गुरुवार, 31 मई 2012

आँच – 111 पर – बन जाना


आँच – 111
आँच – 111 पर – बन जाना
हरीश प्रकाश गुप्त

     रमाकांत सिंह छत्तीसगढ़ के अकलतरा से हैं। पेशे से शिक्षक हैं। उनका एक ब्लाग है जरूरत, जिसमें वह नियमित रूप से अपनी कविताएँ पोस्ट करते रहते हैं। उनकी समस्त कविताओं में सम्वेदना है। भावनाएँ भी हैं, आशा भी है और पीड़ा की अनुभूति भी है जिसे यथार्थ के धरातल पर परखा जा सकता है। अभी हाल ही में, पिछले माह, इस ब्लाग पर उनकी एक कविता प्रकाशित हुई थी बन जाना। जीवन की कठिन राह में आशा और स्फूर्ति का संचार करती और संघर्षों पर विजय पाती यह कविता प्रेरक है। उनके अनुसार उन्होंने यह कविता अपनी बहन को उसके जन्मदिन पर समर्पित की थी। सोद्देश्य लिखी गई यह कविता वैसे तो वैयक्तिक है परंतु यह व्यक्तिनिष्ठता की परिधि से बाहर भी व्यापक अर्थ रखती है और यहाँ इसके प्रभाव को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। उनकी यह छोटी सी कविता आज की आँच का विषय है।

     जीवन की डगर बहुत लम्बी है और कठिन भी है और इन्हीं कठिन रास्तों से होकर सभी को जाना है। बड़े लक्ष्यों को हासिल करने के रास्ते कभी आसान नहीं हुआ करते। ये कठिन रास्ते पग-पग पर हमारे लिए मुश्किलें खड़ी करते है, चुनौतियाँ देते हैं और हमारी परीक्षा लेते हैं। कभी-कभी ये इतने दुष्कर और दुरूह होते हैं और हमको इतना विचलित कर देते हैं कि लक्ष्य से भटकाव की स्थिति आ जाती है। लक्ष्यों के प्रति जीवन का यह संघर्ष हमारी नियति है क्योंकि हम इनसे मुँह नहीं मोड़ सकते। तब हमारी मनःस्थिति ही हमारा मार्गदर्शन करती है। लक्ष्य के प्रति निष्ठा और समर्पण तथा मानसिक दृढ़ता (धैर्य) ही हमारा सम्बल होती है। यदि हमारे लक्ष्य स्पष्ट हैं तो कोई भी बाधा क्यों न आए हमें लक्ष्य से कोई डिगा नहीं सकता, सफल होने से कोई रोक नहीं सकता। बस हमें स्वयं को इतना मजबूत और दृढ़प्रतिज्ञ बनाने की आवश्यकता है। इस भावभूमि पर रचित रमाकांत की यह कविता बन जाना प्रेरक संदेश से परिपूर्ण है।

     यदि कविता के शिल्प पर दृष्टिपात करें तो कुछ-एक प्रयोगों को छोड़कर यह हमें बहुत आकर्षित नहीं करती। कविता में आठ-छह-दो, कुल सोलह पंक्तियाँ हैं। हो सकता है कि कवि ने इन्हें आठ-आठ के संयोजन में लिखा हो और टंकण त्रुटि से आठ-छह-दो में विभक्त हो गईं हों। पूरी कविता में असमान मात्राएँ - बीस से लेकर छब्बीस तक हैं। इसीलिए अधिकाँश स्थानों पर न लय बन पाई है और न ही प्रवाह और यह पद्यांश गीत तथा कविता के बीच भटक सा गया है। कहीं पर उद्देश्य का भी लोप है जो अर्थान्वेषण में बाधक बनता है जैसे - तू भी बन जाना, हाथों को थाम के,  तू भी बन जाना, हर सुबह शाम से और तू भी बन जाना, कर्मों को बांध के और हम फिर सदा मिलेंगे, पर चेहरे अनजान से आदि। यदि यहाँ प्रश्न करें कि क्या?” तो उत्तर में न कोई बिम्ब है और न ही कोई प्रतीक जो अर्थ को संगति प्रदान करे। इन्हीं पंक्तियों में मात्राओं की सबसे अधिक कमी है, अर्थात 20-21 ही हैं जो स्वयमेव अपनी आवश्यकता को पुष्ट करती हैं। यहाँ कवि स्वयं दिग्भ्रमित सा लगता है। डगर स्त्रीवाची  है जबकि कविता में पुल्लिंग प्रयोग हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि के मानस में तो इसकी स्पष्ट प्रतीति है लेकिन शब्दों में यह अभिव्यक्त नहीं हो सकी है। अतः पाठक के स्तर पर अस्पष्टता है।

     जीवन में सफलता के संदेश का भाव समेटे रमाकांत की इस छोटी सी कविता के भाव में सहजता है और व्यापकता है साथ ही यह संवेदित भी करती है तथापि इसे शिल्प की कसौटी पर और कसे जाने की आवश्यकता है।

