शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025

366. भारत सरकार अधिनियम-1935

राष्ट्रीय आन्दोलन


       366. भारत सरकार अधिनियम-1935    




1935

प्रवेश

1932-33 के दौरान ब्रिटिश हुक़ूमत भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को दबाने में सफल हो गई थी। लेकिन उन्हें मालूम था कि दमन की नीति से वे अधिक दिनों तक अपने इस प्रयास में सफल नहीं रह सकते। आने वाले दिनों में फिर से आंदोलन छिड़ सकता है और दमन से उसे दबाया भी नहीं जा सकता। अंग्रेज़ी रणनीतिकार राष्ट्रीय आंदोलन को स्थायी रूप से कमज़ोर करने की नीति तलाशने लगे। यह तय किया गया कि फूट डालो और राज करो की नीति के तहत कांग्रेस में फूट डाल कर उसका विभाजन किया जाए। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उनके आगे संवैधानिक सुधारों का दाना डाला जाए। इस दाने को चुगकर कांग्रेस का एक हिस्सा औपनिवेशिक प्रशासन में शामिल हो जाएगा। उसके बाद जो ताकत बचेगी उसको दमन के बल पर कुचल दिया जाएगा। इसी नीति को अमली रूप देने के लिए 1935 में सरकार द्वारा गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट पारित कर शासन में थोड़े सुधार करने के प्रयास किए गए।

पृष्ठभूमि

1919 के अधिनियम के तहत भारतीय विधायिका केवल एक गैर-संप्रभु कानून बनाने वाली संस्था थी सरकारी गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में कार्यपालिका के समक्ष यह संस्था शक्तिहीन थी। 1919 के अधिनियम में यह प्रावधान किया गया था कि अधिनियम के कामकाज पर रिपोर्ट करने के लिए दस साल बाद एक रॉयल कमीशन नियुक्त किया जाएगा। नवंबर 1927 में, समय से दो साल पहले, ब्रिटिश सरकार ने एक ऐसे आयोग भारतीय वैधानिक आयोग (साइमन कमीशन) की नियुक्ति की घोषणा की। आयोग ने 1930 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसने सिफारिश की कि द्वैध शासन को समाप्त कर दिया जाना चाहिए, प्रांतों में जिम्मेदार सरकार का विस्तार किया जाना चाहिए, ब्रिटिश भारत और रियासतों का एक संघ स्थापित किया जाना चाहिए और सांप्रदायिक निर्वाचन जारी रखा जाना चाहिए। प्रस्तावों पर विचार करने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा तीन गोलमेज सम्मेलन बुलाए गए। इसके बाद मार्च 1933 में ब्रिटिश सरकार द्वारा संवैधानिक सुधारों पर एक श्वेतपत्र प्रकाशित किया गया जिसमें एक संघीय व्यवस्था और प्रांतीय स्वायत्तता के प्रावधान शामिल थे। योजना पर आगे विचार करने के लिए लॉर्ड लिनलिथगो के तहत ब्रिटिश संसद के सदनों की एक संयुक्त समिति की स्थापना की गई थी। 1934 में प्रस्तुत इसकी रिपोर्ट में कहा गया था कि यदि कम से कम 50 प्रतिशत रियासतें इसमें शामिल होने के लिए तैयार हों तो एक संघ की स्थापना की जाएगी।

उस समय ब्रिटेन में भारतीय प्रश्न को लेकर अच्छा-खासा विवाद उठ खड़ा हुआ था। विंस्टन चर्चिल विरोधियों का अगुआ था। वह भारत को स्वशासन देना ब्रिटिश साम्राज्य के साथ ही नहीं, भारतीय जनता के साथ भी गद्दारी समझता था। उसके अनुसार भारत वहां के राजनीतिज्ञों की अपेक्षा ब्रिटिश नौकरशाहों के हाथों कहीं ज़्यादा सुरक्षित था। वह चाहता था कि लॉर्ड विलिंगडन ख़ूब सख़्ती करे। वह यह भी नहीं चाहता था कि भारतीय देशभक्तों की कोई भी मांग पूरी हो। चर्चिल गांधीजी की धार्मिकता और सत्य-अहिंसा की नीति को निरा ढकोसला समझता था। उस समय ब्रिटिश मंत्रिमंडल में भारत का उपनिवेश मंत्री सैमुअल होर था। नए संविधान को पास कराने का दायित्व उसी पर था। नए विधान में जो भी थोड़ी-बहुत सत्ता भारत को दी जाने वाली थी उसके खिलाफ़ इंग्लैंड में प्रेस और पार्लियामेंट ने काफी हल्ला मचा रखा था। होर बड़ी मुश्किलों से उस विधान को पास करा पाया। विधान पास हो जाने पर इंग्लैंड के समाचार पत्र ‘मैनचेस्टर गार्जियन’ ने लिखा था, अंग्रेज़ न तो भारत पर शासन कर सकते हैं, और न ही उसे छोड़ सकते हैं। इसलिए ऐसा विधान बनाना आवश्यक हो गया था, जो भारतीयों को स्वशासन मालूम पड़े और अंग्रेज़ों को ब्रिटिश राज। ब्रिटिश संसद द्वारा 1935 का भारत सरकार अधिनियम बनने के लिए पारित किया गया था। इसे 1 अप्रैल, 1937 से लागू किए जाने की व्यवस्था की गई। कांग्रेस और मुसलिम लीग दोनों ने इस अधिनियम की आलोचना की, लेकिन दोनों ने ही 1937 के चुनावों में भाग लिया।

1935 के अधिनियम की विशेषताएँ

1935 का अधिनियम काफी लंबा था। इसमें 321 धाराएं और 10 परिशिष्ट थे। इस अधिनियम को बिना प्रस्तावना के पास किया गया था। इस अधिनियम के लक्ष्य के संबंध में किसी नई नीति की घोषणा नहीं की गई। 1919 के अधिनियम की प्रस्तावना को ही 1935 के अधिनियम के साथ जोड़ दिया गया। इसमें पूर्ण स्वराज्य या औपनिवेशिक स्वराज्य के बारे में कोई आश्वासन नहीं दिया गया था। केंद्र में दोहरा शासन भी 1919 के प्रांतीय द्वैध शासन की तरह ही था। यह कहा गया कि 1919 के अधिनियम को 1935 के अधिनियम द्वारा विस्थापित कर दिया गया है, लेकिन 1919 के अधिनियम की आत्मा इसमें मौजूद रही।  भारतीय जनमत के सभी भागों का कहना था कि इस अधिनियम में 1919 के प्रस्ताव से अधिक कुछ नहीं है। तभी तो कहा गया है कि यद्यपि 1919 का अधिनियम 1935 के अधिनियम द्वारा विस्थापित हो गया, पहले की प्रस्तावना नहीं बदली गयी – चेशायरी बिल्ली के लुप्त होने के बाद भी उसकी मुस्कराहट बनी रही, और दूसरे में औपनिवेशिक पद का कोई ज़िक्र नहीं था जिस तरह लुईस कैरोल के उपन्यास एलिस एडवेंचर्स इन वंडरलैंड का पात्र चेशायरी बिल्ली के गायब हो जाने के बाद भी उसकी मुस्कराहट बनी रहती है, उसी तरह  ब्रिटिश सरकार द्वारा 1935 के अधिनियम के तहत 1919 के अधिनियम के द्वैध शासन की जगह प्रांतीय स्वायत्तता लागू करने के बाद भी भारतीय केंद्र सरकार 1919 के अधिनियम के अनुसार मामूली संशोधनों के साथ शासित होती रही।

