शनिवार, 30 नवंबर 2024

158. शिष्टमंडल के सदस्य के तौर पर इंगलैण्ड रवाना

 गांधी और गांधीवाद

158. शिष्टमंडल के सदस्य के तौर पर इंगलैण्ड रवाना

1906

प्रवेश

उस समय ट्रांसवाल ‘क्राउन कॉलोनी’ (शाही उपिनवेश) था। अतः इसके क़ानून, शासन-प्रबंध आदि के लिए बादशाही सरकार (साम्राज्य) जवाबदेह थी। ट्रांसवाल के भारतीयों के खिलाफ अध्यादेश अभी तक कानून नहीं बना था और इसलिए इसे पारित होने से रोकने के लिए सभी उपलब्ध साधनों का उपयोग करने का समय था। अंतिम उपाय के रूप में, ब्रिटिश सरकार से सीधे अपील करने का निर्णय लिया गया। जो कानून शाही उपिनवेश की धारासभा पास करे उसके लिए ब्रिटिश सम्राट की सहमति ज़रूरी नहीं होती; कई बार अपनी सहमति देने से इनकार भी कर सकता है। इसके विपरीत, उत्तरदायी शासन (रिस्पोंसीबल गवर्नमेंट) वाले उपिनवेशों की धारासभा जो कानून पास करती है, उनके लिए सम्राट की सहमति केवल शिष्टाचार पूरा करने के लिए ही ली जाती थी। ट्रांसवाल एक विकसित उपनिवेश था; राजा अपने मंत्रियों की सलाह पर कानून बनाने से शाही स्वीकृति रोक सकता था।

इंग्लैंड के लिए प्रतिनिधिमंडल

गांधीजी के जोहान्सबर्ग लौटने के तुरंत बाद, भारतीय समुदाय ने फैसला किया कि एक प्रतिनिधिमंडल का इंग्लैंड जाना जरूरी है ताकि यदि संभव हो तो, अंतरिम सरकार द्वारा बनाए गए और पारित एशियाई उपाय को शाही मंजूरी मिलने से रोका जा सके। शिष्टमंडल इंग्लैंड जाए और भारतीयों का पक्ष उपनिवेश सचिव लॉर्ड एल्गिन और भारत सचिव लॉर्ड मॉर्ले के सामने रखे। नेटाल भारतीय कांग्रेस ने भी मिशन पर होने वाले खर्च को पूरा करने के लिए योगदान दिया था। एक प्रतिज्ञा-पत्र बनाया गया जिस पर लोगों ने हस्ताक्षर कर दिए। यह भी निर्धारित किया गया कि इस शिष्टमंडल में सिर्फ़ गांधीजी और हाजी वज़ीर अलीजो एक धनी और प्रतिष्ठित मिनरल-वाटर निर्माता थे, ही जाएंगे। हाजी वज़ीर अली के पिता भारतीय मुसलमान थे और मां मलायी थींजिनकी मातृभाषा डच थी। अली धाराप्रवाह अंग्रेजी और डच बोल सकते थे। अखबारों में पत्र लिखने की कला का भी उन्होंने विकास कर लिया था। उनका ब्याह एक मलायी लड़की से हुई थी। वे ट्रांसवाल ब्रिटिश इंडियन एसोसियेशन के सदस्य थे और लंबे समय से सार्वजनिक कार्य में भाग लेते आ रहे थे।

प्रतिनिधिमंडल रवाना

3 अक्टूबर, 1906 को, वे केप टाउन में आर.एम.एस. आर्मडेल कैसल में सवार हुए। यह एक घटना रहित यात्रा थी, हालांकि गांधीजी को दांत दर्द की शिकायत थी और हाजी वजीर अली को गठिया का गंभीर दौरा पड़ा था। गांधीजी ने उनकी देखभाल की, उन्हें बताया कि उन्हें क्या खाना चाहिए और यह भी सुनिश्चित किया कि वे गर्म और ठंडे स्नान के नियम का पालन करें और सुबह के समय कुछ भी न खाएं। हमेशा की तरह, वे समुद्र में जीवन की शांत, व्यवस्थित दिनचर्या, चालक दल की समय की पाबंदी और विनम्रता, जहाज के अधिकारियों की दक्षता, अंग्रेजी यात्रियों के अनुशासन और अच्छी समझ से बहुत प्रभावित हुए। ट्रांसवाल के कार्यवाहक लेफ्टिनेंट गवर्नर सर रिचर्ड सोलोमन जहाज पर यात्रा कर रहे थे और चूंकि गांधीजी प्रथम श्रेणी में यात्रा कर रहे थे, इसलिए उनसे मिलना और प्रतिबंधात्मक कानूनों के सवाल पर चर्चा करना आसान था। पहले तो सर रिचर्ड भारतीयों के प्रति सहानुभूति रखते दिखे और समस्या की जांच के लिए एक आयोग नियुक्त करने की बात कही, लेकिन फिर उन्हें वे कहानियाँ याद आईं, जिनमें उन्होंने सुना था कि भारतीय अपने मित्रों को बड़ी संख्या में ट्रांसवाल में तस्करी करके लाते हैं और उनका मूड अचानक बदल गया। अगले दिन हाजी वजीर अली ने उनसे मुलाकात की और उन्हें बताया गया कि अगर भारतीय चुपचाप नए कानून को स्वीकार कर लें, तो यह बहुत बेहतर होगा। निराश होकर उन्होंने गांधीजी को ये शब्द बताए, जो इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि कार्यवाहक लेफ्टिनेंट गवर्नर एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति है, जो प्रधानमंत्री बनना चाहता है और इसलिए भारतीयों के लिए कुछ नहीं करेगा, क्योंकि उसे डर है कि दया का कोई भी काम उसके सिर पर कलंक लगा देगा।

लंदन पहुंचे

लगभग 6000 मील की लंबी यात्रा के बाद प्रतिनिधिमंडल शनिवार 20 अक्टूबर 1906 को साउथेम्प्टन पहुंचा। प्रतिनिधिमंडल का वाटरलू रेलवे स्टेशन पर जे.एच. पोलाक, हेनरी पोलाक के पिता, एल.डब्लू. रिच, और दक्षिण अफ्रीका के कुछ भारतीय छात्र जो लंदन में पढ़ रहे थे, से मुलाक़ात हुई । वाटरलू से वे उपनगरीय ट्रेन से हाईगेट पहुंचे। वहां वे होटल सेसिल में ठहरे थे। गांधीजी को लंदन इस बार बहुत महंगा लगा। उनका कहना था, “मैंने सोचा था कि कोई भी व्यक्ति यहां एक पाउंड प्रतिदिन पर रह सकता है, लेकिन मेरा अंदाज़ ग़लत निकला। एक कमरा 12 शिलिंग में मिलता है और नहाने के इंतज़ाम के लिए अलग से पैसे देने पड़ते हैं और ये पैसे एक व्यक्ति के लिए हैं। अगर कोई होटल में खाना लेना चाहे तो उसे 5 शिलिंग देने पड़ेंगे। इसलिए हम लोग शाकाहारी रेस्टॉरेंट में भोजन करते हैं। हम होटल में तभी भोजन करते हैं जब हम किसी मित्र या विशिष्ट व्यक्ति को भोजन के लिए निमंत्रित करते हैं।चूंकि हर कीमत पर यह ज़रूरी था कि प्रतिनिधिमंडल ज़्यादा से ज़्यादा लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करे, इसलिए होटल सेसिल के दो कमरों को दफ़्तरों में बदल दिया गया जहाँ सचिव लगातार टाइपराइटर पर क्लिक करते रहते थे; पत्रों की एक अंतहीन धारा, साक्षात्कार के लिए अनुरोध और घृणित कानून पर घोषणाएँ भेजी जाती थीं। दो अंग्रेज़ सचिवों को नाममात्र के वेतन पर पूर्णकालिक रूप से नियुक्त किया गया; भारतीय छात्रों ने मदद की; लुई रिच, जो गांधी के साथ अनुबंधित थे और अब बार की पढ़ाई कर रहे थे, ने कानूनी सलाहकार और सामान्य नौकरशाह के रूप में काम किया। चालीस दिनों की अवधि के दौरान पाँच हज़ार पत्र भेजे गए। गांधीजी इतने व्यस्त थे कि उनके पास दांत निकलवाने का समय नहीं था। भारत-मंत्री के सामने पेश की जाने वाली अरजी तो उन्होंने जहाज में ही तैयार कर ली थी। इंग्लैण्ड पहुंच कर उन्होंने उसे छपवा लिया।

