गुरुवार, 30 अगस्त 2012

आँच – 118 - पहिए


आँच – 118 - पहिए
आचार्य परशुराम राय
आँच के इस वर्तमान अंक को प्रारंभ करने के पहले अमृता जी की कविता पर मेरे द्वारा की गई समीक्षा (आँच-116) में अपने एक वक्तव्य छंद शब्द से छंदित शब्द नहीं बनेगा के लिए मैं उनसे और पाठकों से क्षमा माँगता हूँ। संस्कृत में भी छन्द् धातु का बिरले प्रयोग देखने में आता है। इसलिए यह चूक हो गई। इसका संकेत करने के लिए अमृता जी का आभार। उन्होंने कुछ शंका-समाधान करना चाहा है। इसका उत्तर उन्हें मैं पत्र द्वारा दूँगा। हाँ, यह जरूर कहूँगा कि कविता में जिस ढंग से यह शब्द प्रयोग किया गया है, वह काफी भ्रामक है। क्योंकि छन्द् क्रिया शब्द के विरोधी अर्थ हैं, जैसे प्रसन्न होना, तुष्ट करना, फुसलाना, षडयन्त्र करना, बहकाना आदि। कवयित्री की शब्दयोजना किसी एक अर्थ में उस शब्द को नियोजित करने समर्थ नहीं हो सकी है। दूसरी बात, कि हिन्दी में इस धातु से व्युत्पन्न शब्दों का प्रयोग कहीं नहीं मिलता और जिस शब्द का कदाचित प्रयोग हुआ हो या कभी नहीं हुआ हो, साहित्य में ऐसे शब्दों का प्रयोग वर्जित है। अन्यथा अप्रयुक्तत्व दोष माना जाता है। अमृता जी का एक बार पुनः आभार।     
आँच के वर्तमान अंक पर चर्चा के लिए श्री देवेन्द्र पाण्डेय की कविता पहिये लिया जा रहा है। यह कविता उनके ब्लॉग बेचैनआत्मा पर 29-06-2011 को प्रकाशित हुई थी। वैसे यह समीक्षा के लिए बहुत पहले चुनी गयी थी। पर हरीश जी की व्यस्तता के कारण थोड़ा बिलम्ब हो गया। उन्होंने यह काम मुझे सौंपा है। अतएव आज के लिए आँच की अभीष्ट कविता है पहिये
              इस कविता की भावभूमि अधिक विस्तृत नहीं है, बल्कि गहरी है। शहर की सड़कों पर दौड़ती या दिखाई देनेवाली विभिन्न प्रकार की गाड़ियों और उसी पर पैदल गुजरती बिना पहिए की शवयात्रा के माध्यम से कवि ने इसमें जीवन के यथार्थ को तलाशने का प्रयास किया है। जीवन के निहितार्थ को तलाशने के अनेक साधन हो सकते हैं, पर कवि ने सड़क की हलचल से यह कार्य करने का प्रयास किया है। इस कविता में कुल आठ बन्द हैं। पहले बन्द में तरह-तरह के पहियों से चलनेवाली गाड़ियों का सामान्य उल्लेख है। इसके बाद के छः बन्दों में बस, ट्रक, ट्रैक्टर, ऑटो, रिक्शा, कार आदि गाड़ियों पर चलनेवालों और चलानेवालों के व्यवहारों का रनिंग कमेंट्री की तरह स्वाभाविक वर्णन है। अन्तिम बन्द में पहियों के बिना लोगों के कंधों पर पैदल पूरी की जा रही जीवन की अन्तिम यात्रा (शवयात्रा) देखकर अचानक कवि के ठहर जाने के साथ कविता समाप्त हो जाती है और यहाँ पाठक चमत्कृत हुए बिना नहीं रह पाता। यहाँ सड़क की धक्कमधुक्की जीवन की यात्रा है, जिसका अन्त शवयात्रा में होता है। फिर भी सड़क पर चलनेवाले शव को नमन कर अपन कारोबार में फिर व्यस्त हो जाते हैं। कविता की यही पूरी भावभूमि है।
     किसी टिप्पणीकार ने यक्ष-प्रश्न की ओर संकेत किया है। सम्भवतः यक्ष-प्रश्न के सम्बन्ध में सभी जानते हैं। फिर भी प्रसंगवश यहाँ उल्लेख करना समीचीन होगा। यक्ष ने युधिष्ठर से अनेक प्रश्न किए हैं। उनमें से एक है- किमाश्चर्यम्, अर्थात् आश्चर्य क्या है? धर्मराज युधिष्ठिर उत्तर देते हैं- मनुष्य देखता है कि प्राणी रोज अनेक प्राणियों मरते हुए देखता है, फिर भी जीने की कामना करता है, यही आश्चर्य है। युधिष्ठिर के इस कथन का सर्वमान्य अर्थ यह लिया गया कि एक दिन सभी को मरना है, फिर हाय-तौबा क्यों। पर डॉ.हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसका अलग अर्थ किया है और काफी चौंकानेवाला। कादम्बरी में प्रकाशित एक लेख में उन्होंने लिखा था कि प्रतिदिन अनेक प्राणियों मरते हुए देखकर भी मनुष्य जीना चाहता है, इसके पीछे उसकी जिजीविषा (जीने की इच्छा) है और यही आश्चर्य है। दोनों ही अर्थ की दिशा अलग दिखाई अवश्य पड़ रही है। परन्तु कोई अन्तर नहीं है। लक्ष्य एक है। रोजमर्रे की जिन्दगी में मरने की बात सोच-सोचकर कोई सुखी नहीं रह सकता। यह ईश्वर की सृष्टि बुरी नहीं है। यह सृष्टि मंगलमयी है। लेकिन विवेक से अलग होकर इसे जीना निश्चित रूप से आत्मघाती और दुखद है। दुख-दर्द से भरे जीवन में जिजीविषा ही मानव को अन्तिम लक्ष्य भगवत्ता की ओर प्रेरित कर उसे उपलब्ध कराने में सहायक होती है। ये दोनों तथ्य इस कविता की गहराई को व्यक्त करते हैं। क्योंकि यह देखते हुए भी कि इतनी आपाधापी के बावजूद सबका अन्त होना है, आपाधापी बढ़ी है, कम नहीं हुई। एक अधिकारी मेरे मित्र हैं। वे कहते हैं कि मरने के बाद स्वर्गीय ही सबके लिए प्रयोग किया जाता, नरकीय नहीं। यह अनुदात्त में उदात्त की जिजीविषा है। 
कविता प्रसाद गुण से ओतप्रोत है। पढ़ने के साथ ही पाठकों को इसका अर्थ स्वतः हृदयंगम हो जाता है। शब्द-योजना भी सीधी-सादी है। पहिए का लाक्षणिक अर्थ में प्रयोग अच्छा है। कहने का तात्पर्य कि पहिए का अर्थ विभिन्न प्रकार के पहियों से चलनेवाले वाहनों पर बैठे लोगों से लिया गया है। शैली-विज्ञान की दृष्टि से कविता का स्वरूप आकर्षित करनेवाला है, क्योंकि बस, ट्रक, ट्रैक्टर, ऑटो, रिक्शा, कार आदि में कोई क्रम नहीं रखा गया। जैसे स्वचालित गाड़ियों ट्रक, बस आदि के बाद मनुष्य के द्वारा या जानवरों द्वारा खींचे जानेवाले वाहन या चौपहिया के बाद दुपहिया वाहन। बस और ट्रक के बाद आटो, फिर रिक्शा और फिर कार, स्कूटर, सायकिल आदि का वर्णन किया गया है। सड़क पर गाड़ियों के चलने का भी कोई क्रम देखा नहीं जाता, कम से कम भारतीय उपमहाद्वीप के शहरों में। इस प्रकार पूरी कविता सड़क के प्रतिरूप में दिखाई दे रही है। हाँ, जानवरों को जोतकर चलनेवाले वाहन का उल्लेख नहीं हुआ है। जबकि बनारस में अभी भी ताँगे चलते हैं।
उपर्युक्त विशेषताओं के बावजूद कविता में कुछ कमियाँ है, कई स्थानों पर प्रवाह का अभाव है। अननुशासित जीवन के बावजूद सड़क की सीमा है। वैसे ही कविता के कुछ अनुशासन - प्रांजलता, शब्द-संयम (economy of words) आदि कविता में आवश्यक होते हैं। रस्ते में .......... बस, ट्रक या ट्रैक्टर के तक कविता अपनी गति के साथ प्रवाहमान है लेकिन उसके आगे गिलहरी की तरह ........ छिपकली की तरह......... चींटियों की तरह ......... में पदों में एकरूपता है। इसलिए मध्यभाग .............. बचते-बचाते भागते / कारों के में शब्दों की तुलना में अर्थाल्पता होने के कारण अभिव्यक्ति विरल हो गई है। कुछ स्थानों पर कुछ शब्द कविता के प्रवाह को केवल भंग ही नहीं करते, बल्कि कहीं-कहीं अर्थ में भ्रम भी पैदा कर देते हैं जैसे आटो के / चींटियों की तरह / अन्नकण मुँह में दबाए  में आटो के अपने प्रयोग के कारण यहाँ अनावश्यक-सा है और प्रवाह में बाधक प्रतीत होता है यदि इसके पश्चात पूर्णविराम लगाया गया होता तो इसकी अन्विति पूर्व पद से होकर अर्थ को ग्राह्य बनाती। इसी प्रकार का प्रयोग काँपते/हाँफते/घिसटते/दौड़ते में भी देखने में आता है। हालाँकि इस कविता में अर्थ-भ्रम पैदा करनेवाले अनावश्यक शब्द नहीं हैं तथापि बिखराव तो है ही। इसके अतिरिक्त, बन्द के अन्त में पूर्ण-विराम का अभाव है, जिसे कवि को प्रयोग करना चाहिए था। अल्प-विराम के स्थान पर (/) चिह्न का प्रयोग भ्रम पैदा करता है। क्योंकि इस चिह्न का प्रयोग अथवा एवं और दोनों ही अर्थों में लोग प्रयोग करते हैं। इस कविता की अंतिम पंक्तियाँ काँधे-काँधे / बड़े करीब से गुजर जाती है / बिन पहिए के ही / अंतिम यात्रा सबसे अधिक आकर्षक और अर्थपूर्ण है।
इस समीक्षा में व्यक्त विचार मेरे अपने हैं। कवि एवं पाठकों का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।  
        