तम्बाकू निषेध दिवस पर कुछ बातें


तम्बाकू निषेध दिवस पर कुछ बातें


मनोज कुमार


  • आज यानी 31 मई को विश्व तंबाकू निषेध दिवस है। फिर भी बढ़ रहा है तंबाकू उत्पादों का इस्तेमाल और यह तम्बाकू धीमे जहर के रूप में समाज के सभी वर्ग के लोगों को प्रभावित कर रहा है।
  • सार्वजनिक स्थानों पर खुले आम धूम्रपान से अनजाने में ही धूम्रपान नहीं करने वालों को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।
  • भारत का हर दूसरा व्‍यस्‍क पुरूष बीड़ी, सिगरेट या तंबाकु के नशे का गुलाम है।
  • अंतराष्‍ट्रीय व्‍यस्‍क तंबाकू सर्वेक्षण के मुताबिक भारत की 34.6 फीसदी व्‍यस्‍क आबादी को तंबाकू की लत है।
  • इनमें से 47.9 फीसदी आबादी पुरूषों की है। महिलाओं में यह आंकड़ा 20.3 फीसदी है।

  • धुआं रहित तम्बाकू (खैनी, ज़र्दा, गुटखा) इस्तेमाल करने वालों की संख्या 40% से अधिक है।

  • देश में 32.9% पुरुष और 18.4% महिलाएं धुएं रहित तम्बाकू का सेवन करती हैं। इनमे से व्यस्क 26% और युवा 12.5% हैं। युवाओं में 16.2% लड़के और 7.2% लड़कियां है।

  • एक रिपोर्ट के अनुसार 132 देशों में 13 से 15 वर्ष की उम्र के स्कूली बच्चे धुआं रहित तम्बाकू का उपयोग करते हैं।
बीमारी

  • तंबाकू चबाने से मुंह, गला, अमाशय, यकृत और फेफड़े के कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। तंबाकू जनित रोगों में सबसे ज्यादा मामले फेफ़ड़े और रक्त से संबंधित रोगों के हैं जिनका इलाज न केवल महंगा बल्कि जटिल भी है।
कैंसर
  • भारतीय चिकित्सा अनुसंधान (ICMR) की रिपोर्ट मे इस बात का खुलासा किया गया है कि पुरुषों में 50% और स्त्रियों में 25% कैंसर की वजह तम्बाकू है। इनमें से 90% मुंह के कैंसर हैं। धुएं रहित तम्बाकू में 3000 से अधिक रासायनिक यौगिक हैं, इनमें से 29 रसायन कैंसर पैदा कर सकते हैं।
  • मुंह के कैंसर के रोगियों की सर्वाधिक संख्या भारत में है। गुटका, खैनी, पान, सिगरेट के इस्तेमाल से मुंह का कैंसर हो सकता है।
  • बहरहाल तंबाकू के खतरे को नजरअंदाज करना न सिर्फ भयानक होगा बल्कि आत्मघाती भी होगा। 
  • तंबकू सेवन से होने वाले कैंसर से हर छह सेकेंड में एक मरीज़ की मौत हो जाती है। (डॉ. आशीष मुखर्जी, नेताजी कैंसर इंस्टीच्यूट, कोलकाता)

तंबाकूजनित कुछ आंक़ड़ों पर भी गौर कर लें।


  • विश्व स्वास्थ्य संगठन का आंक़ड़ा कहता है कि 1997 के मुकाबले वर्ष, 2005 तक तंबाकू निषेध कानूनों के लागू करने के बाद वयस्कों में तंबाकू सेवन की दर में 21 से 30 प्रतिशत की कमी आई थी, लेकिन इसी दौरान हाईस्कूल जाने वाले 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में तंबाकू का सेवन 60 प्रतिशत ब़ढ़ गया था।
  • अमेरिकन कैंसर सोसायटी का आंक़ड़ा है कि प्रत्येक 10 तंबाकू उपयोगकर्ता में से 9 महज 18 वर्ष की उम्र से पहले तंबाकू का सेवन शुरू कर चुके होते हैं।

  • विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि सन 2050 तक 2.2 अरब लोग तंबाकू या तंबाकू उत्पादों का सेवन कर रहे होंगे। इस आकलन से अंदाजा लगाया जा सकता है कि तंबाकू के खिलाफ कानूनी और गैर सरकारी अभियानों की क्या गति है और उसका क्या हश्र है।

मौत

  • तंबाकू के खतरे को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। धूम्रपान तथा तम्बाकू जनित उत्पादों के सेवन से मरने वालों का आंकड़ा विगत कुछ वर्षों में बढा है।
  • दुनिया में सर्वाधिक मौतें तम्बाकू उत्पादों के सेवन से होने वाली बीमारियों से हो रही है।
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक तंबाकू के इस्तेमाल से होने वाली बीमारियों के कारण भारत  में हर साल दस लाख लोग मर जाते हैं।
  • तंबाकू के इस्तेमाल से पूरी दुनिया में हर साल 50 लाख लोगों की मौत हो जाती है।

