शनिवार, 31 दिसंबर 2011

फ़ुरसत में … नए साल के अवसर पर मंगल-कामना है!

फ़ुरसत में …

नए साल के अवसर पर मंगल-कामना है!

आज पुराना (2011) जा रहा है और नया (2012) आ रहा है।

यह जो साल बीत रहा है, किसी और बात के लिए याद रहे न रहे भ्रष्टाचार के लिए तो अपना नाम सुनहरे अक्षरों में लिखवा कर ही जा रहा है। साल में देश ने एक से एक भ्रष्टाचरण देखे। और देखा सुना एक से एक भ्रष्टोपदेश! सब कुछ देखने के बाद वह न देख पाई जनता जिसे देखना चाहती थी। वह तो, जैसा कि सूर्खियों में आया लड़खड़ा कर गिर ही गया। हर चीज़ में एक ‘गुड’ होता है जी। कहते हैं जो गिरता है वही तो फिर से उठकर चलता है।

हर शाम सूरज को ढलना सिखाती है,

हर रात परवाने को जलना सिखाती है,

गिरने पर होती है हमें तकलीफ़ मगर

ठोकर ही इंसान को चलना सिखाती है।

अब भाषणों का दौर चल रहा है। चलेगा। किसी ने सही कहा है “जहां विचारों की कमी हो वहां भाषणों की बहुतायत होती है।”

हो भी क्यों नहीं? यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। यह लोकतंत्र है। यहां गिनती का खेल चलता है। अब गिनती के खेल में कभी पासा इस करवट तो कभी उस करवट।

जमहूरियत इक तर्ज़े-हुक़ूमत है कि जिस में,

बंदों को गिना करते हैं तोला नहीं करते।

हम भी किन उलझनों में फंस गए। आज तो हम नए साल की बात करें, नए संकल्प लें। हम सदाचारी बनें यहीं नए साल का संकल्प है। क्योंकि सदाचार सुखमय जीवन की कुंजी है।

जो शरीर, वाणी तथा मन से संयत है, मन से भी कोई पाप कर्म नहीं करता, तथा स्वार्थ के लिए झूठ नहीं बोलता, ऐसे व्यक्ति को सदाचारी कहते हैं।

सदाचार मानव जीवन को कल्याण प्रदान करता है। सदाचार से बुरे लक्षणों का नाश होता है। दूसरों की निन्दा, चुगली, बदनामी, हम कभी न करें। क्रूरताभरी बातें न बोलें। बाणों से बिंधा हुआ, फरसे से कटा हुआ वन पुनः अंकुरित हो जाता है, पर दुर्वचन रुपी शस्त्र से किया हुआ भयंकर घाव कभी नहीं भरता। भीतर और बाहर, दोनों प्रकार, शान्त रहने वाला ही प्रसन्न रहता है। शान्त भाव, शिव भाव और अद्वैत भाव का मिलन ही सदाचार समझना चाहिए।

गर्दन काटने वाला शत्रु भी उतनी हानि नहीं करता, जितनी हानि दुराचार में प्रवृत्त अपना ही स्वयं का कर सकता है।

नए साल के अवसर पर मंगल-कामना है –

सर्वस्तरतु दुर्गाणि सर्वो भद्राणि पश्यतु।

सर्वः कामानवाप्नोतु सर्वः सर्वत्र नन्दतु॥

सब लोग कठिनाइयों को पार करें। सब लोग कल्याण को देखें। सब लोग अपनी इच्छित वस्तुओं को प्राप्त करें। सब लोग सर्वत्र आनन्दित हों

और ...

सर्वSपि सुखिनः संतु सर्वे संतु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद्‌ दुःखभाग्भवेत्‌॥

सभी सुखी हों। सब नीरोग हों। सब मंगलों का दर्शन करें। कोई भी दुखी न हो।

मनोज कुमार

गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

आँच-102 काव्य की भाषा – 5


आँच-102
काव्य की भाषा – 5
हरीश प्रकाश गुप्त
काव्य की भाषा विषयक शृंखला के अंक-3 में महाकवि भारवि द्वारा उत्तम भाषा की जो विशेषताएँ बतलाई गई हैं उनमें से अपवर्जितविप्लव पर चर्चा की गई थी। अंक-4 में दूसरी विशेषता शुचौ अर्थात शुचिता पर चर्चा की गई। इस क्रम में, इस अंक में तीसरी विशेषता हृदयग्राहिणी पर चर्चा की जाएगी।
हृदयग्राहिणी
प्रत्येक रचनाकार रचना के माध्यम से अपने भाव सम्प्रेषित करने के लिए उसकी भाषा में सांकेतिक प्रतीकों, बिम्ब-विधान, प्रचलित रीति एवं रूढ़ियों तथा शिल्प के विविध स्वरूपों का प्रयोग करता है। ये समस्त संकेत, विधान और अभिप्राय प्रतीकात्मक संकेत मात्र होते हैं और जब ये प्रसंगानुकूल और भावानुकूल होते हैं तो रचनाकार के मन्तव्य से पाठक के हृदय तक तादाम्य स्थापित करते हैं। जब पाठक रचना में निहित अर्थ और अनुभूति से अपने स्वयं के संस्कारों का तादाम्य पाता है तो वह उसका हो जाता है और रचना हृदयस्पर्शी, अन्यथा वह उससे मुँह फेर लेता है।   
महाकवि भारवि कहते हैं की काव्य की भाषा ऐसी होनी चाहिए जो पाठक अथवा श्रोता के हृदय को स्पर्श कर सके, तभी काव्य का मर्म पाठक के अन्तस को झंकृत कर सकेगा। रचनाकार का उद्देश्य भी तो उसके हृदय को स्पर्श करने का ही है, अन्यथा काव्य प्रयोजन ही समाप्त हो जाएगा। प्रत्येक रचना में भाव तथा विषय का अन्योन्य अवगुण्ठन होना चाहिए। भाषा को हृदय तक पहुँच बनाने के लिए उसे भाव तथा विषय, दोनों के स्तर पर अनुरूप शब्द विधान तथा उपयुक्त शैली से सुसज्जित होना चाहिए। काव्य में प्रधानता व्यंजना की होती है। यदि भावों की अभिव्यक्ति सीधी सपाट बयानी द्वारा अथवा उथलेपन से की गई होगी तो भाषा में कोई आकर्षण नहीं होगा और रचना रसहीन होगी तथा वह पाठक को प्रभावित किए बिना ही अपने संस्कारों को प्राप्त होगी। यदि भावों की अभिव्यंजना अत्यधिक निगूढ़ होती है और रसिक तथा विद्वज्जनों को उसे समझने में कठिनाई आती है, तो भी रचना का उत्कर्ष नहीं होगा। भावों का अर्थ पाठक के समक्ष सीधे-सीधे प्रकट न होकर व्यंजना के माध्यम से अर्थबोध कराने वाला होना चाहिए। भाषा हृदयग्राही एवं आकर्षक हो इसके लिए यह भी आवश्यक है कि उसमें प्रयोगों की नवीनता हो, ताकि वह पाठक को चमत्कृत कर सके। पारम्परिक प्रयोग भाषा को प्रायः बेजान बना देते हैं। अतः साहित्य में शब्दों का प्रयोग कौशल द्वारा किया जाना चाहिए, जिससे काव्य में प्रयुक्त शब्द नए से प्रतीत हों। इससे पाठक को रचना की भाषा में ताजगी की अनुभूति होगी। ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धन ने इस विषय में कहा है कि एक प्रतिभा सम्पन्न रचनाकार की लेखनी से निर्गत वही पुराने शब्द नए से प्रतीत होते हैं जैसे पतझड़ के बाद नई कोंपले आ जाने से पुराने पेड़ नए से लगने लगते हैं। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि काव्य की भाषा अर्धावृत्त अंगों-उपांगो वाली सद्यस्नाता की तरह होनी चाहिए जिसका आकर्षण उसके अनावृत्त होने पर क्षीण हो जाता है।
भाषा में भावानुरूप शब्दों का विशेष महत्व है। कोमल और मधुर भावों की अभिव्यक्ति के लिए कोमल और मधुर शब्दावलि प्रयोग की जानी चाहिए। मधुर वर्णन में कठोर अथवा कर्णकटु शब्दों से बचना चाहिए। इसी प्रकार कठोर भावों की अभिव्यक्ति के लिए कठोर व रूखे शब्द अधिक उपयुक्त प्रतीत होते हैं। टवर्ग को कठोर अक्षरों वाला माना जाता है। संयुक्ताक्षर भी इसी श्रेणी के अक्षर हैं। इसी प्रकार प्रत्येक वर्ग के द्वितीय तथा चतुर्थ अक्षर भी कठोर माने जाएँगे क्योंकि वे भी संयुक्ताक्षर ही हैं। सब में महाप्राण ध्वनि 'ह' चुपके से उपस्थित है। अतः कोमल-कान्त भावों की अभिव्यक्ति के लिए कठोर वर्णों से युक्त शब्दों की अधिकता हृदयस्पर्शी नहीं हो सकती। 'म' और 'न' कोमल वर्गीय होते हैं, ये जब किसी अक्षर से संयुक्त होते हैं, तो उसे भी अपने में ढालने की सामर्थ्य रखते हैं, और तो और, इनके अनुस्वार स्वरूप तो और भी मनभावन बन जाते हैं। उदाहरण के लिए 'क' के तुरन्त बाद फिर 'क' का प्रयोग अग्राह्य ही होता है। जैसे - 'काक कहो अपनी तुम भी कथा' में 'काक' के बाद 'कहो' में 'क' का उच्चारण असहज हो रहा है। लेकिन, जैसा कि पहले कहा है, 'म' और 'र' की अनन्तर आवृत्ति कर्णकटु या जिहृवा के लिए दुरूह नहीं होतीं - 'नाम महीपति का इतना'। यहाँ 'म' की पुनरावृत्ति और मधुर बन गई है। ये उदाहरण तो संकेत मात्र हैं तथापि उद्धरणों की शृंखला का कोई अंत नहीं है। कहने का तात्पर्य इतना कि रचना की भाषा को शब्द, अर्थ और अभिव्यंजना, सभी के स्तर पर विषयानुकूल और सुगम होना चाहिए तभी वह हृदयस्पर्शी बन सकेगी। इसलिए भाषा को अग्राह्य होने से बचाना चाहिए और अश्रव्य प्रयोग नहीं करने चाहिए।
क्रमशः