अखिल भारतीय संघ

1935 के अधिनियम में एक अखिल भारतीय संघ एवं प्रांतीय स्वायत्तता की स्थापना की व्यवस्था की गई। इसके अंतर्गत विभिन्न प्रांतों और राजाओं-महाराजाओं की रियासतों को मिला कर भारत को एक गणतंत्र का दर्ज़ा दिया गया और देशवासियों को प्रांतीय सरकार बनाने का अधिकार दिया गया। लेकिन देशी राज्यों को इस संघ में शामिल होने या नहीं होने की छूट दी गई थी। इंडिया काउंसिल को भंग कर दिया गया। भारत सचिव को सलाह देने के लिए एक सलाहकार नियुक्त करने की व्यवस्था की गई। भारत मंत्री अंग्रेजी राज का सलाहकार बना दिया गया।

वायसराय के अधिकारों में वृद्धि

वायसराय के अधिकारों में पहले की अपेक्षा अधिक वृद्धि की गई। उसे मंत्रिपरिषद को नियुक्त करने, भंग करने और अध्यादेश जारी करने का अधिकार था। वह संघीय सभा को बुला सकता था या भंग कर सकता था। 80 प्रतिशत बजट पर उसका नियंत्रण था। विदेश विभाग और प्रतिरक्षा पूरी तरह से वायसराय के नियंत्रण में रहने वाला था। वह प्रांतीय मामलों में भी हस्तक्षेप कर सकता था।

केंद्र में द्वैध शासन की व्यवस्था

साइमन कमीशन द्वारा अस्वीकार की गई द्वैध शासन व्यवस्था को प्रान्तों की जगह केंद्र की संघीय कार्यकारिणी में शामिल किया गया था। संघीय विषयों को सुरक्षित (सुरक्षा, विदेशी मामले, सेना आदि) और हस्तान्तरणीय (कम महत्त्वपूर्ण संघीय विषय) वर्गों में विभाजित किया गया था। सुरक्षित विषयों को वायसराय कार्यकारिणी के तीन मनोनीत सदस्यों की सहायता से संचालित कर सकता था, जो संघीय व्यवस्था के प्रति उत्तरदायी नहीं थे। हस्तांतरित विषयों की जिम्मेदारी मंत्रियों को सौंपी गई थी। केन्द्रीय विधायिका के बहुमत प्राप्त दल से मंत्री लिए जाने थे और वे विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी थे। मंत्रियों की अधिकतम संख्या 10 रखी गई थी।

केंद्र में

केंद्र में (संघीय विधानमंडल में) दो सदन, राज्यों की परिषद (ऊपरी सदन) और संघीय सभा (निचली सदन), होनी थी। 25 वर्ष से कम उम्र के व्यक्ति संघीय सभा और 30 वर्ष से कम उम्र के व्यक्ति राज्य परिषद् के सदस्य नहीं बन सकते थे। केन्द्रीय विधायिका को विधि निर्माण, वित्तीय और प्रशासनिक अधिकार मिले थे, परन्तु अत्यंत सीमित थे। सदनों के बीच गतिरोध की स्थिति में संयुक्त बैठक का प्रावधान था। तीन विषय सूचियाँ थीं- संघीय विधान सूची, प्रांतीय विधान सूची और समवर्ती विधान सूची। अवशिष्ट विधायी शक्तियाँ गवर्नर-जनरल के विवेक के अधीन थीं। यहां तक ​​कि अगर कोई विधेयक संघीय विधायिका द्वारा पारित किया गया था, तो गवर्नर-जनरल इसे वीटो कर सकता था, जबकि गवर्नर-जनरल द्वारा स्वीकृत अधिनियमों को भी किंग-इन-काउंसिल द्वारा अस्वीकृत किया जा सकता था। संघीय स्तर पर प्रत्यक्ष चुनावों के स्थान पर अप्रत्यक्ष चुनाव का प्रावधान रखा गया था। व्यस्क व्यक्तियों की कुल संख्या का छठा हिस्सा ही मतदान का अधिकारी थी। मतदाताओं की संख्या 65 लाख से बढ़ाकर 3 करोड़ कर दी गई थी। 'सांप्रदायिक निर्वाचक मंडल' और 'महत्त्व' के सिद्धांतों को आगे चलकर दबे-कुचले वर्गों, महिलाओं और श्रमिकों तक बढ़ाया गया। मताधिकार का विस्तार किया गया, जिसमें कुल आबादी के लगभग 10 प्रतिशत को मतदान का अधिकार मिला।

संघीय सभा

संघीय सभा के सदस्यों की संख्या 375 थी। इसमें से 250 सदस्य चुने जाते और बाकी 125 सदस्यों को देशी रियासतों द्वारा मनोनीत किया जाना था। निर्वाचित सदस्यों में 38 महिलाएं, श्रमिकों, व्यापारी और उद्योगपति वर्ग के लिए सुरक्षित रखा गया था। मुसलमानों को विशेष प्रतिनिधित्व दिया गया था। अन्य अल्पसंख्यक वर्गों के लिए भी स्थान निश्चित किया गया था। इसका कार्यकाल 5 वर्षों का था। सभा की कार्रवाई संचालित करने के लिए एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष की भी व्यवस्था थी।

राज्य परिषद्

काउंसिल ऑफ स्टेट्स (उच्च सदन) को एक स्थायी निकाय होना था। इसके 1/3 सदस्य हर साल चुने जाने थे। इसकी सदस्य संख्या 260 थी। 150 सदस्यों का चुनाव प्रांतीय प्रतिनिधित्व के आधार होना था। 104 देशी शासकों के प्रतिनिधि होते। 6 सदस्यों को वायसराय मनोनीत करता। निर्वाचित सदस्यों के लिए सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था थी।

प्रांतीय स्वायत्तता और गवर्नर के अधिकार

प्रांतों में द्वैध शासन को समाप्त कर दिया गया और प्रांतों को स्वायत्तता दी गई, यानी आरक्षित और हस्तांतरित विषयों के बीच का अंतर समाप्त कर दिया गया और कुछ सुरक्षा उपायों के अधीन पूर्ण जिम्मेदार सरकार की स्थापना की गई। केंद्र और प्रान्तों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया। विषयों को तीन सूचियों में बांटा गया। राज्य सूची के विषयों पर क़ानून बनाने का अधिकार राज्यों को दिया गया। समवर्ती सूची के विषय पर केंद्र तथा राज्य दोनों ही क़ानून बना सकते थे। प्रांतों ने अपनी शक्ति और अधिकार सीधे ब्रिटिश क्राउन से प्राप्त किए। उन्हें स्वतंत्र वित्तीय अधिकार और संसाधन दिए गए। प्रांतीय सरकारें अपनी सुरक्षा पर धन उधार ले सकती थीं।

