गुरुवार, 30 अगस्त 2012
आँच – 118 - पहिए
बुधवार, 29 अगस्त 2012
तुम सम कौन कुटिल, खल, लम्पट?!!
तुम सम कौन कुटिल, खल, लम्पट?!!
क्या हममें से अधिकांश लंपट हैं???
आज अख़बार में छपे एक रपट पर नज़र पड़ी, जिसका शीर्षक है –
“ब्लॉग की दुनिया में लंपटों की कमी नहीं”
मेरी मंद बुद्धि ने ‘कमी नहीं’ को सीधा कर पढ़ा तो उसे लगा “अधिकता है”।
मेरे अंतर्मन ने मुझसे एक प्रश्न किया, जिसे मैं आप ब्लॉगर बंधुओं के सामने रखना चाहता हूं –
“क्या ब्लॉग की दुनिया में लंपटों की अधिकता है???
आगे कुछ लिखने से पहले शब्दकोश का सन्दर्भ लेना ज़रूरी समझा। आचार्य रामचन्द्र वर्मा द्वारा रचित और लोकभारती से प्रकाशित प्रामाणिक हिंदी कोश, के अनुसार –
- लंपट – वि. [सं.] [भाव. लंपटता] व्यभिचारी, विषयी, बदचलन।
इससे संतुष्ट न हो पाने की स्थिति मेँ द पेंगुइन – हिंदी/हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी भाग – 3, की शरण मेँ गया जिसके अनुसार –
- लंपट
कामुक (lecherous)
गुंडा (hooligan)
छलकर्ता (deceiver)
परगामी (पुरुष) (adulterous(male))
लंपट (libertine)
- लंपटता
अश्लीलता (obscenity)
कामुकता (lechery)
परगमन (adultery)
- लंपटतापूर्ण
अश्लील (obscene)
- लंपटा
कुलटा (slut)
परगामिनी (adulterous(female))
- मित्रों यह वक्तव्य मुझे विचलित करता है, चिंतित करता है, धिक्कारता है और ललकारता है। पिछले तीन सालों की ब्लॉगिंग में मैंने प्रतिदिन लगभग छह से आठ घंटे ब्लॉग जगत को दिए हैं, जिसपर मेरे परिवार के सदस्योँ का अधिकार होना चाहिए। किंतु, मैं इस विशेषण का अधिकारी न तो ख़ुद को मानता/पाता हूं और न ब्लॉग जगत को और ऐसे मेँ कठोर से कठोर शब्दोँ मेँ इसकी भर्त्सना करते हुए अपना विरोध दर्ज करता हूं।
- आप क्या सोचते हैं?
- ये उस बिके हुए मीडिया की शालीन भाषा है, जिसकी सोच यह है कि हम (ब्लॉगर) वहां छपने के लिए लालायित हैँ और वहाँ स्थान न पाने की स्थिति मेँ ब्लॉग जगत में आकर लंपटतापूर्ण व्यवहार करने लगे हैँ। वे जो कह रहे हैं तनिक उसपर ध्यान देँ – ‘ब्लॉग की भाषा प्रौढ़ नहीं हुई है’, ‘ब्लॉग लंपटों के हाथों में आ चुका है’, ‘भाषा बेहद ख़राब हो चुकी है’, ‘अशक्त और कमज़ोर लोग – ब्लॉग पर अपनी बातें कह रहे हैं’, ‘चाकू – लंपट के हाथ में’, आदि-आदि।
- मित्रों! हमारा काम (ब्लॉगिंग) यदि प्रिंट मीडिया के विद्वजनों की दृष्टि में व्यभिचार है, तो ऐसा व्यभिचार मैं सौ बार करूंगा और ऐसे व्यभिचारियोँ की आवश्यकता है वर्त्तमान मेँ।
- तीन ब्लॉग के ज़रिए 991, 927 और 380 शालीन पोस्ट्स प्रस्तुत करने के उपरांत यदि “लंपट” विशेषण से ब्लॉग जगत के अधिकांश लेखकोँ/प्रस्तोताओँ को अलंकृत किया जाता है, तो यह कम-से-कम मुझे सह्य नहीं हो सकता। मेरी मांग है कि प्रिंट/पल्प मीडिया का वह समाचार-पत्र विशेष इस शब्द पर पुनर्विचार करे और इसे वापस ले। … और अगर उनमें ऐसा न करने का माद्दा है तो उन लंपटों का नाम दें।