प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों का चुनाव

ज़्यादातर लोग वहां दूर-दूर रहते थे इसलिए उन्हें ट्रांसपोर्ट पर भी काफ़ी ख़र्च करना पड़ता था। कभी वे ट्रेन से जाते तो कभी बस से। कभी-कभार टैक्सी भी कर लेते। पैदल चलने का तो उन्हें समय ही नहीं मिलता। इतना सब कुछ करने के बाद भी दो लोगों से अधिक से एक दिन में उनकी भेंट नहीं हो पाती। कई बार हाऊस ऑफ कामन्स में घंटों इंतज़ार के बाद किसी मेम्बर से भेंट हो पाती। वे सबसे पहले दादाभाई नौरोजी से मिले और फिर उनके ज़रिए कांग्रेस की ब्रिटिश कमेटी से मिले। वे मंचेरजी भावनगरी से भी मिले। यह तय हुआ कि लॉर्ड एल्गिन के पास जो शिष्टमंडल जाए तो उसका नेता किसी तटस्थ और प्रसिद्ध एंग्लो-इंडियन बनाया जाए तो अच्छा है। इसके लिए सर लेपल ग्रिफ़िन, जो भारत में पूर्व ब्रिटिश प्रशासक थे और कई वर्षों तक लंदन में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन के अध्यक्ष रहे, को चुना गया। गांधीजी सर लेपल ग्रिफ़िन से मिले। सर लेपेल भारत में चल रहे राजनीतिक आंदोलनों के विरोधी थे, लेकिन उन्होंने गांधीजी का अगुआ बनना मंजूर कर लिया। इस शिष्टमंडल में एल्डरले के लॉर्ड स्टेनली, सर चार्ल्स डिल्के, हेनरी कॉटन, सर मंचेरजी भावनगरी , हेरोल्ड कॉक्स, जे.डी. रीस, सर जॉर्ज बर्डवुड, सर चार्ल्स श्वान और दादाभाई नौरोजी भी शामिल थे। गांधीजी समय-समय पर संसद भवन के पास दादाभाई के छोटे से कार्यालय में जाते थे - कार्यालय इतना छोटा था कि दो आदमी मुश्किल से उसमें सीधे खड़े हो सकते थे - और रणनीति पर चर्चा करते थे।

उपिनवेश- मंत्री लॉर्ड एल्गिन से मुलाक़ात

उस समय लॉर्ड एल्गिन उपिनवेश- मंत्री थे और लॉर्ड मोर्ले भारत-मंत्री थे। 8 नवंबर को लॉर्ड एल्गिन के पास शिष्ट मंडल गया। 8 नवंबर को अपराह्न 3 बजे डाउनिंग स्ट्रीट स्थित औपनिवेशिक कार्यालय के व्हाइटहॉल में जब प्रतिनिधिमंडल लॉर्ड एल्गिन से मिलने गया, तो सभी औपचारिकताएँ पूरी कर ली गईं। लॉर्ड एल्गिन ने स्वागत भाषण दिया और उनके करीबी मित्र सर लेपेल ग्रिफिन ने ट्रांसवाल में भारतीयों के लिए मामला प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने ब्रिटिश सरकार से नए अध्यादेश को मंजूरी न देने का आग्रह किया। भारतीयों ने बहुत कुछ सहा है; यह तर्क से परे है कि उन्हें और अधिक कष्ट सहने के लिए कहा जाए। उन्होंने भारतीयों को दुनिया की सबसे व्यवस्थित, सम्माननीय, मेहनती, संयमी जाति, हमारे ही वंश और रक्त के लोग के रूप में वर्णित किया। सर लेपेल ग्रिफिन उन सेवानिवृत्त अधिकारियों में से एक थे जो कभी पूरी तरह से सेवानिवृत्त नहीं हुए। उन्हें भारत से बेहद प्यार था और उन्होंने भारतीय कला और दर्शन के बारे में बहुत कुछ लिखा। वह एक किंगमेकर थे, क्योंकि उन्होंने काबुल के अमीर अब्दुर रहमान के साथ दोस्ती की थी और उन्हें सिंहासन की पेशकश की थी। गांधीजी के लिए इससे ज़्यादा प्रभावशाली कोई नहीं हो सकता था। अध्यादेश के प्रावधानों का सारांश देते हुए सर लेपेल ने कहा, "वास्तव में, यहूदियों के खिलाफ रूसी कानून के अपवाद के साथ महाद्वीप और इंग्लैंड में इसकी तुलना में कोई कानून नहीं है।"

लॉर्ड एल्गिन ने सहानुभूति जताते हुए कहा कि उन्हें इसमें कोई संदेह नहीं है कि वास्तव में कोई शिकायत है, लेकिन उनकी समझ यह है कि भारतीयों का पंजीकरण भारतीयों के लाभ के लिए ही शुरू किया जा रहा है। गांधीजी ने सर लेपेल ग्रिफिन की तुलना में कम जोरदार लहजे में बात की, जान-बूझकर बयानबाजी से परहेज किया। गांधीजी ने आग्रह किया कि ब्रिटिश भारतीयों के साथ ब्रिटिश नागरिकों जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए। ब्रिटिश भारतीय समुदाय के लिए कम से कम एक आयोग नियुक्त करना उचित था जो इसमें शामिल सिद्धांत, मौजूदा कानून की पर्याप्तता और आगे के कानून की आवश्यकता पर विचार करेगा। एक-एक करके समिति के सभी सदस्यों ने अपने विचार प्रस्तुत किए और फिर अंत में बैठक सर लेपेल ग्रिफिन के एक छोटे से भाषण के साथ समाप्त हुई जिसमें उन्होंने राज्य सचिव को इतने धैर्यपूर्वक सुनने के लिए धन्यवाद दिया, "हमें इस मामले में आपकी पूरी सहानुभूति के बारे में पहले ही आश्वस्त किया गया था," एल्गिन ने सारी बातें ध्यान पूर्वक सुनी। अपनी हमदर्दी और कठिनाइयों से शिष्ट मंडल को अवगत कराया। फिर भी जितना हो सकता है करने का वचन दिया।

एल्गिन और किंकार्डिन के नौवें अर्ल विक्टर अलेक्जेंडर ब्रूस एक रंगहीन अधिकारी नहीं थे। वे 1895 से 1899 के बीच भारत के वायसराय थे और बाद में उन्हें दक्षिण अफ्रीकी युद्ध के संचालन की जांच करने के लिए शाही आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। इसलिए उन्हें भारत और दक्षिण अफ्रीका के बारे में बहुत कुछ पता था। गांधीजी को लगा कि उन पर न्यायपूर्ण फैसला देने के लिए भरोसा किया जा सकता है, क्योंकि वे लॉर्ड एल्गिन को न्यायाधीश, खुद को अभियोक्ता वकील और ट्रांसवाल सरकार को कटघरे में खड़ा अपराधी मानते थे। इस मामले में गांधीजी ने गलती की। लॉर्ड एल्गिन के पास कोई न्यायिक शक्ति नहीं थी और ब्रिटिश सरकार का ट्रांसवाल सरकार पर बहुत कम नियंत्रण था।