गवर्नर प्रांतीय कार्यकारिणी का सर्वोच्च पदाधिकारी था और प्रान्तों की कार्यपालिका की शक्ति गवर्नर में निहित थी। वह मंत्रियों की सहायता से शासन करता। गवर्नर को विस्तृत अधिकार दिए गए थे, जैसे अल्पमतों, सार्वजनिक सेवाओं, देशी रियासतों के शासकों और अंग्रेजों के हितों की सुरक्षा, भारत में सुरक्षा, शांति एवं व्यवस्था कायम रखना। इन उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए उन्हें विशेष शक्तियां दी गई थीं, जिसे ‘संरक्षण और आरक्षण कहा जाता थाप्रांतों में द्विशासन के स्थान पर, सैद्धांतिक रूप से सभी विभागों में, उत्तरदायी सरकार का प्रावधान रखा गया था। प्रांतीय गवर्नरों के पास ‘विवेकाधीन शक्तियां’ (विधायिकाओं के अधिवेशन बुलाने, अधिनियमों पर स्वीकृति देने और कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में प्रशासन से संबंधित) रहने दी गई थीं। इन मामलों में मंत्रियों को सलाह देने का अधिकार नहीं था। गवर्नर प्रांत का प्रशासन अनिश्चित काल के लिए अपने हाथ में ले सकता था। गवर्नरों को मंत्रियों को बदलने या रद्द करने का अधिकार दिया गया था। इस तरह गवर्नर वस्तुतः शासन का वास्तविक प्रधान था। एक तरफ जहां विधान मंडल की शक्तियों पर अनेक सीमाएं लगी हुई थीं, वहीँ दूसरी ओर गवर्नरों और गवर्नर जनरल को मनमाने ढंग से काम करने के लिए इतने अधिक अधिकार दे दिए गए थे कि प्रांतीय स्वायत्तता निरर्थक हो जाती थी आपात काल में तो पूरे शासन की बागडोर ही इनके हाथ में आ जाती थीवास्तव में ब्रिटिश सरकार भारतीयों को सत्ता देना ही नहीं चाहती थीइसलिए हम कह सकते हैं कि 1935 के भारत सरकार अधिनियम ने द्वैध शासन के स्थान पर प्रांतीय स्वायत्तता को स्थापित किया, तथापि गवर्नर को प्रदत्त अधिभावी शक्तियों ने स्वायत्तता की आत्मा को कमजोर किया प्रांतीय स्वायत्तता की यह योजना अपने लक्ष्य को हासिल करने में असफल रही। न तो प्रान्तों में उत्तरदायी शासन लागू हुआ और न ही प्रान्तों पर केंद्र का नियंत्रण बना रहा। प्रांतीय स्वायत्तता केवल नाम-मात्र के लिए थी। व्यवहार में उस पर इतने अधिक बंधन थे कि प्रांतीय स्वायत्तता अर्थहीन हो जाती थी। गवर्नर सिर्फ सांविधानिक अध्यक्ष ही नहीं था, बल्कि उसके हाथ में पूरे प्रान्त का नियंत्रण था।

प्रान्तों की विधायिका

प्रांतीय विधानमंडलों का और विस्तार किया गया। प्रान्तों में भी दो सदनों वाली विधायिका की स्थापना का प्रावधान था। लेकिन यह व्यवस्था सभी जगह एक सामान नहीं थी मद्रास, बंबई, बंगाल, संयुक्त प्रांत, बिहार और असम के छह प्रांतों में द्विसदनीय विधायिकाएँ प्रदान की गईं, अन्य पाँच प्रांतों पंजाब, सिंध, उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त, उड़ीसा और मध्य प्रान्त में एक सदनीय विधायिकाओं को बनाए रखा गया।

विधान परिषद् (ऊपरी सदन)

विधान परिषद् स्थायी संस्था थी। इसमें निर्वाचित और मनोनीत सदस्य थे। विभिन्न संप्रदायों और विशिष्ट वर्गों के प्रतिनिधियों की संख्या निश्चित कर दी गई। प्रति वर्ष 1/3 नए सदस्य लिए जाते।

विधान सभा (निचली सदन)

अलग-अलग प्रान्तों में विधान सभा के सदस्यों की संख्या भिन्न-भिन्न थी। सदस्यों का चुनाव सांप्रदायिक आधार पर होना था। कार्यकाल 5 वर्षों का था। विधानमंडलों को प्रांतीय, समवर्ती और गवर्नर द्वारा सौंपे गए विषयों पर क़ानून बनाने का अधिकार था।

मताधिकार का विस्तार

मताधिकार का विस्तार किया गया। प्रान्तों के लिए 11 प्रतिशत जनता को मतदान का अधिकार दिया गया। सांप्रदायिक चुनाव प्रणाली का भी विस्तार किया गया। दलितों के लिए भी सांप्रदायिक निर्वाचन पद्धति को अपनाया गया। मुसलमानों को उनकी संख्या से अधिक प्रतिनिधित्व दिया गया।

संघीय न्यायालय

अधिनियम ने 1935 के अधिनियम की व्याख्या करने और अंतर-राज्य विवादों को निपटाने के लिए मूल और अपीलीय शक्तियों के साथ एक संघीय न्यायालय (जो 1937 में स्थापित किया गया था) के लिए भी प्रदान किया, लेकिन लंदन में प्रिवी काउंसिल को इस अदालत पर हावी होना था, यानी इस न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील प्रिवी काउंसिल में ही की जा सकती थी

गृह सरकार में परिवर्तन

जिन विषयों पर गवर्नर अपने मंत्रियों की सलाह से काम करता था, उन पर से भारत सचिव का नियंत्रण हट गया। इण्डिया काउन्सिल का अंत कर दिया गया और उसकी जगह पर कुछ सलाहकारों की नियुक्ति की व्यवस्था की गई।

संशोधन की व्यवस्था

अधिनियम में संशोधन की व्यवस्था थी। प्रायः सभी संविधानों में संशोधन का अधिकार संसद को होता है, लेकिन भारत में 1935 के अधिनियम के अंतर्गत संशोधन का अधिकार ब्रिटिश संसद को था। भारतीय विधानमंडल संशोधन का प्रस्ताव ब्रिटिश संसद को भेजती और उस पर निर्णय ब्रिटिश संसद लेती।

देशी रियासतों से संबंध

भारतीय रियासतों को सम्राट के प्रति उन सारे दायित्वों का पालन करना पड़ता जो वे पहले से करती आ रही थी। शामिल होने के इच्छुक प्रत्येक रियासत के शासक को 'विलय के साधन' पर हस्ताक्षर करना था, जिसमें यह उल्लेख किया गया था कि किस हद तक अधिकार संघीय सरकार को सौंपे जाने थे।

अधिनियम पर भारतीयों की प्रतिक्रिया

इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि प्रांतीय स्वायत्तता की योजना संविधानिक सुधारों की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण क़दम थाप्रो. कूपलैंड ने 1935 के अधिनियम को एक बड़ी सफलता माना है। उनके अनुसार इस अधिनियम ने भारत के भाग्य को अंग्रेजों के हाथ से भारतीयों के हाथ में हस्तांतरित कर दिया। फिर भी अगर सही समालोचना करें तो हम पाते हैं कि इस नए अधिनियम में भी वास्तविक राजनीतिक और आर्थिक सत्ता अंग्रेज़ों के हाथ में ही थी। इस अधिनियम की उदारवादियों, जिन्ना और कांग्रेसियों यानी भारतीय जनमत के लगभग सभी भागों ने आलोचना की थी। इस अधिनियम ने न तो कांग्रेस को संतुष्ट किया और न ही मुसलिम लीग को। नेहरूजी ने कहा था, 1935 के भारत सरकार अधिनियम में सभी ब्रेक्स हैं लेकिन कोई इंजन नहीं है उन्होंने इस विधान को ‘अनैच्छिक, अप्रजातंत्रीय और अराष्ट्रवादी’ बताते हुए इसे ‘ग़ुलामी का परवाना’ कहा था। अप्रैल 1936 में हुए लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने कहा था, नए विधान में भारतीयों को जिम्मेदारियां तो सौंपी गई हैं, लेकिन अधिकार नहीं दिए गए हैं। जिन्ना ने इसे ‘पूर्णतया सडा हुआ, मौलिक रूप से ख़राब और पूर्णतया अस्वीकरणीय’ कहा था। अधिनियम में वायसराय और गवर्नरों को असीम अधिकार दिए गए थे। प्रांतीय स्वायत्तता पर व्यंग्य करते हुए राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था, इस प्रशंसित स्वराज्य में वास्तव में जनता और मंत्रियों से कहीं अधिक स्वराज्य गवर्नर को दिया गया है। गांधीजी को यह विधान पसंद नहीं था।

