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शनिवार, 20 नवंबर 2010

फ़ुरसत में ..... सामा-चकेवा – भाई बहन के अटूट स्नेह का पर्व!

फ़ुरसत में .....

सामा-चकेवा

भाई बहन के अटूट स्नेह का पर्व!

006मनोज कुमार

बहनें होती ही हैं ऐसी – कि सारे दुख-दर्द ख़ुद सह ले, पर भाई को कोई कष्ट नहीं आए। हमेशा भाई की सुख-समृद्धि और दीर्घायु होने की कामना करती है।

इस बार के गांव प्रवास में छठ के भोरका अरग खतम होते ही दिन में पोस्ट लगाकर आपको वहां का हाल चाल सुना ही चुके थे।... फिर गांव में घर-घर जाकर प्रसाद ग्रहण और मिलने-मिलाने का कार्यक्रम होते-होते शाम हो गई। शाम ढलने के बाद ऊपर वाले कमरे में फ़ुरसत में बैठे हुए थे और अगली पोस्ट की योजना बना रहे थे। इतने में गांव की सड़क से महिलाओं के स्वर में लोकगीत के स्वर सुनाई पड़े – ‘सामा खेलबई हे ...’ तभी हठात्‌ याद आया मिथिलांचल क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान वाले एक अनोखे पर्व का आगाज़ हो चुका है। भले ही पाश्चात्य संस्कृति के आक्रमण से देश गांव अछूता नहीं है, फिर भी लोकआस्था और लोकाचार की प्राचीन परंपरा से जुड़े भाई-बहनों के बीच स्नेह का लोकपर्व सामा-चकेवा मिथिलांचल में आज भी काफ़ी हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है।

05 Saam Chakeba Khelbai_1सामा-चकेवा के पौराणिक गीतों के बोल सामूहिक रूप से मिथिलांचल की परंपरा को जीवंत बनाते हैं। छठ गीत आज थम गया, तो शाम होते ही गांव की फ़िज़ां सामा-चकेवा के गीतों से गुलज़ार हो गई। चूल्हा-चौका के बाद गांव की लड़कियां रात में चौराहे पर जुटकर सामा-चकेवा के गीत .... “सामचक-सामचक अइया हे .... ” ... गाना शुरु कर दीं। साथ ही शुरु हुआ विवाहित महिलाओं द्वारा जट-जटिन का खेल। बहनें अपनी पारंपरिक वेशभूषा में लालटेन के प्रकाश में गा रहीं थीं। कितना मनोरम दृष्य था! जहां एक ओर भाई-बहन के स्नेह की अटूट डोर है, वहीं दूसरी तरफ़ ननद-भौजाई की हंसी-ठिठोली भी कम नहीं।

सामा खेले गईली से भईया अंगनवा हे,

कनिया भौजी लेलन लुलुआए हे ...

महापर्व छठ के गीतों के स्वर थमने के साथ-साथ सामा-चकेवा के मधुर गीतों से मिथिलांचल का वातावरण गूंजने लगा है। इसकी धूम आज गांव में चारो तरफ़ है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की तिथि सप्तमी से पूर्णिमा तक चलने वाले इस नौ दिवसीय लोकपर्व सामा-चकेवा में भाई-बहन के सात्विक स्नेह की की गंगा निरंतर प्रवाहित होती रहती है। शाम में महिलाएं दो टोली में बंटकर नृत्य करती हैं।

सामचक-सामचक अइहए

ढेला फोर-फोर खइह हो

चुगला करे चुगली

बिल्लैया करे मयाऊं

बड़ी रोचक परंपरा है इस पर्व की। इस पर्व के दौरान भाई-बहन के बीच दूरी पैदा करने वाले चुगला-चुगली को सामा खेलने के दौरान जलाने की परंपरा है। इसका मकसद बड़ा ही प्यारा है। चुगला-चुगली तो प्रतीक हैं – उद्देश्य तो है सामाजिक बुराइयों का नाश।

