
सदा मध्ये यासामियममृतनिस्यन्दसुरसा
सरस्वत्युद्दामा वहति बहुमार्गा परिमलम्।
प्रसादं ता एता घनपरिचिताः केन महतां
महाकाव्यव्योम्नि स्फुरितमधुरा यान्तु रुचयः।।
अर्थात् इसमें कवियों की वाणी की अत्यन्त सघन कान्ति के मध्य सहृदयों को काव्यरस का आस्वादन करानेवाली सरस्वती महाकाव्यरूपी गगन में अप्रतिहतत रूप से विभिन्न मार्गों (अभिधा, लक्षणा, व्यंजना आदि विभिन्न प्रकार) से परिमल प्रवाहित करती है (चमत्कार उत्पन्न करती है), अर्थात आह्लादित करती। अतएव उसका रसास्वादन करनेवाले, उसका अनुशीलन करनेवाले कवियों को अन्य (इतर) काव्य (सामान्य काव्य) किस प्रकार आनन्द प्रदान कर सकते हैं।
इस श्लोक का अर्थ आचार्य मम्मट ने वक्रोक्तिजीवितकार आचार्य कुन्तक के अनुसार किया है- कवियों की जिन कान्तियों के मध्य में सुकुमार, विचित्र और मध्यम मार्गों(वक्रोक्ति के तीन साधन) से त्रिपथगा सरस्वती चमत्कार प्रवाहित करती हैं। गम्भीर काव्यों से परिचित वे (किरणें) साधारण काव्य के समान कैसे सुबोध हो सकती हैं।
इसका दूसरे पक्ष में अर्थ किया गया है कि जिन आदित्य की प्रभाओं के मध्य में त्रिपथगा आकाशगंगा बहती है, वे मेघों से आच्छादित होने पर कैसे स्वच्छ हो सकती है।
यहाँ कवि ने अर्थ को बहुत उलझा दिया है। इसका अर्थ निकालने में बड़ी कठिनाई है। अतएव इसमें कष्टत्व या क्लिष्टत्व दोष है।
हिन्दी की निम्नलिखित कविता उक्त श्लोक का थोड़ा परिवर्तन के साथ पद्यानुवाद है। केवल यह भाव देने के लिए कि काव्य के आकाश में मेरी सरस्वती (कविता) सुधा से युक्त होकर प्रवाहित होती है और अन्य कवियों की वाणी मेघ के सदृश है। तात्पर्य यह कि मेरी कविता अन्य कवियों से श्रेष्ठ है। जिन लोगों ने उन साधारण कवियों की ही कविता पढ़ी है, वे मेरी कविता का आनन्द कैसे ले सकेंगे। इस अर्थ का बोध कठिनाई से होता है। अतएव यहाँ भी कष्टत्व या क्लिष्टत्व अर्थदोष है।
कल काव्य के व्योम में है बहती जो सरस्वती शुभ्र सुधा से भरी।
मल दूर हटा, पद शुद्ध करे, क्षण में करके हिय-भूमि हरी।
उसकी मधुता, मृदुता, शुचिता, मन-मोदकरी उसकी लहरी।
लख कैसे सकें वे भला उसको बस देख सके जो घटा घहरी।।
जहाँ कविता में किसी चीज का उत्कर्ष बताकर अपकर्ष दिखाया जाय या अपकर्ष दिखाकर उत्कर्ष दिखाया जाय, वहाँ व्याहत अर्थदोष होता है। निम्नलिखित श्लोक इसका उदाहरण है। यह मालतीमाधव नामक नाटक से लिया गया है। अपनी प्रियतमा मालती के सौन्दर्य का उत्कर्ष बताते हुए नायक माधव की यह उक्ति है-
जयति जयिनस्ते ते भावा नवेन्दुकलादयः
प्रकृतिमधुराः सन्त्येवान्ये मनो मदयन्ति ये।
मम तु यदियं याता लोके विलोचनचन्द्रिका
नयनविषयं जन्मन्येकः स एव महोत्सवः।।
अर्थात् नवीन चन्द्रमा की कला आदि सर्वोत्कृष्ट भले ही हों, इसके अतिरिक्त इस जगत में अन्य पदार्थ भी लोगों के लिए मनमोहक होंगे, जो मन को आनन्द प्रदान करते हैं। परन्तु मेरे लिए तो इस संसार में दिखलायी पड़नेवाली नेत्रों की चाँदनी रूपी मालती ही इस जीवन का महोत्सव है।
यहाँ श्लोक के पूर्वार्ध में जिस चाँदनी को न्यून दिखाया गया है, उत्तरार्द्ध में उसी चाँदनी द्वारा मालती का उत्कर्ष बताया गया है। अतएव इस श्लोक में व्याहत अर्थदोष है।
इसी प्रकार निम्नलिखित दोहे के प्रथम दो चरणों में पहले चन्द्रमुखी कहकर हिमकर (चन्द्रमा) को उसके मुख के समान न कहना और तीसरे तथा चौथे चरण में कमलदृगी कहना, फिर उसके समान एक भी कमल का न भाना व्याहत अर्थदोष है।