- पहले भी कुछ गण्यमान्य ब्लॉगरों के समक्ष एक प्रिंट मीडिया के अख़बार ने ब्लॉगरों के बारे में अवांछित टिप्पणी की थी, तब मैंने एक पोस्ट लिखी थी - मैं गर्व और शान से ब्लॉगिंग करता हूं! आप चाहें तो एक बार देख लें।
- उस अखबार के ज़रिए कहा गया था
- ब्लागिंग का मतलब है गालियां खाना और लिखते जाना, ... ब्लॉग ठीक उसी तरह है जैसे बंदर के हाथ में उस्तरा, ... ब्लागिंग ने यदि लिखने की आजादी दी है, तो फिर गाली गलौज तक सुनने के लिए भी तैयार रहना चाहिए, ... ब्लॉगिंग एक निजी डायरी है। इसमें आप कुछ भी लिख सकते हैं, ... ब्लॉगर्स को भाषा के प्रति सतर्क रहना चाहिए ....। ....
- इसके विरोध में उस पोस्ट पर कही गई कुछ बातों को मैं यहां दुहराना चाहूंगा।
- भाषा के प्रति सतर्क क्या हम नहीं रहते? क्या प्रिंट मीडिया वाले ही रहते हैं? एक ही दिन के छह सात अखबारोँ को ले लीजिए और उनकी भाषा एक ही विषय पर देखिए ... कोई भड़काऊ ... तो कोई उबाऊ तो कोई झेलाऊ ... तो कोई पकाऊ। सबके अपने प्रिय मत और फिर उस मत पर लिखने वाले प्रिय लेखक हैं।
- पांच सात साल की हिंदी ब्लॉगिंग ने, मुझे लगता है, अठाहरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में शुरू हुए हिंदी पत्रकारिता को चुनौती दे दी है। इसे वो पचा नहीं पा रहे। उनकी सीमा रेखा सिमटती जा रही है और यहां (चिट्ठाजगत) SKY IS THE LIMIT .... !!
- हम ब्लॉगर्स को, फिर मैं कहूँगा मुझे लगता है, प्रिंट मीडिया की चालाकी और कोशिशों से बचना चाहिए। यहां (ब्लॉगजगत में) जो हैं उनकी लेखन क्षमता असीम है। ब्लॉग जगत में प्रतिदिन अनेकों गीत, ग़ज़ल, आलेख, इतिहास, विज्ञान, समाज, कहानी, संस्मरण, सब विधा में लिखा जा रहा है।
- यहां पर अधिकांश को प्रिंट मीडिया में छपने का लालच नहीं है।
- यहां पर, यह इनकी आजीविका भी नहीं है। तो डर किस बात का ... इसलिए वे बेलाग लिखते हैं।
- अब यही सब उनकी आंख की किरकिरी बनी हुई है। उनकी दुनिया के कुछेक लोग, मुझे लगता है, यहां आए, तो जम नहीं पाए, शायद यह भी उन्हें सालता है।
- अगर हम गाली गलौज करते हैं तो उनके भी छह आठ पेज बलात्कार, डकैती, लूट-पाट, दुर्घटना के जैसे सनसनीख़ेज़ समाचारों से भरे पडे होते है। ... और आजकल तो चलन सा बन गया है .. नंगी, अधनंगी तस्वीरें डालने का।
- ब्लॉगिंग के जरिए कई गृहणियां, बच्चे, कम पढ़े-लिखे लोग भी अपनी भावनाएं, विचार और सृजनात्मक लेखन को एक दिशा दे रहे हैं, जिन्हें प्रिंटमीडिया वाले घास नहीं डालते।
- इतिहास गवाह है कि कई कम पढ़े लिखे लोग भी साहित्यिक धरोहर दे गए।
- ब्लॉगर बंधुओं ब्लॉगिंग पर इस तरह के दुष्प्रचार का तीव्र प्रतिकार करते हुए आपसे आपके विचार का आकांक्षी हूं।
सोमवार, 27 अगस्त 2012
नहीं वह गांव, नहीं वह घर
रविवार, 26 अगस्त 2012
भारतीय काव्यशास्त्र – 123
भारतीय काव्यशास्त्र – 123