इस पर्व के दौरान बहन अपने भाई के दीर्घ जीवन एवं सम्पन्नता की मंगल कामना करती है। सामा-चकेवा की मूर्ति का रंग-रोगन कर इसे अंतिम रूप देने में गांव के कुम्भकार ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। उनके लगन, उत्साह और हर्ष देखने लायक थे। आज घर की बेटियां दिन में ही इसकी खरीददारी कर लाईं। मूर्तियों की बिक्री कर रहे हमारे गांव के कुम्भकार का कहना था, “की कहब यौ मनोज बाबू! एकरा बेचई में कोनो कमाई थोड़े छई। मुदा जे भाई-बहिन के प्यार आ उत्साह छई आ मिथला के जे विरासत छई तकर रक्षा करई के खातिर हम सब सामा-चकेवा के मूर्ति बनबई छियई आ सस्ता दाम में द दई छियई।” कितनी भी मंहगाई क्यों न हो छुटकी बोल रही थी २०० रुपए में सारी मूर्तियां ख़रीद लाई है।

सामा, चकेवा के अलावा डिहुली, चुगला, भरिया खड़लिस, मिठाई वाली, खंजन चिरैया, भभरा वनततीर झाकी कुत्ता ढोलकिया तथा वृन्दावन आदि की मिट्टी की मूर्ति का प्रयोग होता है।

पौराणिकता और लौकिकता के आधार पर यह लोक पर्व न तो किसी जाति विशेष का पर्व है और न ही मिथिला के क्षेत्र विशेष का ही। यह पर्व हिमालय की तलहट्टी से लेकर गंगातट तक और चंपारण से लेकर पश्चिम बंगाल के मालदा-दीनाजपुर तक मनाया जाता है। दिनाजपुर मालदाह में बंगला भाषी महिलाएं भी सामा-चकेवा के मैथिली गीत ही गाती हैं। जबकि चंपारण में भोजपुरी मिश्रित मैथिली गीत गाए जाते हैं।

कथा इस प्रकार है -- भगवान श्री कृष्ण की पुत्री श्यामा (सामा) और पुत्र शाम्भ के बीच स्नेह पर आधारित यह पर्व आज भी खासकर मिथिलांचल में पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है। श्यामा ऋषि कुमार चारू दत्त से ब्याही गई थी। श्यामा को घूमने में मन लगता था। श्यामा रात में अपनी दासी डिहुली के साथ वृन्दावन में भ्रमण करने के लिए और ऋषि मुनियों की सेवा करने उनके आश्रम में जाया करती थी। इस बात की जानकारी डिहुली के द्वारा भगवान श्री कृष्ण के दुष्ट स्वभाव के मंत्री चुड़क को लग गई। उसे यह नहीं भाता था। उसने राजा को श्यामा के ख़िलाफ़ कान भरना शुरु कर दिया। क्रोधित होकर भगवान श्री कृष्ण ने श्यामा को वन में विचरण करने वाली पक्षी बन जाने का शाप दे दिया। श्यामा को पंछी रूप में देख कर उसका पति पति चारूदत्त ने भी भगवान महादेव की पूजा-अर्चना कर उन्हें प्रसन्न कर स्वयं भी पक्षी का रूप प्राप्त कर लिया।

श्यामा के भाई और भगवान श्री कृष्ण के पुत्र शाम्भ अपने बहन-बहनोई की इस दशा से मर्माहत हुआ। बहन-बहनोई के उद्धार के लिए उसने अपने ही पिता श्री कृष्ण की आराधना शुरू की। उसकी आराधना से प्रसान्न हुए भगवान श्री कृष्ण। उन्होंने शाम्भ से वरदान मांगने को कहा। तब पुत्र शाम्भ ने अपनी बहन-बहनोई को मानव रूप में वापस लाने का वरदान मांगा। तब जाकर भगवान श्री कृष्ण को पूरी सच्चाई का पता लगा। उन्होंने श्यामा के शाप मुक्ति का उपाय बताते हुए कहा कि श्यामा रूपी सामा एवं चारूदत्त रूपी चकेवा की मूर्ति बनाकर उनके गीत गाए जाएं और चुड़क की मूर्ति बनाकर चुड़क की कारगुजारीयों को उजागर किया जाए, तो दोनों पुनः अपने पुराने स्वरूप को प्राप्त कर सकेंगे। और साथ ही श्री कृष्ण ने प्रसन्न होकर नौ दिनों के लिए बहन को उसके पास आने का वरदान दिया।