चन्द्रमुखी के बदन सम, हिमकर कह्यो न जाय।
कमलदृगी के नैन सम, कंज न एको भाय।।
यह श्लोक वेणीसंहार नाटक से लिया गया है। महाभारत के युद्ध में निर्दयता पूर्वक छल से धृष्टद्युम्न के द्वारा आचार्य द्रोण का वध किए जाने पर उनके पुत्र अश्वत्थामा की यह उक्ति है।
कृतमनुमतं दृष्टं वा यैरिदं गुरुपातकं
मनुजपशुभिर्निर्मर्यादैर्भवद्भिरुदायुधैः।
नरकरिपुणा सार्धं तेषां सभीमकिरीटिना-
मयमहसृङ्मेदोमांसैः करोमि दिशां बलिम्।।
अर्थात् जिन शस्त्रधारी मर्यादारहित नरपशुओं ने यह महापाप किया है या जिसने इसकी अनुमति दी है (अनुमोदन किया है) अथवा जिसने इसे (वध को) देखा है उन सबके, श्रीकृष्ण, भीम, अर्जुन आदि सहित (जिन्होंने धृष्टद्युम्न को वध करने से रोका नहीं) सभी के रक्त, मेद (चर्बी) और मांस से मैं सभी दिशाओं की बलि (पूजा) करता हूँ (करूँगा)।
इस श्लोक के पहले वाले श्लोक में अर्जुन, अर्जुन, भवद्भिः (आपलोगों के द्वारा) कहने के बाद पुनः सभीमकिरीटिनाम् पद में पुनः अर्जुन के लिए किरीटि पद का प्रयोग पुनरुक्त दोष है।
इसी प्रकार निम्नलिखत हिन्दी कविता के प्रथम चरण में विषाण और दूसरे चरण में पुनः शृंग पद का प्रयोग पुनरुक्त दोष का ही उदाहरण है-
कणित मंजु बिषाण हुए कई, रणित शृंग हुए बहु साथ ही।
फिर समाहित प्रांतर भाग में सुन पड़ा स्वर धावित धेनु का।
अगले चार अर्थदोषों पर चर्चा अगले अंक में प्रारम्भ की जाएगी। इस अंक में बस इतना ही।
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शनिवार, 7 जनवरी 2012
फ़ुरसत में ... ऊ ला ला .. ऊ ला ला !
फ़ुरसत में ... 88
ऊ ला ला .. ऊ ला ला !
पहली तारीख़, नए साल का पहला दिन। रात में, देर रात तक, जो नए साल के अवसर पर टीवी पर दिखाए जाने वाले प्रोग्राम देखते-देखते, पुराने साल को बाय-बाय कर सोया था, उसका खुमार भोर तक चढ़ा हुआ था। सुबह-सुबह उठते ही भगवान का नाम लेने की जो पुरानी आदत थी, उसने भी हमें बाय-बाय कर दिया था। आज तो एक ही लफ़्ज़ हमारी जुबान पर चढ़ा हुआ था --- ऊ ला ला .. ऊ ला ला !
रात में हर चैनल पर यही गाना, और इस गाने पर नाचना चल रहा था। सुबह-सुबह उठते ही यह गाना मेरी जुबान पर चढ़ गया। जिधर भी जाता हूं … ऊ ला ला .. ऊ ला ला … करते हुए। किचन में व्यस्त श्रीमती जी के कानों तक मेरा ऊ ला ला .. ऊ ला ला पहुंचता है। निकल कर डयनिंग रूम में पधार चुके मुझ को देखती हैं, फिर वापिस उनके कदम किचन की ओर मुड़ने लग जाते हैं। फिर वो पलट कर देखती हैं। मुस्कुराती हैं। उनके चेहरे पर के भाव को पढ़ता हूं। कुछ अच्छा संकेत देते प्रतीत नहीं हो रहे।
रात को जो नया साल सूचित करने के लिए, 23.59 से 00.00 तक के बीच में टीवी पर घंटी बजी थी, दिमाग में बजती ही रही। और मुंह में से निकला ऊ ला ला .. ऊ ला ला! हालाकि मेरे मन में ऐसा-वैसा कुछ नहीं चल रहा था, फिर भी श्रीमती जी मेरे मन की बातें पढ़ लेती हैं। इसके लिए उन्हें कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। यह शक्ति उन्हें प्राप्त है। आज इस नए साल में कोई नई बात हुई हो, ऐसी भी बात नहीं है। पिछले चौबीस सालों से वो यह करती आई हैं, हमने कभी इसका प्रतिवाद या प्रतिकार नहीं किया है। इसलिए उन्हें अपनी सोच को सच साबित करने की ज़रूरत नहीं पड़ी।
