सोमवार, 9 मई 2011

अहसासों का चौरा दरका

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श्यामनारायण मिश्र

कौन करे दिये-बत्तियां

तुमने जो लिखी नहीं

मैंने  जो   पढ़ी   नहीं

        आंखों में तैर रहीं चिट्ठियां।

 

छाती से

सूरज का दग्ध-लाल गोला लुढ़काकर,

अभी अभी बैठा हूं

आंखों के दरवाज़े

        पलकें उढ़काकर।

भीतर ही भीतर

लगता है कोई

        खोद रहा खत्तियां।

 

सुबह-शाम

विष की थैली उलटाकर

        समय-सांप सरका।

नेह-छोह से तुमने

लीपा था पोता था,

भीतर अहसासों का चौरा दरका।

खेल हैं, खिलौने हैं,

किसके संग करूं कहो

        फिर सग्गे-मित्तियां।

18 टिप्‍पणियां:

  1. नेह-छोह से तुमने

    लीपा था पोता था,

    भीतर अहसासों का चौरा दरका।

    सुन्दर गीत पढवाने का शुक्रिया

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  2. दिल को छूने वाली कविता है। श्‍याम नारायण जी मिश्र की इस अनमोल कविता को आपने यहाँ हम सब लोगों से सांझी किया इसके लिए आभार।

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  3. ऐसी कविता पर टिपण्णी करने या कुछ भी कहने का अभी तक मुझमें हैसियत नहीं आई है ... बस इतना कह सकता हूँ कि अद्भुत है ... सुन्दर है !

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  4. बहुत ही गज़ब की रचना है………सुन्दर शब्द संयोजन्।

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  5. यह कविता तो इस मेज कुर्सी के वातावरण से मन को उड़ा कर ले गयी जाने किस दु्नियां में!
    बहुत तिलस्म है इसमें!

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  6. मर्मस्पर्शी...

    भावुक करती अतिसुन्दर रचना...

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  7. कौन करे दिये-बत्तियां
    तुमने जो लिखी नहीं
    मैंने जो पढ़ी नहीं
    आंखों में तैर रहीं चिट्ठियां।

    दिल छूती पंक्तियाँ. बहुत खूबसूरत कविता.

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  8. चिठियो के माध्यम से व्यक्त एक संवेदन शील कविता

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  9. bahut hi adbhut aur marmsparsi sunder rachanaa.
    plese apnaa maarddesan dene ke liye mere blog main aaiye.aur cooments dijiye.thanks

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  10. दिल छूती पंक्तियाँ. बहुत प्यारी कविता है। धन्यवाद

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  11. कौन करे दिये-बत्तियां

    तुमने जो लिखी नहीं

    मैंने जो पढ़ी नहीं

    आंखों में तैर रहीं चिट्ठियां।


    बहुत प्यारी कविता.....!!!

    जवाब देंहटाएं

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