शिष्टमंडल लॉर्ड मॉर्ले से मिला

22 नवंबर को शिष्टमंडल लॉर्ड मॉर्ले से मिला। जॉन मॉर्ले भारत के लिए राज्य सचिव थे। गांधीजी ने मांग की कि दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की शिकायतों की जांच के लिए एक शाही आयोग नियुक्त किया जाए। जॉन मॉर्ले ने जवाब दिया, "मैं कई वर्षों से संसद में हूं, लेकिन मुझे ऐसा कोई आयोग याद नहीं है जिसने किसी सवाल का समाधान किया हो।" उन्होंने बताया कि कुछ ही महीनों में ट्रांसवाल "जिम्मेदार सरकार" के अधीन आ जाएगा, जिसका मतलब है कि यह अब उपनिवेशों के लिए राज्य सचिव द्वारा लिए गए किसी भी फैसले से बंधा नहीं रहेगा। गांधीजी यह जानते थे, लेकिन फिर भी उन्हें उम्मीद थी कि ब्रिटिश सरकार के भारी दबाव के कारण ट्रांसवाल के शासक अपना रास्ता बदल लेंगे। जॉन मॉर्ले ने वादा किया कि इंडिया ऑफिस मजबूत सिफारिशें करेगा, लेकिन वह इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकते थे।

विंस्टन चर्चिल से मिले

गांधी ने विंस्टन चर्चिल से 27 नवंबर को संपर्क किया, जो उस समय उपनिवेशों के लिए अवर सचिव थे। यह साक्षात्कार गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका रवाना होने से कुछ समय पहले हुआ था। चर्चिल अच्छे मूड में थे, लेकिन उनके पास तीखे सवाल थे और उन्होंने तीखे जवाब दिए। अगर ब्रिटिश सरकार अध्यादेश को अपनी सहमति देने से इनकार कर देती, तो क्या होता? निश्चित रूप से ट्रांसवाल की नई सरकार और भी अधिक प्रतिबंधात्मक कानून पारित करेगी। गांधीजी ने जवाब दिया कि कोई भी कानून वर्तमान कानून से बदतर नहीं हो सकता है, और भविष्य खुद ही अपना ख्याल रख सकता है। यह एक दोस्ताना मुलाकात थी, और चर्चिल ने वह सब करने का वादा किया जो वह कर सकते थे। यह चर्चिल और गांधी के बीच एकमात्र मुलाकात थी।

प्रधानमंत्री सर हेनरी कैम्पबेल बैनरमैन का बयान

एक अधिक आशाजनक संकेत प्रधानमंत्री सर हेनरी कैम्पबेल बैनरमैन की ओर से आया, जिन्होंने उदारवादी संसद सदस्यों के एक प्रतिनिधिमंडल से 27 नवंबर को कहा कि "वे अध्यादेश को मंजूरी नहीं देते हैं और लॉर्ड एल्गिन से बात करेंगे।" मिअली और गांधीजी ने छह सप्ताह की कड़ी मेहनत के बाद पार्लियामेंट के दोनों सदनों के सदस्यों को अपनी बात समझाने की कोशिश की। मिअली की तबियत भी ख़राब हो गई। उन्हें लेडी मार्गरेट होस्पिटल में भरती कराना पड़ा। जब तबियत कुछ ठीक हुई तो वे वापस सेसिल होटल रहने आ गए जहां उनकी तीमारदारी एक नर्स कर दिया करती।

साउथ अफ्रीका ब्रिटिश इंडियन कमिटी का गठन

पोलाक का परिवार लंदन में रहता था। गांधीजी लंदन में हेनरी की मां और उसके पिता जी जे.एचपोलक और उसकी दोनों बहनें मॉड और सैली से मिले। जे.एच. पोलाक की मदद से हाउस ऑफ कामन्स के सदस्यों से भी एक मीटिंग हुई। सर विलियम वेडबर्न ने भारतीय मामलों के लिए हाउस ऑफ कॉमन्स की समिति के लगभग सौ सदस्यों की एक बैठक गांधी से मिलने के लिए बुलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस यात्रा के दौरान गांधीजी ने महसूस किया कि लंदन में एक स्थाई कमेटी (साउथ अफ्रीका ब्रिटिश इंडियन कमिटी) होना चाहिए। लंदन में प्रतिनिधिमंडल के प्रवास के दौरान, यह महसूस किया गया कि प्रवासी भारतीयों के हितों की निगरानी करने और किसी भी संकट में संसद को प्रभावित करने के लिए एक समिति बनाई जाए। इस काम के लिए कम से कम 300 पाउंड का सालाना ख़र्च आता। ये काम तभी संभव था जब ट्रांसवाल का भारतीय समुदाय इतना पैसा जुटा पाता। गांधीजी ने इस दिशा में काम भी शुरू कर दिया। उन्होंने प्रस्ताव रखा कि उनका सहयोगीएल.डब्ल्यू. रिच, जो उस समय लंदन में अपनी पढ़ाई ज़ारी रखे था, लंदन के ऑफिस को संभाल ले। भारतीय समुदाय ने पैसे भी इकट्ठा कर लिया। कुछ हफ़्ते में 40 पाउंड सालाना भारे पर एक ऑफिस ले लिया गया। फर्निचर 25 पाउंड में ख़रीदे गए। एल. डब्ल्यू. रिच को समिति का सचिव, लॉर्ड एम्पथिल को अध्यक्ष और सर मंचेरजी भावनगरी को कार्यकारी समिति का अध्यक्ष बनाया गया।

एक अप्रिय घटना

लंदन में गांधीजी को एक अप्रिय घटना का भी सामना करना पड़ा। डॉ. गॉडफ़्रे की चर्चा हम पहले कर आए हैं। प्लेग के दौरान वे चट्टान की तरह गांधीजी के साथ खड़े थे। उन्होंने हाउस ऑफ कॉमन्स के सदस्यों को भारतीय मूल के क़रीब 427 सदस्यों की तरफ़ से एक चिट्ठी लिखी कि मोहनदास गांधी एक पेशेवर दंगा फ़साद करवाने वाला व्यक्ति हैऔर उसे भारतीय ब्रिटिश नागरिकों की ओर से काम करने के लिए अधिकृत नहीं किया गया है। यह एक गंभीर आरोप था। लेकिन गांधीजी का काम इतना पारदर्शी था कि उन आरोपों का किसी पर कोई खास असर नहीं हुआ। गांधीजी ने ब्रिटिश अधिकारियों को बताया कि डॉगॉडफ़्रे ने यह पत्र खिन्नतावश किया है। दरअसल वे शिष्ट मंडल के सदस्य के रूप में लंदन आना चाहते थे। लेकिन शिष्टमंडल में उनका नाम नहीं था। इसलिए वे नाराज़ हो गए। गॉडफ़्रे के भाई जेम्स और जार्ज, जो उन दिनों लंदन में पढ़ रहे थेने भी अपने भाई के आरोपों का खंडन किया और गांधीजी के साथ खड़े रहे।

टाइम्स ने गांधीजी के पत्र को प्रकाशित की। डेली न्यूज के संपादक ने भारतीयों के पक्ष में एक बहुत ही सशक्त लेख लिखा, जब गांधीजी ने उन्हें भारतीयों के हित के बारे में आश्वस्त किया। ट्रिब्यून, मॉर्निंग लीडर और साउथ अफ्रीका ने उनका साक्षात्कार लिया। इनके अलावा, अन्य पत्रिकाएँ या तो उदासीन थीं या शत्रुतापूर्ण थीं।