शायद वो सोचती हों कि आज के दिन, चूंकि रविवार है, तो कोई बहाना भी नहीं, अपनी 2003 मॉडल ऑल्टो में घुमाने ले जाएं। इसीका ऊ ला ला .. ऊ ला ला हो रहा हो! मैं एक बार फिर ऊ ला ला .. ऊ ला ला करता हूं। वो मुस्कुराती हैं। चौबीस साल के साथ के बाद यह मुस्कुराहट न ज़्यादा चौड़ी और न ही उतनी नमकीन लगती है।
अपनी शाही सवारी से हम निकलते हैं। चौरंगी, एस्प्लानेड, डलहौजी, महात्मागांधी रोड, चिडिया मोर, डनलप ...! वापसी में गाड़ी पार्क कर जवाहरलाल नेहरू रोड की तरफ़ पैदल बढ़ते हैं। सामने ‘क्वालिटी’ वालों का ठेला है। श्रीमती जी मचलती हैं। मैं मना नहीं कर पाता। वो आइसक्रीम खा रहीं हैं। पास खड़ा मैं सोचता हूं – ये डायबिटिज़, ब्लडप्रेशर --- उफ़्फ़! … न जीने देते, न ही मरने। छह महींने हो गए --- डॉक्टर से भी नहीं दिखाया है। कल ही मिल लेता हूं। शायद आइसक्रीम खाने को कह दे।
पास से तभी एक शव वाहन गुज़रती है। मौत – मृत्यु! क्या है? ... आइसक्रीम खाते वक़्त हम यह सवाल क्यों नहीं करते? तब तो कह देते हैं ... जब आनी है, आएगी! इसके लिए नए साल के मौज़-मस्ती को क्यों बरबाद करूं?
एक मित्र का एस.एम.एस. किया शे’र याद आता है –
जीवन में जोड़ लो चाहे कितने ही हीरे और मोती,
बस इतना याद रखना कफ़न में जेब नहीं होती।
मैं अचानक उदास हो जाता हूं। शायद श्रीमती जी सोचती हों, --- खुशी का वातावरण इसे पसंद नहीं।
पार्क स्ट्रीट की तरफ़ हम बढ़ते हैं। बड़ी भीड़ है। ऊ ला ला .. ऊ ला ला! मैं इस भीड़ का हिस्सा बन जाऊं ... मन में आता है। भीड़ में धंसकर फुटपाथ पर बढ़ता हूं। चलता हूं। अब लगता है मैं फुटपाथ पर आ गया हूं। आह! फुटपाथ से, …. लगता है, लगता क्या है ... है ... फुटपाथ से मेरा परिचय --- पुराना, बहुत पुराना है। इस फुटपाथ और ज़िन्दगी के फुटपाथ में कोई अन्तर नहीं है – अन्तर तो उधर है – फुटपाथ से दूर उस तरफ़ के मकानों में, उनकी ऊंचाई में, गहराई में, उनमें रहने वालों में, उनके मन में, उनकी रहन-सहन में, आदतों में, इरादों में। फुटपाथ पर तो अपनापन है, समरसता है, ज़िन्दगी है, मज़ा है। कोलकाता का हो, या मुम्बई का, दिल्ली का हो या चेन्नई, बेगलुरू का, फुटपाथ सब जगह समान ही है। एक-सा!
एक बार फिर से सामने की अट्टालिका देखता हूं – वह छोटी नज़र आती है। उसमें रहने वाले लोग जो खिड़की से झांक रहे हैं --- हम फुटपाथिए भी तो उन्हें छोटे ही नज़र आ रहे होंगे – हां देखने का नज़रिया होता है – दो तरह का --- दो तरह से चीज़ें देखने में छोटी नज़र आती हैं --- एक दूर से --- दूसरी गुरूर से!
फुटपाथ पर एक साधु बैठा है। लोगों के भविष्य बांच रहा है। लोग उसके चरण छूते हैं। मैं उससे पूछता हूं, -- सबके भविष्य बताते हैं, ... लोग आपको पूजते हैं, पूज्य मानते हैं, -- फिर भी नीचे बैठे हैं ? क्यों ?
वो बोलता है, --- बच्चा ! यह बात याद याद रखो। ... नीचे बैठने वाला कभी गिरता नहीं!
फुटपाथ मुझे रास आता है। यह मुझे मेरे नीचे बैठे होने का अहसास कराता है। सामने की 26 मंजिली इमारत की रोशनी की चमक अब मेरे लिए फींकी है।
... ये मैं क्या सोचने लगा हूं? – फ़ुरसत में जब होता हूं, तो मुझे अपने इर्द-गिर्द इतना कुछ क्यों दिखने लगता है? पीछे से श्रीमती जी आ रही हैं। उनका आइसक्रीम खत्म हो चुका है। खाली डब्बा वो सड़क के किनारे फेंक देती हैं। सड़क पर कारें और टैक्सियां भाग रही हैं। मुझे देखकर श्रीमती जी मुस्कुराती हैं। ऊ ला ला .. ऊ ला ला !