जनश्रुति के अनुसार सामा-चकेवा पक्षी की जोड़ीयां मिथिला में प्रवास करने पहुंच गई थीं। भाई शाम्भ भी उसे खोजते हुए मिथिला पहुंचे और वहां की महिलाओं से अपने बहन-बहनोई को शाप से मुक्त करने के लिए सामा-चकेवा का खेल खेलने का आग्रह किया। उनके आग्रह को मिथिला की महिलाओं ने माना और इस प्रकार शाम्भ ने बहन-बहनोई का उद्धार किया। सामा ने उसी दिन से अपने भाई की दीर्घ आयु की कामना लेकर बहनों को पूजा करने का आशीर्वाद दिया। ऐसा माना जाता है कि द्वापर युग से आज तक इस खेल का आयोजन होता आ रहा है। रक्षा बंधन, भाई-दूज, यम दुतिया, भाई-फोटा, भर दुतिया, आदि की तरह के भाई-बहन के अटूट प्रेम पर आधारित इस पर्व में सामा-चकेवा के खेल से बहनें भाई की सुख-समृद्धि और दीर्घायु होने की कामना करती हैं।

राम भइया चलले अहेरिया बेला, बहिनी देलन असीस हे ...

इसके बाद खड़ से बने वृन्दावन में आग लगाया और बुझाया जाता है। साथ ही यह गीत भी गाया जाता है,

वृन्दावन में आगि लागल क्‌यो न बुझाबै हे ....,

हमरो से बड़का भइया दौड़ल चली आबए हे ....,

हाथ सुवर्ण लोटा वृन्दावन मुझावै हे ....

इसके बाद महिलाएं संठी से बने हुए चुगला को गालियां देती हुई और उसकी दाढीचुगला में आग लगाते हुए गाती हैं

चुगला करे चुगलपन बिल्लाई करे म्याऊं ...

धला चुगला के पांसी दींउ

सामा-चकेवा का विशेष श्रृंगार किया जाता है। उसे खाने के लिए हरे-हरे धान की बालियां दी जाती है। सामा-चकेवा को रात में युवतियों द्वारा खुले आसमान के नीचे ओस पीने के लिए छोड़ दिया जाता है।

भाई-बहन के अटूट प्रेम का यह पर्व कार्तिक मास की पूर्णिमा के रोज़ परवान चढता है। (कल यानी २१ नवम्बर को पूर्णिमा है।) इस दिन भाई केला के वीर का पालकी बनाता है, जिसे फूल-पात्तियों एवं अन्य चीज़ों से सजाकर आकर्षक रूप दिया जाता है। सब लोग पूरी निष्ठा, विधि-विधान और भरी आंखों से सामा की विदाई करते हैं। दृष्य बड़ा ही मार्मिक होता है। बिल्कुल बेटी की विदाई की तरह।

ss(1)समापन से पूर्व भाइयों द्वारा सामा-चकेवा की मूर्तियों को घुटने से तोड़ा जाता है। आकर्षक रूप से सजे झिझरीदार मंदिरनुमा बेर में रखकर उसे नदी, तालाब, पोखर या खुले खेतों में परम्पराहत लोकगीत के साथ विसर्जन कर दिया जाता है।

महिलाएं अपने भाइयों को उसके धोती या गमछा से बने फाँड़ में मुढी और बतासा खाने के लिए देती हैं। यह अनूठी परंपरा अन्यत्र नहीं मिलती। भाई-बहन के स्नेह की झलक से परिपूरित इस त्योहार में भाई भी बहन के हाथों भरे गए मिष्टान्न समेत अन्य सामानों के फाँड़ का हिस्सा बहन को भेंट कर उसकी लंबी उम्र की कामना करता है।

विसर्जन के दौरान महिलाएं सामा-चकेवा से फिर अगले वर्ष आने का आग्रह करती हैं और गाती हैं