  • दुनिया में होने वाली हर 5 मौतों में से एक मौत तंबाकू की वजह से होती है।
  • हर 8 सेकेंड में होने वाली एक मौत तंबाकू और तंबाकू जनित उत्पादों के सेवन से होती है।
  • 2030 तक तंबाकू उत्पादों के इस्तेमाल के कारण होने वाली मौत का आंकड़ा सालाना एक करोड़ तक पहुंच जाएगा।
राजस्व

  • लोग कहते हैं तम्बाकू उत्पाद काफ़ी सरकार को काफ़ी राजस्व मिलता है।
  • हक़ीक़त पर नज़र डालें -- देश भर में बीड़ी उद्योग में लगे बीड़ी बनाने में 29 रुपए से 78 रुपए का भुगतान हो रहा है जबकि इस उद्योग के उत्पादकों को इससे कई गुना अधिक लाभ हो रहा है। यहां भी शोषण ही हो रहा है।
  • तम्बाकू उत्पादों से होने वाला राजस्व महज 12 हजार करोड़ रुपए है जबकि इससे होने वाली मौत और बीमारियों से बचाव के लिए सरकार इससे कई गुना अधिक 40 हजार करोड़ रुपए हर वर्ष खर्च कर रही है।
जन जागरण

  • विश्व स्वास्थ्य संगठन सहित कई देशों में तंबाकू उत्पादों से होने वाली मौतों से बचाव के लिए जन जागरण अभियान चलाए गए हैं, फिर भी तंबाकू के उपभोग में कमी न होना मानव सभ्यता के लिए एक गंभीर सवाल है। तंबाकू के ब़ढ़ते खतरे और जानलेवा दुष्प्रभावों के बावजूद इससे निपटने की हमारी तैयारी इतनी लचर है कि हम अपनी मौत को देख तो सकते हैं लेकिन उसे टालने की कोशिश नहीं कर सकते। यह मानवीय इतिहास की एक त्रासद घटना ही कही जाएगी कि कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका की सक्रियता के बावजूद स्थिति नहीं संभल रही। 
  • सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान करने पर प्रतिबंध लगाए जाने, कम उम्र के बच्चों को तंबाकू उत्पाद न बेचे जाने और उल्लंघन पय ज़ुर्माने के प्रावधानों और तम्बाकू उत्पादों के सेवन के बारे में क़ानून बन जाने के के बावज़ूद भी इनकी अनुपालना नहीं हो रही है।
  • तम्बाकू सेवन के खिलाफ़ जनजागरण में मीडिया के साथ ब्लॉगजगत की भी अहम भूमिका हो सकती है। रचनात्मक लेखन से आम आदमी को जागरूक किया जाना चाहिए।

सोमवार, 28 मई 2012

बांस का चीरा


बांस का चीरा

श्यामनारायण मिश्र

बांस पर,
औरत झुकी है
सांस साधे सांस पर।

बांस की
तासीर, गांठे, कोशिकाएं
तौलती है आंख से,
और तब फिर बैठ जाती है
मुलायम तार-रेशे
     छीलने को बांक से।
दुधमुंहा
इस बीच आकर झूलता है
छातियों के डेढ़ मुट्ठी मांस पर।



बांस का चीरा
कलेजे तक उतरकर
छातियों से बह रहा है।
वंशगत गुर की कहानी
वंशधर से कह रहा है।
टोकनी बुनती हुई
आंखें भरी हैं
दूध पीती दृष्टि
     ठहरी फांस पर।
***  ***  ***
चित्र : आभार गूगल सर्च

रविवार, 27 मई 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 114


भारतीय काव्यशास्त्र – 114

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में यह चर्चा की गई थी कि वक्ता के वैशिष्ट्य के कारण अप्रतीत्व या कष्टार्थत्व आदि काव्यदोष दोष नहीं होते। इस अंक में चर्चा की जाएगी कि बोद्धा (श्रोता), व्यंग्य, वाच्य और प्रकरण आदि के वैशिष्ट्य के कारण भी तथाकथित काव्यदोष दोष न होकर या तो काव्य के गुण हो जाते हैं या न तो गुण होते हैं और न ही दोष।

यदि श्रोता (बोद्धा) वैयाकरण हो, तो भी श्रुतिकटु दोष काव्यदोष न होकर गुण हो जाता है। जैसे-

यदा    त्वामहमद्राक्षं    पदविद्याविशारदम्।
उपाध्यायं तदाSस्मार्षं समस्प्राक्षं च सम्मदम्।।

अर्थात् मैंने जब आप जैसे महान वैयाकरण को  देखा तो मुझे अपने उपाध्याय (गुरु) का ध्यान आ गया और मेरा अभिमान चला गया।

