मंगलवार, 25 मई 2010

ग्रीष्म और पर्वताँचल की नदियाँ

ग्रीष्म और पर्वताँचल की नदियाँ

-- मनोज कुमार


गर्मी की ऋतु आते ही
पर्वताँचल की
अधिकांश नदियाँ
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छोड़ देती हैं,
कल-कल, छल-छल
चंचल निश्छल धाराओं को
गुफाओं में,
ताप इतना
कि जल भी जल जाए।

चारों ओर रेत ही रेत
और काई पुते-पर्वतों की देह
आकर्षण के नाम पर
सघन आबादी के थल दिखते
ज्यों
हड़ताल की आवाज पर,
तप्त धूप में
तृण-तृण, कण-कण,
जनगण
सजल दृगों से
देख रहा पावस की राह।

सूखे सरिता के प्राण
यौवन छिने उद्यान
क्रूर, कठोर और निर्मम
सी लगती प्रकृति
लाती सम्मुख जीवन के जब
परिवर्तन की नाव
तृष्णा के वंध्या आँचल में
मृगमरीचिका का विस्तार
जहाँ मचलती थी हरियाली
आज पड़ा है वहॉ झुलसता
अंगारों-सा रेत अम्बार
मृग-शावक आते होंगे
कल-कल ध्वनि से
हो आकर्षित
लगती होंगी जहाँ सभाएँ
वन्य जन्तुओं की
प्रत्याशित
पर अब सब गायब हैं
जल जीवन की खोज में
वयोवृध्दा सी लगतीं वादियाँ
कभी जो दिखती होंगी
यौवन भरी शरारत सी।

देख जहाँ तक पाते दृग
नदियों की धारा से निर्मित
बने रेत के टीले हैं
नौकाएं और पतवारें
पड़ी रेत पर
करती अपनी रखवाली।


फिर भी आते हैं सैलानी
मैदानी श्रम को सहलाने
जीवन का उल्लास खोजने
जब सूख जाती है
पर्वतांचल की नदियाँ।

****

10 टिप्‍पणियां:

  1. भीषण गर्मी का अहसास करा गयी यह कविता....आज के बजाये पहले कितना सुकूँ देती होगी प्रकृति.....सुन्दर अभिव्यक्ति

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  2. गर्मी में शीतलता दे रहा है आपकी रचना
    मेरा ब्लॉग -http://madhavrai.blogspot.com/

    पापा का ब्लॉग
    http://qsba.blogspot.com/

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  3. इस साल तो भयानक गर्मी पड़ी है भारत के सभी जगहों पर ! आपने बहुत सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ उम्दा रचना प्रस्तुत किया है जो शीतलता का एहसास प्रदान किया है! बहुत बढ़िया लगा!

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  4. क्या प्रवाह है कविता की. बहुत ही सुन्दर रचना है.
    मन प्रसन्न हो गया.

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  5. सजीव वर्णन। बहुत अच्छी पोस्ट।

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  6. प्रकृति और मानव जीवन की अपनी-अपनी विडंबनाएँ हैं।

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  7. नदी के प्रवाह की तरह बहती हुई आपकी रचना है ... प्राकृति के विभिन्न रंगों को आपने उतरा है इस रचना में ...

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