ब्रिटिश संसद ने 1935 में इसे पास किया और वह तुरंत ही भारत में लागू भी कर दिया गया। 1937 के प्रारंभ में चुनाव कराने की घोषणा कर दी गई। लिनलिथगो ने इस अधिनियम के बारे में कहा था, इस अधिनियम को ऐसा इसलिए बनाया गया है कि हमारी दृष्टि में भारत में ब्रिटिश प्रभाव को बनाए रखने का यही सर्वोत्तम उपाय है। मैं समझता हूं कि हमारी नीति में कहीं भी यह बात नहीं है कि भारतीयों को नियंत्रण सौंपने की गति को अनावश्यक रूप से उस गति की तुलना में बढ़ाया जाए, जिसे हम, दीर्घकालीन दृष्टि से, भारत को साम्राज्य से जोड़े रखने के लिए सर्वोत्तम समझते हैं।

उपसंहार

1935 के अधिनियम द्वारा पहली बार देशी रियासतें भी विचार-विमर्श का सीधा विषय बनीं। संघीय शासन में ब्रितानी भारत के प्रान्तों के साथ रियासतों को भी शामिल किए जाने का प्रस्ताव आया। ऊपर से तो देखने में ऐसा लग रहा था कि मानो भारत को एक देश और यहाँ के लोगों को एक राष्ट्र मानने के सिद्धांत की पुष्टि की जा रही है। लेकिन जैसा कि बिपन चन्द्र ने कहा है अंग्रेजों का वास्तविक इरादा राष्ट्रवादी नेताओं के साम्राज्यवाद विरोधी सिद्धांत और कार्यक्रम के पलड़े को राजाओं का इस्तेमाल करके संतुलित करना था। इसीलिए संघीय विधान परिषद् में उन्हें अनुपात से कहीं ज़्यादा प्रतिनिधित्व दिया गया। फ़ेडरल असेंबली की 375 में से 125 सीटें रजवाड़ों के मनोनीत सदस्यों को दी जानी थीं। यानी ये प्रतिनिधि राजाओं द्वारा नामज़द व्यक्ति होते। जब राजा ही ब्रिटिश सरकार के कृपाकांक्षी थे, तो उनके नामज़द व्यक्ति का क्या कहना!

1935 का अधिनियम भारत को एक लिखित संविधान देने का एक प्रयास था, भले ही भारतीय इसके निर्माण में शामिल नहीं थे, और यह भारत में पूर्ण जिम्मेदार सरकार की दिशा में एक कदम था। हालांकि अधिनियम ने एक कठोर संविधान प्रदान किया लेकिन इसमें आंतरिक विकास की कोई संभावना नहीं थी। संशोधन का अधिकार ब्रिटिश संसद के लिए आरक्षित था। साम्प्रदायिक निर्वाचक मंडलों की प्रणाली के विस्तार और विभिन्न हितों के प्रतिनिधित्व ने अलगाववादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया जिसकी परिणति भारत के विभाजन के रूप में हुई। मत देने का अधिकार 14 प्रतिशत से अधिक लोगों को नहीं था। सुरक्षा और विदेश संबंध पर विधान परिषद् का कोई नियंत्रण नहीं था। गवर्नर जनरल ने विशेष नियंत्रण का अधिकार अपने पास रखा था। ऊपर से ब्रितानी सरकार द्वारा नियुक्त गवर्नर जनरल उसी के प्रति जिम्मेदार था। प्रान्तों को जो स्वायत्तता के अधिकार दिए गए थे, वे भी गवर्नर में निहित विशेष अधिकारों द्वारा रद्द किए जा सकते थे। वह चुने हुए प्रतिनिधि द्वारा बनाए किसी भी क़ानून को रद्द कर सकता था। अपनी मर्ज़ी से क़ानून लागू कर सकता था। अध्यादेश जारी कर सकता था। नागरिक सेवा और पुलिस पर नियंत्रण रख सकता था।

1935 के अधिनियम की लगभग सभी वर्गों ने निंदा की और कांग्रेस द्वारा सर्वसम्मति से खारिज कर दिया गया। इस अधिनियम में कुछ अधिकार जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को सौंपे गए थे, तो कुछ सरकार ने अपने पास रखे थे। सरकारी विवेकाधीन शक्तियों, आरक्षणों, और रक्षक उपायों के तंत्र में विस्तार करके उसे और भी कस दिया था। भारतीय नेता इससे क्षुब्ध थे। प्रान्तों को स्वायत्तता तो दी गयी लेकिन अब भी पर्याप्त शक्तिशाली केन्द्र में एक प्रकार के द्वैध शासन की बात थी। इसके अलावा संघीय विधान मंडल के अधिकार भी सीमित थे और उनकी शक्तियों पर अनेक सीमाएं लगी हुई थीं। निम्न सदन के लिए अप्रत्यक्ष चुनाव की व्यवस्था की गई। सांप्रदायिक चुनाव पद्धति को कायम रखा गया। बजट के महत्त्वपूर्ण मुद्दे संघीय विधान मंडल के अधिकार क्षेत्र में नहीं रखे गए थे। वित्त और दूसरे मामलों में उनके अधिकार काफ़ी सीमित थे। मुद्रा और विनिमय पर क़ानून बनाने के लिए वायसराय की पूर्व अनुमति आवश्यक थी। रक्षा, वित्त, अंतर्राष्ट्रीय मामले, केन्द्रीय सरकार और प्रांत के गवर्नर के मातहत ही रखे गए। बाकी मामलों में भी वायसराय को हस्तक्षेप करने का, नियंत्रण स्थापित करने का विशेषाधिकार था।  प्रांतीय स्वायत्तता की योजना अपने लक्ष्य को हासिल करने में असफल रही। न तो प्रान्तों में उत्तरदायी शासन लागू हुआ और न ही प्रान्तों पर केंद्र का नियंत्रण बना रहा। प्रांतीय स्वायत्तता केवल नाम-मात्र के लिए थी। व्यवहार में उस पर इतने अधिक बंधन थे कि प्रांतीय स्वायत्तता अर्थहीन हो जाती थी। इस नए विधान में भारतीयों को जिम्मेदारियां तो सौंपी गई, लेकिन अधिकार नहीं दिए गए थे। प्रांतीय स्वराज्य बहुत रुकावटों और संरक्षणों के अधीन जारी किया गया थाजगह-जगह उन्हें ब्रिटिश राज का मुंह ताकना पड़ता। बिना किसी अधिकार के देश की प्रशासनिक और आर्थिक प्रगति की गाड़ी अबाध गति से आगे कैसे बढती? यह गाड़ी उसी सीमा तक आगे बढ़ सकती थी जिस सीमा तक गवर्नर और गवर्नर जनरल उसकी आज्ञा देताइसीलिए तो जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, 1935 के भारत सरकार अधिनियम में सभी ब्रेक्स थे लेकिन कोई इंजन नहीं था?

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2025

365. भारत सरकार अधिनियम, 1919

राष्ट्रीय आन्दोलन

365. भारत सरकार अधिनियम, 1919


प्रवेश :

1915-16 के बाद भारत संविधान सुधारों की मांग देश में जोर पकड़ती जा रही थी। इससे विवश होकर भारत सचिव एडविन मोंटेग्यू ने 20 अगस्त, 1917 को घोषणा की कि उसका उद्देश्य धीरे-धीरे भारत में जिम्मेदार सरकार की शुरुआत करना है, लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य के एक अभिन्न अंग के रूप में। इस घोषणा के बाद मांटेग्यू भारत के लिए जल्द-से-जल्द एक नए अधिनियम के निर्माण में लग गया। उस समय भारत का वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड था। नवंबर 1917 में मोंटेग्यू भारत आया। मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड ने भारतीय नेताओं से विचार-विमर्श कर उत्तरदायी शासन की स्थापना के संबंध में उनके विचार एकत्र किए। अपनी योजना तैयार कर 8 जुलाई, 1918 को उन्होंने इसे प्रकाशित किया। यही रिपोर्ट 1919 के भारतीय शासन अधिनियम का आधार बनी। इसी के आधार पर ब्रिटिश संसद ने 1919 में भारत के औपनिवेशिक प्रशासन के लिए एक नया शासन-विधान बनाया।