     यहाँ अद्राक्षम्, अस्मार्षम्, समस्प्राक्षम् आदि पद श्रुतिकटुत्व दोष से ग्रस्त हैं। पर बोद्धा अर्थात् श्रोता के वैयाकरण होने के कारण यह काव्यदोष न होकर काव्य का गुण हो गया है।

     इसी प्रकार यदि कहीँ बीभत्स रस, वीररस आदि व्यंग्य हों, तो श्रुतिकटु या बड़े समासयुक्त पदों का प्रयोग गुण हो जाता है। निम्नलिखित श्लोक इसका उदाहरण है। यह श्लोक महावीरचरितम् से लिया गया है। भागती हुई ताड़का के बीभत्स रूप को देखकर लक्ष्मण ने महर्षि विश्वामित्र से पूछा कि आखिर इस प्रकार का रूप धारण किए यह कौन है-

अन्त्रप्रोतवृहत्कपालनलकक्रूरक्वणत्कङ्कणप्रायप्रेङ्खितभूरिभूषणरवैराघोषयन्त्यम्बरम्।
पीतच्छर्दितरक्तकर्दमघनप्राग्भारघोरोल्लसद्व्यालोलस्तनभारभैरववपुर्दर्पोद्धतं धावति।।

अर्थात् वह अभिमान से उद्धत होकर भयंकर शरीरवाली कौन दौड़ रही है और आँतो से गुँथे हुए बड़े-बड़े कपाल, जाँघों की हड्डियों से बने जिसके नाना आभूषणों के हिलने से उत्पन्न भयंकर आवाज से आकाश कोलाहलमय हो रहा है;  शरीर का ऊपरी भाग रक्तपान करने के बाद वमन किए हुए कीचड़ युक्त रक्त से सने और बीच में भयंकर रूप से उठे झूलते स्तनों से  जिसका शरीर बड़ा ही भयंकर लग रहा है।

     यहाँ बीभत्स रस व्यंग्य होने के कारण कटु वर्णों और समास बहुल पद का प्रयोग काव्यदोष न होकर गुण माना गया है।

इसी प्रकार वाच्य (वर्णन का आधार) के आधार पर भी श्रुतिकटु वर्णों या अधिक समास वाले पदों का प्रयोग काव्यदोष न होकर काव्य के गुण बन जाते हैं। जैसे-       

मातङ्गाः  किमु   वल्गितैः   किमफलैराडम्बरैर्जम्बुकाः
सारङ्गा  महिषा  मदं  व्रजथ  किं शून्येषु शूरा न के।
कोपाटोपसमुद्भट्टोत्कटसटाकोटेरिभारेः             पुरः
सिन्धुध्वानिनि हुङ्कृते स्फुरति यत् तद्गर्जितं गर्जितम्।।

अर्थात् हे हाथियों, इस प्रकार चिंघाड़ने से क्या होता है? सियारों, व्यर्थ का आडम्बर करने से क्या लाभ? ओ हिरणों और भैसों, तुमलोग क्यों मतवाले हो रहे हो? खाली मैदान में कौन वीर नहीं होता? गर्जना तो उसे कहते हैं जब भयंकर बालों से युक्त गरदन और सिर वाला, क्रोधाभिभूत समुद्र की भाँति सिंह की दहाड़ के सामने कोई गरजे।

     यहाँ वाच्य सिंह होने के कारण श्रुति-कटु वर्णों और बड़े समासयुक्त पदों का प्रयोग काव्य दोष न होकर काव्य के गुण बन गए हैं।

     प्रकरण (सन्दर्भ) के अनुसार भी कटु वर्णों और दीर्घ समास वाले पदों का प्रयोग भी काव्यदोष नहीं माना जाता, बल्कि गुण माना जाता है। निम्नलिखित श्लोक पुरुरवा के क्रोध की अभिव्यक्ति है। उर्वशी के अचानक गायब हो जाने के बाद पुरुरवा रक्ताशोक (एक प्रकार का अशोक का पेड़, जिसके फूल लाल-लाल होते हैं) से पूछ रहा है कि क्या उसने कहीं उसे देखा है। हवा से हिलती टहनियों को देखकर पुरुरवा को लगता है कि वह पेड़ अपना सिर हिलाकर कह रहा है कि उसने उर्वशी को नहीं देखा। लेकिन वह उसपर इसलिए नहीं करता कि अशोक फूलों से लदा है और उसपर भौंरों का समूह टुट रहा है। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि कवि मान्यता है कि युवतियों के चरण-प्रहार से रक्त-अशोक पुष्पित होता है। इसलिए पुरुरवा को विश्वास है कि यह रक्ताशोक उर्वशी के चरण-प्रहार से ही यह पुष्पित हुआ है और इसे उर्वशी का पता मालूम है। इस श्लोक में पुरुरवा के क्रोध की अभिव्यक्ति है। इसमें परुष (कठोर) वर्णों और दीर्घ समासयुक्त पदों का प्रयोग हुआ है। अतएव यहाँ श्रुतिकटुत्व दोष न मानकर इसे काव्य का गुण मानना चाहिए-   