दक्षिण अफ्रीका के लिए रवाना

गांधीजी लगभग छह सप्ताह तक इंग्लैंड में रहे और उन्होंने अपने प्रवास के हर एक मिनट का सदुपयोग किया। प्रतिनिधिमंडल का लेखा-जोखा रखने में वे बहुत सावधान थे, उन्होंने स्टीमर पर सोडा पर खर्च किए गए पैसे जैसी छोटी-छोटी रसीदें भी संभाल कर रखीं। लंदन में गांधी के लिए और कुछ नहीं था। 29 नवंबर, 1906 की सुबह गांधीजी ने होटल सेसिल में सुबह की चाय पर आमंत्रित कर उन सभी लोगों का धन्यवाद किया जिन्होंने उनकी मदद की थी, उन सचिवों का जिन्होंने बिना वेतन के काम किया था, उन प्रतिष्ठित अधिकारियों का जिन्होंने राज्य के उच्च अधिकारियों के साथ उनकी कई बैठकों के दौरान उनका साथ दिया था, और फिर 1 दिसंबर, 1906 को स.एस. ब्रिटन द्वारा वे दक्षिण अफ्रीका के लिए रवाना हो गए। जब जहाज़ मदीरा पहुंचा, तो दो टेलीग्राम उसके इंतज़ार में थे। एक लुई रिच का था, दूसरा जोहान्सबर्ग का। दोनों टेलीग्राम में कहा गया था कि लॉर्ड एल्गिन ने अध्यादेश को मंज़ूरी देने से इनकार कर दिया है। यह वास्तव में उनकी उम्मीद से कहीं अधिक था - एक ऐसी जीत जो उन्होंने पहले कभी नहीं जीती थी, और कई वर्षों तक फिर नहीं जीतेंगे। उन्होंने अपनी नोटबुक में लिखा: ईश्वर के मार्ग अथाह हैं। अच्छी तरह से निर्देशित प्रयास उचित फल देते हैं। इस मनोदशा में, चुपचाप उल्लासित होकर, उन्होंने जहाज पर केपटाउन की अगले दो हफ़्तों की यात्रा के शेष दिन बिताए। 18 दिसंबर, 1906 को प्रतिनिधिमंडल केपटाउन में खुशी-खुशी उतरा। गांधीजी और अली खुश थे कि वे जीत गए थे। उन्हें नहीं पता था, और न ही उन्होंने अनुमान लगाया था, कि फल कितनी जल्दी धूल और राख में बदल जाएगा। दरअसल लॉर्ड एल्गिन ने एक 'चाल' चली थी। उसने लंदन में ट्रांसवाल कमिश्नर से कहा था कि राजा पंजीकरण अध्यादेश को अस्वीकार कर देंगे। लेकिन चूंकि 1 जनवरी, 1907 को ट्रांसवाल क्राउन कॉलोनी नहीं रह जाएगा, इसलिए वह शाही मंजूरी के बिना अध्यादेश को फिर से लागू कर सकता है। गांधीजी ने इसे 'कुटिल नीति' करार दिया।

मूल्यांकन

कुछ हद तक प्रतिनिधिमंडल सफल रहा। लंदन में गांधीजी के नेतृत्व में आम जनता का मानस तैयार करने में डेलिगेशन सफल हो गया। गांधीजी ने लंदन में ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों को उस अध्यादेश के रूप में उठाए गए क़दम को असाम्राज्यवादी चरित्र का बताया। ब्रिटिश जनता के सभी वर्गों द्वारा प्रतिनिधियों का बहुत ही विनम्रता से स्वागत किया गया और उनके प्रयासों का परिणाम यह था कि उन्हें यह आश्वासन मिला कि ट्रांसवाल द्वारा अपनी संवैधानिक सरकार बनाने तक शाही कार्रवाई में देरी की जाएगी। लेकिन इंग्लैण्ड में उन्हें ज़बानी हमदर्दी के अलावा कुछ नहीं मिला। ग्रेट-ब्रिटेन की सरकार ने विधेयक पर सम्राट का हस्ताक्षर रोके रखने का खोखला प्रदर्शन किया। वैसे भी वहां की सरकार और एल्गिन को पता था कि कुछ ही दिनों के बाद ट्रांसवाल एक स्वशासी उपनिवेश बन जाएगा और फिर उसकी अपनी विधायिका उस विधेयक को पारित कर देगी। हुआ भी ऐसा ही। गांधीजी के इंग्लैंड जाने के कारण बुरा दिन कुछ समय के लिए ही टला था। जैसे ही अंतरिम सरकार ने संवैधानिक सरकार का स्थान लिया, वही अधिनियम, जिसने एशियाई समुदाय को इतना उत्तेजित कर दिया था, संसद द्वारा एक ही बैठक में पारित कर दिया गया और पुनः राजा के समक्ष प्रस्तुत किया गया। यह विधेयक इतनी जल्दी में पारित किया गया कि इसके प्रावधानों पर चर्चा तक नहीं की गई और यहां तक ​​कि औपनिवेशिक सचिव भी उनसे परिचित नहीं थे। एक दिन में तीन बार पढ़ने के बाद मामला पास हो गया और कुछ ही समय में शाही स्वीकृति दे दी गई। मई 1907 में सम्राट के हस्ताक्षर से वह क़ानून भी बन गया। एक जुलाई1907 से भारतीयों को अपने साथ परमिट रखना अनिवार्य हो गया।

उपसंहार

जेम्स हंट ने अपनी किताब गांधी इन लंदन में लिखा है कि अभिलेखों से पता चलता है कि ब्लैक एक्ट को अस्वीकृत करने का निर्णय बहुत पहले ही ले लिया गया था। लेकिन नए ट्रांसवाल विधानमंडल को इस घृणित अधिनियम को पारित करने का भार उठाने के लिए मजबूर करने के लिए घोषणा में देरी की गई। महामहिम की सरकार को इस बात की कोई चिंता नहीं थी कि दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ क्या हुआ। वे केवल इस बात से चिंतित थे कि महामहिम की सरकार पर कोई आरोप न लगे।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

शुक्रवार, 29 नवंबर 2024

157. ‘काले अध्यादेश’ का विरोध

 गांधी और गांधीवाद

157. काले अध्यादेश’ का विरोध


एंपायर थियेटर जहां प्रवासी भारतीयों की विशाल सभा हुई थी

प्रवेश

सर एलन बर्न्स (9 नवंबर 1887 - 29 सितंबर 1980) ने अपनी पुस्तक ‘Colour Prejudice’ (वर्ण-विद्वेष) में कहा है, दक्षिण अफ़्रीका की घरेलू नीति का ह्रास होते-होते वह उस ग़रीब गोरे की हिमायत भर रह गई, जो रंगीन जातियों को अपमानित और अपदस्थ करने वाली शासन-प्रणाली की ही उपज है। संस्कृतियों के अंतर और रहन-सहन के तरीक़ों के बे-मेल होने की बड़ी-बड़ी बातें तो सिर्फ़ ऊपरी दिखावा है, असली कारण तो रहा है गोरे और कालों की आर्थिक प्रतिद्वंदिता।जुलू विद्रोह को दबाए जाने के साथ ही ट्रांसवाल का बोअर ब्रिटिश शासक भारतीयों पर अपनी कुदृष्टि डालने लगा। उनका लक्ष्य स्पष्ट था कि कालों और रंगदारों को उनकी औकात में रखा जाए। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए अगस्त 1906 में ट्रांसवाल में नया ख़ूनी क़ानून का अध्यादेश ज़ारी कर दिया गया था। गांधीजी को इसके ख़िलाफ़ प्रतिवाद करना था। सही मायने में गांधीजी का राजनैतिक जीवन यहीं से शुरु होता है। यह एक नये संघर्ष की शुरुआत थी। इस आंदोलन के बाद उन्होंने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। इस आंदोलन के साथ उनका सत्याग्रह का प्रयोग शुरु हो गया था।