अधिनियम पारित होने के कारण

यह अधिनियम उस पर आधारित था जिसे लोकप्रिय रूप से मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार के रूप में जाना जाता है। 1909 के मॉर्ले-मिंटो सुधारों से भारतीय संतुष्ट नहीं हो सके। इसने हिन्दू-मुसलिम के बीच की खाई को पटाने के बजाए इसे चौड़ा करने का ही काम किया। इसने न तो कांग्रेस को संतुष्ट किया और न ही मुसलिम लीग को। मुसलमानों में राष्ट्रीय जागरण हुआ और वे अँग्रेज़ विरोधी हो गए। ब्रिटिश सरकार ने सुधारों द्वारा उदारवादियों को खुश करने और क्रांतिकारियों को कुचलने की जो नीति अपनाई उसकी प्रतिक्रिया पूरे देश में हुई। राष्ट्रवादियों की स्वशासन की मांग जोर पकड़ती जा रही थी, जिससे सुधारों की आवश्यकता पड़ी। प्रथम विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों ने भारतीय सहयोग प्राप्त करने के लिए अनेक घोषणाएँ की थी, लेकिन युद्ध के बाद भारतीयों की आशाएं पूरी होती नहीं दिखी, जिससे उनमें असंतोष बढ़ा। एनी बेसेंट के स्वशासन आन्दोलन को कुचलने के लिए सरकार ने कडा कदम उठाया, जिससे राष्ट्रीय एकता बढ़ी। 1916 के कांग्रेस-लीग समझौता (लखनऊ पैक्ट) के बाद कांग्रेस की स्वराज की मांग को लीग ने समर्थन दिया। उपर्युक्त कारणों के कारण देश में सुधार अधिनियम बनाना ज़रूरी हो गया था।

सुधार योजना पर प्रतिक्रिया

तिलक ने रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया और इसे "अयोग्य और निराशाजनक-एक धूप रहित सुबह" कहा। श्रीमती एनी बेसेंट ने इसकी आलोचना करते हुए कहा, यह योजना प्रस्तुत करना इंग्लैण्ड की शान के खिलाफ है और इसे स्वीकार करना भारत की शान के खिलाफ। कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में इस योजना को निराशाजनक और असंतोषप्रद बताया गया। मुस्लिम लीग ने भी कुछ इसी तरह के विचार व्यक्त किए। कांग्रेस ने तुरंत उत्तरदायी शासन की मांग की। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में उदारवादी कांग्रेस से अलग होकर ‘लिबरेशन फेडरेशन की स्थापना की और इस सुधार योजना को स्वीकृति दे दी। गांधीजी ने कहा था, मोंटफोर्ड सुधार... केवल भारत की संपत्ति को और कम करने और उसकी दासता को लंबा करने का एक तरीका था। दिसंबर, 1919 में ब्रिटिश संसद ने मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार योजना को पास कर दिया। यही योजना भारत सरकार अधिनियम, 1919 बना, जिसे 1920 में लागू कर दिया गया। जिन्ना के ही पहल पर चितरंजन दास आदि की आलोचनाओं के बावजूद कांग्रेस ने सुधारों पर अमल करने पर सहमति दी थी।

अधिनियम के प्रावधान

भारत सरकार अधिनियम, 1919 द्वारा भारत को अंग्रेजी साम्राज्य का अभिन्न अंग रखते हुए यह निश्चय किया गया कि भारत में स्वशासी संस्थाओं का धीरे-धीरे विकास होगा और ब्रिटिश संसद संवैधानिक प्रगति के पथ का निर्धारण करेगी। इसके लिए भारतीयों को प्रशासनिक मामलों से संबद्ध करना, स्वायत्त शासन का विकास करना, प्रान्तों को अधिक स्वायत्तता प्रदान करना और धीरे-धीरे उन्हें केन्द्रीय सरकार के नियंत्रण से मुक्त करने की व्यवस्था की गई।

गृह सरकार - इंडिया काउंसिल

भारत के शासन का जो भाग इंग्लैण्ड में काम करता था गृह सरकार कहलाता था सम्राट, मंत्रिमंडल, संसद, भारत मंत्री और उसकी काउन्सिल इसके मुख्य अंग थे। भारत मंत्री का पद सबसे  महत्त्वपूर्ण था। भारत सरकार के विधायी, प्रशासकीय और आर्थिक मामलों पर उसका पूर्ण नियंत्रण था। वह ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था। 1919 के अधिनियम के अंतर्गत भारत सचिव की शक्तियों में कोई परिवर्तन नहीं किया गया। भारत सचिव की परिषद् में भारतीय सदस्यों की संख्या दो से बढाकर तीन कर दी गई, जिनका कार्य भारत सचिव को परामर्श देना था। परिषद् का कार्यकाल 7 वर्ष से घटाकर 5 वर्ष कर दिया गया। भारतीय मामलों का अंतिम नियंत्रण और निर्देश गृह सरकार के हाथ में था। दूसरे शब्दों में कहें, तो भारत का शासन व्हाईट हॉल से होता था, न कि दिल्ली से। इस अधिनियम द्वारा एक त्रुटि ज़रूर दूर की गई कि इसके खर्च का भार अब भारतीय राजस्व पर नहीं था।

हाई कमीशन

इस अधिनियम के अंतर्गत एक हाई कमीशन (उच्च आयुक्त) की व्यवस्था की गई जिसकी नियुक्ति भारत सचिव की स्वीकृति से गवर्नर जनरल करता। उसका वेतन भारत में होने वाली आय से दिया जाता। उसका काम भारतीय व्यापारियों की देखभाल, इंग्लैण्ड में भारतीय विद्यार्थियों की सुविधाओं का ध्यान रखना और भारतीय शासन से संबंधित सामग्री की खरीददारी करना था। इस नए पद से भारतीयों को कोई विशेष लाभ नहीं हुआ, बल्कि यह संस्था भारतीयों के स्वशासन के रास्ते में एक बाधा ही साबित हुआ।

अखिल भारतीय स्तर पर सरकार के लिए अधिनियम में किसी उत्तरदायी सरकार की परिकल्पना नहीं की गई थी। यहाँ ऐसे मामले जो राष्ट्रीय महत्त्व के थे या एक से अधिक प्रांतों से संबंधित थे, केंद्र स्तरीय सरकार द्वारा  शासित थे, जैसे: विदेश मामले, रक्षा, राजनीतिक संबंध, सार्वजनिक ऋण, नागरिक और आपराधिक कानून, संचार सेवाएं आदि को शामिल किया गया था।

केन्द्रीय सरकार

केन्द्रीय स्तर पर कार्यपालिका सरकार, गवर्नर जनरल और उसकी कार्यकारिणी परिषद् से मिलकर बनती थी। गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद् में छः सामान्य सदस्य थे, जिनमें से तीन भारतीय थे। ये सदस्य केन्द्रीय विधान सभा के प्रति नहीं, गवर्नर जनरल और भारत सचिव के प्रति उत्तरदायी थे।

विषयों की सूची

इस अधिनियम ने प्रांतीय सरकार के स्तर पर कार्यपालिका के लिए द्वैध शासन की शुरुआत की। केन्द्रीय और प्रांतीय विषय अलग कर दिए गए। रक्षा, राजनीतिक संबंध, डाक-तार, संचार, क़ानून और प्रशासन जैसे महत्त्वपूर्ण विषय केन्द्रीय सूची में शामिल किए गए थे। प्रांतीय सूची में सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्थानीय स्वशासन, शिक्षा, सामान्य प्रशासन, चिकित्सा सुविधाएं, भूमि-राजस्व, जल आपूर्ति, अकाल राहत, कानून और व्यवस्था, कृषि आदि। केंद्र और प्रान्तों के बीच राजकीय आय का बंटवारा हुआ।