रक्ताशोक कृशोदरी क्व नु गता त्यक्त्वानुरक्तं जनं
नो  दृष्टेति  मुधैव  चालयसि किं वातावधूतं शिरः।
उत्कण्ठाघटमानषट्पदघटासङ्घट्टदष्टच्छद-
स्तत्पादाहतिमन्तरेण  भवतः पुष्पोद्गमोSयं  कुतः।।

हे रक्ताशोक (लाल फूलोंवाला एक प्रकार का अशोक वृक्ष), इस अनुरक्त व्यक्ति को छोड़कर कृशोदरी (जिसका उदर निकला न हो, यहाँ उर्वशी) कहाँ चली गई? हवा से हिलते हुए रक्ताशोक के वृक्ष को देखकर पुरुरवा कल्पना करता है कि वह कह रहा है कि मैंने उसे नहीं देखा। (इसपर पुरुरवा कहता है) हवा से कम्पित अपने सिर को क्यों हिला रहे हो? तेरे ऐसे हिलाकर कर कह देने से थोड़े ही मान लिया जाएगा कि तुमने नहीं देखा है। उसके (उर्वशी के) पादप्रहार के बिना तुम्हारे फूल कैसे आए जिसपर उत्कंठा वश एकत्र हुए भौंरों के समूह से पंखुड़ियाँ टूट-टूटकर गिर रही हैं।

इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक में कुछ ऐसे ही प्रसंगों पर चर्चा की जाएगी, जहाँ काव्यदोष काव्य के गुण बन जाते हैं या वे दोष नहीं माने जाते।  
*****

गुरुवार, 24 मई 2012

विक्की डोनर - एक शुभ संकेत

आंच-110

विक्की डोनर - एक शुभ संकेत

मनोज कुमार

एक फिल्म का संवाद है कि लकडी भले ही जलकर राख हो जाए चूल्हे की गरमी देर तक बनी रहती है। हमारे ब्लॉग पर “आंच” की लकडियाँ (सर्वश्री परशुराम राय, हरीश गुप्त एवं करण समस्तीपुरी) फिलहाल (व्यक्तिगत कारणों से) भले ही ठंडी हो गयी हों “आंच” की गरमी बनी रहनी चाहिए। चूँकि फिल्मी संवाद से अपनी बात आरम्भ की है इसलिए सोचा कि आज यहां क्यों न एक फिल्म की चर्चा की जाए। इसी उद्देश्य से देखी फ़िल्म – विक्की डोनर। यह एक कॉमेडी फ़िल्म है, जो इंटरवल के बाद थोड़ी सीरियस होती है, लेकिन विषयान्तर कहीं नहीं होती है। न तो फ़िल्म कहीं से कमज़ोर है और न ही इसकी गति धीमी है।

इस फ़िल्म का निर्माण अभिनेता जॉन अब्राहम ने किया है। फिल्म का केन्द्रीय विषय स्पर्म डोनेशन (शुक्राणु-दान) है, और यदि फ़िल्म के ही शब्दों में कहें तो इसमें “क्वालिटी स्पर्म” के डोनेशन की बात पर बल दिया गया है। निर्माता ने एक ऐसे विषय पर फ़िल्म बनाने की सोची जो समाज में वर्जित माना जाता रहा है। किन्तु इसे निर्माता-निर्देशक की सूझ ही कहा जाएगा कि जब ऐसे विषय को हास्य के साथ परोसा जाए, तो एक वर्जित विषय को भी सहजता से ग्रहण करने का मानस तैयार होता है। इसी फिल्म से एक उदाहरण देखिए कि जब एक दम्पति आकर कहता है कि मुझे क्रिकेटर वाला सैम्पल चाहिए, तब डॉक्टर साहब अपने पेशे की विशेषता बताते हुए कहते हैं कि कितनी अच्छी बात है, पहले बच्चे का कैरियर डिसाइड कर लो, बाद में बच्चा पैदा करो।

इस फ़िल्म का मुख्य पात्र एक युवक है, जिसका नाम है विक्की अरोड़ा। इस किरदार को निभाया है आयुष्मान खुराना ने। उनकी पृष्ठभूमि पर दृष्टि डालें तो वे रेडियो जॉकी थे और पिछले साल तक आई.पी.एल. के टीवी होस्ट/संचालक के रूप में उन्होंने काम किया था जो काफ़ी सराहा भी गया था। फिल्म में विक्की बेरोज़गार किंतु बहुत ही मस्तमौला टाइप का लड़का है। नौकरी की खोज में दर-दर भटकता है। उसकी मां पार्लर चलाती है, पिता मर चुके हैं। घर में एक दादी भी है।