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में काव्य-गुणों पर अंतिम चर्चा की गई थी। इस अंक से अलंकारों पर चर्चा प्रारंभ की जा रही है। गुणों की चर्चा के समय काव्य में अलंकार की स्थिति पर भी चर्चा की गयी थी। काव्य में रस को काव्य की आत्मा, रस के धर्म को गुण और अलंकार आभूषणों की तरह रस और गुण की शोभा बढ़ाकर उनमें उत्कर्ष लानेवाले तत्त्व हैं।
आचार्य मम्मट अलंकारों का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि काव्य में विद्यमान अङ्गी रस का शब्द तथा अर्थ से उसका कभी-कभी हार आदि आभूषणों की भाँति उत्कर्ष बढ़ानेवाले अनुप्रास, उपमा आदि अलंकार कहलाते हैं-
उपकुर्वन्ति तं सन्तं ये अङ्गद्वारेण जातुचित्।
हारादिवदलङ्कारास्तेSनुप्रासोपमादयः।।
साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने भी लगभग इसी से मिलता-जुलता लक्षण किया है। वे कहते हैं कि शोभा को बढ़ानेवाले; रस, भाव आदि में उत्कर्ष उत्पन्न करनेवाले शब्द और अर्थ के अस्थिर धर्म बाजूबन्द आदि की तरह अलंकार कहलाते हैं-
शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्माः शोभातिशायिनः।
रसादीनुपकुर्वन्तोSलङ्कारास्तेSङ्गदादिवत्।।
यहाँ अस्थिर धर्म का भाव यह है कि हम कोई भी आभूषण पहनते हैं और उतार भी देते हैं। उन्हें शौर्य, क्षमा आदि गुणों की तरह सदा धारण नहीं करते। उन लोगों में भी शौर्य आदि गुण मिलते हैं, जिनके पास आभूषण पहनने की क्षमता नहीं है। इसलिए काव्य में अलंकारों को आचार्य विश्वनाथ ने काव्य का अस्थिर धर्म कहा है। अर्थात् ये हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते।
उक्त मत ध्वनिवादी आचार्यों के हैं। अलंकारवादी आचार्य ध्वनिवादियों से सहमत नहीं हैं। वे अलंकारों को भी काव्य का स्थिर धर्म मानते हैं। गीतगोविन्दकार महाकवि एवं आचार्य जयदेव अपनी चन्द्रालोक नामक पुस्तक में ध्वनिवादियों, विशेषकर आचार्य मम्मट की चुटकी लेते हुए लिखते हैं कि जो अलंकार विहीन शब्द और अर्थ को काव्य मानता है, वह यह क्यों नहीं मानता कि आग भी शीतल होती है-
अङ्गीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलङ्कृती।
असौ न मन्यते कस्मात् अनुष्णमनलङ्कृती।।
क्योंकि आचार्य मम्मट ने काव्य की परिभाषा देते हुए कहा है कि अदोष और गुण सहित, कहीं अलंकार के न होते हुए भी, शब्द और अर्थ काव्य होते हैं। अर्थात् दोषरहित गुण के साथ शब्द और अर्थ काव्य हैं, यदि कहीं अलंकार न हो तो भी। उक्त श्लोक इसी के उत्तर में कहा गया है। वैसे आचार्य मम्मट ने भी अलंकारों की उपस्थिति को आवश्यक रूप से स्वीकार किया है। लेकिन उनका कहना है कि यदि कहीं अलंकार न हो और शब्द तथा अर्थ दोष रहित और गुण के साथ हैं, तो भी काव्यत्व की हानि नहीं होती।
वैसे यह तो आचार्यों का मतभेद है। कुल मिलाकर यथार्थ यह हैं कि चाहे काव्य हो या हमारी दिनचर्या की भाषा हो, हम भाषा का व्यवहार करते समय उसमें उत्कर्ष, चमत्कार और नवीनता लाने के लिए अलंकारों का प्रयोग करते ही हैं।
