बुधवार, 1 जनवरी 2020
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गुरुवार, 12 जनवरी 2012
आंच-104 : ग़ज़ल (जंजाल आते हैं)
आंच-104
ग़ज़ल (जंजाल आते हैं)
श्री संजय मिश्र ‘हबीब’ ब्लॉग जगत में काफी जाना पहचाना नाम है. सेक्युलर बयार में आप भी अपना नाम एस. एम्. हबीब (संजय मिश्र हबीब) लिखते हैं. जिसे जैसा लगे उसी के मुताबिक़ अपनी राय बना ले या सूरत गढ़ ले. बड़े सधे हुए साहित्यकार हैं और गज़ल, कविता और कहानियों पर बराबर दखल रखते हैं. गज़लें कहना इनकी खासियत है और ब्लॉग पर गज़ल प्रकाशित करने का इनका ढंग भी निराला है. वास्तव में गज़ल पढते वक्त सबसे पहले लोगों के सामने यह समस्या होती है कि गज़ल की बहर क्या है. जिसके कारण बाज मर्तबा लोगों को गज़ल पढने में परेशानी का सामना करना पडता है. हबीब साहब, गज़ल की शुरुआत से पहले बहर की बाबत इत्तिला दे देते हैं, ताकि गज़ल कहने वाले और पढ़ने वाले के बीच मतले से ही रिश्ता सा कायम हो और गज़ल का मज़ा बरकरार रहे.
यह गज़ल बहरे हजज मुसम्मन सालिम मफाइलुन/ मफाइलुन/ मफाइलुन/ मफाइलुन बहर में कही गयी है. इस बहर में गज़ल कहने पर एक सुविधा रहती है कि अपनी बात कहने के लिए समुचित जगह मिल जाती है. और यही इस गज़ल (जंजाल आते हैं) की सुंदरता भी है. यहाँ शायर ने अपनी बात बहुत खुलकर लोगों के सामने रखी है.
विदेशी बेचने हमको, हमारा माल आते हैं,
हमारी जान की खातिर बड़े जंजाल आते हैं.
गज़ल का मतला बहुत ही सामयिक है और देश के एक ज्वलंत मुद्दे की और इशारा करता है और तुरत बाद अगला शेर देश की राजनैतिक व्यवस्था पर व्यंग्य करता हुआ दिखाई देता है. एक ओर वॉलमार्ट और दूसरी ओर भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने वाले के खिलाफ जांच शुरू कर देना, आज के दौर की सचाई है जो इन दोनों शेर में खुलकर सामने आई है.
रहो खामोश अपने देश की बातें न करना तुम,
जुबां खोली अगर, माजी तिरा खंगाल आते हैं ।
गज़ल की परम्परा के अनुसार मतला देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल होता है कि गज़ल का मिज़ाज कैसा है. लेकिन आजकल जिस तरह गज़लें कही जा रही हैं उनमें कमोबेश एक तरह की ही बात को सारे अशार में कहने का चलन है. जैसे सरकार की नाकामी, मुल्क की बदअमनी, फिरकापरस्ती या साम्प्रदायिक सद्भाव. ऐसे में यहाँ पर अलग-अलग भावों को अशार में पिरोने की कोशिश की गयी है. लेकिन अंतर में एक व्यथा, एक पीड़ा, एक कसक कहीं है जो पूरी गज़ल में स्पष्ट है. कारण यही है कि समाज में जो माहौल बन रहा है वहाँ शायद ऐसी ही फिजां बन गयी है. शायर ने भी वही महसूस किया है कि लुटेरे मेहमानों की तरह आ रहे हैं, रहनुमा झूठे सपने दिखाए जा रहे हैं, मरे इंसान की खाल तक नोची जा रही है, इंसानों को कंकाल बनाया जा रहा है उनका सबकुछ निचोडकर और फिर से एक गुलामी का दौर आ गया या आने वाला है. बातें अलग-अलग कही हैं हबीब साहब ने, लेकिन उन सब बातों में अंडरकरेंट एक ही है- बदहाली. उनके कहने का अंदाज़ सादगी से भरा है, जो उनकी ग़ज़लों की खासियत रही है.