बुधवार, 28 दिसंबर 2011

देसिल बयना - 111 : योगी था सो उठ गया आसन रही भभूत

 
- करण समस्तीपुरी
आधुनिकता का संक्रमण तेजी से फ़ैल रहा था। शहर गावों को लील रहे थे। तथाकथित सभ्यता आत्मीयता को निगल रही थी। प्रत्युपकार को प्रतिद्वंदिता निगल रही थी। प्रोत्साहन की जगह इर्ष्या घर कर रही थी। उदारता की जगह संकीर्णता बढ़ रही थी। प्रातकाली की जगह शीला की जवानी ने ले लिया था और भगतू फ़कीर की झोपरी की जगह थोड़ी सी राख।
धरोहरों के संरक्षण के नाम पर रेवाखंडवासी भगतू फ़कीर के झोपड़ी की राख को अब तक संजोये हुए थे। भगतू फ़कीर और उनकी झोपड़ी का किस्सा भी बहुत पुराना है। ‘परमारथ के कारणे साधुन धरा शरीर’। आह... भगतू बाबा सच्चे साधु थे। परम परोपकारी। कहते हैं कि एक बार ऐसे ही घने कोहरे और जानमारुक शीतलहर के प्रकोप से रेवाखंड को बचाने के लिये अपना झोंपड़ा तक जला दिये थे। लोग अभी तक कहते हैं, “आयी मौज फ़कीर की दिया झोपड़ा फ़ूंक।” आ.. हा.. हा...! दूसरे को बचाने के लिये अपनी झोपड़ी तक जला दिये। बबाजी थे जोगी। सिरिफ़ बिष्टी पहन कर पूस की रात से लड़ लिये। मगर माघ निकला घाघ। बेचारे बाबाजी को पछाड़ दिया।
एक दिन दुपहरिया में सूरुज महराज भुकभुकाए तो रेवाखंड में भी हलचल हुई। कोई अखारा दिश से आ रहा था। कहिस की भगतू बाबा भुइयां लोटे हुए हैं। जीभ बाहेर और आँखे खुली हुई...। अब तो शीत गिरे की पाला...! सब दौड़ा अखारा दिश। फ़टाक से कौनो लोटकन मिसिर को भी साइकिल पर चढ़ा लाया। मगर काल ग्रसत कछु औसध नाही। मिसिर बैद नाड़ी टटोल कर मुरी झुका लिये। कई जोड़ी आँखें गमगीन हो गयी थी। कुछ तो बह भी चलीं।
भगतू फ़कीर के परलोक गमन की खबर उभी स शीतलहर में जंगल के आग की तरह फ़ैल रही थी। देखते-देखते सिरिफ़ रेवाखंड ही नहीं अगल-बगल पाँच गाँव के महतो-मानजन इकट्ठा हो गए। कबीरहा कीर्तन मंडली ढोल-हरमुनिया पर जोर-जोर से निर्गुन गा रहे थे, “लूटल-लूटल-लूटल हो कौन ठगवा नगरिया लूटल हो....!” चंदा-चुटकी करके गांजा-बाजा के साथे उनहि के अखाड़ा पर भगतू बाबा को अग्नि-समाधि दे दी गई।
भगतू फ़कीर नहीं रहे ना ही उनकी झोपड़ी रही। रह गयी थी तो बस उनके चिता की राख। पखारन बाबू के मदद से वही अखाड़े पर एक कुंड बनाकर उनकी राख को संरक्षित कर दिया गया था। साधू का परताप...! भगतू फ़कीर की राख का भी बड़ा महात्म्य था। केस-फ़ौदारी हो कि सुल्लह-सफ़ाई... एक चुटकी राख माथा पर लगा लीजिये, हाकिम का मति जरूर फ़िरेगा। बरतुहारी-घटकैती में जाने से पहिले एक चुटकी भभूत रुमाल में बांध लीजिये, लड़का वाले पाँव लोटेंगे।
शीत ऋतु में तो यह अखाड़ा रेवाखंड के लिये संजीवनी हो जाती थी। रेवाखंड से ठंड भगाने के लिये भगतू बाबा सब कुछ निछावर कर दिये। लोगों का विश्वास था कि उनके राख में भी गरमी थी। एक जुग तक रेवाखंड वही राख तापकर पूस-माघ काट दिया।
उ साल बड़ी विकट समस्या थी। जाड़े की जुआनी जोर पर थी। आलू-मरुआ कौन कहे... उहां तो बड़े-बड़े गाछ-बिरिछ तक में पाला मार दिया था। अखाड़ा पर वाला बुढ़वा पीपल भी झुलस गया था। समय के साथ-साथ भगतू बाबा के भभूत की तासीर भी जाती रही थी। मगर रेवाखंडी विश्वास हिला नहीं था। मारे ठंडी के घर-द्वार में तो कल (चैन) नहीं पड़ता था। उ शीतलहरी में लोग कठुआते हुए अखाड़ा अगोरे रहते थे। शायद जमावरे की वजह से ठंड कुछ कम मालूम पड़ती होगी।
ई हाल सिरिफ़ रेवाखंड का ही नहीं था। आधा देश शीतलहर के भयंकर चपेट में था। सिरिफ़ परलियामिंट में गरमी थी बांकी पूरी दिल्ली में कंपकंपी। पंजाब-हिमाचल में तो लोगों का खून जम रहा था। परदेस कमाने वाले ई हाड़तोड़ ठंडी में देश लौट रहे थे। टहलू कक्का का परिवार भी आ गया था दिल्ली से।
टहलू कक्का के परिवार को गाँव में देखकर लोगों की ठंड और बढ़ गयी थी। अरे तोरी के...! गांती बांधे बुधना चीखा, “हउ देखो... उ के पास तो इंगलिश जाकिट भी है।” मगर टहलू कक्का ओवर-कोट में भी सांझ-सवेरे ठिठुरते रहते थे। जनम-जुआनी तो हुआ रेवाखंड में ही मगर एक जुग से दिल्लीए बसे थे। सपरिवार। तेरे को - मेरे को सुनकर रेवाखंडी ठठा-ठठा हँसते हैं तो कक्का का परिवार कहता है, “ओए...! भुच्च बिहारी है...!”