आचार्यों ने अलंकारों के सर्वप्रथम तीन भेद किए हैं- शब्दालंकार, अर्थालंकार और उभयालंकार (शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों के गुण से युक्त)। शब्द विशेष की उपस्थित के कारण जिन अलंकारों का अस्तित्व होता है, वे शब्दालंकार कहलाते हैं, अर्थात् शब्द विशेष के स्थान पर दूसरा समानार्थी शब्द रखने पर अलंकार का अस्तित्व समाप्त हो जाए तो समझना चाहिए कि वह शब्दालंकार है। समानार्थी शब्द परिवर्तन के प्रति ये सहिष्णु नहीं होते, जैसे-
कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाए बौरात नर, वा पाए बौराय।।
यहाँ यदि कनक के स्थान पर सोना और धतूरा कर दिया जाय, जो कवि का अभीष्ट है, तो यमक अलंकार का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।
अर्थालंकार समानार्थी शब्दों के परिवर्तन के प्रति सहिष्णु होते हैं, अर्थात् अर्थालंकारों का अस्तित्व अर्थगत होता है। समानार्थी शब्दों के प्रयोग के बाद भी उनकी स्थिति यथावत बनी रहती है, जैसे-
एकहि संग निवास तें, उपजे एकहि संग।
कालकूट की कालिमा, लगी मनौं बिधु अंग।।
कवि कहना चाहता है कि एक साथ रहने और एक साथ पैदा होने के कारण मानो विष की कालिमा चन्द्रमा को लग गयी।
यहाँ उत्प्रेक्षालंकार है। यदि इस दोहे में कालकूट, चन्द्रमा, संग आदि शब्दों के स्थान पर उनके अन्य समानार्थी शब्द रख दिए जाएँ, तो भी उत्प्रेक्षालंकार के अस्तित्व पर कोई आँच नहीं आएगी।
यह अंक यहीं समाप्त करते हैं। अगले अंक में अलंकारों के भेद सम्बन्धी मत-मतान्तर पर चर्चा की जाएगी।
*****
गुरुवार, 23 अगस्त 2012
आँच- 117 : केतकी का सुवास पूरे वातावरण में खुशबू भर देता है!
“केतकी” कहानी की लेखिका हैं श्रीमती अनुलता राज नायर यह कहानी उनके ब्लॉग “माई ड्रीम्स एन’ एक्सप्रेशंस” पर दिनांक १४.०८.२०१२ को प्रकाशित हुई. अनुलता जी को इनके ब्लॉग पाठक अनु के नाम से जानते हैं और इन्हें इनकी कविताओं से पहचानते हैं. यह इनकी दूसरी कहानी है. अपने बारे में कहती हैं कि मध्य प्रदेश में पली-बढ़ी हैं (शायद इसी कारण मूलतः मलयाली होते हुए भी हिन्दी में अभिव्यक्ति बहुत स्पष्ट है) और मेरी ही तरह रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर हैं अर्थात साहित्य से कोई सीधा सम्बन्ध न होते हुए भी (ब्लॉग जगत में बहुतायत है ऐसे रचनाकारों की) स्तरीय कविताएं और कहानियाँ लिख रही हैं.
बुधवार, 22 अगस्त 2012
स्मृति शिखर से–21 : हौ राजा, चढ़ाई है!
सोमवार, 20 अगस्त 2012
चौखटों को फूल क्या भेजें
रविवार, 19 अगस्त 2012
भारतीय काव्यशास्त्र – 122
गुरुवार, 16 अगस्त 2012
आँच – 116 – चौंको मत
बार-बार लिखकर भी
अपने को तनिक भी
उसमें समा न सकी
निज आहों के आशय को
इस जगती को समझा न सकी...
कंचन की जंजीर पहनकर
सपनों की झांकी में भी
क्षण भर को भी मुस्का न सकी
और औचक चाहों में भी
सोई हुई उजली रातों को
अबतक मैं जगा न सकी.....
देह के धर्म में ठनी अनबन
बनी की बनी रह गयी