गुरुवार, 20 मई 2010

आँच-१७ :: ‘कैसे मन मुस्काए?’

आँच :: ‘कैसे मन मुस्काए?’

- आचार्य परशुराम राय

रचनाकार के अन्दर धधकती संवेदना को पाठक के पास और पाठक की अनुभूति की गरमी को रचनाकार के पास पहुँचाना आँच का उद्धेश्य है। देखिये राय जी की आंच पर ‘कैसे मन मुस्काए?’ कैसे उतरता है।

Dog rose leaves covered with frost in Sweden.

संगीता स्वरूप जी की कविता ‘कैसे मन मुस्काए’ पर ऑंच का यह अंक पाठकों को समर्पित है। यह कविता सरल भाषा में मानव की बेबसी को चित्रित करती है। इसमें बेबसी के दो चित्र लिए गए हैं - गरीबी और आतंक। लेकिन इन दो के माध्यम से मानव-निर्मित जटिल परवशता के अन्य आयामों की ओर भी इसका संकेत जाता है।

image जीवन में मुस्कराने के लिए कम से कम न्यूनतम आवश्यकताओं का पोषण होना अनिवार्य हैं। इसमें हवा और पानी के बाद तीसरी न्यूनतम आवश्यकता है – ‘रोटी’ और इन सबसे बड़ी सर्वोपरि आवश्यकता है जीवन की सुरक्षा। सुरक्षा एक व्यापक परिवेश को इंगित करती है। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति भी सुरक्षा है। इससे जुड़ा परिवेश हमें मानसिक सुरक्षा प्रदान करता है और प्रकारान्तर से आत्मविश्वास को सबल करता है। विकास की विषमता और कुप्रबन्धन अराजकता को जन्म देती है, जिससे भारतीय उपमहाद्वीप के साथ-साथ पूरा विश्व इस अराजक आतंकवाद से जूझ रहा है। इससे उत्पन्न असुरक्षा आधुनिक मानव-सभ्यता के लिए सबसे बड़ी दुश्चिन्ता है। ऐसे ही परिवेश को समेटती भावभूमि पर ‘कैसे मन मुस्काए?’ कविता लिखी गई है।


भुखमरी और आतंक दोनों ही कुप्रबन्धन की सन्तानें हैं। इनके रहते प्रजा की मुस्कान का लोप होना इस कविता में बहुत ही अच्छी तरह दर्शाया गया है। इन सबके बावजूद कविता में संतुलन का अभाव दिखता है। तीन बन्दों में रची गयी कविता के पहले बन्द में भुखमरी और गरीबी के कारण मुस्कान पर प्रश्नचिह्न लगा है। शेष दो बन्दों में आतंक के कारण। यदि तीनों बन्दों में अलग-अलग समस्याओं को उठाया गया होता तो कविता का संतुलन अच्छा रहता।

‘रोटी समझ चाँद को/बच्चा मन ही मन ललचाए’ पंक्तियाँ यह व्यंजित करती है कि जीविका चाँद को पाने जैसी कल्पना का विषय हो गया है। यह व्यंजना बहुत ही चमत्कृत करने वाली और हृदयस्पर्शी हैं। कविता की भाषा में ताजगी का लगभग अभाव है। शब्द योजनाएं वही पुरानी हैं।

Sheep under a tree near Dorset, England. *****

16 टिप्‍पणियां:

  1. आचार्य परशुराम जी ,

    सबसे पहले मैं आपको धन्यवाद देना चाहती हूँ..और मनोज जी का आभार कि मेरी रचना को आपकी समीक्षा मिली....

    संतुलन के आभाव का आगे से ख़याल रखूंगी...सच है तीनों बंद में अलग अलग तीन समस्याएं लेनी चाहिए थीं....और भाषा पर भी अपनी पकड़ मजबूत करने कि कोशिश करुँगी...

    आभार

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  2. आंच की गर्मी ( विश्लेशण )अच्छी लगी.

    मेरे ख्याल से अगर विश्लेशण करते वक्त मूल कविता भी प्रस्तुत किया जाता तो यह पोस्ट और अधिक सार्थक होता.
    आभार

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  3. बहुत बढिया समीक्षा. धन्यवाद.

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  4. बहुत सुंदर समीक्षा की आप ने, आप क धन्यवाद

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  5. यह बढ़िया रचना समीक्षा से और भी निखर गई है!

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  6. @ शमीम जी
    कविता का लिंक दिया हुआ है।
    पूरी कविता आप वहीं पढे़।

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  7. शास्त्री जी से सहमत हूँ। समीक्षा से एक बढ़िया रचना और निखर गई है। जब मैंने इस नव गीत को पढा था तभी मेरे मन में आया था कि यह एक अलग हट के रचना है। इसे आंच पर चढाया जाना चाहिए।
    फिर संगीता जी की अनुमति ली इसे आंच पर चढाने की। हम उनके शुक्रगुज़ार हैं कि उन्होंने सहर्ष स्वीकृति दी।
    राय जी के भी आभारी है। एक उत्कृष्ट समीक्षा प्रस्तुत करने के लिए।
    संगीता जी की एक और ज़बर्दस्त रचना "चेतावनी" को भी हम आंच पर लाएंगे।

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  8. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  9. हंसना सहजतम अभिव्यक्ति है। मगर मनुष्य ने अपने इर्द-गिर्द ऐसा माहौल बना लिया है कि अब उसे लाफ्टर क्लब खोलने पड़ रहे हैं जहां की अट्टहास भरी खोखली हंसी खुद को दिलासा देने का ही प्रयास मालूम पड़ती है।

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  10. हममें से अधिकतर के हंसने का माध्यम बच्चे ही रह गए हैं। आइए,एक शुरुआत करें कि कम से कम बच्चों के लिए तो रोटी चांद को पाने जैसा न बने!

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  11. समीक्षा की धारा अच्छी बह रही है. यह ऐसे ही निरंतर प्रवाहमान रहे.

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  12. समीक्षा तो काफी जबरदस्त है..साधुवाद.

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  13. Bahut achha laga yah rachna yahan bhi dekh!
    Kya khoob vivran bhi kiya hai!

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  14. बड़ी विलक्षण समीक्षा प्रस्तुत की आपने..बधाई.


    ____________________________
    'शब्द-शिखर' पर- ब्लागिंग का 'जलजला'..जरा सोचिये !!

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