परदेसी परिवार का गाँव वालों से मेल-मिलाप तो है मगर गाँव के जीवन में घुले-मिले नहीं है। चौपट सिंघ अपना जमाना के मिडिल पास हैं। राज-दरभंगा में मोहरिरी भी कर आये हैं। जब से टहलू कक्का गाँव आये हैं सबसे ज्यादे आन-जान सिंघजी के परिवार में ही है। उ दिन पेठिया से लौटते हुए सिंघजी बतहू मिसिर को कह रहे थे, “रजधानी दिल्ली में रह गए। इडभांस हो गए हैं। गाँव-गँवैती में रमने में टेम लगेगा...। टहलू भाई रम भी जाएं मगर बाल-बच्चा...!”
जो भी हो टहलू कक्का का परिवार पूरे गाँव में चरचा का विषय था। चर्चा का सबसे बड़ा केन्द्र था भगतू फ़कीर का अखाड़ा। दू कारण से। एक तो गाँव भर के मरद-जनानी दुपहर से सांझ यहीं बिताते थे। और दूसरा यह कि टहलू कक्का के परिवार से यहाँ कोई नहीं आता था।
बुधनी माय बोल रही थी, “आकि देखो... क्या ससुर और कि पुतोहिया... आकि... बेटा-बहू...! एक्कहि बोरसी (अंगिठी) सेबे रहते हैं। आकि देखो... दुनिया-जहान में कहीं रहे लोक अपना धरम भूल जाएगा....। आकि देखो वही बोरसी तर धोधुआ हरिजन भी... ! आकि देखो कि सब के सिकरिट का धुआँ साथे उड़ता है...!”
तपेसर झा औरतिया बात में भी टप से टपक जाते हैं। बोले, “उ कि नाम से कि इहां दिल्ली वाली बेहआई खुलेआम नहीं चलेगी न.. इसीलिये घरे घुसे रहते हैं।”
बुलंती बुआ बोल रही थी, “लुत्ती लगे मुँह में... कौनो धरम-करम भी बांकी न रहा...! फ़गुनिया कह रहा था कि दैव-धरम, साधु-फ़कीर भी नहीं बुझता है। लुत्ती लगे... उ दिन अंगारघाट वला बबाजी को कह रहे थे, “एन्ना हट्टा-कट्ठा शरीर है...! कौनो चाकरी काहे नहीं कर लेते....!”
“बाप रे...!” बुलंती बुआ के बात पर छबीली मामी आदतन अपनी लंबी जीभ को दांतो से काट ली थी। तपेसर झा बोले थे, “उ परिवार ओरे से भठियारा है.... कि नाम से कि...!”
अलिजान मियाँ बोले, “अरे उ हाफ़-मैंड है। अबहि रस्ते में हमें रोक कर चाह पिला दिया। बतिया भी रहा था मनगर बात। मगर इहां आने बोले तो कहता है कि धुर्र... उ एक जमाना था। अब क्या है...? ‘योगी था सो उठ गया, आसन रही भभूत।’ न भगतू बबाजी रहे न उनकी धुनी। भगतू बबाजी अपने ठंडी से कठुआकर मर गए... अब उनकी राख सेंके जाड़ा जाएगा...! खों...खों... खों...!’ बताओ साधु-संत का कहीं मरण हो... उनका चोला भले बदलता मगर परभाव तो वही रहता है। हाफ़-मैंड कहीं का....!”
यह पूरी चरचा चौपट सिंघ को रास नहीं आ रही थी। बोले, “ए में हाफ़ मैंड वाली का बात हुई मौलबी साहेब? अरे गलत का कहे टहलू चौबे....? बेचारे भगतू बबाजी रहते थे तो कौनो दुनिया-जहान से जोगार लगा के धुनी रमाये रहते थे...। जब कुछ जोगार नहीं बचा तो बेचारे अपना झोपड़ी तक जला दिये...। तो ठंडी भागती थी उनके करम से।” सिंघ जी कुंड से एक मुट्ठी राख उठाते हुए बोले, “उ तो हम आप एक अंध-बिसबास से इसे अगोरे रहते हैं वरना ई राख खुदे कबकी ठंडी हो गयी...। भले तो कहे टहलू चौबे, ‘योगी था सो उठ गया, आसन रही भभूत।’ अब पुराना प्रभाव तो रहा नहीं। न उ जोगी-भगत रहे न और कौनो उपाय। तो बस उनके नाम पर समय काटे जा रहे हैं।”
बात खतम करते-करते सिंघजी अपना खादी भंडार वाला बड़का चद्दर झटक के कंधे पर रखे और उठ चले...।

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

शरद की चांदनी

शरद की चांदनी

श्यामनारायण मिश्र

हर   दिशा  की लाड़ली है, यह शरद की चांदनी।

क्षीर   सागर    में पली है,  यह शरद की चांदनी।

 

आपका     जूड़ा      सजाने   की   हुई       इच्छा,

रातरानी   की      कली है, यह शरद की चांदनी।

 

खिलखिलाहट     आपकी   ठहरी   हुई   है   क्या?

या कि मिसरी की डली है, यह शरद की चांदनी।

 

आंगन,  दालान,  छत,   एक  करती   आपकी,

उम्र जैसी  मनचली है,  यह शरद की चांदनी।

 

नहाकर   नर्मदा   निकली   आपकी   निर्मल,

देह जैसी मखमली है, यह शरद की चांदनी।

 