साम-चक हो साम चक हो अबिह हे

जोतला खेत में बैसिह हे

सब रंग के पटिया ओछबिइह हे

भैया के आशीष दिह हे

विसर्जन के बाद ये महिलाएं चुगलखोर प्रकृति वाले लोगों को शाप भी देती हैं।

भौतिकता, आधुनिकता, आज की भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी का असर भले ही गांवों पर दिख रहा हो पर इस लोकसंस्कृति के पारंपरिक खेल के लिए बहनें ससुराल से नैहर आती हैं और सामा, चकेवा, सतभइया, खरलिच, चुगला, वृन्दावन, चौकीदार, झाझीकुकुर, साम्भ, आदि की प्रतिमा एवं उपकरण मिट्टी एवं खड़ से बनाती हैं और उसे डाला (बांस की बनी टोकरी) में लेकर शाम होते ही शहर एवं गांव के चौक चौराहा और जुते हुए खेतों में जुटतीं हैं। सामा-चकेवा से संबंधित पारंपरिक गीत गाते हुए कहती हैं

‘सामा खेले चललि, भैया के अंगनवा।’

इस खेल के माध्यम से बहनें अपनी भौजाई की कटुता भी उजागर करती है। ननद-भौजाई में ताने-बाने, छेड़-छाड़ चलते रहते हैं। इस पर्व में खेल-खेल में उन बहनों की पीड़ा भी उभरती है, जिनकी भौजाई हमेशा उन्हें प्रताड़ित करती हैं। बहन कहती हैं

भौजी जबतक रहतई माई-बाप के राज तबतक सामा खेलब हे ....

मतलब भौजाई ननद को लाख फटकार लगाती है पर बहन का मृदुल स्वभाव भाई के लिए हमेशा साथ रहता है। खरलिच बहन का रूप है जो हमेशा भाई की सुख-समृद्धि और दीर्घायु होने की कामना करती है। चुगला बनाकर उसके मुंह को आग से झड़काती हैं। कहती हैं, “चुगला की कोई छाया मेरे भाई पर नहीं पड़नी चाहिए”।

बहनें होती ही हैं ऐसी – कि सारे दुख-दर्द ख़ुद सह ले, पर भाई को कोई कष्ट नहीं आए। रक्षा बंधन पर राखी बांधती हैं। भैया दूज पर शाप देती हैं और पछतावा कर जीभ में रेगनी के कांटे भी चुभोती हैं। भर दुतिया पर भाई को न्योतती हैं और कहती हैं, ‘जमुना न्योतलक जमराज के हम न्योतई छी अपन भाई के, ज्यों-ज्यों जमुना के पानी बढे, हमर भाई के उमर बढे’। और सामा-चकेवा पर दउरी नचा-नचा कर भाई के लिए सुख-समृद्धि और अन्न का भंडार मांगती हैं। बहनें कहती हैं, ‘मिट्टी के बने चकवा को चराना पड़ता है। इसके लिए खेतों में जई या गेंहूं होना चाहिए। अभी खेतों में फसल नहीं है, इसलिए भाई दिक्क़्त हो रही है।’

माई गंगा रे जुमनवाँ के एहो चीकन माटी हे
माई आनी देथिन चकबा भैया गंगा पैंसी माटी हे
बनाई देथिन्ह सामा भौजी, सामा हे चकेबा हे,
माई खेले लगली खरलीच बहिनी चारू पहर राति हे
माई खेलिए खुलिए बहिनी देहले असीस हे
माई जुग जीयू लाख जीयू, सबके अइसन भाई हे।
गंगा और यमुना नदी की मिट्टी बड़ी चिकनी होती है। चकवा भैया गंगा नदी में घुसकर वहां की चिकनी मिट्टी लेकर आएंगे। सामा भाभी उस मिट्टी से सामा-चकेबा बना देंगी। उस सामा चकेबा के साथ खरलीच बहन सारी रात खेलेगी। सारी रात खेलने के बाद खरलीच बहन आशीर्वाद देती है कि हे मेरे भैया, तुम जुग-जुग जिया, लाख-बरस जियो। मैं ईश्र्वर से प्रार्थना करूँगी कि वह सबको तुम जैसा ही भाई दे।

भाई-बहन के अटूट प्रेम और स्नेह का यह लोकपर्व आइए हम सब मिलकर मनाएं।