नेटाल के गोरों ने अपनी खानों और गन्ने के खेतों में काम करने के लिए हज़ारों गिरमिटिया मज़दूरों को भारत से बुलवाया था। समय के साथ उनमें से कई आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो चले थे। नेटाल के गोरों को यह असह्य था। वे किसानों और व्यापारियों के रूप में एक भी स्वतंत्र भारतीयों को अपने बीच में रहने नहीं देना चाहते थे। बोअर-युद्ध के बाद ट्रांसवाल के लोगों ने एशियावासियों के अतिक्रमण का काफ़ी हो हल्ला किया। उन्होंने यह अफ़वाह फैलाई कि प्रवासी भारतीय काफ़ी बड़ी संख्या में दक्षिण अफ़्रीका में बसने के लिए घुसे चले आ रहे हैं। वास्तविक स्थित यह थी कि बोअर-युद्ध शुरू होने पर जो बहुत-से भारतीय परिवार ट्रांसवाल से चले गए थे, युद्ध के समाप्त होने पर उनके लौट आने के बाद भी, 1903 में, वहाँ के भारतीयों की कुल संख्या 1899 से कम ही थी। गांधीजी चाहते थे कि नए गिरमिटिया मज़दूरों को भले ही न आने दिया जाए, लेकिन पढे-लिखे भारतीयों का सीमित संख्या में आना न रोका जाए, क्योंकि भारतीय व्यापारियों को क्लर्की और मुनीमी के कामों में ऐसे लोगों की आवश्यकता थी। गांधीजी ने इस शंका को निर्मूल बताते हुए दक्षिण अफ्रीका-स्थित ब्रिटिश उच्चायुक्त से कहा थाभारतीयों को राजनैतिक सत्ता नहीं चाहिए। हम केवल इतना चाहते हैं कि ब्रिटिश साम्राज्य की अन्य प्रजाओं के साथ शांति और मेल-मिलाप से और इज़्ज़त और आत्म-सम्मानपूर्वक हमें रहने दिया जाए। लेकिन गांधीजी की यह समझौते वादी नीति ज़्यादा दिनों तक चल नहीं पाई।

जनरल स्मट्स ने अपनी एक घोषणा में कहा था कि सरकार ने फैसला कर लिया है कि कितनी ही कठिनाइयाँ क्यों आएं इसे गोरों का मुल्क बनाकर रहेंगे, और इस मामले में अपने इरादे से रंचमात्र भी नहीं डिगेंगे।लायनल कर्टिस {Lionel Curtis} (जिसने 1919 में डायर्की {दोअमली शासन प्रणाली} की खोज की थी)1903 में ट्रांसवाल में अधिकारी था। वह लॉर्ड मिलनर का विश्वस्त आदमी था। जब गांधीजी ने उससे अपने देशवासियों की अच्छाइयां बतानी शुरू की तो उसने कहा था, मि. गांधी, आप नाहक जागे हुए को जगाने की कोशिश कर रहे हैं। इस देश के गोरों को भारतीयों के दुर्गुणों से ज़रा भी डर नहीं लगता, हमें असली डर तो आप लोगों की अच्छाइयों से है।

ऐसी विचारधारा रखने वाला कर्टिस कोई ऐसा काम करना चाहता था, जिससे भारतीयों को जकड़ कर रखा जाए। उसकी राय में दक्षिण अफ़्रीका का दरवाज़ा भारतीयों के लिए जब तक खुला रहेगा तब तक ट्रांसवाल सुरक्षित नहीं माना जा सकता। वह यह भी महसूस कर रहा था कि बार-बार भारतीय और सरकार के बीच समझौता हो जाने से भारतीयों की प्रतिष्ठा हर बार बढ़ जाती है। वह इस प्रतिष्ठा को घटाना चाहता था, वह उनसे रज़ामंदी नहीं चाहता था, उनकी आज़ादी पर प्रतिबंध चाहता था। इसलिए उसने एशियाटिक एक्ट का मसविदा बनाया और सरकार को सलाह दी कि जब तक इस मसविदे के अनुसार क़ानून बनकर तैयार नहीं हो जाता तब तक भारतीयों का ट्रांसवाल में अनधिकृत प्रवेश नहीं रोका जा सकता। हिन्दुस्तानी लोग छिपे तौर पर ट्रांसवाल में दाखिल होते रहेंगे और जो लोग इस तरह दाखिल होंगे उन्हें  ट्रांसवाल से बाहर निकालने के लिए वर्तमान कानूनों में कोई भी व्यवस्था नहीं है। ट्रांसवाल में ब्रिटिश सत्ता स्थापित होने के बाद हिन्दुस्तानियों को जो परवाने दिये जाते थे, उन पर या तो हिन्दुस्तानी के दस्तखत लिए जाते थे या दस्तखत न कर सकने की स्थिति में उसके अंगूठे की निशानी ली जाती थी। इसके बाद किसी अधिकारी ने सुझाया कि परवानों पर हिन्दुस्तानियों की फोटो भी रहनी चाहिए। इस प्रकार फोटो, अंगूठे की निशानी और दस्तखत-ये सब वैसे ही चल पड़े। इसके लिए कोई कानून बनाना ज़रूरी नहीं माना गया। 4 अगस्त को, औपनिवेशिक सचिव, पैट्रिक डंकन ने विधान परिषद में कहा कि सरकार एक समग्र विधेयक पेश करने की मंशा रखती है जो उपनिवेशों के लिए राज्य सचिव को भेजे गए पहले के प्रस्तावों की तुलना में कुछ मामलों में और भी अधिक दमनकारी होगा। डंकन ने घोषणा की कि जब परिषद अगली बार बैठक करेगी तो सरकार एशियाई लोगों के पंजीकरण के संबंध में कानून पेश करने का प्रस्ताव करेगी।