गुनगुनाती है  कभी, खिलखिलाती  है कभी,

आप जैसी  बावली है, यह शरद की चांदनी।

रविवार, 25 दिसंबर 2011

भारतीय काव्यशास्त्र – 96


 भारतीय काव्यशास्त्र – 96
आचार्य परशुराम राय

पिछले कुछ अंकों में लगातार वाक्यदोषों पर चर्चा हो रही है। आज शेष बचे दो वाक्यदोषों- अक्रमता तथा अमतपरार्थता पर चर्चा की जाएगी। इसके अतिरिक्त अर्थदोषों पर परिचयात्मक चर्चा भी इस अंक का अभीष्ट है।
पहले भग्नप्रक्रमता दोष पर चर्चा की जा चुकी है। अक्रमता दोष की व्याख्या करते समय आचार्य मम्मट लिखते हैं- अविद्यमानः क्रमो यत्र, अर्थात् जहाँ क्रम विद्यमान न हो, वहाँ अक्रम या अक्रमता दोष होता है। भग्नप्रक्रमता दोष में देखा गया कि जिस शैली में रचना प्रारम्भ हुई, उस क्रम को छोड़कर बीच में क्रम टूट जाता है। पर जहाँ क्रम का अभाव होता है, वहाँ अक्रमता दोष होता है-   
द्वयं  गतं  सम्प्रति  शोचनीयतां  समागमप्रार्थनया  कपालिनः।
कला च सा कान्तिमती कलावतस्त्वमस्य लोकस्य च नेत्रकौमुदी।।
अर्थात् कपाल धारण करनेवाले भगवान शिव को पाने की आपकी प्रार्थना के कारण दोनों की दशा चिन्तनीय हो गयी है- एक तो चन्द्रमा की चाँदनी और दूसरी तुम, जो इस संसार के  नेत्रों की कौमुदी हो।
यहाँ कला च की तरह त्वम् के बाद का प्रयोग उचित होता। क्योंकि दो अन्योन्याश्रित उपवाक्य में समानता होनी चाहिए।
जहाँ दूसरा अर्थ प्रकृत अर्थ (यहाँ अभीष्ट अर्थ) के विरुद्ध हो, वहाँ अमतपरार्थता दोष होता है-
राममन्मथशरेण  ताडिता  दुःसहेन हृदये निशाचरी।
गन्धवद्रुधिरचन्दनोक्षिता जीवितेशवसतिं जगाम सा।।
अर्थात् कामदेव रूपी राम के बाण से आहत हृदय होने के कारण वह राक्षसी (ताडका) जिसके घायल हृदय से निकले दुर्गन्धयुक्त रक्तरूपी चन्दन से लिप्त होकर यमपुरी (दूसरे पक्ष में अपने प्राणनाथ के लोक में अभिसारिका के रूप में) चली गयी।  
प्रकृत (अभीष्ट) वीभत्स रस के वर्णन में विपरीतार्थक शृंगार रस को व्यंजित करनेवाला अभिसारिकापरक दूसरा अर्थ यहाँ कविता को दूषित कर गया है, जिसे अमतपरार्थता दोष कहा जाता है।
यहाँ वाक्यदोष समाप्त होते हैं। अब अर्थदोषों पर चर्चा प्रारम्भ हो रही है। कुल तेइस अर्थदोष हैं-
अर्थोSपुष्टः कष्टो व्याहतपुनरुक्तदुष्क्रमग्राम्याः।।
सन्दिग्धो निर्हेतुः प्रसिद्धविद्याविरुद्धश्च।
अनवीकृतः सनियमानियमविशेषाविशेषपरिवृत्ताः।।
साकाङ्क्षोSपदयुक्तः सहचरभिन्नः प्रकाशितविरुद्धः।
विध्यनुवादायुक्तस्त्यक्तपुनःस्वीकृतोSश्लीलः।। (काव्यप्रकाश, सप्तम उल्लास)
अर्थात् अपुष्ट, कष्ट, व्याहत, पुरुक्त, दुष्क्रम, ग्राम्य, सन्दिग्ध, निर्हेतु, प्रसिद्धविरुद्ध, विद्याविरुद्ध, अनवीकृत, सनियम-परिवृत्त, अनियम-परिवृत्त, विशेष-परिवृत्त, अविशेषपरिवृत्त, साकांक्ष, अपदयुक्त, सहचरभिन्न, प्रकाशितविरुद्ध, विध्ययुक्त, अनुवादायुक्त, त्यक्तपुनःस्वीकृत और अश्लील अर्थदोष हैं।
इन अर्थदोषों पर चर्चा अगले अंक से प्रारम्भ की जाएगी। इस अंक में बस इतना ही।
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शनिवार, 24 दिसंबर 2011

फ़ुरसत में ... कुछ भी तरतीब से नहीं हो रहा!

फ़ुरसत में ...(अंक-86)

कुछ भी तरतीब से नहीं हो रहा!

मनोज कुमार

आज सुबह से मूड खराब है। कुछ अच्छा नहीं सूझ रहा। ऑफिस में जाते ही एक मेरा प्रिय स्टाफ़ रुआंसे स्वर में कहने लगा साहब आप नहीं आए .. मुझ पर इतनी बड़ी मुसीबत आ पड़ी थी। मैंने पूछा क्या बात हुई ..? बताया उसके छोटे बेटे ने, जो लगभग बीस साल का था पंखे से झूल कर खुदकुशी कर ली।

मैं सन्न! ऑफिस की छत की तरफ़ देखता हूं। सोचता हूं, इस सीलिंग फैन का ईज़ाद किसने किया? उसे गाली देता हूं।

उसने रोते-रोते जो बताया इसका सार यह था कि दिन भर नेट, चैटिंग फ़ेसबुक करता रहता था। किसी से ब्रेकअप हुआ था। फोन पर रात के ग्यारह बजे उससे बात कर रहा था और रो रहा था। मां ने डांट लगाई कि कल सेमेस्टर का एक्ज़ाम है। पढ़ाई करो। ये फ़ेसबुक और मोबाइल काम नहीं आएगा। मां से लड़ा। सुबह पंखे से झूलता पाया गया। जाने वाला तो गया। ऊपर से मां-बाप को पुलिस का चक्कर अलग। अब ऐसे मामलों में कुछ दे-दा कर मामला बन्द होता है, किया जाता है। उसने भी किया।

क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है?

संसद में सुना है एक बिल आया है जिसके पास होने से ही भ्रष्टाचार बिला जाएगा।

मन ही मन सोचता हूं सरकार अच्छा ही कर रही है इन सोशल साइट को बन्द करने का प्रयास करके।

आज कुछ भी तरतीब से नहीं हो रहा। विचार भी बड़े बेतरतीब आ रहे हैं।

जब मैं डिस्टर्ब होता हूं, सलिल भाई को फोन लगाता हूं। उनसे बात कर सुकून मिलता है। आज भी फोन लगाया। इंगेज आ रहा था। बार-बार लगाया। बार-बार इंगेज। क्या बात है? कुछ गड़बड़ तो नहीं। इस बार री-डायल करते वक़्त नम्बर को ग़ौर से देखता हूं। अरे ... यह तो मेरा ही नम्बर है। तब से अपना ही नम्बर मिलाए जा रहा हूं। आपने कभी ख़ुद को फोन लगाके देखा है। मतलब औरों के नम्बर तो हम फटाफट डायल करते हैं, हा-ही करके घंटों बातें करते रहते हैं। कभी खुद का नम्बर डायल कीजिए और अपनी आवाज़ सुनिए।

किया डायल ... इंगेज टोन आया और यह मैसेज आया कि अभी यह लाइन व्यस्त है।

दुनिया से मिलने में सब मस्त हैं

पर ख़ुद से मिलने की सभी लाइने व्यस्त हैं।

ऐसी ही हालत संसद में दिखी। कोई दिखा रहा था कि उनका जन्म 1948 में हुआ। यानी उनके जहान में आने की ख़बर सुन 1947 में ही अंग्रेज़ भाग खड़े हुए देश छोड़कर। हमारे सारे चुने हुए प्रतिनिधि क़रीब तीन मिनट तक ठहाके लगाते हैं। इस वर्ष का सबसे बड़ा चुटकुला। वे भी खुद से मिलना नहीं चाहते ... हजार कड़ोर का चारा घोटाला अब किसे याद करने की ज़रूरत है? कोई क्यों याद रखे।

याद तो 1948 रहेगा। उस वर्ष उनका जन्म हुआ था। यह शायद ही कोई याद रखना चाहे कि उस वर्ष हमने हमारे राष्ट्रपिता को भी खोया था। अंग्रेज़ ने जाते-जाते जो बीज बोया उसका फल था उनका जाना? पता नहीं। किन्तु इन्हीं विद्वजन का कहना है, रोपे पेड़ बबूल का आम कहां से होए! फिर ठहाका। क्या यह भी चुटकुला ही है। पता नहीं कौन किस पर हंस रहा है।

जो 1948 में हमसे दूर गए उनकी तस्वीर देखता हूं। वे मुस्कुरा रहे हैं। उनकी तस्वीर के नीचे लिखा है – मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। उनके पदचिह्नों पर कोई चले, तो वह देश के कई लोगों की आंखों की किरकिरी बन जाता है।

एक और आवाज़ संसद में गूंजती है --- देयर कैन बी ओनली वन फ़ादर ऑफ नेशन! मेजे थपथपा कर स्वागत किया जाता है। मानों कोई नई बात कह दी गई हो। अनोखी!