शहर में एक डॉक्टर है – बलदेव चड्ढा। इस चरित्र को जिया है अन्नू कपूर ने। शुरू से अंत तक फ़िल्म में अगर किसी कलाकार ने दर्शकों को बोर नहीं होने दिया तो वह हैं अन्नू कपूर, जिनकी अद्भुत अभिनय क्षमता से उभरा है एक सशक्त चरित्र - डॉ. चड्ढा। फिल्म के हर दृश्य में (जहां वे आते हैं) अपने अभिनय कौशल और संवादों की अदायगी से वे हंसाते रहते हैं। डॉ. चड्ढ़ा दिल्ली के दरियागंज में एक फर्टिलिटी क्लीनिक चलाता है। जिन दम्पत्ति को बच्चा नहीं हुआ है उन्हें मां-बाप बनने के न सिर्फ़ सपने दिखाता है, बल्कि उनके सपनों को साकार भी करता है। एक समय उसे एक विशेष डोनर की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे में उसकी नज़र विक्की पर पड़ती है, तो उसे लगता है कि स्पर्म-डोनर के तौर पर विक्की बहुत ही आदर्श व्यक्ति है। किंतु उसके सामने समस्या यह होती है कि विक्की को इस काम के लिए राज़ी कैसे किया जाए। विक्की को राज़ी कराने के लिए चड्ढ़ा के प्रयासों से फिल्म में काफ़ी हास्य का सृजन हुआ है। जब वह पहली बार विक्की के सामने अपना प्रस्ताव रखता है, तो विक्की ज़ोर-ज़ोर से हंसते हुए कहता है, “यह भी कोई डोनेट करने की चीज़ है?” लेकिन चड्ढा उसे समझाना बंद नहीं करता। अंत में विक्की इस काम के लिए राज़ी हो जाता है और उसकी आमदनी भी होने लगती है। उसके सपने पूरे होते हैं।

विक्की को अशिमा नाम की एक बंगाली लडकी से प्यार हो जाता है, और परिवार के विरोध के बावज़ूद दोनों शादी कर लेते हैं। अशिमा की भूमिका यामी गौतम ने काफ़ी खूबसूरती से निभाई है। कहानी में ट्विस्ट यहीं से आता है। जब उसे पता चलता है कि विक्की क्या “धन्धा” करता है, तो अशिमा को गहरा सदमा पहुंचता है। विक्की उसे समझाने की कोशिश करता है कि वह जो कर रहा है वह “धन्धा” नहीं, एक समाज-सेवा है। लेकिन अशिमा दुखी मन से विक्की का घर छोड़कर चली जाती है। अशिमा के छोड़कर चले जाने की बात जब फैलती है तो घर, परिवार और समाज से विक्की को इतना गंदा धन्धा, खानदान का नाम बदनाम कर दिया तूने आदि ताने सुनने को मिलते हैं। थोड़ी देर सीरियस रहने के बाद फ़िल्म का सुखद अंत होता है। डॉक्टर चड्ढा को भी अहसास होता है, और वह विक्की से कहता है तेरी फैमिली लाइफ को स्पॉयल कर दिया मैंने। और अंत में वही संकट मोचक भी बनता है। अशिमा को जब विक्की द्वारा किए जा रहे काम का महत्व समझ में आता है, तो फिल्म उसके संक्षिप्त से संवाद सॉरी के साथ समाप्त होती है। फ़िल्म की अवधि एक घंटे और सत्तावन मिनट है।

दिल्ली के पंजाबी लड़के के रोल में आयुष्मान खुराना ने जान डाल दी है। किसी भी लिहाज से नहीं लगता कि यह आयुष्मान खुराना की पहली फ़िल्म है। विक्की की मां का अभिनय डॉली अहलुवालिया ने किया है और दादी की भूमिका निभाई है कमलेश गिल ने। दोनों ने एक पंजाबी घर के वातावरण को सजीव कर दिया है। इस फ़िल्म के निर्देशक हैं शूजित सरकार। उनके सामने चुनौती रही होगी कि दो भिन्न परिवेश और संस्कृति वाले (बंगाली और पंजाबी) परिवार के फिल्मांकन में ताल-मेल बिठा सकें, और यह काम उन्होंने बड़े ही रोचक ढंग से सम्पन्न किया है।

निर्माता-निर्देशक ने कहीं भी फ़िल्म को फॉर्मूला फिल्म नहीं होने दिया, यह इस फ़िल्म की सबसे बड़ी विशेषता है। आज के आइटम सॉंग के दौर में, बिना किसी ताम-झाम के एक हिट फिल्म देना, वह भी एक ऐसे विषय पर जिसपर घरों में लोग बातें करने से भी हिचकते हैं, एक कुशल निर्देशन का ही नतीजा है। ऐसे में एक वर्जित विषय पर फिल्म का निर्माण करके अभिनेता जॉन अब्राहम ने भी अदम्य साहस का परिचय दिया है|