एशियाटिक लॉ अमेन्डमेन्ट अध्यादेश प्रकाशित

गांधीजी फीनिक्स में कुछ सप्ताह बिताने के बाद, 1906 के अगस्त महीने के आख़िरी दिनों में, कस्तूरबा और बच्चों को फीनिक्स में छोड़कर जोहान्सबर्ग चले आए। गांधीजी अपने जर्मन दोस्त हरमन कालेनबाख के यहां ठहरे। एक बार फिर वह भारतीयों की ओर से याचिकाएँ और स्मारक लिखने में व्यस्त हो गए। ट्रांसवाल की सरकार के साथ लड़ाई अब एक महत्वपूर्ण चरण में पहुँच रही थी, और उन्हें पहले से ही क़ानून की किताबों में मौजूद कानूनों से भी अधिक प्रतिबंधात्मक कानून पारित करने से रोकने के लिए नए तरीकों की आवश्यकता होने वाली थी। लियोनेल कर्टिस की अध्यक्षता में सरकारी अधिकारियों द्वारा "एशियाई कानून संशोधन अध्यादेश" नामक एक मसौदा कानून पहले ही तैयार किया जा चुका था। इसे 22 अगस्त 1906 को ट्रान्सवाल सरकार के गज़ट में प्रकाशित किया गया था। इंडियन ओपिनियन में कड़े शब्दों में प्रमुख लेख छापा जिसका शीर्षक था "घृणित!", जिसमें कहा गया कि "विचाराधीन विधेयक से ट्रांसवाल के भारतीय समुदाय की सबसे बुरी आशंकाएँ सच हो गई हैं।"  जब गांधीजी ने इसे पढ़ा तो उनके रोंगटे खड़े हो गए। गांधीजी को जो बुरा अंदेशा था, उन्होंने पाया कि उनके सभी डर सच हो गए। उसमें हिन्दुस्तानियों के प्रति द्वेष और घृणा के सिवा और कुछ नहीं था। उन्होंने पाया कि भारतीयों के पंजीकरण का तरीक़ा बहुत ही अपमानजनक और सताने वाला है। इसके तहत ट्रांसवाल में भारतीयों का प्रवेश बंद कर दिया गया। इस अध्यादेश के तहत आठ साल से अधिक की उम्र के हर भारतीय को पंजीकरण प्रमाण-पत्र लेना ज़रूरी था। परवाने लेते समय अपने पुराने परवाने वहाँ के अधिकारियों को सौंप देने थे। इसपर अंगूठे और सारी उंगलियों का निशान लगाना था और इसे हर भारतीय को चौबीस घंटे अपने पास रखना था। गांधीजी एक पुलिस अधिकारी हेनरी की लिखी ‘फिंगर इम्प्रेशंस’ (अंगुलियों की निशानियाँ) नामक पुस्तक पढ़ गए। उसमें उन्होंने देखा कि इस प्रकार अंगुलियों की छाप कानूनन तो केवल अपराधियों की ही ली जाती है। पंजीकरण पत्र न रखने पर सौ पौंड का ज़ुर्माना, तीन महीन की जेल या निष्कासन की सज़ा दी जा सकती थी। उस पर से पुलिस को अधिकार दे दिया गया था कि वह पंजीकरण पत्र देखने के लिए किसी के भी घर में प्रवेश कर सके या सड़क पर किसी भी व्यक्ति को रोक सके। यदि कोई भारतीय किसी सरकारी कार्यालय में कोई अनुरोध करता, तो उसे पहले यह साबित करने के लिए अपना प्रमाण पत्र दिखाना होगा कि वह एक वास्तविक निवासी है। अगर उन्हें ट्रेडिंग लाइसेंस या साइकिल लाइसेंस चाहिए होता या फिर कोई शिकायत दर्ज करानी होती, तो कोई भी सरकारी अधिकारी तब तक उनकी बात पर ध्यान नहीं देता जब तक कि वे सर्टिफिकेट पेश नहीं कर देते।

कहा तो यह गया था कि इस क़ानून की सख़्त ज़रूरत है ताकि ट्रांसवाल में बेतहाशा ग़ैर-क़ानूनी आमद को रोका जा सके। लेकिन यह बिल्कुल ही सही नहीं था। प्रवेश संबंधी क़ानून पहले से ही सख़्त थे। पिछले एक साल में वहां की सरकार ने डेढ़ सौ से अधिक भारतीयों पर अनधिकृत प्रवेश के मुकदमे चलाए थे और उनमें सभी को सज़ा दी गई थी। एक मामले में तो अति यहां तक की गई कि गोरे मजिस्ट्रेट ने भारतीय पत्नी को उसके पति से जुदा कर सात घंटे में देश से निकल जाने की सज़ा सुनाई थी। एक अन्य मामले में ग्यारह साल के एक बच्चे पर तीस पौंड का ज़ुर्माना या तीन महीने की क़ैद की सज़ा दी गई थी।

क़ानून का मकसद

दरअसल इस क़ानून का मकसद ट्रांसवाल के पढ़े-लिखे और संपन्न भारतीयों को अपमानित करना था। इस नियम के तहत लोगों का जीवन मुश्किलों से भर देना ही इस क़ानून की मंशा थी। इस क़ानून के बल पर लाखों पौंड के इज़्ज़तदार व्यापारियों को सरकार मिनटों में अपराधी के तौर पर बेइज़्ज़त कर सकती थी। परवाने के नाम पर किसी भी भारतीय महिला की लाज लूटी जा सकती थी। लोगों के माल असबाब बरबाद हो सकते थे। गांधीजी ने तुरत यह समझ लिया था कि यदि यह विधेयक पारित होकर अधिनियम बन गया और भारतीयों ने इसे स्वीकार कर लिया तो इस देश में उनकी हस्ती ही मिट जाएगी। इंडियन ओपिनियन’ में छापने के लिए उन्होंने इसका गुजराती में अनुवाद भी किया, ताकि अधिक से अधिक लोगों को इस विधेयक के प्रावधानों का पता लगे। इस अध्यादेश के प्रावधानों से हताश हो लोगों ने गांधीजी से निवेदन किया था कि वे जोहानिस्बर्ग लौट जाएं।

बी.आई.ए. ने स्थानीय उपनिवेश सचिव के समक्ष प्रस्तावित उपाय के विरुद्ध तुरंत अपना पक्ष रखा। इस लिखित संचार के पश्चात, एक प्रतिनिधिमंडल उपनिवेश सचिव पैट्रिक डंकन से मिला, जिन्हें भारतीयों द्वारा कुछ स्पष्ट शब्दों में बोलना पड़ा। उन्हें बताया गया कि नया कानून किसी भी परिस्थिति में भारतीय समुदाय को स्वीकार्य नहीं होगा। प्रतिनिधिमंडल ने उपनिवेश सचिव को इस बात में कोई संदेह नहीं छोड़ा कि यदि सरकार ने उनके विनम्र अनुनय-विनय के प्रयासों की उपेक्षा करते हुए अध्यादेश लागू किया, तो भारतीय इसका पालन नहीं करेंगे, वे अपना पुनः पंजीकरण नहीं कराएंगे, न ही जुर्माना भरेंगे - बल्कि वे जेल जाएंगे। एक सप्ताह बाद एसोसिएशन ने उपनिवेशों के राज्य सचिव और भारत के गवर्नर जनरल को विरोध के केबल भेजे।

गांधीजी की भारतीयों को सलाह

ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की कार्यकारी समिति ने मसौदा अध्यादेश पर विचार करने के लिए 24 अगस्त को बैठक की। गांधीजी ने भारतीयों को सलाह दी कि अपमान सहने के बजाए उन्हें इस अध्यादेश का विरोध करना चाहिए। शाम को बिल पर विचार करने के लिए ट्रांसवाल इंडियन एसोसियेशन की कार्यकारिणी की बैठक हुई। उस बैठक का वातावरण बहुत गर्म था। लोगों में बड़ी खलबली और उत्तेजना फैली हुई थी। एक सदस्य ने तो गुस्से में यहां तक कह डाला कि अगर कोई व्यक्ति मेरी पत्नी से पहचान पत्र मांगेगा तो मैं उसे गोली से मार दूंगा, फिर उसका नतीज़ा कुछ भी हो। स्थिति नियंत्रण से बाहर न जाए इसलिए गांधीजी ने सोचा कि लोगों की शक्ति को हिंसा की जगह शांति स्थापित करने में लगाया जाए। उन्होंने इसे ‘काला अध्यादेश’ की संज्ञा दी। जिस तरह की उन दिनों परिस्थितियां थीं, गांधीजी को लगने लगा कि इस काले क़ानून का विरोध अकेले अपने बलबूते पर ही करना है। 