आज की सबसे बड़ी बुराई है कि आप भ्रष्ट नहीं हैं। उससे भी बुरा है कि आप भ्रष्टाचार हटाने की मांग रखते हैं। कौन अपने पैर में कुल्हाड़ी मारेगा। मैं अतीत में खो जाता हूं। रिसर्च करने के साथ राज्य प्रदूषण नियंत्रण परिषद में नौकरी करता था। फ़ैक्टरी के सैम्पल लाता था और उसकी रिपोर्ट पेश करता। फ़ैक्टरी को मुसीबत। जब तक ईफ़्लुएंट सही नहीं आएगा उत्पादन बन्द। ऐसे ही एक फ़ैक्टरी के सैम्पल की जांच कर निबटा और नीचे पान की दुकान पर पान खाने जाता हूं। चार गुंडों ने घेर लिया। छाती पर पिस्तौल तान कर बोला सैम्प्ल बदल, रिपोर्ट ठीक कर और यह बैग रुपयों से भरा है ले जा, वरना .... ठोक देंगे। जवानी का जोश था, सीना तान कर चिल्लाया, है हिम्मत तो चला गोली। मेरे चिल्लाने से वे भाग खड़े हुए। ऑफिस के मेरे सारे मित्र मेरे दुश्मन हो गए – साला न खुद खाता है, न हमें खाने देता है।

सड़ चुकी व्यवस्था ... एक ऐसे बिल को आने देगी जो न खुद खाए न खाने दे। हुंह!

मेरे श्वसुर के डेथ सर्टिफ़िकेट निकलवाने में मुझे डेथ और बर्थ रजिस्ट्रार ऑफिस के बीसियों चक्कर लगाने पड़े। नहीं निकला। मेरा साला बोला आपसे कुछ नहीं होगा। आज मैं जाता हूं। वह बारह बजे तक वापस आया। हाथ में मृत्यु-प्रमाण पत्र था। उसने दौ सौ रुपए खर्चे।

मरने का प्रमाण पत्र पाने के लिए भी घूस देना पड़े जिस व्यवस्था में वहां यह बिल आ जाएगा, ... आने दिया जाएगा?

आह! आज कल कलकत्ते में सबसे ठंडा दिन था! दिल्ली में? दिल्ली वाले ही जाने। वहां कुछ ज़्यादा ही होगी। इसीलिए तो बहुत कुछ वहां ठंडे बस्ते में चला जाता है। महिला आरक्षण के नाम से एक बिल होता था। आजकल कोल्ड स्टोरेज में है। कल लोकपाल भी होगा। और नहीं तो क्या?

थोड़ी धूप निकली है। धूप ही सेंक लूं। पहले हर अच्छी बात का मज़ाक बनता है, फिर उसका विरोध होता है और फिर उसे स्वीकार कर लिया जाता है। टीवी बन्द कर देता हूं। श्रीमती जी चिल्लाती हैं क्यों बन्द किया ... कितना अच्छा बोल रहा था। मैं बोलता हूं --- अच्‍छा वक्‍ता तो कोई भी बन सकता है, परन्‍तु दूसरों के लिए अनुकरणीय श्रेष्‍ठ जीवन कितने लोग जीते हैं। चलो धूप में बैठें। इनको सुन कर क्या होगा?

क्या मैं निराशावादी होता जा रहा हूं?

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

शिवस्वरोदय – 73


शिवस्वरोदय 73
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में शिवस्वरोदय का समापन हुआ। यह निश्चित किया गया था कि कुछ ऐसे पहलुओं पर चर्चा की जाय, जिनका बिना किसी गुरु के अभ्यास किया जा सकता है और वे निरापद तथा लाभप्रद भी हो। इसी उद्देश्य से यह अंक लिखा जा रहा है। जबतक सक्षम गुरु न मिल जाय या गहन साधना करने की उत्कण्ठा न हो, इस विज्ञान में बताई गयी निम्नलिखित बातों का नियमित पालन किया जा सकता है। इससे आपको दैनिक जीवन के कार्यों में सफलता मिलेगी, आपके आत्मविश्वास का स्तर काफी ऊँचा रहेगा, हीन भावना से मुक्त रहेंगे और आपका स्वास्थ्य ठीक रहेगा।   
1.     प्रातः उठकर विस्तर पर ही बैठकर आँख बन्द किए हुए पता करें कि किस नाक से साँस चल रही है। यदि बायीं नाक से साँस चल रही हो, तो दक्षिण या पश्चिम की ओर मुँह कर लें। यदि दाहिनी नाक से साँस चल रही हो, तो उत्तर या पूर्व की ओर मुँह करके बैठ जाएँ। फिर जिस नाक से साँस चल रही है, उस हाथ की हथेली से उस ओर का चेहरा स्पर्श करें।
2.    उक्त कार्य करते समय दाहिने स्वर का प्रवाह हो, तो सूर्य का ध्यान करते हुए अनुभव करें कि सूर्य की किरणें आकर आपके हृदय में प्रवेश कर आपके शरीर को शक्ति प्रदान कर रही हैं। यदि बाएँ स्वर का प्रवाह हो, तो पूर्णिमा के चन्द्रमा का ध्यान करें और अनुभव करें कि चन्द्रमा की किरणें आपके हृदय में प्रवेश कर रही हैं और अमृत उड़ेल रही हैं।
3.    इसके बाद दोनों हाथेलियों को आवाहनी मुद्रा में एक साथ मिलाकर आँखें खोलें और जिस नाक से स्वर चल रहा है, उस हाथ की हथेली की तर्जनी उँगली के मूल को ध्यान केंद्रित करें, फिर हाथ मे निवास करने वाले देवी-देवताओं का दर्शन करने का प्रयास करें और साथ में निम्नलिखित श्लोक पढ़ते रहें-
कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती।
करमूले तु गोविन्द प्रभाते करदर्शनम्।।
अर्थात कर (हाथ) के अग्र भाग में लक्ष्मी निवास करती हैं, हाथ के बीच में माँ सरस्वती और हाथ के मूल में स्वयं गोविन्द निवास करते हैं।
4.    तत्पश्चात् निम्नलिखित श्लोक का उच्चारण करते हुए माँ पृथ्वी का स्मरण करें और साथ में पीले रंग की वर्गाकृति (तन्त्र और योग में पृथ्वी का बताया गया स्वरूप) का ध्यान करें-
समुद्रवसने    देवि     पर्वतस्तनमण्डले।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे।।
फिर जो स्वर चल रहा हो, उस हाथ से माता पृथ्वी का स्पर्श करें और वही पैर जमीन पर रखकर विस्तर से नीचे उतरें।
इसके दूसरे भाग में अपनी दिनचर्या के निम्नलिखित कार्य स्वर के अनुसार करें-
1.     शौच सदा दाहिने स्वर के प्रवाहकाल में करें और लघुशंका (मूत्रत्याग) बाएँ स्वर के प्रवाहकाल में।
2.    भोजन दाहिने स्वर के प्रवाहकाल में करें और भोजन के तुरन्त बाद 10-15 मिनट तक बाईँ करवट लेटें।
3.    पानी सदा बाएँ स्वर के प्रवाह काल में पिएँ।
4.    दाहिने स्वर के प्रवाह काल में सोएँ और बाएँ स्वर के प्रवाह काल में उठें।
स्वरनिज्ञान की दृष्टि से निम्नलिखत कार्य स्वर के अनुसार करने पर शुभ परिणाम देखने को मिलते हैं-
1.     घर से बाहर जाते समय जो स्वर चल रहा हो, उसी पैर से दरवाजे से बाहर पहला कदम रखकर जाएँ।
2.    दूसरों के घर में प्रवेश के समय दाहिने स्वर का प्रवाह काल उत्तम होता है।
3.    जन-सभा को सम्बोधित करने या अध्ययन का प्रारम्भ करने के लिए बाएँ स्वर का चुनाव करना चाहिए।
4.    ध्यान, मांगलिक कार्य आदि का प्रारम्भ, गृहप्रवेश आदि के लिए बायाँ स्वर चुनना चाहिए।
5.    लम्बी यात्रा बाएँ स्वर के प्रवाहकाल में और छोटी यात्रा दाहिने स्वर के प्रवाहकाल में प्रारम्भ करनी चाहिए।
6.    दिन में बाएँ स्वर का और रात्रि में दाहिने स्वर का चलना शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक दृष्टि से सबसे अच्छा माना गया है।
इस प्रकार धीरे-धीरे एक-एक कर स्वर विज्ञान की बातों को अपनाते हुए हम अपने जीवन में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त कर सकते हैं। इस विषय को यही विराम दिया जा रहा है। स्वर-रूप भगवान शिव और माँ पार्वती आप सभी के जीवन को सुखमय और समृद्धिशाली बनाएँ।******