केन्द्रीय व्यवस्थापिका

एक द्विसदनीय विधानमंडल की व्यवस्था पेश की गई थी, जिसमें उच्च सदन या राज्य सभा (Upper House or Council of State) और  निम्न सदन या केंद्रीय विधानसभा (Lower House or Central Legislative Assembly) शामिल थी।

उच्च सदन या राज्यसभा

उच्च सदन या राज्यसभा में 60 सदस्य थे, जिनमें से 26 वायसराय द्वारा मनोनीत सदस्य थे और 34 निर्वाचित सदस्य। निर्वाचित सदस्यों में से 20 जनरल, 10 मुस्लिम, 3 यूरोपीय और 1 सिख सदस्य का निर्वाचन होना था। मनोनीत सदस्यों में से 20 सदस्य सरकारी और 6 गैर सरकारी सदस्य होते थे। इसका कार्यकाल 5 वर्ष का था और इसमें केवल पुरुष सदस्य थे। मताधिकार अत्यन्त सीमित थे। जो लोग 10,000 से 20,000 रूपए वार्षिक आय पर कर चुकाते थे या 750 से 5,000 तक भूमि कर चुकाते थे उन्हें ही मताधिकार प्राप्त था। इसके अलावा विश्वविद्यालय सीनेट के सदस्यों को, म्यूनिसिपल कमेटियों और जिला बोर्ड के प्रधानों को और विशेष प्रकार की उपाधियों से विभूषित व्यक्तियों को मताधिकार प्रदान किया गया। ये शर्तें इतनी कड़ी थीं कि 1925 में 1,500 व्यक्ति ही राज्य सभा के चुनाव के लिए मतदान कर सके। वायसराय सदन की बैठक बुला सकता था, इसे स्थगित या भंग भी कर सकता था।

निम्न सदन  या केंद्रीय विधान सभा

निचले सदन या केंद्रीय विधान सभा में 145 सदस्य थे। इनमें से  105 निर्वाचित सदस्यों में से 53 सामान्य, 30 मुस्लिम, 2 सिख, 20 विशेष वर्गों (यूरोपियन-9, ज़मींदार-7, व्यापारिक संगठन-4) के लिए आरक्षित थे। 40 मनोनीत सदस्यों में से 26 सरकारी और 14 मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य थेप्रान्तों में स्थानों का विभाजन जनसंख्या के आधार पर नहीं बल्कि महत्त्व के अनुसार किया जाता था महिलाओं को भी वोट देने का अधिकार दिया गया लेकिन  मताधिकार सीमित था। मुसलमानों, यूरोपियनों और सिखों को पृथक प्रतिनिधित्व दिया गया था। ज़मींदारों और व्यापारियों के लिए विशेष चुनाव क्षेत्र नियत था। सभी प्रान्तों में सदस्यों की संख्या सामान नहीं थी। केंद्रीय विधान सभा का कार्यकाल 3 वर्ष था। विधायिका पर वायसराय का पूर्ण नियंत्रण स्थापित किया गया था। कोई भी विधेयक तब तक अधिनियम नहीं बन सकता था जब तक दोनों सदन इसे पास न कर दे और गवर्नर जनरल की स्वीकृति न मिल जाए। प्रांतीय विषयों पर विचार करने के लिए गवर्नर जनरल की पूर्व अनुमति ज़रूरी थी। विधान सभा भारतीयों के लिए कोई विधान जारी नहीं कर सकती थी और ब्रिटिश संसद के किसी कानून के विरुद्ध कोई कानून पास नहीं कर सकती थी। गवर्नर जनरल कानूनों को रद्द कर सकता था, पुनर्विचार के लिए विधान सभा के पास वापस भेज सकता था और ब्रिटिश सम्राट के विचार के लिए रख सकता था। यदि कोई कानून दोनों सदनों द्वारा पास नहीं हो पाता था, तो गवर्नर जनरल अपनी अनुमति से उसे पास कर सकता था। विधान सभा वित्तीय क्षेत्र में बहुत से विषयों पर कानून पास नहीं कर सकती थी। विधान परिषद बजट को अस्वीकार कर सकती थी लेकिन यदि आवश्यक हो तो गवर्नर इसे बहाल कर सकता था। गवर्नर मंत्रियों को किसी भी आधार पर बर्खास्त कर सकता था। विधायकों को बोलने की आजादी थी।

प्रांतीय सरकार—द्वैध शासन की शुरुआत

इस अधिनियम ने प्रांतीय सरकार के स्तर पर कार्यपालिका के लिए द्वैध शासन (Dyarchy) यानी, दो-कार्यकारी पार्षदों और लोकप्रिय मंत्रियों, की शुरुआत की। इस प्रणाली में प्रांतीय कार्यकारिणी परिषद् को दो भागों में बंटा गया था। पहले भाग में गवर्नर और उसकी कार्यकरिणी परिषद् के सदस्य थे। दूसरे भाग में गवर्नर और उसके मंत्रिगण थे। गवर्नर प्रांत का  कार्यकारी प्रमुख था। विषयों को दो सूचियों में विभाजित किया गया था: 'आरक्षित' जिसमें कानून और व्यवस्था, वित्त, भूमि राजस्व, सिंचाई, आदि जैसे विषय शामिल थे, और शिक्षा, स्वास्थ्य, स्थानीय सरकार, उद्योग, कृषि, उत्पाद शुल्क, आदि जैसे 'हस्तांतरित' विषय शामिल थे। आरक्षित विषय का प्रशासन गवर्नर चार सदस्यीय कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों की सहायता से चलाया करता था जिन विषयों में गलती हो जाने से ब्रिटिश सरकार का कोई अहित न होता हो उन्हें हस्तांतरित सूची में रखा गया था। द्वैध शासन (Diarchy) को 9 प्रांतों में लागू किया गया था जिसमें असम, बंगाल, बिहार और उड़ीसा, मध्य प्रांत, संयुक्त प्रांत, बॉम्बे, मद्रास और पंजाब प्रांत शामिल थे। गवर्नर को दोहरी भूमिका थी। हस्तांतरित विषयों को गवर्नर मंत्रियों की सलाह से करता था, जबकि वह इस सलाह को मानने को बाध्य नहीं था। मंत्रियों को विधायिका के प्रति जिम्मेदार होना था और यदि विधायिका द्वारा उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित किया जाता, तो उन्हें इस्तीफा देना पड़ता, जबकि कार्यकारी पार्षद विधायिका के प्रति जिम्मेदार नहीं थे। प्रांत में संवैधानिक तंत्र के विफल होने की स्थिति में गवर्नर हस्तांतरित विषयों का प्रशासन भी अपने हाथ में ले सकता था।

सुधारों से लाभ

1919 के अधिनियम ने प्रांतों में द्वैध शासन की शुरुआत की, जो वास्तव में भारतीय लोगों को सत्ता हस्तांतरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। द्वैध शासन देश में सोलह वर्ष चला। 1935 के अधिनियम से प्रान्तों में द्वैध शासन की जगह स्वायत्तता स्थापित कर दी गई। 1919 के अधिनियम के लागू हो जाने से भारतीयों को प्रशासन के बारे में सूचना मिली और वे अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक हुए। भारतीयों में राष्ट्रवाद और जागृति की भावना पैदा हुई और यह स्वराज के लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण क़दम साबित हुआ। चुनाव क्षेत्रों का विस्तार हुआ जिससे लोगों में मतदान के महत्त्व के प्रति समझ बढ़ी। भारत में प्रांतीय स्वशासन की शुरुआत हुई। लोगों को  प्रशासन करने का अधिकार मिला जिससे सरकार पर  प्रशासनिक दबाव बहुत कम हो गया। भारतीयों को प्रांतीय प्रशासन में ज़िम्मेदारियों का निर्बहन करने हेतु तैयार किया। अधिनियम द्वारा पहली बार प्रांतीय और केंद्रीय बजट को अलग किया गया। साथ ही प्रांतीय विधानसभाओं को अपने बजट बनाने के लिए अधिकृत किया गया। भारत के लिए एक उच्चायुक्त नियुक्त किया गया, जिसे छह साल के लिए लंदन में अपना कार्यालय संभालना था और जिसका कर्तव्य यूरोप में भारतीय व्यापार की देखभाल करना था। अब तक भारत के राज्य सचिव द्वारा किए गए कुछ कार्यों को उच्चायुक्त को स्थानांतरित कर दिया गया था। भारत के राज्य सचिव, जो भारतीय राजस्व से अपना वेतन प्राप्त करते थे, अब ब्रिटिश राजकोष द्वारा भुगतान किया जाना था, इस प्रकार 1793 के चार्टर अधिनियम में एक अन्याय को समाप्त कर दिया। द्वैध शासन का महत्त्व इस बात में भी है कि यह अंतिम लक्ष्य (स्वराज्य) की ओर जाने वाले मार्ग का पहला पडाव था