औपनिवेशिक सचिव डंकन ने 1 सितंबर को एक भारतीय प्रतिनिधिमंडल से मिलने और इस मुद्दे पर चर्चा करने पर सहमति जताई। ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की ओर से एक भारतीय प्रतिनिधिमंडल, जिसमें श्री अब्दुल गनी, इस्सोप मियां, हाजी ओजर एली, पीटर मूनलाइट और गांधीजी शामिल थे, औपनिवेशिक सचिव से मिलने के लिए प्रिटोरिया गए। डंकन ने औपचारिक उत्तर में आश्वासन दिया कि सरकार उनके सुझावों पर विचार करेगी। लेकिन 4 सितंबर को एशियाई संशोधन विधेयक विधान परिषद में पेश किया गया और इसके पहले दो वाचन पारित हो गए। डंकन ने अपने संबोधन में घोषणा की कि एशियाई लोगों के कई महत्वपूर्ण वर्गों द्वारा महिलाओं से कुछ विशेष विवरण देने की आवश्यकता के संबंध में महसूस की गई गहरी शंकाओं के कारण, सरकार ने फैसला किया था कि यह कानून महिलाओं पर लागू नहीं होना चाहिए।

एंपायर थियेटर में भारतीय प्रवासियों की विशाल सभा

11 सितम्बर 1906 को अपराह्न दो बजे गांधीजी के नेतृत्व में भाड़े पर लिए गए जोहानिस्बर्ग के एंपायर थियेटर (यहूदियों की नाटकशाला) में भारतीय प्रवासियों की एक विशाल सभा हुई। यह बैठक न केवल दक्षिण अफ्रीकी भारतीयों के इतिहास में, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों और वास्तव में औपनिवेशिक शासन के तहत रहने वाली सभी पराधीन जातियों के लिए एक यादगार और ऐतिहासिक अवसर साबित हुई, क्योंकि इसने सत्याग्रह या "निष्क्रिय प्रतिरोध" को जन्म दिया, जैसा कि तब कहा जाता था और दुनिया के लिए अब तक अज्ञात एक हथियार के माध्यम से स्वतंत्रता के एक नए युग की शुरुआत की। इस सभा में ट्रांसवाल के हर क्षेत्र के क़रीब 3000 लोग इकट्ठा हुए। बड़ा हॉल दक्षिण भारत की तमिल और तेलुगु, गुजराती और हिंदी भाषा बोलने वाले लोगों के शोर से गूंज रहा था। कुछ महिलाओं ने साड़ी पहनी हुई थी। पुरुषों ने यूरोपीय और भारतीय कपड़े पहने हुए थे; कुछ ने हिंदू पगड़ी और टोपी पहनी हुई थी, कुछ ने मुस्लिम टोपी पहनी हुई थी। उनमें अमीर व्यापारी, खनिक, वकील, गिरमिटिया मज़दूर, वेटर, रिक्शा वाले, घरेलू नौकर, फेरीवाले और गरीब दुकानदार शामिल थे। ट्रांसवाल ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन के अध्यक्ष अब्दुल गनी ने अध्यक्षता की। वे एक अमीर और प्रभावशाली व्यवसायी थे, और सेठ हाजी हबीब भी, जिन्होंने मुख्य भाषण दिया। सभापति द्वारा कार्रवाई शुरू किए जाने के पहले ही थियेटर का आर्केस्ट्रा, बालकनी और गैलरी खचाखच भर गए थे। आमंत्रित किए गए औपनिवेशिक सचिव तो नहीं आए थे, लेकिन एक अन्य अधिकारी पर्यवेक्षक की भूमिका निभाने के लिए वहाँ मौजूद थे। सभा द्वारा पारित प्रस्तावों में सबसे महत्वपूर्ण प्रस्ताव प्रसिद्ध चौथा प्रस्ताव था, जिसके द्वारा भारतीयों ने अध्यादेश के आगे न झुकने और इस तरह के न झुकने पर होने वाले सभी दंडों को भुगतने का संकल्प लिया। गांधीजी ने बिल के प्रावधान को अँग्रेज़ी और गुजराती में लोगों को समझाते हुए कहा कि कोई भारतीय इस काले क़ानून के आगे कभी सिर नहीं झुकाएगा। गांधी ने स्पष्ट किया कि यह अध्यादेश ट्रांसवाल में रहने वाले दस या पंद्रह हज़ार भारतीयों को अपमानित करने का सरकार द्वारा जानबूझकर किया गया प्रयास था, और अगर इसे कानून बना दिया गया तो दक्षिण अफ्रीका की सभी अन्य सरकारें भी इसका अनुकरण करेंगी और इसे लागू करेंगी। उन्होंने कहा, "यह कानून दक्षिण अफ्रीका में हमारे अस्तित्व की जड़ों पर प्रहार करने के लिए बनाया गया है।" "यह अंतिम कदम नहीं है, बल्कि हमें देश से बाहर निकालने के उद्देश्य से पहला कदम है।" कई अन्य लोगों ने भी भाषण दिया। कुल मिलाकर लगभग बीस भाषण विभिन्न भारतीय भाषाओं में दिए गए, और गांधीजी अंतिम वक्ता थे। हर एक ने प्रस्ताव का समर्थन करते हुए कहा कि दि एशियाटिक रजिस्ट्रेशनअध्यादेश का विरोध किया जाए और सभा के अंत में इस कुत्ते के पट्टे (क़ानून) को कभी न मानने का निर्णय लिया गया। हाजी हबीब नाम के एक व्यापारी ने ईश्वर के नाम की शपथ लेते हुए कहा कि वह इस काले अध्यादेश को कभी स्वीकार नहीं करेगा। उसने सभी उपस्थित लोगों से शपथ लेने को कहा और सभी लोगों ने उच्च स्वर में क़सम खाई कि मिट जाएंगे लेकिन इस काले क़ानून के आगे नहीं झुकेंगे। गांधीजी ने अपने समापन वक्तव्य में कहा थामेरा लक्ष्य लोगों को हराना और उन पर शासन करना नहीं है। मैं तो मानवोचित सम्मान और समानता को हासिल करना चाहता हूं। ये समानता ईश्वर ने हमें दी है। ईश्वर ने हर इंसान को समान बनाया है। मुझे शारीरिक नहीं आत्मिक लड़ाई चाहिए। क्योंकि आत्मा की ताक़त किसी भी बंदूक से ज़्यादा होती है। उसका असर किसी भी तोप के असर से ज़्यादा होता है। मेरे लिए सिर्फ़ एक रास्ता बचा है, यानी मरना लेकिन कभी भी इस क़ानून को स्वीकार न करना, भले ही सब पीछे ठहर जाएं और मुझे अकेला छोड़ दें।

अब्दुल गनी ने तीन बजे बैठक की शुरुआत की। बैठक के लिए जिम्मेदार परिस्थितियों की समीक्षा करने के बाद, उन्होंने घोषणा की कि वे पंजीकरण कराने से इनकार कर देंगे और यदि आवश्यक हुआ तो जेल भी जाएंगे। इस तरह निष्क्रिय प्रतिरोध के आधुनिक आंदोलन की शुरुआत 11 सितंबर, 1906 को दोपहर करीब 3:15 बजे जोहान्सबर्ग के एम्पायर थिएटर में हुई थी। निष्क्रिय प्रतिरोध का विषय सभी वक्ताओं द्वारा दोहराया गया। जब भी कोई इस मुद्दे के लिए जेल जाने की बात करता, तो भीड़ भरी बालकनियों से जोरदार जयकारे लगते और दुकानों में बैठे शांत और पगड़ीधारी व्यापारी भी इसे स्वीकार कर लेते। श्रोतागण उत्साह में थे और कभी-कभी भाषणों को लंबे समय तक जोरदार तालियों की गड़गड़ाहट से रोक दिया जाता था। गांधीजी ने कहा‐“सरकार ने भलमनसाहत की सारी बुद्धि को तिलांजलि दे दी है।  लेकिन मैं हिम्मत और विनय के साथ घोषित करता हूँ कि जबतक अपनी प्रतिज्ञा पर सच्चाई के साथ डटे रहनेवाले मुट्ठीभर लोग भी रहेंगे, तबतक संघर्ष का एक ही अंत हो सकता है वह है विजय। गांधीजी के भाषण समाप्त होने के कुछ ही क्षण बाद, पूरा श्रोता खड़ा हो गया और नए कानूनों का पालन करने के बजाय जेल जाने की शपथ ली। फिर उन्होंने राजा-सम्राट एडवर्ड VII को तीन बार जयकारे लगाए और "गॉड सेव द किंग" गाया। यह एक असाधारण घटना थी। ईश्वर को साक्षी मानकर किया गया कार्य एक धार्मिक व्रत था जिसे तोड़ा नहीं जा सकता था। यह कोई ऐसा सामान्य प्रस्ताव नहीं था जिसे किसी सार्वजनिक समारोह में हाथ उठाकर पारित कर दिया जाता और तुरंत भुला दिया जाता।