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

आँच-101 काव्य की भाषा – 4


आँच-101
काव्य की भाषा – 4
हरीश प्रकाश गुप्त
2. शुचौ
पिछले अंक में कविता की भाषा के सन्दर्भ में अपवर्जितविप्लव अर्थात् भाषा को भाषिक-विप्लव से मुक्त रखनापर चर्चा की गई थी। महाकवि भारवि ने भाषा की दूसरी विशेषता पद-शुचिता पर बल दिया है। यहाँ शुचिता का अर्थ है - शुद्धता। आज इसी पर चर्चा की जाएगी।

जब हम भाषा में पद की शुचिता या शुद्धता की बात करते हैं, तो सर्वप्रथम समझना होगा कि पद क्या है? वास्तव में शब्द ही पद बनते हैं। पद और शब्द में अन्तर केवल इतना है कि जब कोई शब्द वाक्य विन्यास में रूप ग्रहण करता है तो वह पद बन जाता है, वाक्य में प्रयोग हो जाने पर ही शब्द पद कहलाता है। जब शब्द वाक्य में प्रयोग होता है, तो उसमें आवश्यकता के अनुसार अपने वर्ग के अनुरूप भाषा के व्याकरण सम्बन्धी नियमों के साथ परिवर्तन होता है। उदाहरण के लिए, हिन्दी भाषा के सम्पूर्ण शब्दों को पाँच भागों में विभक्त किया गया है - संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया और अव्यय। नियम है कि संज्ञा और सर्वनाम पद की आवश्यकता के अनुसार विभिन्न कारकों और वचनों में प्रयुक्त होंगे, विशेषण पद विशेष्य के पहले उसके लिंग का अनुसरण करेंगे, क्रियापद कर्तापद के वचन, लिंग और पुरुष का अनुसरण करते हुए अपेक्षित काल में प्रयुक्त होंगे और अव्यय पद बिना लिंग आदि का अनुसरण किए विशेषण की भाँति अपने सम्बन्धित पद के पहले आएँगे। इसके अतिरिक्त, अन्य भाषिक विधान पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है, जैसे- उपसर्ग, प्रत्यय, समास, संधि आदि। इसके साथ भाषा की प्रकृति या प्रवृत्ति की अनुकूलता का होना भी आवश्यक है। यद्यपि कि प्रकृति और प्रवृत्ति में भिन्नता भी है और समानता भी, पर, यहाँ दोनों को समान मान लेने में विशेष अन्तर नहीं पड़ने वाला है।

देखने में आता है कि कुछ लोग अनावश्यक पदों का प्रयोग कर देते हैं, जिससे कविता या रचना बोझिल होकर अर्थान्वयन में कठिनाई पैदा करती है। इसके लिए आचार्य परशुराम राय की कविता का एक अंश उदाहरण के रूप में लेते हैं-
विकल हो जाती
प्रजा की चेतना जब
भीष्म के भीषण भयानक बाण से,

यहाँकी आवृत्ति से अनुप्रास तो बड़ा ही स्वाभाविक और सुन्दर लग रहा है, पर भीषण और भयानक दोनों समानार्थी है। यदि एक विशेषण के बदले कोई दूसरा विशेषण पद की तीक्ष्णता व्यक्त करने के लिए प्रयोग किया गया होता तो अधिक अच्छा होता। लेकिन कवि ने भयोत्पादकता का अतिरेक दिखाने के लिए दो समानार्थी विशेषणों का प्रयोग एक साथ  कर दिया है। इसी प्रकार एक दोहे की अर्धाली - हे हर-हार-अहारसुत, विनय करउँ कर जोरि में मात्र पवनसुत कहने के लिए हर-हार-अहारसुत पद प्रयोग किये गए हैं, जो अर्थान्वयन में अनावश्यक अड़चन पैदा कर रहे हैं। अतएव, कहने का तात्पर्य यह है कि रचना में पद की शुद्धता के लिए अभीष्ट अर्थ के अनुकूल, विप्लव से अपवर्जित पद का प्रयोग शब्द संयम (economy of words) का ध्यान रखते हुए होना चाहिए। जिससे कि अर्थ स्वतः पदों से तरलता पूर्वक छलके। काव्यशास्त्रों में इस प्रकार के संकेत पददोष के रूप में गिनाए गए हैं।
पदगत शुद्धता के अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण है अर्थगत शुद्धता - अर्थात् पद अर्थदोष से मुक्त होना चाहिए। कविता या गद्य में प्रयुक्त पद अभीष्ट अर्थ व्यक्त करने में समर्थ हो, इसका ध्यान रखना आवश्यक है। कुछ लोग पद के प्रयोग में ऐसी भूल कर बैठते हैं कि उसे पढ़ने के बाद संशय उत्पन्न हो जाता है। प्रायः ‘अभिज्ञ शब्द को लोग न जाननेवाला या अनजान के अर्थ में प्रयोग कर बैठते हैं। जबकि इसका अर्थ जाननेवाला या जानकारी रखनेवाला होता है। ‘ज्ञ’ का प्रयोग शब्द के अन्त में करने पर इसका अर्थ जाननेवाला होता है, जैसे ‘सर्वज्ञ सब कुछ जानने वाला, इसी प्रकार ‘गणितज्ञ’ - गणित जानने वाला आदि। इसी ‘ज्ञ’ में ‘अभि’ उपसर्ग लगकर ‘अभिज्ञ’ शब्द निष्पन्न होता है। इसी प्रकार ‘अभिलाषा’, ‘अभिमान’ आदि शब्द बने हैं। लोग अभिज्ञ को भिज्ञ का विलोम समझने की भूल कर बैठते हैं, जबकि अभिज्ञ का विलोम अनभिज्ञ होता है और भिज्ञ जैसा कोई शब्द है ही नहीं। 
इसी प्रकार एक और शब्द है ‘गण्यमान्य’। इसके बदले लोग प्रायः ‘गणमान्य’ शब्द का प्रयोग कर बैठते हैं या एक ही अर्थ में दोनों का प्रयोग कर देते हैं। हालाँकि दोनों के अर्थ भिन्न हैं। ‘गण्यमान्य’ का अर्थ है गणनीय लोगों द्वारा मान्य या सम्मानित और ‘गणमान्य’ का अर्थ होगा समूह द्वारा मान्य या सम्मानित। इसी प्रकार कुछ लोग अनभिज्ञता के कारण भारी-भरकम शब्द के प्रयोग के लोभ में ‘सौजन्यता’, ‘दैन्यता’, ‘अज्ञानता’ आदि शब्दों का प्रयोग कर देते हैं, जबकि ‘सौजन्य’, ‘दैन्य’ और ‘अज्ञान’ स्वयं भाववाचक संज्ञाएँ हैं, उनमें पुनः ‘ता’ प्रत्यय जोड़कर भाववाचक बनाना हास्यास्पद लगता है। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी  लिखते हैं कि 'ऐसा करना वैसे ही है जैसे किसी को दो टोपी पहना दी गयी हो।' काव्यशास्त्र में अर्थदोष के अन्तर्गत इस प्रकार की चर्चाएँ हुई हैं।
अतएव अपने लेखन में, चाहे कविता हो या गद्य, पद और पद के अर्थ की शुचिता के प्रति सजग रहना आवश्यक है।
 क्रमशः
      