बुधवार, 29 अगस्त 2012

तुम सम कौन कुटिल, खल, लम्पट?!!

तुम सम कौन कुटिल, खल, लम्पट?!!

 

लंपटक्या हममें से अधिकांश लंपट हैं???

आज अख़बार में छपे एक रपट पर नज़र पड़ी, जिसका शीर्षक है –

ब्लॉग की दुनिया में लंपटों की कमी नहीं

मेरी मंद बुद्धि ने कमी नहीं को सीधा कर पढ़ा तो उसे लगा अधिकता है

मेरे अंतर्मन ने मुझसे एक प्रश्न किया, जिसे मैं आप ब्लॉगर बंधुओं के सामने रखना चाहता हूं –

क्या ब्लॉग की दुनिया में लंपटों की अधिकता है???

आगे कुछ लिखने से पहले शब्दकोश का सन्दर्भ लेना ज़रूरी समझा। आचार्य रामचन्द्र वर्मा द्वारा रचित और लोकभारती से प्रकाशित  प्रामाणिक हिंदी कोश, के अनुसार –

  • लंपट वि. [सं.] [भाव. लंपटता] व्यभिचारी, विषयी, बदचलन।

इससे संतुष्ट न हो पाने की स्थिति मेँ द पेंगुइन हिंदी/हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी भाग – 3, की शरण मेँ गया जिसके अनुसार –

  • लंपट

कामुक (lecherous)

गुंडा (hooligan)

छलकर्ता (deceiver)

परगामी (पुरुष) (adulterous(male))

लंपट (libertine)

  • लंपटता

अश्लीलता (obscenity)

कामुकता (lechery)

परगमन (adultery)

  • लंपटतापूर्ण

अश्लील (obscene)

  • लंपटा

कुलटा (slut)

परगामिनी (adulterous(female))

  • मित्रों यह वक्तव्य मुझे विचलित करता है, चिंतित करता है, धिक्कारता है और ललकारता है। पिछले तीन सालों की ब्लॉगिंग में मैंने प्रतिदिन लगभग छह से आठ घंटे ब्लॉग जगत को दिए हैं, जिसपर मेरे परिवार के सदस्योँ का अधिकार होना चाहिए। किंतु, मैं इस विशेषण का अधिकारी न तो ख़ुद को मानता/पाता हूं और न ब्लॉग जगत को और ऐसे मेँ कठोर से कठोर शब्दोँ मेँ इसकी भर्त्सना करते हुए अपना विरोध दर्ज करता हूं।
  • आप क्या सोचते हैं?
  • ये उस बिके हुए मीडिया की शालीन भाषा है, जिसकी सोच यह है कि हम (ब्लॉगर) वहां छपने के लिए लालायित हैँ और वहाँ स्थान न पाने की स्थिति मेँ ब्लॉग जगत में आकर लंपटतापूर्ण व्यवहार करने लगे हैँ। वे जो कह रहे हैं तनिक उसपर ध्यान देँ – ‘ब्लॉग की भाषा प्रौढ़ नहीं हुई है’, ‘ब्लॉग लंपटों के हाथों में आ चुका है’, ‘भाषा बेहद ख़राब हो चुकी है’, ‘अशक्त और कमज़ोर लोग – ब्लॉग पर अपनी बातें कह रहे हैं’, ‘चाकू – लंपट के हाथ में’, आदि-आदि।
  • मित्रों! हमारा काम (ब्लॉगिंग) यदि प्रिंट मीडिया के विद्वजनों की दृष्टि में व्यभिचार है, तो ऐसा व्यभिचार मैं सौ बार करूंगा और ऐसे व्यभिचारियोँ की आवश्यकता है वर्त्तमान मेँ।
  • तीन ब्लॉग के ज़रिए 991, 927 और 380 शालीन पोस्ट्स प्रस्तुत करने के उपरांत यदि “लंपट” विशेषण से ब्लॉग जगत के अधिकांश लेखकोँ/प्रस्तोताओँ को अलंकृत किया जाता है, तो यह कम-से-कम मुझे सह्य नहीं हो सकता। मेरी मांग है कि प्रिंट/पल्प मीडिया का वह समाचार-पत्र विशेष इस शब्द पर पुनर्विचार करे और इसे वापस ले। … और अगर उनमें ऐसा न करने का माद्दा है तो उन लंपटों का नाम दें।

  • पहले भी कुछ गण्यमान्य ब्लॉगरों के समक्ष एक प्रिंट मीडिया के अख़बार ने ब्लॉगरों के बारे में अवांछित टिप्पणी की थी, तब मैंने एक पोस्ट लिखी थी - मैं गर्व और शान से ब्लॉगिंग करता हूं! आप चाहें तो एक बार देख लें।
  • उस अखबार के ज़रिए कहा गया था
    • ब्‍लागिंग का मतलब है गालियां खाना और लिखते जाना, ... ब्‍लॉग ठीक उसी तरह है जैसे बंदर के हाथ में उस्‍तरा, ... ब्‍लागिंग ने यदि लिखने की आजादी दी है, तो फिर गाली गलौज तक सुनने के लिए भी तैयार रहना चाहिए, ... ब्‍लॉगिंग एक निजी डायरी है। इसमें आप कुछ भी लिख सकते हैं, ... ब्लॉगर्स को भाषा के प्रति सतर्क रहना चाहिए ....। ....
  • इसके विरोध में उस पोस्ट पर कही गई कुछ बातों को मैं यहां दुहराना चाहूंगा।
    • भाषा के प्रति सतर्क क्‍या हम नहीं रहते? क्‍या प्रिंट मीडिया वाले ही रहते हैं? एक ही दिन के छह सात अखबारोँ को ले लीजिए और उनकी भाषा एक ही विषय पर देखिए ... कोई भड़काऊ ... तो कोई उबाऊ तो कोई झेलाऊ ... तो कोई पकाऊ। सबके अपने प्रिय मत और फिर उस मत पर लिखने वाले प्रिय लेखक हैं।
    • पांच सात साल की हिंदी ब्‍लॉगिंग ने, मुझे लगता है, अठाहरहवीं शताब्‍दी के उत्‍तरार्ध में शुरू हुए हिंदी पत्रकारिता को चुनौती दे दी है। इसे वो पचा नहीं पा रहे। उनकी सीमा रेखा सिमटती जा रही है और यहां (चिट्ठाजगत) SKY IS THE LIMIT .... !!
    • हम ब्‍लॉगर्स को, फिर मैं कहूँगा मुझे लगता है, प्रिंट मीडिया की चालाकी और कोशिशों से बचना चाहिए। यहां (ब्लॉगजगत में) जो हैं उनकी लेखन क्षमता असीम है। ब्‍लॉग जगत में प्रतिदिन अनेकों गीत, ग़ज़ल, आलेख, इतिहास, विज्ञान, समाज, कहानी, संस्‍मरण, सब विधा में लिखा जा रहा है।
    • यहां पर अधिकांश को प्रिंट मीडिया में छपने का लालच नहीं है।
    • यहां पर, यह इनकी आजीविका भी नहीं है। तो डर किस बात का ... इसलिए वे बेलाग लिखते हैं।
    • अब यही सब उनकी आंख की किरकिरी बनी हुई है। उनकी दुनिया के कुछेक लोग, मुझे लगता है, यहां आए, तो जम नहीं पाए, शायद यह भी उन्‍हें सालता है।
    • अगर हम गाली गलौज करते हैं तो उनके भी छह आठ पेज बलात्‍कार, डकैती, लूट-पाट, दुर्घटना के जैसे सनसनीख़ेज़ समाचारों से भरे पडे होते है। ... और आजकल तो चलन सा बन गया है .. नंगी, अधनंगी तस्वीरें डालने का।
    • ब्‍लॉगिंग के जरिए कई गृहणियां, बच्‍चे, कम पढ़े-लिखे लोग भी अपनी भावनाएं, विचार और सृजनात्‍मक लेखन को एक दिशा दे रहे हैं, जिन्‍हें प्रिंटमीडिया वाले घास नहीं डालते।
    • इतिहास गवाह है कि कई कम पढ़े लिखे लोग भी साहित्यिक धरोहर दे गए।
  • ब्लॉगर बंधुओं ब्लॉगिंग पर इस तरह के दुष्प्रचार का तीव्र प्रतिकार करते हुए आपसे आपके विचार का आकांक्षी हूं।

सोमवार, 27 अगस्त 2012

नहीं वह गांव, नहीं वह घर


नहीं वह गांव, नहीं वह घर

श्यामनारायण मिश्र

बचपन बीता जहां,
नहीं वह गांव, नहीं वह घर।

      आंखों का बाग
      और कमलों की गड़ही।
      तोंते का पिंजड़ा,
      सींके का दूध, दही।
आंखें खोज रही,
बोतल में छतने का महपर।

      ऊंटों से टीले,
      औ नीम का दरख़्त।
      निगल गया समय का,
      अजगर कमबख़्त।
कच्ची दीवार,
बांस का ठाठ, कांस का छप्पर।

      दादी की धौंस,
      और दादा का रोब
      नेउर की खनक,
      नक्कारे की चोब।
पी गया मक्कार,
शहर का ऊँचा घंटाघर।
***  ***  ***
चित्र : आभार गूगल सर्च

रविवार, 26 अगस्त 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 123

भारतीय काव्यशास्त्र – 123

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में काव्य-गुणों पर अंतिम चर्चा की गई थी। इस अंक से अलंकारों पर चर्चा प्रारंभ की जा रही है। गुणों की चर्चा के समय काव्य में अलंकार की स्थिति पर भी चर्चा की गयी थी। काव्य में रस को काव्य की आत्मा, रस के धर्म को गुण और अलंकार आभूषणों की तरह रस और गुण की शोभा बढ़ाकर उनमें उत्कर्ष लानेवाले तत्त्व हैं।

आचार्य मम्मट अलंकारों का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि काव्य में विद्यमान अङ्गी रस का शब्द तथा अर्थ से उसका कभी-कभी हार आदि आभूषणों की भाँति उत्कर्ष बढ़ानेवाले अनुप्रास, उपमा आदि अलंकार कहलाते हैं-

उपकुर्वन्ति तं सन्तं ये अङ्गद्वारेण जातुचित्।

हारादिवदलङ्कारास्तेSनुप्रासोपमादयः।।

साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने भी लगभग इसी से मिलता-जुलता लक्षण किया है। वे कहते हैं कि शोभा को बढ़ानेवाले; रस, भाव आदि में उत्कर्ष उत्पन्न करनेवाले शब्द और अर्थ के अस्थिर धर्म बाजूबन्द आदि की तरह अलंकार कहलाते हैं-

शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्माः शोभातिशायिनः।

रसादीनुपकुर्वन्तोSलङ्कारास्तेSङ्गदादिवत्।।

यहाँ अस्थिर धर्म का भाव यह है कि हम कोई भी आभूषण पहनते हैं और उतार भी देते हैं। उन्हें शौर्य, क्षमा आदि गुणों की तरह सदा धारण नहीं करते। उन लोगों में भी शौर्य आदि गुण मिलते हैं, जिनके पास आभूषण पहनने की क्षमता नहीं है। इसलिए काव्य में अलंकारों को आचार्य विश्वनाथ ने काव्य का अस्थिर धर्म कहा है। अर्थात् ये हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते।

उक्त मत ध्वनिवादी आचार्यों के हैं। अलंकारवादी आचार्य ध्वनिवादियों से सहमत नहीं हैं। वे अलंकारों को भी काव्य का स्थिर धर्म मानते हैं। गीतगोविन्दकार महाकवि एवं आचार्य जयदेव अपनी चन्द्रालोक नामक पुस्तक में ध्वनिवादियों, विशेषकर आचार्य मम्मट की चुटकी लेते हुए लिखते हैं कि जो अलंकार विहीन शब्द और अर्थ को काव्य मानता है, वह यह क्यों नहीं मानता कि आग भी शीतल होती है-

अङ्गीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलङ्कृती।

असौ न मन्यते कस्मात् अनुष्णमनलङ्कृती।।

क्योंकि आचार्य मम्मट ने काव्य की परिभाषा देते हुए कहा है कि अदोष और गुण सहित, कहीं अलंकार के न होते हुए भी, शब्द और अर्थ काव्य होते हैं। अर्थात् दोषरहित गुण के साथ शब्द और अर्थ काव्य हैं, यदि कहीं अलंकार न हो तो भी। उक्त श्लोक इसी के उत्तर में कहा गया है। वैसे आचार्य मम्मट ने भी अलंकारों की उपस्थिति को आवश्यक रूप से स्वीकार किया है। लेकिन उनका कहना है कि यदि कहीं अलंकार न हो और शब्द तथा अर्थ दोष रहित और गुण के साथ हैं, तो भी काव्यत्व की हानि नहीं होती।

वैसे यह तो आचार्यों का मतभेद है। कुल मिलाकर यथार्थ यह हैं कि चाहे काव्य हो या हमारी दिनचर्या की भाषा हो, हम भाषा का व्यवहार करते समय उसमें उत्कर्ष, चमत्कार और नवीनता लाने के लिए अलंकारों का प्रयोग करते ही हैं।

आचार्यों ने अलंकारों के सर्वप्रथम तीन भेद किए हैं- शब्दालंकार, अर्थालंकार और उभयालंकार (शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों के गुण से युक्त)। शब्द विशेष की उपस्थित के कारण जिन अलंकारों का अस्तित्व होता है, वे शब्दालंकार कहलाते हैं, अर्थात् शब्द विशेष के स्थान पर दूसरा समानार्थी शब्द रखने पर अलंकार का अस्तित्व समाप्त हो जाए तो समझना चाहिए कि वह शब्दालंकार है। समानार्थी शब्द परिवर्तन के प्रति ये सहिष्णु नहीं होते, जैसे-

कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।

वा खाए बौरात नर, वा पाए बौराय।।

यहाँ यदि कनक के स्थान पर सोना और धतूरा कर दिया जाय, जो कवि का अभीष्ट है, तो यमक अलंकार का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।

अर्थालंकार समानार्थी शब्दों के परिवर्तन के प्रति सहिष्णु होते हैं, अर्थात् अर्थालंकारों का अस्तित्व अर्थगत होता है। समानार्थी शब्दों के प्रयोग के बाद भी उनकी स्थिति यथावत बनी रहती है, जैसे-

एकहि संग निवास तें, उपजे एकहि संग।

कालकूट की कालिमा, लगी मनौं बिधु अंग।।

कवि कहना चाहता है कि एक साथ रहने और एक साथ पैदा होने के कारण मानो विष की कालिमा चन्द्रमा को लग गयी।

यहाँ उत्प्रेक्षालंकार है। यदि इस दोहे में कालकूट, चन्द्रमा, संग आदि शब्दों के स्थान पर उनके अन्य समानार्थी शब्द रख दिए जाएँ, तो भी उत्प्रेक्षालंकार के अस्तित्व पर कोई आँच नहीं आएगी।

यह अंक यहीं समाप्त करते हैं। अगले अंक में अलंकारों के भेद सम्बन्धी मत-मतान्तर पर चर्चा की जाएगी।

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गुरुवार, 23 अगस्त 2012

आँच- 117 : केतकी का सुवास पूरे वातावरण में खुशबू भर देता है!

आँच- 117
केतकी का सुवास पूरे वातावरण में खुशबू भर देता है!
Salil Varma की प्रोफाइल फोटोसलिल वर्मा
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“केतकी” कहानी की लेखिका हैं श्रीमती अनुलता राज नायर यह कहानी उनके ब्लॉग “माई ड्रीम्स एन’ एक्सप्रेशंस” पर दिनांक १४.०८.२०१२ को प्रकाशित हुई. अनुलता जी को इनके ब्लॉग पाठक अनु के नाम से जानते हैं और इन्हें इनकी कविताओं से पहचानते हैं. यह इनकी दूसरी कहानी है. अपने बारे में कहती हैं कि मध्य प्रदेश में पली-बढ़ी हैं (शायद इसी कारण मूलतः मलयाली होते हुए भी हिन्दी में अभिव्यक्ति बहुत स्पष्ट है) और मेरी ही तरह रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर हैं अर्थात साहित्य से कोई सीधा सम्बन्ध न होते हुए भी (ब्लॉग जगत में बहुतायत है ऐसे रचनाकारों की) स्तरीय कविताएं और कहानियाँ लिख रही हैं.

“केतकी” उनकी इस कथा की मुख्य-पात्र है. कॉलेज में पढ़ने वाली और ज़िंदगी से लबरेज. एक ऐसी लड़की जिसे हर कोई पहली मुलाक़ात में ही अपना दोस्त बनाने को मचल जाए. उसके जीने का अन्दाज़ भी बड़ा अनोखा है. एक ऐसा अन्दाज़ जो उसे अपने जैसी और लडकियों से अलग करता है. अंश नाम का एक लड़का बचपन से ही उसके साथ ही पढता है और उसका सबसे अच्छा दोस्त है. धीरे-धीरे यह दोस्ती प्यार में बदल जाती है. दोनों महसूस करते हैं पर कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं. बाद में उसके जोर देने पर अंश किसी और जगह शादी कर लेता है और वो गोवा चली जाती है. अंश को शादी की रात ही खबर मिलती है कि केतकी ने समुद्र में जलसमाधि ले ली. कारण उसका यह (अंध)विश्वास कि उसके जन्म के समय उसकी माता की मृत्यु, फिर पिता, फिर उसके मौसा-मौसी का बे-औलाद रहना और अंश का प्रणय निवेदन के दिन दुर्घटना ग्रस्त होना. निष्कर्ष के तौर पर अपने नाम की सचाई बताना कि केतकी का फूल महादेव को नहीं चढाया जाता, और यह उम्मीद कि शायद अगले जन्म में वो हरसिंगार बने.

इस कहानी की केन्द्रीय पात्र है केतकी. मगर कहानी कहने वाला है अंश. कहानी के आधे भाग में उसके चरित्र को स्थापित करने की चेष्टा की गयी है. कथावस्तु में नवीनता भले ही न हो, किन्तु जिस तरह से उसका ट्रीटमेंट किया है अनु जी ने वह बेहद सराहनीय है. पढते हुए ऐसा लगता है मानो उन्हीं की कविताओं के अलग-अलग हिस्से पढ़ रहे हों. दरसल पूरी कहानी उस लड़की का पोर्ट्रेट है, जिसकी हँसी और चंचलता, खुलेपन और सचाई, बिंदासपन और चुलबुलेपन के पीछे एक गहरी उदासी छिपी है. और उस उदासी का अंत, उसके जीवन के अंत के साथ होता है. कहानी पर कई फ़िल्मों का प्रभाव दिखाई पड़ता है. एक दुखांत कथा, नायिका के चरित्र को मजबूती से स्थापित करने के लिए, उसकी आत्महत्या और सुसाइड नोट पर पटाक्षेप.

लेखिका की यह कथा कम से कम यह आभास नहीं देती कि उन्होंने यह दूसरी कहानी ही लिखी है. उनकी अभिव्यक्ति बहुत ही स्पष्ट है, जैसा कि उनकी कविताओं में होता है. इसलिए इस कथा में भी कहीं भटकाव नहीं है, कहानी की मुख्य पात्र केतकी है और चूँकि घटनाक्रम उसी के इर्द-गिर्द बुने गए हैं इसलिए उसके चरित्र के साथ न्याय हुआ है. मगर इस क्रम में वे अन्य पात्रों के साथ न्याय नहीं कर पायी हैं. नायक अंश, पूरी घटनाओं को याद कर रहा है लेकिन स्वयं उसके चरित्र, उसकी मनःस्थिति, उसकी प्रतिक्रियाएं और उसके मनोभावों का खुलकर पता नहीं चलता. ऐसा लगता है कि कहानी कहने वाला भले ही पुरुष हो (नायक अंश) किन्तु वास्तव में कहने वाली कोई महिला है.

यह कथा यदि वर्णनात्मक न होकर संवादों में हमारे समक्ष प्रस्तुत की गयी होती तो दोनों चरित्र खुलकर सामने आ पाते, बल्कि चरित्र स्वयं अपना परिचय होते और घटनाएँ परत दर परत खुलकर सामने आतीं. लेखिका की अनुपस्थिति, चरित्रों को उजागर करने में सहायक होती. कुछ बातें और हैं जो खटकती हैं, जैसे केतकी को खुली किताब की तरह बताया गया है और अदृश्य रोशनाई से लिखी किताब भी, अंधविश्वास के प्रति गहरा विश्वासी भी बताया है (जिसे चाहती है उसे जीवन साथी नहीं बना पाती और आत्महत्या कर लेती है) और सारी उँगलियों में अंगूठी पहनने वाली भी. अंधविश्वास को सच मानकर अपना जीवन समाप्त कर लेना कहीं से भी सराहा नहीं जा सकता. मगर दूसरी ओर कुछ संवादों पर बरबस वाह निकल जाती है, जैसे – क्षितिज से उगता सूरज कभी ओल्ड फैशन हो सकता है भला!” या फिर “नहीं अंश, मेरे हाथ में कोई लकीर नहीं....सब बह गयी पानी में.” जो इन वक्तव्यों को लिख सकता है उसने संवादों में इतनी कंजूसी क्यों की, समझ नहीं आता.

अंत में यही कहा जा सकता है कि केतकी नाम की सार्थकता के लिए और उससे जुडी मान्यताओं के लिए तो यह कहानी सही है, किन्तु किसी ने यह समझने की कोशिस क्यों नहीं की कि भले ही केतकी देवता पर न चढाई जाती हो, किन्तु उसका सुवास पूरे वातावरण में केवड़े की खुशबू भर देता है!









बुधवार, 22 अगस्त 2012

स्मृति शिखर से–21 : हौ राजा, चढ़ाई है!