यह कुसंयोग था या कुछ और अगले ही दिन उस नाटकशाला में कोई दुर्घटना हुई और सारी नाटकशाला जलकर खाक हो गई। कुछ लोगों ने गांधीजी को यह कहकर मुबारकबाद दी कि नाटकशाला का भस्म हो जाना शुभ शकुन है। जैसे नाटकशाला जल गई वैसे ही यह क़ानून भी एक आग की नज़र हो जाएगा। इन बातों को गांधीजी न कभी महत्व देते थे, न उस दिन उन्होंने दिया। लुई फ़िशर कहते हैंऐसे शकुनों में गांधीजी का विश्वास नहीं था। भाग्य मूक संकेतों के साथ गांधीजी को नहीं बुलाता। भविष्य उनके अंदर उस अद्भुत, हिमालयी आत्मविश्वास के माध्यम से बोलता था जो उन्होंने बैठक में प्रदर्शित किया था। वह जानते थे कि वह अकेले खड़े हो सकते हैं। लेकिन यह घटना बताती है कि लोगों में उस समय कितना शौर्य और श्रद्धा थी।

अगला क़दम क्या हो?

प्रतिरोध की बात तो की गई लेकिन यह कौन सा रूप लेगा किसी को स्पष्ट नहीं था। गांधीजी भी स्पष्ट नहीं थे। हां, पहला क़दम तो साफ़ था कि विरोधी से मिलना होगा और उनसे बातचीत करनी होगी। जगह-जगह सभाएं की गई और हर सभा में सर्वानुमति से प्रतिज्ञाएं ली गईं। अब इंडियन ओपिनियन में खूनी कानून ही चर्चा का मुख्य विषय बन गया। उन्होंने ट्रांसवाल के अधिकारियों से भेंट की, अपने विचारों से उन्हें अवगत कराया। गांधी जी ने सबसे पहले सरकार से ज्ञापन लिया। लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। विधान परिषद द्वारा यह ज़रूर किया गया कि स्त्रियों से संबंधित धारा को उस अध्यादेश से हटा दिया गया, लेकिन अध्यादेश का बाकी हिस्सा व्यावहारिक रूप से उसी रूप में पारित हो गया, जिस रूप में इसे तैयार किया गया था। भारतीय समुदाय अभी भी इस संकल्प का पालन कर रहा था कि सभी उचित संवैधानिक उपचारों को पहले ही समाप्त कर दिया जाए। ट्रांसवाल उन दिनों ब्रिटिश साम्राज्य का उपनिवेश था, इसलिए शाही सरकार इसके कानून और प्रशासन के लिए जिम्मेदार थी, और अध्यादेश क़ानून की शक्ल तभी ले सकता था जब तक कि उस पर ब्रिटिश सम्राट के हस्ताक्षर न हो जाएं। इसलिए गांधीजी के सुझाव पर, भारतीय समुदाय ने इंग्लैंड में एक प्रतिनिधिमंडल भेजने का फैसला किया। आवश्यक धन जल्द ही जुटाया गया। अक्तूबर 1906 के शुरू के दिनों में गांधीजी एक प्रतिनिधि मि. एच.ओ. अली, जो अंग्रेज़ी में बात कर सकते थे, के साथ लंदन के लिए रवाना हुए।

रविवार, 30 सितंबर को अब्दुल गनी ने मलय लोकेशन में हमीदिया इस्लामिक सोसाइटी हॉल में ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की बैठक की अध्यक्षता की। लोग इंग्लैंड के लिए प्रस्थान करने वाले प्रतिनिधियों को विदाई देने के लिए एकत्र हुए थे। विदाई सभा में गांधीजी ने कहा: "हम निश्चित रूप से अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करेंगे, लेकिन हमारी प्रार्थना स्वीकार होने की संभावना बहुत कम है। इसलिए हमें मुख्य रूप से चौथे प्रस्ताव पर निर्भर रहना चाहिए। हमें इंग्लैंड में अपने सभी मित्रों को अपना मामला स्पष्ट करना चाहिए। आप भी पंजीकरण के लिए प्रस्तुत न होकर अपना कर्तव्य निभाएंगे। आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए धन एकत्र किया जाना चाहिए और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हिंदू और मुसलमानों को पूरी तरह से एकजुट होना चाहिए।" गांधीजी ने अपना सैंतीसवाँ जन्मदिन ट्रेन में बिताया और गठिया से पीड़ित अपने साथी की देखभाल की। ​​बुधवार को दो बजे वे केप टाउन पहुँचे और यूसुफ़ गूल के घर पर भोजन करने के बाद आर्मडेल कैसल में सवार हुए। उन्होंने तीसरे सेक्शन में प्रथम श्रेणी के केबिन में यात्रा की।

उपसंहार

ट्रांसवाल के पढे-लिखे और संपन्न भारतीयों को अपमानित करना और उनका वहाँ रहना मुश्किल कर देना ही इस नए कानून का असली मंशा था। 1906 की सर्दियों में दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों का भविष्य पूरी तरह अंधकारमय था। यदि यह अधिनियम पारित हो जाता तो यह दक्षिण अफ्रीका के अन्य भागों में भी इसी तरह के कानूनों की शुरुआत होती; अंत में, कोई भी भारतीय दक्षिण अफ्रीका में नहीं रह सकता था। नागरिक अधिकारों के लिए गांधीजी ने नेटाल और ट्रांसवाल में बारह बरस तक जो कुछ किया था, उस सब पर पानी फिर गया था। दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों को पंजीयन के काले कानून का विरोध अकेले अपने बलबूते पर ही करना था। लोगों ने प्राण किया कि प्रवासी भारतीय जनजीवन के काले कानून के आगे कभी सिर नहीं झुकाएंगे। विरोध के इस आंदोलन को शुरू में 'पैसिव रेजिस्टेंस' ( निष्क्रिय प्रतिरोध ) कहा गया। मोहनदास करमचंद गांधी ने वास्तव में 11 सितंबर, 1906 को इतिहास रच दिया था। 11 सितंबर को जिस तरह से भारतीय समुदाय ने अपना आचरण किया, वह दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के नेतृत्व के प्रति श्रद्धांजलि थी। 1893 में जब से उनका सार्वजनिक कार्य शुरू हुआ, तब से वे समुदाय को एकजुट होने, अहिंसक बने रहने और अपनी उचित और सच्ची मांगों पर अडिग रहने के लिए प्रशिक्षित और तैयार कर रहे थे। भारतीय समुदाय अब एक नए प्रकार की राजनीतिक कार्रवाई की दहलीज पर था, जो पहले की सौम्य विरोध की राजनीति से बिल्कुल अलग थी।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर