- करण समस्तीपुरी
कहते हैं कि ई दुनिया में सब कुछ अपने समय से चलता है। चलता होगा... चलता रहे! मगर रेवाखंड में दो चीज रेलबी के टाइम से चलता है। एक चरबजिया गाड़ी और दूसरा भगतु फ़कीर का परातकाली भजन। जाड़ा-गर्मी, मेघ-बतास सब दिन।
भगवानपुर देसुआ और अंगार घाट टीसन के बीच पड़ता है रेवाखंड। गाँव के उतरवारी सीमा पर है सुपौली टोला और उसी टोले के बीच से गुजरती है छोटी-लाइन और उसी लाइन पर नित-नियम से चार बजे भोरे गुजरती है जानकी इसपरेस। छुक-छुक-छुक-छुक..... पोंओंओं................! पता नहीं संजोग है कि उपरी हिदायत मगर सुपौली टोला से गुजरते हुए डरेबर भोंपू जरूर बजा देता है।
रेवाखंड में घड़ी और घंटा-घर का कौनो काम नहीं। वही चारबजिया गाड़ी का भोंपू एलारम है। टरेन का भोंपू बंद हुआ कि भगतू फ़कीर की परातकाली शुरू हो जाती है, “हो भोलानाथऽऽऽऽ.... ! कखन हरब दुख मोर....!” रात के आघात से मुर्छित रेवाखंड में नवप्राण का संचार हो जाता है। किसान उठ कर माल-मवेशी को घास-भूसा देते हैं तो मजदूर खेत-पथार की राह लेते हैं। महिलाएं चाह-चुक्का के जुगाड़ में चूल्हा फूँकने की तैय्यारी करती है और बड़े-बुजरूग सीता-राम...राधे-श्याम... हो महादेव कहते हुए पढ़ुए बिद्यार्थियों को पुचकारते हैं, “हौ बटुक...! उठऽ...उठऽ...। यही बखत है असली पढ़ाई का। ब्रहम-बेला में किया गया विद्याभ्यास कभी नहीं भुलाता है... उठऽ.... उठऽ....!”
धान कटाते-झराते ठंडी चरम पर पहुँच गयी। जीव-जंत तो छोड़िये प्रकृति भी एक पहर दिन तक मोटे कोहरे की धुंधली चादर ओढ़े रहती हैं। सूरुज महराज अबसेन्टी मारने लगे हैं। भगतू फ़कीर का घूरा (अलाव) दिनों-दिन बड़ा होता जा रहा है। भगतू बाबा को कौनो रोक-टोक नहीं है। कोई आय न व्यय। किसी के आगे कभी हाथ पसारने का रिकार्ड नहीं है। क्षुधाग्नि ज्यादे भड़की तो मक्के क्च्चा बाल, गेहूँ की बालियाँ, मूली, बथुआ, साग-सब्जी आकि फल-फलहरी... खेती-गाछी किसी की... पेड़-पौधे किसी के... भगतू फ़कीर को तो बस पेट-भरन से काम।
जाड़ा आया तो सरकारी कि पराइविट कौनो सूखा पेड़-टहनी हो दे कुल्हारी। फ़िर धुनी रमा के अपने कमंडल में बिना दूधे के गुर की चाह गरम। गर्मी बढ़ी तो कुआँ से कमंडल में पानी भर-भर बैठ गये सड़क किनारे। वैसे कहने के लिये पीपल गाछ तर एक झोपड़ी थी जो भगतजी की अपनी थी। बांकी आगे नाथ न पीछे पगहा।
“हो भोलानाथऽऽऽऽ.....” के अलाप के साथे लोग देह पर लोई-गिलोई लादे चल पड़ते थे भगतू फ़कीर के घूरा तर। कमंडल में राउंड के राउंड अदरक वाली गुरही चाह गरगरा रहा है। चुक्का धो-धो चढाते रहो। कप का कौनो हिसाब नहीं। कभी-कभी हमलोग भी छोटका कक्का के साथ लग जाते थे। सच्चे लोग कहते थे, भगतू बबाजी के चाह से ठंडी भी हार मानती है।
हार मानती होगी ठंडी...! मगर जवानी में कौन किसकी मानता है। जाड़े की जवानी चढ गयी है। अब तो एक बार कालहुँ सन लरहीं...! जाड़ा के मारे तो बेचारे सूरुज महराज हार मान गए। इधर कई दिनों से गाड़ी गुजरते ही भगतजी परातकाली के बीच-बीच में नाम ले-लेकर टोले-मोहल्ले के लोगों को बुलाते भी हैं। कई नामों को गीत में भी ढालकर परातकालिये के सुर में गाते हैं, “जागहुँ राम, कृष्ण दोऊ मूरत ! दशरथ, नंद, दुलारे....!”
उह्ह्ह्ह..... कट-कट-कट-कट-कट-कट.....! पहर दिन ढल गया था...! भगतू फ़कीर की परातकाली कब की ठंडी हो गयी थी मगर हमलोग रजाइये में दुबके हुए थे। जान-मारुक शीतलहरी। एक बार तो भगतू बबाजी की पुकार पर छोटका कका देह में कंबल लपेटे निकल ही रहे थे कि बाबा डपट दिये, “मार बुरबक...! ई हार कँपाने वाला ठंडी में कहाँ चला है? अब कौनो उ पहिला वला घूरा है... ठंडी मार देगा... ऐंठ जाओगे...! रहो रजाई तर शांति से।
सच्चे तो देश-परिवेश सब बदल रहा था। रेवाखंड में भी ‘मेरा-मेरी’ डिजिज का संक्रमण बड़ी तेजी से फ़ैल रहा था। कल तक पड़ोसी के घर आये अतिथियों के लिये दही भेजकर खुद सूखा खाने वाले लोग अब थाली-बर्तन भी उधार नहीं देते हैं। आजकल भगतू बबाजी भी एकाध दाता-दयाल को छोड़ कर किसी की खेती-गाछी में कदम नहीं रखते हैं। वही दिन तो धैंचा की दो सूखी टहनी काटने को लेकर कितना थूक्कम-फ़जीहत की थी फ़ोकचा की लुगाई। साधु-फ़कीर के भी सात पुरखों का उद्धार हो गया था।
गाँव-टोला के मूलगैन-मानजन मुखिया-सरपंच का परिक्रमा कर रहे हैं। जीप-गाड़ी पर सवार पूरा अमला के साथ बीडीओ साहेब आये थे काली-थान में। जबान दिए थे कि अगिले सांझ से काली-था, भगतू फ़कीर के मठ, गुरुजी के चौबटिया, अखारा, मंदिर पर, मंगल पेठिया, खादी भंडार, ढलानी और अन्य सार्बजनिक जगह पर सरकारी घूरा लगेगा...! जिला कलस्टर को कंबल बाँटने का फ़रियाद भी भेजेंगे...! हफ़्ता दिन गया... न कंबल न घूरा।
गाँव के बाबू-भैय्या भी बड़े कठोर हो गये हैं। शीशम-सखुआ तो छोड़ो लगता है खजूर-बबूर से भी कोठा उठाएंगे। कौनो एक खर देने के लिये तैय्यार नहीं। पूस की शीतलहरी हड्डी भेदने पर लगी है। सब तरफ़ त्राहि-माम! क्या दुखिया क्या सुखिया... सब पर ठंडी की मार।
ठंडी और ‘मेरा-मेरी’ डिजिज की मार सबसे ज्यादे भगतू बबाजी के धुनी पर पड़ी है। जलोधर बाबू से मिला धान का दू-चार झरुआ जला कर बेचारे परातकाली गा लेते थे। फ़्री गुरही चाह ठंढी के बावजूद लोगों की आमद काफ़ी कम हो गई थी।
गाँव में संक्रमण लगे मगर भगतू बबाजी अपने स्वभाव में क्यों संक्रमण लगने दें? दू पहर दिन गए सूरुज महराज झांके थे कोहरे की काली कंबलिया फ़ार के। लोग-वाग सुहुर-सुहुर काम-काज निपटाने लगे। भगतू बबाजी भी बिष्टी पहिरे निकल पड़े अपने काम पर। सबको हरकार रहे हैं, “हौ मरदे...! अरे ठंडी के डर से ऐसे दुबके रेवाखंड...! अपने-घर से एक-एक लकड़ी लेकर आओ आसरम पर...! फिर देखो.... कहाँ गई ठंडी-फ़तुरिया...!”
बाबा कहे थे, “का करें भगतजी...! सब आपहि जैसन निरबिकार सिध नहीं है न...? आप सनियासी हैं... हमलोग गिरहथ...! रसोई खातिर तो लकड़ी पर आफ़त है और...! मने कि न अब उ देवी न उ प्रसाद...! न सरकार कुछ सुने न जमींदार....! न धुनी न धधरा.... ई पूस के पुरबैय्या में कौन जाए हड्डी छेदाने....!” बाबा दहिने हाथ से कंबल का फ़ार बांए कंधे पर फ़ेंकते हुए बोले थे।
बाबा ही क्या पूरा मधकोठी का एही जवाब था। भगतू बबाजी कमंडल का चोंगा मुँह में लगाकर बोले, “कल से जौन कोई घूरा तापे चाहो आसरम पर आ जाओ...! सरकार से उपर भी सरकार है। सब जमींदार का सरदार है...! घूरा-धुनी जरूर लगेगा...! हर-हर महादेव! सब जन अइयो...! हर-हर महादेव!”
छुक-छुक-छुक-छुक.... पोंऽऽऽऽ.....! चारबजिया गाड़ी के भोंपू के साथ ही शुरू हो गया भगतू फ़कीर का “हो भोलानाथऽऽऽऽ.....!” कोहरे को चिरती हुई धान के झट्टे की लौ लुकझुकाने लगी थी। टोलबैय्या धीरे-धीरे ससरने लगे। हम फिर छोटका कक्का के साथ लग गए।
भगतू बबाजी तरे पर तर झरुआ जला रहे थे। खूब जोर धधरा उठ रहा था। मगर कहते हैं न कि ‘अंधा को जागे क्या धधरा को तापे क्या...!’ हनहना कर धधकता था और दुइये मिनिट में फ़ुस्स....! मगर भगतू बबाजी आज लौ को शांत नहीं होने देंगे...! एक के बुझने से पहिलहि दूसरा बोझा तैय्यार है।
एक सन्यासी के परताप से पूस की ठंडी मुँह चुराने लगी थी। देखते-देखते सारा बोझा स्वहा हो गया...! धुँधलके की गहराई जरा भी नहीं कमी थी। लोग-वाग उह-आह.... कट-कट-कट-कट... गिर-गिर-गिर-गिर.... करने लगे...! “ओह...अब चलो रजाइये तर...! ओह.. अब तो रजाई भी ठंडा गई होगी...! आह... बेकारे निकले ई काल के पहरा में...! अरे... बुरबक! उ तो धन के भगतू फ़कीर की घंटो भर के लिये तो देह-हाथ गरमाया....! रजाइयो तरे सिसियाते रहते...!” तरह-तरह की बातें होने लगी। कुछ लोग उठ कर घरमुँहा रस्ता लिये...! कुछ भगतू फ़कीर का मुखदर्शक बने रहे। पता नहीं किस उम्मीद में।
भगतू फ़कीर मिनिट भर सुने। फिर बोले, “मार ससुरी ई ठंडी नट्टिन को...! कौनो कहीं न जाओ...! अरे अबहि बहुत समान पड़ा हुआ है धुनी का। कुछ लोग बढ़ते गए। कुछ पलटे और फिर बढ़ गए। कुछ रुक कर देखने लगे।
भगतू बबाजी आखिरी बचे दो झड़ुए को सुलगाए। सुलगते हुए झड़ुए का एक छोड़ पकड़े। उठाए...! आहि रे तोरी के...! ई बबाजी! पूस में लुक्का-बाती काहे खेल रहे हैं...! मगर भगतू बबाजी तो बढ़ते जा रहे हैं। अरे....! ई क्या किये...! आहि लो...! धू... धू... फ़ट... फ़स्स... धू....! भगतू बबाजी जलता हुआ झट्टा झोपड़ी के बगल में जैसे ही रखे... झोपड़ी धू-धू... फ़ट.. स्वाहा...!
पूरे टोले में रोशनी की तेज लहर दौड़ गयी। लोग-वाग पलटे...! जो अभी तक नहीं आये थे उ भी चिखते-चिल्लाते दौड़े। जगथारी बूढा खाँसते हुए पूछ रहे हैं, “अरे कहाँ परलय आ गया...? सब ई शीतलहरी में कहाँ दौर रहा है...?”
बिसुनी झा बोले, “अरे थारीबाबू...! परलय काहे को आए...! भगतू फ़कीर को मौज आ गया है...!” “मतलब ?” “मतलब क्या...? मतलब कि ‘आयी मौज फ़कीर की दिया झोपड़ा फूँक....!’ गाँव-जवार, सरकार-जमींदार, ठाकुर-ठिकेदार, किसान-गिरहथ सबसे लकड़ी-काठी माँगा...! नहीं कुछ मिला तो अपना झोपड़ा ही जला दिया...। ऐसा भी मुरुख काहीं आदमी हुआ है...! दूसरे को तापने के लिये अपना झोपड़ा जला दिया...! अब मरेगा शीतलहरी में।”
हमरे बाबा भी वहीं खरे थे हमरा हाथ पकड़े। बोले, “अजब जमाना है झाजी...! परोपकारी जीव को आज सब मुरुख ही कहता है...! अरे भगतू सच्चा सनियासी है। दुनिया, मोह-माया से विरक्त। विरक्त आदमी को भला किस चीज की परवाह? झोपड़ा रहे ना रहे... उसे तो औरों को सुख पहुँचाने में मौज आता है। और भले तो आप कहे, ‘आयी मौज फ़कीर की, दिया झोपड़ा फ़ूँक।’ बैरागी आदमी ऐसा ही होता है। अपने धुन में आ जाए तो किसी भी चीज की चिंता नहीं करता। सरबस निछावर कर देता है। बस मौज आनी चाहिये।”