सभी मिहमान को हम देव की भांती बुला लेते,
लुटेरे भी अगर आये बजाते गाल आते हैं ।
गज़ल कहने की एक और महत्वपूर्ण ज़रूरत यह है कि गज़ल सिर्फ दिल से नहीं कही जा सकती. दो मिसरों में कही गयी बात की सार्थकता इसमें नहीं कि बात दिल से निकले, बल्कि इसमें है कि दिल तक पहुंचे. बिना चीरा लगाये सर्जरी करने वाली बात. पहला मिसरा कहे जाने तक यह गुमान भी नहीं होता कि अगला मिसरा कौन सा मोड लेगा और जब कहा जाए तो आप हैरत में पड़ जाते हैं. वज़ह इतनी कि आपको अनुमान भी नहीं होता कि बात यूँ कही जायेगी. यहाँ आश्चर्य पैदा करने वाला तत्व नहीं दिखाई पड़ता है. मगर बयान में नयापन है जो बाँध लेता है और वाह कहने पर मजबूर करता है.
मशीनों की नई इक खेप बस आने ही वाली है,
उधर इनसान डालो तो इधर कंकाल आते हैं ।
लफ़्ज़ों की बाबत यह कहना होगा कि जितनी आसानी से ‘जंजाल’ कहा गया, उतनी आसानी से ‘खंगाल’ या ‘विकराल’ नहीं कहा जा पा रहा है. ये दोनों शब्द जिन मिसरों में आये हैं उनमें एक रुकावट आ रही है. गज़ल में गहरी बात भी कोमल लफ़्ज़ों में कहने का रिवाज़ है और यही इस विधा की खूबसूरती है. अंत में एक और त्रुटि की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है, “टेढ़े चाल” और “उनके खाल” के स्थान पर ‘टेढी चाल’ और ‘उनकी खाल’ होना चाहिए क्योंकि चाल और खाल दोनों स्त्रीलिंग शब्द हैं. ऐसे प्रयोग गज़ल पर शायर की पकड़ ढीली होने का संकेत करते हैं, जहां प्रतीत होता है कि लफ़्ज़ों को जबरन बिठाया जा रहा है.
कुल मिलाकर संजय मिश्रा ‘हबीब’ साहब की गज़लें आनंदित करती हैं, नई सोच को जन्म देती हैं और गज़ल की मांग के साथ इन्साफ करती हैं.
सोमवार, 29 नवंबर 2010
गज़ल :: कुछ बढाई गयी कुछ घटाई गयी
ज्ञानचन्द मर्मज्ञ
कुछ बढाई गयी कुछ घटाई गयी,
ज़िंदगी हर अदद आज़माई गयी।
फ़ेंक दो ये किताबें अंधेरों की हैं,
जिल्द उजली किरण की चढ़ाई गयी।
टांग देते थे जिन खूटियों पर गगन,
वो पुरानी दीवारें गिराई गयी।
जब भी आँखों से आंसू बहे जान लो,
मुस्कुराने की कीमत चुकाई गयी।
घेर ली रावणों ने अकेली सिया,
और लक्ष्मण की रेखा मिटाई गयी।
यूँ तो चिंगारियों में कोई दम न था,
बिजलियों की अदाएं दिखाई गयी।
झील में डूबता चाँद देखा गया,
और तारों पे तोहमत लगाई गयी।
झूठ की इक गवाही को सच मान कर,
जाने कितनी सजाएं सुनाई गयीं।
देश की हर गली में भटकती मिली,
वो दुल्हन जो तिरंगे को ब्याही गयी।
राम की मुश्किलों में हमेशा यहाँ,
बेगुनाही की सीता जलाई गयी।
सोमवार, 1 नवंबर 2010
ग़ज़ल :: ये कैसै रखवाले देख
सलिल जी को आभार जिन्होंने इसे ग़ज़ल का रूप देने में हमारी मदद की!
ये कैसै रखवाले देख