कमियां

अधिनियम में अखिल भारतीय स्तर पर किसी भी ज़िम्मेदार सरकार की परिकल्पना नहीं की गई। प्रत्येक सदन में सदस्यों का बहुमत होना था जो सीधे चुने गए थे। इसलिए, प्रत्यक्ष चुनाव की शुरुआत की गई, हालांकि संपत्ति, कर या शिक्षा की योग्यता के आधार पर मताधिकार बहुत सीमित था। एक अनुमान के अनुसार, केंद्रीय विधायिका के लिए मतदाताओं की संख्या लगभग पंद्रह लाख तक बढ़ा दी गई थी, जबकि भारत की जनसंख्या लगभग 26 करोड़ थी। त्रुटिपूर्ण चुनावी प्रणाली और सीमित मताधिकार के कारण ये सुधार लोकप्रियता नहीं हासिल कर सके। इसके अलावे एक अलग चुनावी प्रणाली ने सांप्रदायिकता की भावना को बढ़ावा दिया। सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत को मुसलमानों के अलावा सिखों, ईसाइयों और एंग्लो-इंडियन के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों के साथ विस्तारित किया गया था। हालांकि केंद्र और प्रांतों के बीच विषयों का सीमांकन किया गया था फिर भी संरचना एकात्मक और केंद्रीकृत बनी रही। केंद्र में, वायसराय और उसकी कार्यकारी परिषद पर विधायिका का कोई नियंत्रण नहीं था। इससे दोनों के बीच लगातार टकराव की स्थिति बनी रहती थी। प्रांतीय क्षेत्र में द्वैध शासन विफल रहा। केंद्रीय विधानमंडल के पास सरकार को बदलने की कोई शक्ति नहीं थी। कानून और वित्तीय नियंत्रण के क्षेत्र में भी इसकी शक्तियां सीमित थीं। केंद्र में विषयों का विभाजन संतोषजनक नहीं था। प्रांतों को केंद्रीय विधायिका के लिए सीटों का आवंटन प्रांतों के 'महत्व' पर आधारित था - उदाहरण के लिए, पंजाब का सैन्य महत्व और बॉम्बे का व्यावसायिक महत्व। प्रांतों के स्तर पर, विषयों का विभाजन और दो भागों का समानांतर प्रशासन तर्कहीन था और इसलिए अव्यावहारिक था। सिंचाई, वित्त, पुलिस, प्रेस और न्याय जैसे विषय 'आरक्षित' थे। प्रांतीय मंत्रियों का वित्त और नौकरशाहों पर कोई नियंत्रण नहीं था। महत्वपूर्ण मामलों पर भी अकसर मंत्रियों से सलाह नहीं ली जाती थी; वास्तव में, उन्हें राज्यपाल द्वारा किसी भी मामले पर खारिज किया जा सकता था जिसे बाद वाला विशेष मानता था। गवर्नर को अप्रतिबंधित शक्तियाँ प्राप्त थीं, वह अपनी परिषद और मंत्रियों के निर्णय के विरुद्ध भी निर्णय ले सकता था प्रशासन से संबंधित लगभग सभी महत्त्वपूर्ण मामले राज्यपाल पर निर्भर थे। मंत्रियों को उत्तरदायित्व तो सौंपा गया था लेकिन गवर्नर को इतने विस्तृत अधिकार मिले थे कि मंत्री नाममात्र के मंत्री थेहालांकि भारतीय नेताओं को पहली बार इस अधिनियम के तहत एक संवैधानिक ढांचे में कुछ प्रशासनिक अनुभव प्राप्त हुआ, लेकिन जिम्मेदार सरकार की मांग की पूर्ति नहीं हुई।

परिणाम और उपसंहार

तथ्य यह है कि 1919 के अधिनियम के अंतर्गत केन्द्रीय सरकार का रूप भारत के स्वतंत्र होने तक केवल मामूली परिवर्तनों के साथ लागू रहा। उदार साम्राज्यवादी इतिहासकार मोंटफोर्ड सुधारों को लेकर काफी उत्साहित दिखते हैं। वे मानते हैं कि ये सुधार मूलत: अंग्रेजों की नेकनीयती के प्रमाण हैं। उन विचारकों द्वारा मांटेग्यू को सुधार के लिए जेहाद करनेवाले के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह घोषणा पुरानी ब्रिटिश नीति से अलग थी। भारत के सांविधानिक विकास के इतिहास में इन सुधारों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह प्रतिनिधि सरकार की बात करती थी। हालाकि मताधिकार सीमित था फिर भी इस व्यवस्था से देश के मतदाताओं में मत देने की व्यावहारिक समझ विकसित हुई। इस अधिनियम द्वारा भारत में प्रांतीय स्वशासन तथा आंशिक रूप से उत्तरदायी शासन की व्यवस्था की गई। केंद्र में जहाँ द्विसदनीय व्यवस्थापिका की व्यवस्था हुई, वहीं केंद्र की कार्यकारी परिषद में भारतीयों को पहले से तिगुना प्रतिनिधित्व देने का प्रावधान था।

इन तथ्यों के बावजूद यह स्पष्ट है कि सुधारों की वास्तविक योजना राष्ट्रवादियों की मांगों की तुलना में अत्यंत नगण्य थी। कैंब्रिज इतिहासकारों का यह मानना कि 1919 के एक्ट से निर्वाचक मंडलों की संख्या में विस्तार हुआ और राजनिज्ञों को अधिक जनतांत्रिक शैली अपनाने के लिए बाध्य होना पडा, अपूर्ण है। दरअसल यह योजना भारतीयों के लिए वस्तुतः झगड़े की जड़ सिद्ध हुई। सुधार की प्रक्रिया की सूक्ष्मता से जांच करने पर पता चलता है कि इसमें नया कुछ भी नहीं था। हालाकि प्रांतीय शासन के क्षेत्र में भारत-सचिव की शक्तियों में कुछ कमी गई लेकिन इससे भारतीय प्रशासन के विभिन्न क्षेत्रों में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआइस अधिनियम में इतनी कमियाँ थी कि इससे भारतीयों को घोर निराशा हुई। यह भारतीयों की आकांक्षाओं को धूल-धूसरित कर रहा था पी.ई. रॉबर्ट्स ने अपन मत रखते हुए कहा था, दोहरी कार्यपालिका का द्वैध शासन लगभग हर सैद्धांतिक आपत्ति के लिए खुला था। इस द्वितन्त्रीय सरकार का मतलब था – राज्यों में एक तरह का दुहरा शासन। द्वैध शासन एक गलत पद्धति थी। प्रशासन को दो भागों में विभाजित कर देना ही सही नहीं था। यह अधिनियम भारतीयों की स्वशासन की मांग को पूरी तरह से अस्वीकार कर रहा था अधिनियम ने भारतीयों और अंग्रेज़ों दोनों में सत्ता के लिये संघर्ष को प्रोत्साहित किया। हस्तांतरित विषय की दशा महत्वहीन बनी रही। गवर्नरों को हस्तांतरित विभागों के क्षेत्र में इतने व्यापक अधिकार प्रदान किए गए थे कि वे मंत्रियों के परामर्श की अवहेलना कर स्वेच्छापूर्वक कार्य करते थे। शासन की वास्तविक शक्ति मंत्रियों के हाथ में नहीं रह कर गवर्नर के हाथ में थी। ऊपर से मंत्री गवर्नर की इच्छा के अनुसार अपने पद पर रह सकता था। इसलिए मंत्रियों का अधिकांश ध्यान गवर्नर को प्रसन्न करने पर लगा रहता था। गवर्नर मंत्रियों की सलाह मानने को बाध्य नहीं था। वह दैनिक छोटे-छोटे प्रशासकीय विषयों में हस्तक्षेप करता था। गवर्नर का निर्णय अंतिम होता था। उसके अधिकांश निर्णय विभागीय सचिवों की तरफ पक्षपातपूर्ण होते थे। बिपन चन्द्र ठीक ही कहते हैं कि सुधार रोटी का मात्र एक टुकड़ा था जिसके ज़रिए नरमपंथी राष्ट्रवादी मत को संतुष्ट करना और उन्हें जुझारू राष्ट्रवादियों से अलग कर देना था।