बुधवार, 21 दिसंबर 2011

देसिल बयना – 110 : आयी मौज फ़कीर की, दिया झोंपड़ा फ़ूँक

 

- करण समस्तीपुरी

कहते हैं कि ई दुनिया में सब कुछ अपने समय से चलता है। चलता होगा... चलता रहे! मगर रेवाखंड में दो चीज रेलबी के टाइम से चलता है। एक चरबजिया गाड़ी और दूसरा भगतु फ़कीर का परातकाली भजन। जाड़ा-गर्मी, मेघ-बतास सब दिन।

भगवानपुर देसुआ और अंगार घाट टीसन के बीच पड़ता है रेवाखंड। गाँव के उतरवारी सीमा पर है सुपौली टोला और उसी टोले के बीच से गुजरती है छोटी-लाइन और उसी लाइन पर नित-नियम से चार बजे भोरे गुजरती है जानकी इसपरेस। छुक-छुक-छुक-छुक..... पोंओंओं................! पता नहीं संजोग है कि उपरी हिदायत मगर सुपौली टोला से गुजरते हुए डरेबर भोंपू जरूर बजा देता है।

रेवाखंड में घड़ी और घंटा-घर का कौनो काम नहीं। वही चारबजिया गाड़ी का भोंपू एलारम है। टरेन का भोंपू बंद हुआ कि भगतू फ़कीर की परातकाली शुरू हो जाती है, “हो भोलानाथऽऽऽऽ.... ! कखन हरब दुख मोर....!” रात के आघात से मुर्छित रेवाखंड में नवप्राण का संचार हो जाता है। किसान उठ कर माल-मवेशी को घास-भूसा देते हैं तो मजदूर खेत-पथार की राह लेते हैं। महिलाएं चाह-चुक्का के जुगाड़ में चूल्हा फूँकने की तैय्यारी करती है और बड़े-बुजरूग सीता-राम...राधे-श्याम... हो महादेव कहते हुए पढ़ुए बिद्यार्थियों को पुचकारते हैं, “हौ बटुक...! उठऽ...उठऽ...। यही बखत है असली पढ़ाई का। ब्रहम-बेला में किया गया विद्याभ्यास कभी नहीं भुलाता है... उठऽ.... उठऽ....!”

धान कटाते-झराते ठंडी चरम पर पहुँच गयी। जीव-जंत तो छोड़िये प्रकृति भी एक पहर दिन तक मोटे कोहरे की धुंधली चादर ओढ़े रहती हैं। सूरुज महराज अबसेन्टी मारने लगे हैं। भगतू फ़कीर का घूरा (अलाव) दिनों-दिन बड़ा होता जा रहा है। भगतू बाबा को कौनो रोक-टोक नहीं है। कोई आय न व्यय। किसी के आगे कभी हाथ पसारने का रिकार्ड नहीं है। क्षुधाग्नि ज्यादे भड़की तो मक्के क्च्चा बाल, गेहूँ की बालियाँ, मूली, बथुआ, साग-सब्जी आकि फल-फलहरी... खेती-गाछी किसी की... पेड़-पौधे किसी के... भगतू फ़कीर को तो बस पेट-भरन से काम।

जाड़ा आया तो सरकारी कि पराइविट कौनो सूखा पेड़-टहनी हो दे कुल्हारी। फ़िर धुनी रमा के अपने कमंडल में बिना दूधे के गुर की चाह गरम। गर्मी बढ़ी तो कुआँ से कमंडल में पानी भर-भर बैठ गये सड़क किनारे। वैसे कहने के लिये पीपल गाछ तर एक झोपड़ी थी जो भगतजी की अपनी थी। बांकी आगे नाथ न पीछे पगहा।

“हो भोलानाथऽऽऽऽ.....” के अलाप के साथे लोग देह पर लोई-गिलोई लादे चल पड़ते थे भगतू फ़कीर के घूरा तर। कमंडल में राउंड के राउंड अदरक वाली गुरही चाह गरगरा रहा है। चुक्का धो-धो चढाते रहो। कप का कौनो हिसाब नहीं। कभी-कभी हमलोग भी छोटका कक्का के साथ लग जाते थे। सच्चे लोग कहते थे, भगतू बबाजी के चाह से ठंडी भी हार मानती है।

हार मानती होगी ठंडी...! मगर जवानी में कौन किसकी मानता है। जाड़े की जवानी चढ गयी है। अब तो एक बार कालहुँ सन लरहीं...! जाड़ा के मारे तो बेचारे सूरुज महराज हार मान गए। इधर कई दिनों से गाड़ी गुजरते ही भगतजी परातकाली के बीच-बीच में नाम ले-लेकर टोले-मोहल्ले के लोगों को बुलाते भी हैं। कई नामों को गीत में भी ढालकर परातकालिये के सुर में गाते हैं, “जागहुँ राम, कृष्ण दोऊ मूरत ! दशरथ, नंद, दुलारे....!”

उह्ह्ह्ह..... कट-कट-कट-कट-कट-कट.....! पहर दिन ढल गया था...! भगतू फ़कीर की परातकाली कब की ठंडी हो गयी थी मगर हमलोग रजाइये में दुबके हुए थे। जान-मारुक शीतलहरी। एक बार तो भगतू बबाजी की पुकार पर छोटका कका देह में कंबल लपेटे निकल ही रहे थे कि बाबा डपट दिये, “मार बुरबक...! ई हार कँपाने वाला ठंडी में कहाँ चला है? अब कौनो उ पहिला वला घूरा है... ठंडी मार देगा... ऐंठ जाओगे...! रहो रजाई तर शांति से।

सच्चे तो देश-परिवेश सब बदल रहा था। रेवाखंड में भी ‘मेरा-मेरी’ डिजिज का संक्रमण बड़ी तेजी से फ़ैल रहा था। कल तक पड़ोसी के घर आये अतिथियों के लिये दही भेजकर खुद सूखा खाने वाले लोग अब थाली-बर्तन भी उधार नहीं देते हैं। आजकल भगतू बबाजी भी एकाध दाता-दयाल को छोड़ कर किसी की खेती-गाछी में कदम नहीं रखते हैं। वही दिन तो धैंचा की दो सूखी टहनी काटने को लेकर कितना थूक्कम-फ़जीहत की थी फ़ोकचा की लुगाई। साधु-फ़कीर के भी सात पुरखों का उद्धार हो गया था।