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-- करण समस्तीपुरी
“हौ राजा...! चढ़ाई है।” यदि कभी रेवाखंड जाने का अवसर मिले तो यह पंक्ति बोलिएगा। विश्वास कीजिये आप वहाँ अजनबी नहीं रह जाएंगे वरण आपके स्वागत में एक निर्मल हास बिखर जाएगा। जाति, धर्म, धन, वर्ग, उम्र सभी सीमाओं से विलग यह जुमला रेवाखंड के दैनिक जीवन का अविभाज्य अंग है। वे इसे सुनकर श्रद्धावनत होते हैं। वे इसे सुनकर क्रोधित भी होते हैं। इसे बोलकर हँसते हैं और युवाओं में तो यह कई क्रियाओं के लिए ‘सांकेतिक वाक्य’ भी हो चुका है।
उनका नाम क्या है पता नहीं। हमारे गाँव में वे हर परिवार के मुखिया का नाम जानते हैं लेकिन सब को राजा कह कर ही संबोधित करते हैं। लोग भी उन्हे अब ‘राजा’ के नाम से ही जानते हैं परन्तु पेशे से भिखारी हैं। सांवला रंग, नाटा कद, भरा हुआ शरीर, कलेजे तक लटकती घनी सफ़ेद दाढ़ी, गेरुआ वस्त्र और हौ राजा...! चढ़ाई है। यही है उनकी पहचान। आस-पास के गाँव में जा भीक्षाटन करते हैं। मेरे गाँव में उनकी बारी प्रायः रविवार को होती है। उस दिन पिताजी का भी साप्ताहिक अवकाश होता है। पहले मेरे पिताजी का नाम लेकर उनके दरबार की जयजयकार करते हैं। फिर कुछ देर बैठते हैं, कुशलक्षेम का आदान-प्रदान होता है और तब फिर, “हौ राजा...! चढ़ाई है।” पिताजी एकाध रुपये देने से पहले कभी-कभी उन्हे चाय भी पिला देते हैं।
बाद के वर्षों में उनकी भिक्षाटन शैली में बड़ा बदलाव आया था। अब वे अन्नदान नहीं स्वीकारते हैं। केवल नकद रुपये। एक, दो, पाँच, दस या बीस। पक्के घर वाले अगर एक रुपये दें तो उन्हें क्रोध भी आ जाता था। लोग उनकी सच्चाई जानते हैं। उन्हें अब यह सब छोड़ देने की सलाह भी देते हैं। कई लोग दुत्कार भी देते हैं। फिर भी उनका संसार यथावत चल रहा है। वे इसे अपना कुल धर्म मानते हैं। कहते हैं कि कभी उनके पूर्वज शैव-सन्यासी थे। भिक्षाटन उनका धर्म है।
अब आइए आपको बताते हैं, उनके “हौ राजा ! चढ़ाई है” का राज़। वैसे हर भिखारी के पास वास्तविक या कृत्रिम आवश्यकता होती है। वह उसके अनुसार वेश और भाषा का उपयोग कर भिक्षाटन करता है। किन्तु ‘राजा’ जी के पास भी ऐसी ही कुछ आवश्यकता थी यह कहा नहीं जा सकता। इसीलिए उनका वेश और उनकी भाषा बहुधा एक सी ही रहती है। “हौ राजा चढ़ाई है।”
चढ़ाई का अर्थ यात्रा से है। बाबाजी कभी गंगाजी की चढ़ाई करते हैं। कभी बैजनाथधाम, कभी अयोध्या, काशी, मथुरा बद्री और केदारनाथ। आश्चर्य यह है कि यात्रा कितनी भी लंबी हो वे लौट आते हैं अगले सात दिनों में ही। रविवार को उनकी चढ़ाई हमारे गाँव में ही होती थी। जब कोई पिछली यात्रा के बारे में पूछ देता था तो वे कभी हँस कर और कभी सकोप टाल जाते थे। कभी-कभी तो श्राप का भय भी दिखा देते थे।
अगहन का महीना था। सर्दी की शुरुआत हो गई थी। एक सोमवार की सुबह पिताजी बाहर धूप में बैठे डाक-खाने का हिसाब-किताब मिला रहे थे। कुछ परेशान दिख रहे थे। अगहन की गुलाबी ठंड में भी उनके माथे पर श्वेद-कण साफ़ देखे जा सकते थे। घबराये हुए से कुछ खोज रहे थे। सब जगह खोजा। हार-थक कर बताया कि कोई सात हज़ार रुपये कम पड़ रहे थे। हमारे सर्वोत्तम प्रयासों के बाद भी वो रुपये नहीं मिले। पिताजी का मन किसी भी काम में नहीं लग रहा था। एक अल्पायी डाक-कर्मी के लिए सात हज़ार रुपये भरना एक साल भर की बचत से भी अधिक थी। अनेक लोगों के आश-भरोस दिलाने के बाद कोई ग्यारह बजे पिताजी थके हारे से घर से निकले ही थे कि पीछे से ‘हौ राजा’... हौ राजा ! की आवाज़ आई।
पिताजी पहले से ही चिढ़े थे उनपर भी भरास निकल गई। पुनश्च वे पास आये और मुट्ठी में बँधे सौ रुपये के नोटों की गड्डी आगे कर दिया। पिताजी का सर चकराने लगा। फिर बाबाजी ने याद दिलाई कि वे नोट उसी कुर्ते में रह गए थे जो पिताजी ने कल उन्हे दिया था। पिताजी का मस्तक श्रद्धा से नत हो गया। मेरे गाँव में लोग उनके ईमान का लोहा मानते हैं। कहते हैं कि वर्षों से वे आते रहे हैं। लोगों से सविनय या लड़कर भीख लिया होगा परन्तु किसी के फ़ेंके हुए सोने पर दृष्टि भी नहीं डाली होगी।
बड़े दिल वाले थे वे। वास्तविक अर्थों में राजा। ग्रीष्म का प्रथम चरण पधार चुका था किन्तु क्रिकेट का नशा हमारी युवक-मंडली के सर चढ़ कर बोल ही रही थी। अंतर यही आया था कि अब हम दोपहर के बदले सुबह में ही खेल लेते थे। किसी दूसरे गाँव से क्रिकेट का मैच खेलकर हम वापस आ रहे थे। साइकिल से। धूप की तीखी रेखा हमारे सर के ठीक ऊपर प्रहार करती चुभ सी जा रही थी। पहले खेल की थकान और फिर धूप, आँखों से जो जैसे अंगारे निकल रहे थे और मारे प्यास के गला सूखा जा रहा था।
एक बड़े से हवेलीनुमा के घर के सामने चापाकल देखकर हम सभी रुके। बारी-बारी से हाथ-मुँह धोकर अंजुरी में भर-भर पानी पीने लगे। आहा...! तृप्ति की अनुभूति! तभी एक पहचानी सी आवाज हमारी पिपासा-समन में बाधक बन गई। “हौ राजा...!”
हमें लगा कि बाबाजी वहाँ भी अपने कर्मपथ पर हैं किन्तु नहीं तभी वे विश्राम में थे। सुखद आश्चर्य यह कि वह घर उन्हीं का था। उन्होंने हमें पानी नहीं पीने दिया। बलात खींच ले गये दालान में। पहले नीबू के सर्बत से हमारा गला तर करवाया। फिर ‘चूरा-दही’। संकोच करते देख बोल पड़े, “राजा...! यह सब तुम्हारा ही है। हमारा कुछ है? अपने भाव से विवश कर उन्होंने खाने के बाद ही आने दिया।
उस दिन उनकी आँखों की चमक देखते ही बनती थी। वो चमक जो एक याचक की आँखों में नहीं आती। कई बार अपनी बहू और घर का काम करने वाले लड़के को डाँट भी दिया था। हर्षातुर हो हर आने-जाने वाले को बोल रहे थे, “सौभाग्य है हमारा। आज हमारा राजा सब हमरे द्वार पर आया है।” फिर हमें देख बोल पड़ते थे, “राजा... ऐसा सौभाग्य फिर आयेगा...?” स्वयं के द्वार पर भी उनकी आँखों में याचना आ गई थी।
उसी दिन मालूम पड़ा कि उनके सबसे बड़े पुत्र बिहार पुलिस में दारोगा हैं। एक पुत्र रेलवे में चल टिकट निरीक्षक हैं। एक भारत सरकार के श्रम मंत्रालय के दिल्ली स्थित मुख्यालय में वरिष्ठ सहायक हैं। सबसे छोटा संघ लोक सेवा आयोग की तैय्यारी में है। फिर भी वो इतने सहज हो याचना करते हैं। लोगों की दुत्कार भी सह लेते हैं। कोई उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति का हवाला दे भिक्षाटन छोड़ने की सलाह देता है तो सविनय कहते हैं, “राजा....! ई कैसे छोड़ देंगे ? जड़ तो यही है। आखिर यही कर के इतना सब कुछ किए...। जड़े काट देंगे तो पेड़ सुखिए जाएगा न राजा...! वैसे भी बेटा-बहू कुछ भी हो जाए...हम तो वही हैं राजा...! हौ राजा ! अब निकालो एक-आध रुपैय्या...! फ़लाँ तीर्थ का चढ़ाई है।”










सोमवार, 20 अगस्त 2012

चौखटों को फूल क्या भेजें


चौखटों को फूल क्या भेजें

श्यामनारायण मिश्र

दर्द के क़िस्से सुनाता मृग
पवन कहता, वन बहुत रमणीक है !

चोंच छैनी-सी लिए बगुले,
नापने को तुले पूरी सतह
वंश के अस्तित्व की चिंता,
सोन मछली, ढूंढ़ती फिरती जगह।
स्रोत बर्फीले, मुहाने ज्वार,
नदी कहती, हाल एकदम ठीक है।

चौखटों को फूल क्या भेजें,
चिंगारियां झरतीं झरोखे से।
वक्ष पर उगा कटीला पेड़,
खा गए थे, बीज धोखे से।
मूर्च्छा तो टूट जाए, पर
सांप की बाबी बहुत नज़दीक है।

दांत पीसें, ओंठ भींचें,
अपने मुंह, पेट को पापी कहें।
मुट्ठियां ताने, भौंह खींचें,
जुल्म अपने ही भला कब तक सहें।
बहुत दुर्बल बैल, जर्जर बैलगाड़ी,
बीहड़ों से गुज़रती लीक है।
***  ***  ***
चित्र : आभार गूगल सर्च

रविवार, 19 अगस्त 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 122


भारतीय काव्यशास्त्र – 122
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में काव्य के माधुर्य गुण पर चर्चा हुई थी। आज के इस अंक में ओज और प्रसाद गुणों पर चर्चा अभीष्ट है।
आचार्य विश्वनाथ ने अपने ग्रंथ साहित्यदर्पण में ओज गुण को निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया हैः
ओजश्चित्तस्य विस्ताररूपं दीप्तत्वमुच्यते।
वीरबीभत्सरौद्रेषु   क्रमेणाधिक्यमस्य   तु।।
अर्थात् चित्त के विस्तार और दीप्तता को ओज कहते हैं एवं वीर, बीभत्स तथा रौद्र रस में इसकी क्रमशः अधिकता होती है।
वैसे इस गुण को वीर एवं रौद्र रसों के लिए विशेष रूप से आवश्यक माना गया है तथा बीभत्स और भयानक रसों के लिए सामान्य रूप से।
आचार्य मम्मट ने बड़े ही संक्षेप में ओज की विशेषता बताई है-
योग आद्यतृतीयाभ्यामन्त्ययो रेण तुल्ययोः।
टादिः शषौ वृत्तिदैर्घ्यं गुम्फ उद्धत ओजसि।।
इसमें निम्नलिखित बातें बताई गई हैं-
1.      वर्णमाला के प्रत्येक वर्ग (वर्ग, वर्ग आदि) के प्रथम और तृतीय वर्णों के साथ उनके बाद के वर्णों का बिना व्यवधान के प्रयोग, अर्थात् प्रथम वर्ण क, च, त और के बाद ख, छ, थ तथा एवं ग, ज, द और के बाद घ, झ, ध तथा वर्णयुक्त शब्दों का प्रयोग,
2.      वर्णों और का संयुक्त रूप वाले पदों (शब्दों) का प्रयोग, जैसे- कर्त्ता, क्रम, वज्र, धर्म आदि,
3.      तुल्य वर्णों से संयुक्त शब्दों का प्रयोग, यथा उच्च, उद्दाम, वित्त आदि (हिन्दी के सन्दर्भ में- पत्ता, कच्चा, चक्का आदि),
4.      टवर्ग (ट, ठ, ड, ढ) युक्त शब्दों का प्रयोग,
5.      श और ष वर्णो से युक्त शब्दों का प्रयोग,
6.      लम्बे समास वाले पदों का प्रयोग और
7.      उद्धत (गुम्फित) रचना ओज गुण को व्यंजित करती है।
इसके लिए आचार्य मम्मट ने हनुमन्नाटकम् का बड़ा ही सुन्दर श्लोक उद्धृत किया है। भगवान राम की सेना के द्वारा पूरी लंका घिर जाने के बाद अपने नगर की रक्षा का सुझाव देने पर यह श्लोक रावण की उक्ति है-
मूर्ध्नामुद्वृत्तकृत्ताविरलगलद्रक्तसंसक्तधारा-
धौतेशाङ्घ्रिप्रसादोपनतजयजगज्जातमिथ्यामहिम्नाम्।
कैलासोल्लासनेच्छाव्यतिकरपिशुनोत्सर्पिदर्पोधुराणां
दोष्णां चैषां किमेतत्फलमिह नगरीरक्षणे यत्प्रयासः।
अर्थात् उद्धत होकर लगातार कंठ से बहती अविरल रक्त की धार से भगवान शिव के चरणों के धोने से उनकी कृपा से प्राप्त विजय से जगत में मिथ्या महत्ता को प्राप्त मेरे इन दस सिरों और कैलास को उठाने की इच्छा से आविष्ट उत्कट अभियान के गर्व से युक्त मेरी भुजाओं का क्या यही फल है कि अपनी इस नगरी की रक्षा के लिए मुझे प्रयास करने की आवश्यकता आ पड़ी।
उक्त श्लोक में वे सभी विशेषताएँ आपको देखने को मिलेंगी, जिनका ऊपर उल्लेख किया है। हालाँकि हिन्दी के सन्दर्भ में इस प्रकार की विशेषता महाकवि निराला की कविता बादल-राग में देखने को मिलती है। ओज गुण के उदाहरण के लिए आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र जी ने निम्नलिखित कविता उद्धृत की है-
दिल्लिय-दलनि दजाइ कै, सिव सरजा निरसंक।
लूटि लियो  सूरति सहर, बंकक्करि  अति डंक।
बंकक्करि अति, डंकक्करि अस, संकक्करि खल।
सोचच्चकित,  भरोचच्चलिय,  बिमोचच्चखचल।
तठ्ठठ्ठइ   मन   कट्ठठ्ठिक   सो     रट्ठट्ठिल्लिय।
सद्दद्दिसिदिसि   भद्दद्दबि   भई     रद्दद्दिल्लिय।।
तीसरा गुण है प्रसाद गुण। प्रायः अधिकांश काव्यों में इसकी उपस्थिति देखने को मिलती है। इसे परिभाषित करते हुए आचार्य मम्मट ने लिखा है कि काव्य को सुनते ही उसका अर्थ समझ में आ जाय, उसे प्रसाद गुण कहते हैं-  
श्रुतिमात्रेण शब्दात्तु येनार्थप्रत्ययो भवेत्।
साधारणः समग्राणां स प्रसादो गुणो मतः।।
इस गुण का विस्तार सभी रसों में देखने को मिलता है और इसकी उपस्थिति अन्य दो गुणों के साथ भी प्रायः होती है। इसके लिए श्रीमद्भगवद्गीता का निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया जा रहा है-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोSपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
यह श्लोक इतना प्रचलित है कि सभी इसका अर्थ जानते हैं। इसलिए यहाँ इसका अर्थ नहीं दिया जा रहा है।
हिन्दी में इसके लिए कोई भी उदाहरण लिया जा सकता है। फिलहाल यहाँ रामचरितमानस का एक दोहा उद्धृत किया जा रहा है -
सुनहु भरत  भावी  प्रबल, बिलखि  कहेउ  मुनिनाथ।
लाभ, हानि, जीवन, मरन, जस, अपजस बिधि हाथ।।
काव्य-गुण पर चर्चा यहीं समाप्त होती है। अगले अंक से अलंकारों पर चर्चा प्रारम्भ की जाएगी।
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गुरुवार, 16 अगस्त 2012