इस फ़िल्म की सबसे बड़ी विशेषता यही कही जा सकती है कि इस फ़िल्म में न कोई नायक है, न नायिका। अगर कोई मुख्य भूमिका निभा रहा है, तो वह है इसकी स्क्रिप्ट! इसलिए बॉलीवुड में आईं, अपेक्षाकृत नई स्क्रिप्ट राइटर जूही चतुर्वेदी का उल्लेख यदि न किया जाए और उन्हें उनका अपेक्षित सम्मान न दिया जाए तो बहुत ही नाइंसाफ़ी होगी। जूही के मस्तिष्क में अवश्य ही रहा होगा कि वो एक गंभीर विषय पर स्क्रिप्ट लिख रही हैं, जो साथ ही “वर्जित” विषय की श्रेणी में आता है, इसलिए उन्होंने बड़ी कुशलता से अपनी बात हास्य के माध्यम से सामने रखी है। जब इन दिनों पान सिंह तोमर, आई एम कलाम, कहानी और विक्की डोनर जैसी फ़िल्में हिट हो रही हैं, तो कहा जा सकता है कि एक बार फिर से सत्तर के दशक के ‘स्टोरी टेलिंग’ वाले स्क्रिप्ट का युग लौट रहा है। ऐसी स्क्रिप्ट पर कम बजट में फ़िल्म बन पाती हैं और किसी बड़े स्टार कास्ट की ज़रूरत नहीं पड़ती। बौलीवुड की यह शीतल बयार लोगों को पसंद आ रही हैं, और यह एक शुभ संकेत है।

“आंच” पर फिल्म समीक्षा को शामिल करने की यह शीतल बयार आपको कैसी लगी?

सोमवार, 21 मई 2012

सूख रहे गर्भाशय खेतों के


सूख रहे गर्भाशय खेतों के

श्यामनारायण मिश्र

झंडों के नीचे मत जाना
प्रेतों के डेरे हैं, प्रेतों के।

किसी तरह
बूचड़ से बचकर जो निकले हैं
     उनकी भी बात तो सुनो।
रुको यहीं,
रुख देखो रक्त सने पंजों के
     फिर अपनी राह तुम चुनो।
धूप के छलावे हैं
पानी के सोत नहीं
     टीले हैं रेतों के।

देखोगे कब तक
टूटी बरदौरी में फूस की मड़ैया
     थामोगे किस मोटे पेड़ के तने।
प्रजनन के लिए सिर्फ़
छुट्टे इन सांड़ों को
किसी तरह नाथो तो बात कुछ बने।
सूख रहे गर्भाशय खेतों के।
***  ***  ***
चित्र : आभार गूगल सर्च