गाँव-टोला के मूलगैन-मानजन मुखिया-सरपंच का परिक्रमा कर रहे हैं। जीप-गाड़ी पर सवार पूरा अमला के साथ बीडीओ साहेब आये थे काली-थान में। जबान दिए थे कि अगिले सांझ से काली-था, भगतू फ़कीर के मठ, गुरुजी के चौबटिया, अखारा, मंदिर पर, मंगल पेठिया, खादी भंडार, ढलानी और अन्य सार्बजनिक जगह पर सरकारी घूरा लगेगा...! जिला कलस्टर को कंबल बाँटने का फ़रियाद भी भेजेंगे...! हफ़्ता दिन गया... न कंबल न घूरा।

गाँव के बाबू-भैय्या भी बड़े कठोर हो गये हैं। शीशम-सखुआ तो छोड़ो लगता है खजूर-बबूर से भी कोठा उठाएंगे। कौनो एक खर देने के लिये तैय्यार नहीं। पूस की शीतलहरी हड्डी भेदने पर लगी है। सब तरफ़ त्राहि-माम! क्या दुखिया क्या सुखिया... सब पर ठंडी की मार।

ठंडी और ‘मेरा-मेरी’ डिजिज की मार सबसे ज्यादे भगतू बबाजी के धुनी पर पड़ी है। जलोधर बाबू से मिला धान का दू-चार झरुआ जला कर बेचारे परातकाली गा लेते थे। फ़्री गुरही चाह ठंढी के बावजूद लोगों की आमद काफ़ी कम हो गई थी।

गाँव में संक्रमण लगे मगर भगतू बबाजी अपने स्वभाव में क्यों संक्रमण लगने दें? दू पहर दिन गए सूरुज महराज झांके थे कोहरे की काली कंबलिया फ़ार के। लोग-वाग सुहुर-सुहुर काम-काज निपटाने लगे। भगतू बबाजी भी बिष्टी पहिरे निकल पड़े अपने काम पर। सबको हरकार रहे हैं, “हौ मरदे...! अरे ठंडी के डर से ऐसे दुबके रेवाखंड...! अपने-घर से एक-एक लकड़ी लेकर आओ आसरम पर...! फिर देखो.... कहाँ गई ठंडी-फ़तुरिया...!”

बाबा कहे थे, “का करें भगतजी...! सब आपहि जैसन निरबिकार सिध नहीं है न...? आप सनियासी हैं... हमलोग गिरहथ...! रसोई खातिर तो लकड़ी पर आफ़त है और...! मने कि न अब उ देवी न उ प्रसाद...! न सरकार कुछ सुने न जमींदार....! न धुनी न धधरा.... ई पूस के पुरबैय्या में कौन जाए हड्डी छेदाने....!” बाबा दहिने हाथ से कंबल का फ़ार बांए कंधे पर फ़ेंकते हुए बोले थे।

बाबा ही क्या पूरा मधकोठी का एही जवाब था। भगतू बबाजी कमंडल का चोंगा मुँह में लगाकर बोले, “कल से जौन कोई घूरा तापे चाहो आसरम पर आ जाओ...! सरकार से उपर भी सरकार है। सब जमींदार का सरदार है...! घूरा-धुनी जरूर लगेगा...! हर-हर महादेव! सब जन अइयो...! हर-हर महादेव!”

छुक-छुक-छुक-छुक.... पोंऽऽऽऽ.....! चारबजिया गाड़ी के भोंपू के साथ ही शुरू हो गया भगतू फ़कीर का “हो भोलानाथऽऽऽऽ.....!” कोहरे को चिरती हुई धान के झट्टे की लौ लुकझुकाने लगी थी। टोलबैय्या धीरे-धीरे ससरने लगे। हम फिर छोटका कक्का के साथ लग गए।

भगतू बबाजी तरे पर तर झरुआ जला रहे थे। खूब जोर धधरा उठ रहा था। मगर कहते हैं न कि ‘अंधा को जागे क्या धधरा को तापे क्या...!’ हनहना कर धधकता था और दुइये मिनिट में फ़ुस्स....! मगर भगतू बबाजी आज लौ को शांत नहीं होने देंगे...! एक के बुझने से पहिलहि दूसरा बोझा तैय्यार है।

एक सन्यासी के परताप से पूस की ठंडी मुँह चुराने लगी थी। देखते-देखते सारा बोझा स्वहा हो गया...! धुँधलके की गहराई जरा भी नहीं कमी थी। लोग-वाग उह-आह.... कट-कट-कट-कट... गिर-गिर-गिर-गिर.... करने लगे...! “ओह...अब चलो रजाइये तर...! ओह.. अब तो रजाई भी ठंडा गई होगी...! आह... बेकारे निकले ई काल के पहरा में...! अरे... बुरबक! उ तो धन के भगतू फ़कीर की घंटो भर के लिये तो देह-हाथ गरमाया....! रजाइयो तरे सिसियाते रहते...!” तरह-तरह की बातें होने लगी। कुछ लोग उठ कर घरमुँहा रस्ता लिये...! कुछ भगतू फ़कीर का मुखदर्शक बने रहे। पता नहीं किस उम्मीद में।

भगतू फ़कीर मिनिट भर सुने। फिर बोले, “मार ससुरी ई ठंडी नट्टिन को...! कौनो कहीं न जाओ...! अरे अबहि बहुत समान पड़ा हुआ है धुनी का। कुछ लोग बढ़ते गए। कुछ पलटे और फिर बढ़ गए। कुछ रुक कर देखने लगे।

भगतू बबाजी आखिरी बचे दो झड़ुए को सुलगाए। सुलगते हुए झड़ुए का एक छोड़ पकड़े। उठाए...! आहि रे तोरी के...! ई बबाजी! पूस में लुक्का-बाती काहे खेल रहे हैं...! मगर भगतू बबाजी तो बढ़ते जा रहे हैं। अरे....! ई क्या किये...! आहि लो...! धू... धू... फ़ट... फ़स्स... धू....! भगतू बबाजी जलता हुआ झट्टा झोपड़ी के बगल में जैसे ही रखे... झोपड़ी धू-धू... फ़ट.. स्वाहा...!

पूरे टोले में रोशनी की तेज लहर दौड़ गयी। लोग-वाग पलटे...! जो अभी तक नहीं आये थे उ भी चिखते-चिल्लाते दौड़े। जगथारी बूढा खाँसते हुए पूछ रहे हैं, “अरे कहाँ परलय आ गया...? सब ई शीतलहरी में कहाँ दौर रहा है...?”

बिसुनी झा बोले, “अरे थारीबाबू...! परलय काहे को आए...! भगतू फ़कीर को मौज आ गया है...!” “मतलब ?” “मतलब क्या...? मतलब कि ‘आयी मौज फ़कीर की दिया झोपड़ा फूँक....!’ गाँव-जवार, सरकार-जमींदार, ठाकुर-ठिकेदार, किसान-गिरहथ सबसे लकड़ी-काठी माँगा...! नहीं कुछ मिला तो अपना झोपड़ा ही जला दिया...। ऐसा भी मुरुख काहीं आदमी हुआ है...! दूसरे को तापने के लिये अपना झोपड़ा जला दिया...! अब मरेगा शीतलहरी में।”

हमरे बाबा भी वहीं खरे थे हमरा हाथ पकड़े। बोले, “अजब जमाना है झाजी...! परोपकारी जीव को आज सब मुरुख ही कहता है...! अरे भगतू सच्चा सनियासी है। दुनिया, मोह-माया से विरक्त। विरक्त आदमी को भला किस चीज की परवाह? झोपड़ा रहे ना रहे... उसे तो औरों को सुख पहुँचाने में मौज आता है। और भले तो आप कहे, ‘आयी मौज फ़कीर की, दिया झोपड़ा फ़ूँक।’ बैरागी आदमी ऐसा ही होता है। अपने धुन में आ जाए तो किसी भी चीज की चिंता नहीं करता। सरबस निछावर कर देता है। बस मौज आनी चाहिये।”