आँच – 116 – चौंको मत


आँच - 116 – चौंको मत
आचार्य परशुराम राय
आँच का यह अंक अमृता तन्मय जी की कविता चौंको मत को देखने का प्रयास है। वैसे तो इस स्तम्भ की पूरी जिम्मेदारी हमारे परम मित्र और सहयोगी श्री हरीश प्रकाश गुप्त जी को सौंपी गई है। परन्तु वे आजकल कुछ आवश्यकता से अधिक व्यस्त हो गए हैं और इसी कारण से यह स्तम्भ थोड़ा शिथिल हो गया है। आशा करता हूँ कि शीघ्र ही अपनी व्यस्तता के बावजूद वे समय निकाल पाएँगे और यह शिथिलता समाप्त होगी। हरीश जी ब्लॉग जगत के एक चहेते समीक्षक हैं। मैं उनकी बराबरी तो नहीं कर सकता। किन्तु फिर भी प्रयास करूँगा कि पाठक निराश न हों।
 चौंको मत रचना कवयित्री के अपने ही ब्लॉग अमृता तन्मय पर 10 अगस्त, 2012 को प्रकाशित हुई है। अमृता जी बिहार की राजधानी पटना में रहती हैं और फरवरी 2010 से ब्लॉगिंग कर रही हैं।
कविता में मानसिक और शारीरिक अन्तर्द्वन्दों के माध्यम से जीवन के सन्दर्भों को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है। रोजमर्रे की जिन्दगी में व्यक्ति को अनेक मानसिक अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है। इसमें वह अपनी आवश्यकताओं के परिप्रेक्ष्य में उपलब्ध मूलभूत भौतिक साधनों की कमी से उत्पन्न खीझ से उबरने के लिए मानसिक क्षितिज पर स्वप्निल योजनाओं में समाधान पाने के लिए प्रयत्नशील होता है। कभी स्वप्न में भी राह न पाकर निराशा के मोतियाबिंद का शिकार होता है, तो कभी जीवन के नये अर्थ और परिभाषा की तलाश एक सुखद अनुभूति को अभिव्यक्त करती है और कभी अपनी बेबसी को अपनी पहुँच की सीमा में तड़पती हुई पाता है। उसे लगता है कि उसकी पहुँच का क्षितिज आसन्न बाधाओं के कँटीले तार से घिरा है और फिर भाग्य के भरोसे सबकुछ छोड़कर सन्तोष के आभास में अपनी छटपटाहट को तिरोहित करने का प्रयास करता है, यह सोचकर कि कई जगह से फूटी उसकी गागर थोड़ी तो भर जायगी। इसी भावभूमि पर प्रस्तुत कविता चौंको मत का आरोपण किया गया है।     
            यह मानव की प्रवृत्ति है कि वह अपने प्रारम्भिक जीवन में अपने लिए कुछ सपने देखता है। जिनमें से कुछ जीवनभर यथावत रह जाते हैं, फिर बदलते परिवेश में अपने अनुभव के आधार पर समय-समय पर उनमें संशोधन कर कुछ नए सपने जोड़ता है और उनके पूरा न होने पर मानसिक गुत्थमगुत्थी से उसका सामना होता है। तब अपनी असफलता को भी वह ठीक से समझ नहीं पाता। वह अपने अहसास को दूसरों को समझाने में स्वयं को असमर्थ पाता है -   
नये-नये गीत
बार-बार लिखकर भी
अपने को तनिक भी
उसमें समा न सकी
निज आहों के आशय को
इस जगती को समझा न सकी...
जीवन में वेदना कभी-कभी इतनी सघन हो जाती है कि मनुष्य को उससे निकलकर अपने जीवन के सुखद क्षणों का स्मरण तक नहीं हो पाता या सुख की अनुभूति का स्वाद एकदम विस्मृत हो जाता है, बीच में मानसिक प्रक्रिया स्वरूप स्मृति-पटल पर आकर भी बिना कोई प्रभाव डाले तिरोहित हो जाता है -
चाहकर भी
कंचन की जंजीर पहनकर
सपनों की झांकी में भी
क्षण भर को भी मुस्का न सकी
और औचक चाहों में भी
सोई हुई उजली रातों को
अबतक मैं जगा न सकी.....

 मनुष्य जब कभी अपने अहंकार से प्रेरित होकर या अपनी अन्तरात्मा के विरुद्ध कार्य करता है, तो वे संस्कार के रूप में परिणत होकर उसके खाते में जाते हैंऔर इसे शरीर को भी झेलना पड़ता है, ऐसा भारतीय दर्शन मानता है। कवयित्री ने इस घटना कोचेतना के शाप और शरीर धर्म में ठनी अनबन के रूप में प्रतिबिम्बित किया है। यह निसंदेह बहुत ही उत्तम बिम्ब है -  
चेतना का शाप और
देह के धर्म में ठनी अनबन
बनी की बनी रह गयी
     इसके अतिरिक्त, क्षितिजों (क्षितिज) के कँटीले तारों में / उलझ-उलझ कर रह जाता है.... – यह अभिव्यक्ति भी काफी सशक्त है।
उपर्युक्त विशेषताओं के अतिरिक्त कवयित्री कुछ ऐसे प्रयोग किए हैं जो भविष्य या अन्यथा रूप से उचित नहीं हैं। जैसे – छन्दित छन्दों से लयबद्ध हो रहा है। यहाँ छन्दित शब्द गलत और अनावश्यक है। मूल छंदस शब्द होनेके कारण इससे विशेषण शब्द या तो छांदस बनेगा या छांदसिक। हिन्दी इत प्रत्यय क्रिया से निर्मित विशेषण शब्दों में ही आता है। यहाँ के लिए कोई अलग विशेषण अधिक उपयुक्त होता है। इसी प्रकार, क्षितिज शब्द को बहुवचन में प्रयोग किया गया है, जबकि इसका सदा एकवचन में प्रयोग किया जातात है। इसके अतिरिक्त, निम्नलिखित पंक्तियों में – सोचती थी -    के बाद के वाक्य अपूर्ण वर्तमान के स्थान पर भविष्यत् काल में प्रयोग होना चाहिए था।
अंतिम पंक्तियों में - जगह-जगह से फूटी गागर ही सही / तनिक भी तो भर जाने दो – में दूसरी पंक्ति - तनिक भी तो भर जाने दो – के स्थान पर गीली तो हो जाने दो अधिक चमत्कार पूर्ण होती। क्योंकि जगह-जगह से फूटी गागर का तनिक भी भरने की कामना का कोई अर्थ नहीं है। इसी प्रकार कई स्थानों पर शब्द संयम (economy of words) और प्रांजलता का भी अभाव है।
प्रस्तुत कविता उपर्युक्त विचार मेरे निजी विचार हैं और रचनाकार का या किसी अन्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।