रविवार, 20 मई 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 113


भारतीय काव्यशास्त्र – 113
आचार्य परशुराम राय
प्रसिद्ध अर्थ में निर्हेतुत्व दोष नहीं माना जाता है। काव्य में निर्हेतुत्व एक अर्थदोष है। इसका सोदाहरण उल्लेख दोष-प्रकरण में अर्थदोष के अन्तर्गत किया जा चुका है। यहाँ इस सिद्धान्त की चर्चा आवश्यक है कि कार्य-कारण का नित्य सम्बन्ध होता है - कार्य-कारणयोः नित्यसम्बन्धः। प्रत्येक कार्य का कारण होता है। कारण के अभाव में कार्य नहीं होता। अतएव काव्य में वर्णित कार्य के कारण (हेतु) का उल्लेख न किए जाने पर निर्हेतुत्व दोष माना जाता है। किन्तु जहाँ प्रसिद्ध कारण से युक्त कार्य का वर्णन किया जाय जिसका कारण सर्वविदित हो, तो उसका (हेतु का) वर्णन में अभाव होने पर भी निर्हेतुत्व अर्थदोष नहीं माना जाता। जैसे- 
चन्द्रं गता पद्मदुणान्न भुङ्क्ते पद्माश्रिता चान्द्रमसीमभिख्याम्।
उमामुखं तु प्रतिपद्य लोला  द्विसंश्रयां  प्रीतिमवाप लक्ष्मीः।।
अर्थात् चंचल लक्ष्मी को, चन्द्रमा के पास जाने पर कमलों के गुणों (सुगन्ध आदि) का आनन्द नहीं मिलता और कमल में रहने पर चन्द्रमा के सौन्दर्य का सुख नहीं मिलता। लेकिन माँ पार्वती का मुख प्राप्त हो जाने पर उसे (लक्ष्मी को) चन्द्रमा और कमल दोनों का आनन्द प्राप्त हो गया।
     यहाँ पहले वाक्य में लक्ष्मी के चन्द्रमा में निवास करने पर वह कमल के सौन्दर्य, सुगन्धादि गुणों का उपभोग नहीं कर पाती और कमल में रहने पर चन्द्रमा के सौन्दर्य से वंचित रह जाती है। क्यों ऐसा होता है, इसका कारण इसमें नहीं कहा गया है। फिर भी यहाँ निर्हेतुत्व दोष नहीं है। क्योंकि यह सर्वविदित है कि दिन में कमल खिलते हैं, पर चन्द्रमा प्रभाहीन होता है और रात में चन्द्रमा का सौन्दर्य उद्भासित होता है, तो कमल बन्द हो जाते है।
     इसी प्रकार यदि कोई कवि या वक्ता किसी के दोषयुक्त कथन का उल्लेख करता है, अर्थात् अनुकरण करता है, तो वहाँ कोई भी काव्य दोष दोष नही होता है। जैसे-       
मृगचक्षुषमद्राक्षमित्यादि   कथयत्ययम्।
पश्यैष च गवित्याह सूत्रमाणं यजेति च।।
अर्थात् वह मैंने मृगनयनी को देखा आदि कहता है और वह गाय को देखो तथा  इन्द्र को हवि दो कहता है।
     यहाँ किसी दूसरे के कथन का वर्णन किया गया है। अतएव इसमें आए श्रुतिकटुत्व आदि काव्यदोष दोष नहीं हैं।
     ऐसे ही वक्ता, बोद्धा (श्रोता), व्यंग्य, वाच्य और प्रकरण आदि के वैशिष्ट्य के कारण भी कहीं दोष गुण हो जाता है और कहीं न गुण और न ही दोष होता है। जैसे वैयाकरण आदि के वक्ता और श्रोता हों तथा रौद्र आदि रस व्यंग्य हो, तो कष्टार्थत्व काव्यदोष गुण हो जाता है। नीचे एक श्लोक उद्धृत किया जा रहा है जो किसी वैयाकरण द्वारा रचा गया है। इसमें व्याकरण के पारिभाषिक शब्दों के माध्यम से व्यंग्य किया गया है और इसका अर्थ बड़ी कठिनाई से समझ में आता है, अर्थात् कष्टार्थत्व दोष या अप्रतीतत्व दोष कहना चाहिए। वक्ता के वैशिष्ट्य के कारण इसे दोष न मानकर गुण माना गया है-   
दीधीङ्वेवीङ्समः कश्चिद् गुणवृद्धयोरभाजनम्।
क्विप्प्रत्ययनिभः कश्चिद्यत्र सन्निहिते न ते।।
अर्थात् कुछ लोग दीधीङ् और वेवीङ् (संस्कृत की धातुएँ) की तरह होते हैं, जो गुण ( और को गुण कहा जाता है- अदेङ् गुणः) और वृद्धि (और को वृद्धि कहा जाता है- वृद्धिरादैच्) के पात्र नहीं होते और कुछ लोग क्विप् प्रत्यय के समान होते हैं, जिनके पास आते ही लोगों (आनेवालों) के गुण (पाण्डित्य आदि) और वृद्धि (धन-धान्य आदि) दूर चले जाते हैं।
     इस श्लोक का अर्थ समझना सामान्य व्यक्ति के लिए काफी कठिन है। इसमें दो धातुओं (verb roots) दीधी (चमकना) और वेवी (जाना, प्राप्त करना, गर्भ धारण करना, चाहना आदि) के माध्यम से व्यंग्य किया गया है। इन धातुओं का प्रयोग अत्यन्त विरल है। यहाँ गुण और वृद्धि के दो अर्थ लिए गए हैं। पहला यह कि आचार्य पाणिनि के व्याकरण में और को गुण कहा गया है (अदेङ्गुणः) तथा और को वृद्धि। जिन पाठकों को गुण और वृद्धि सन्धियाँ याद हैं, शायद वे इनका अर्थ आसानी से समझ सकते हैं। उक्त दोनों धातुओं में गुण और वृद्धि का निषेध किया गया है- दीधीवेवीटाम्। दूसरा गुण का अर्थ पाण्डित्य आदि और वृद्धि का अर्थ समृद्धि आदि है। इस श्लोक के दूसरे वाक्य में एक प्रत्यय क्विप् का उल्लेख किया गया है। इस प्रत्यय की विशेषता है कि जिस शब्द के साथ लगता है उसमें होने वाले गुण और वृद्धि का निषेध हो जाता है। इसलिए यहाँ कवि ने कुछ लोगों की तुलना दीधी और वेवी से की है, जिसमें गुण और वृद्धि नहीं होती, अर्थात् कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनमें पाण्डित्य, दान, शौर्य आदि गुण और धन-धान्य आदि की वृद्धि नहीं होती। कुछ लोग क्विप् प्रत्यय की तरह होते हैं जिनके पास जाने पर जानेवाले के गुण और वृद्धि का ह्रास हो जाता है।
     यह कथन एक वैयाकरण का होने के कारण यहाँ कष्टार्थत्व या अप्रतीतत्व दोष नहीं है, बल्कि व्यंग्यपूर्ण है। इसलिए यहाँ गुण मानना चाहिए।      
      इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक में बोद्धा (श्रोता), व्यंग्य, वाच्य और प्रकरण आदि के वैशिष्ट्य के कारणों का उल्लेख करते हुए चर्चा की जाएगी।
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