पर्याप्त कोशिश और बलिदान के बाद भारत में जो एकता स्थापित हुई थी, वह 1919 अधिनियम के कारण नष्ट हो गई। जो सांप्रदायिक संस्थाएं पहले से काम कर रही थीं, उन्हें इस योजना से बल मिला। परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में सांप्रदायिक दंगे हुए जो वर्ष 1922 से 1927 तक  जारी रहे। 30 सदस्यों का चुनाव पृथक मुसलमान निर्वाचन मंडल के द्वारा चुना जाता था, जो केवल मुसलमान होंगे। सिखों को भी सांप्रदायिक राजनीति के अंतर्गत विशेषाधिकार प्रदान किए गए। सिखों को भी पृथक निर्वाचन मंडल में शामिल किया गया। मुसलमान और सिखों को जनसंख्या के आधार पर नहीं बल्कि उनके राजनीतिक महत्व के आधार पर प्रांतीय विधान मंडलों में स्थान प्रदान किया गया। वर्ष 1923 में स्वराज पार्टी की स्थापना हुई तथा उसने चुनावों में मद्रास को छोड़कर  पर्याप्त संख्या में सीटें जीती। जबकि पार्टी बंबई और मध्य प्रांतों में मंत्रियों के वेतन के साथ अन्य वस्तुओं की आपूर्ति को अवरुद्ध करने में सफल रही। इस प्रकार दोनों प्रांतों के गवर्नरों को द्वैध शासन को समाप्त करने हेतु मजबूर होना पड़ा और स्थानांतरित विषयों को अपने नियंत्रण में ले लिया गया। प्रांतीय स्तर पर प्रशासन का दो स्वतंत्र भागों में बँटवारा राजनीति के सिद्धांत व्यवहार के विरूद्ध था। उस समय मद्रास के मंत्री रहे के.वी.रेड्डी ने व्यंग्य भी किया था- मैं सिंचाई मंत्री था किंतु मेरे अधीन सिंचाई विभाग नहीं था। इस तरह के अस्वाभाविक और अव्यावहारिक विभाजन से शासन को सुचारू रूप से चलाना संभव नहीं था। नौकरशाही के अधिकारियों और लोकप्रिय मंत्रियों के दृष्टिकोणों में मौलिक विरोध बना रहा। इस अधिनियम का एक महत्त्वपूर्ण दोष यह भी था कि इसमें प्रांतीय मंत्रियों का वित्त और नौकरशाही पर कोई नियंत्रण नहीं था। नौकरशाही मंत्रियों की अवहेलना तो करती ही थी, कई महत्त्वपूर्ण विषयों पर मंत्रियों से मंत्रणा भी नहीं की जाती थी। गवर्नर जनरल की विशेष शक्तियां कार्यपालिका और विधान सभा के क्षेत्रों में अत्यंत व्यापक और शक्तिशाली थीं। उपर्युक्त विवेचना के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचाते हैं कि ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को राजनीतिक शक्ति देने का प्रस्ताव तो मात्र एक बहाना बनाया था, वास्तविक शक्ति तो अभी भी अंग्रेजों के ही हाथों में ही थी। मोतीलाल नेहरू ने ठीक ही कहा था, 'ऐसा लगता है जैसे जो कुछ एक हाथ से दिया गया उसे दूसरे हाथ से ले लिया गया।'

लॉर्ड कर्जन ने टिप्पणी की थी, जब मंत्रिमंडल ने 'परम स्वशासन' की अभिव्यक्ति का प्रयोग किया तो उन्होंने संभवतः 500 वर्षों की एक मध्यवर्ती अवधि पर विचार किया। इन सुधारों के साथ ‘द्विशासन’ प्रणाली लागू तो हो गई लेकिन वास्तविक प्रशासनिक शक्तियां वायसराय के हाथों में ही केंद्रित थी। शिक्षा और सफाई जैसे कम महत्त्व वाले विभागों की ज़िम्मेदारी प्रांतीय विधान सभाओं द्वारा निर्वाचित सदस्यों में से चुने गए मंत्रियों को सौंपी गई थी, जबकि वित्त, पुलिस और सामान्य प्रशासन जैसे महत्त्वपूर्ण विभाग कार्यकारी परिषद् के सदस्यों के लिए आरक्षित कर दिए गए थे। स्थानीय व्यय को स्थानीय रूप से अर्जित और प्रबंधित राजस्व से ही चलाने का उत्तरदायित्व था। वायसराय भारत सचिव के माध्यम से ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी होता था, भारतीय जनता के प्रति नहीं। वायसराय की कार्यकारिणी परिषद में तीन भारतीय सदस्यों की नियुक्ति का प्रावधान रखा गया था, परंतु भारत के सदस्यों को प्रशासन के कम महत्वपूर्ण विभाग दिए गए। भारत के सदस्य वायसराय के प्रति उत्तरदायी थे तथा वायसराय भारत सचिव के माध्यम से ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था। इसका मतलब यह था कि महत्त्वपूर्ण विभागों का नियंत्रण उन नौकरशाहों के हाथ में था, जो ब्रितानी सरकार और उसकी संसद के प्रति ज़िम्मेदार थे। केन्द्रीय सरकार का चरित्र पहले जैसा बना रहा। वह पहले की तरह संसद के प्रति ज़िम्मेदार रही। विधान मंडल का, वायसराय और उसकी कार्यकारी परिषद् पर, न कोई नियंत्रण था, न ही उनके बारे में बोलने का अधिकार। केन्द्रीय सरकार को प्रान्तों पर नियंत्रण रखने के सभी अधिकार प्राप्त थे। सुमित सरकार कहते हैं, बड़ी चालाकी से भारतीय राजनीतिज्ञों को संरक्षण की चूहा-दौड़ में डाल दिया गया था जिससे संभवतः उनकी विश्वसनीयता कम होती थी। इन सुधारों के संबंध में काफी विवाद रहा है कि इनमें लन्दन (भारत सचिव) का योगदान अधिक था या दिल्ली (वायसराय) का। भारत सचिव और गवर्नर जनरल का प्रांतीय सरकारों पर नियंत्रण पहले की अपेक्षा कुछ ढीला था। कार्यकारिणी के एक क्षेत्र में आंशिक उत्तरदायित्व का सिद्धांत था और दूसरे क्षेत्र में पूर्ण उत्तरदायित्व का समावेश था। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार प्रस्तावों ने ‘द्विशासन’ प्रणाली लागू की, किन्तु इसने जिम्मेदारियों की रेखाओं को धुंधला कर दिया

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

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