कहानी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
कहानी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 16 जून 2012

फ़ुरसत में ... 105 : ज़िन्दगी के दोराहे पर!


फ़ुरसत में ... 105
ज़िन्दगी के दोराहे पर!


मनोज कुमार
कभी-कभी हम ज़िन्दगी के ऐसे दोराहे पर खड़े होते हैं, जहां एक ओर हमें सामाजिक मर्यादाओं का ध्यान रखना पड़ता है, तो दूसरी ओर अपने कर्तव्यों का भी निर्वाह करना पड़ता है। दिल और दिमाग़ की रस्साकसी में भले ही ख़ुद हमारा दम घुट रहा हो, लेकिन ऐसे में भी हमें अपने विवेक का सहारा लेकर किसी उचित निष्कर्ष तक पहुंचना पड़ता है, जो अपने आप में  एक तनी रस्सी पर चलने से कम नहीं होता जहाँ एक तरफ़ गहरी खाई होती है, तो दूसरी तरफ गहरा कुंआ।

तब मेरी पहली नौकरी लगी थी और सपरिवार एक नए शहर में हमने डेरा डंडा जमाया था। दो छोटे बच्चों को संभालना और घर की और ज़रूरतों को पूरा करने में श्रीमती जी सुबह से शाम तक चकरघिन्नी की तरह एक पैर पर नाचती रहती थीं। नए माहौल में किसी परिचित के अपनापन को तरसते मन के रेगिस्तान में, उस दिन सुबह-सुबह दफ़्तर में उसका आना कोई सावन की फुहार से कम नहीं था। आने का कारण भी उसने यह बताया कि हम उसके राज्य के रहने वाले हैं, इसलिए उसने सोचा कि चलकर दुआ-सलाम कर ही आए। हम तो अभिभूत हो गए, हमें उसका आना बड़ा आत्मीय लगा। वह इलेक्ट्रोनिक फ़िटर था और दो साल पहले उसकी नौकरी पक्की हुई थी, उसके पहले वह ट्रेनिंग एप्रेन्टिस था।

बातचीत आगे बढ़ी तो सम्बन्ध की नजदीकियां भी आगे बढ़ चलीं, उसने बताया कि वह भी उसी ज़िले से सम्बन्ध रखता है जिसका मैं रहने वाला हूं। मन से वह और करीबी मालूम पड़ने लगा। फिर तो दो-चार बार के आने-जाने से यह भी रहस्य खुला कि वह तो उसी गांव का है जिस गांव में मेरी बहन ब्याही गई है। फिर तो वह ऐसे उछला जैसे उसे किसी बिच्छू ने काट लिया हो। संजोग से मेरा भांजा उसका बचपन का दोस्त निकला और इस रिश्ते को पुनर्स्थापित करने के लिए वह मेरे घर आ धमका। मेरी श्रीमती जी को मामी सुनना अच्छा ही लगा होगा और बच्चों को तो मानों इस नए भाई में चंदा मामा मिल गए हों।

फिर तो उसका आना-जाना लगा रहा और कुछ ही दिनों में वह हमारे घर का सदस्य बन गया। हाथ में उसके हुनर तो था ही। रेडियों-टीवी आदि के बिगड़ने पर वह अपने हाथ का हुनर भी दिखा ही दिया करता था, जिसके कारण हमारे घर में उसकी अहमियत काफ़ी बढ गई थी। मेरे भांजे भी इस बीच हमारे पास आये और यह तसदीक कर गए कि वह अपने परिवार की तरह काफ़ी अच्छा, और परोपकारी है।

एक दिन अचानक वह मेरे दफ़्तर में आकर मुझसे बोला कि कई महीनो से वह स्थापना के बड़ा बाबू को कह रहा है कि उसके सर्विस-बुक में इंटर पास करने की प्रविष्टि कर दे पर, वे कर नहीं रहे हैं। उसने बहुत सकुचाते हुए इस काम में मेरी मदद मांगी। मैंने कहा कि इसमें समस्या क्या है? वह बोला कि ज्वायन करने के समय उसने इस बात की घोषणा नहीं की थी, इसलिए वे नहीं कर रहे। मैंने पूछा कि इसमें तुम्हारा फ़ायदा क्या है, तो वह बोला कि अब वह बी.ए. की पढ़ाई कर रहा है। इंटर की प्रविष्टि सेवा पंजी में रहेगी तो उसे बी.ए. की क्वालिफिकेशन दर्ज करने में सुविधा होगी। मुझे उसकी बातें सही लगी, सो मैंने कहा कि अपने काग़ज़ात रख दो मैं बोल दूंगा। वह रख कर चला गया।

कई दिनों तक वह क़ाग़ज़ मेरे टेबुल पर पड़ा ही रहा। एक दिन सेक्शन का क्लर्क मेरे दफ़्तर में आया तो मैंने कहा कि आप इसका एंट्री क्यों नहीं कर देते? क्लर्क ने कहा कि यह ज़िरोक्स है, उससे कहिए कि ओरिजिनल देगा तो  कर देंगे। अगली बार मैंने उसे ओरिजिनल देने को कहा तो वह बोला कि यही एक मात्र अटेस्टेड कॉपी है उसके पास। कई दिनों तक वे काग़ज़ात टेबुल पर ही पड़े रहे। फिर एक दिन वह मुझे याद दिलाने आया तो मैंने उससे कहा कि कर दूंगा। अपनी भूलने की बीमारी और कुछ लापरवाही से उसका काम मैं न कर पाया था। एक दिन टेबुल की साफ सफाई कर रहा था, तो उन काग़ज़ातों को उठाकर मैंने आलमारी के भीतर रख दिया। अब जब वे कागज़ात नज़र से उतर गए थे, तो वह काम मेरे मन से भी उतर गया था।

कई सप्ताह के बाद उसने फिर इसकी चर्चा छेड़ी तो मैंने भूल जाने की आदत वाली दलील उसके सामने रख दी। फिर तो बड़े भावुक स्वर में उसने कहा कि आपके घर का कोई काम मैं नहीं भूलता और आप बड़े आदमी हैं फिर भी मेरा यह छोटा सा काम नहीं करवा पा रहे हैं। उसकी बातों में न जाने ऐसा क्या था कि उसकी बात मुझे चुभ गई। उसके चले जाने के बाद भी बहुत देर तक उसकी कही बात मेरे दिमाग में हथौड़े की तरह बजती रही। मेरे मन में लगातार यह हलचल मची रही कि आखिर वह इस तरह से मेरे पीछे क्यों पड़ा हुआ है? आखिर बात क्या हो सकती है? मैंने सोचा कि एंट्री करवाने के पहले इस अंक-पत्र को वेरिफाई ही क्यों न करवा लिया जाए। मैंने उसकी एक छायाप्रति इंटरमीडिएट काउंसिल को सत्यापन के लिए भिजवा दी। कुछ सप्ताह के बाद इंटरमीडिएट काउंसिल का जवाब आया कि इस रॉल नम्बर का छात्र दो विषयों में फेल था।

यह मेरे लिए बड़ा आघात था। मैंने आलमारी से उसके क़ाग़ज़ात निकाले तो देखा कि उसने बड़ी होशियारी से कुछ अंकों के साथ छेड़-छाड़ कर रखी थी। अब तो मेरे प्रशासनिक दिमाग ने कहा कि लगे हाथों ज़रा इसके मैट्रिक के दस्तावेज़ों की भी छान-बीन करा ही ली जाए। कुछ दिनों के बाद वहां से जवाब आया कि इस नम्बर का तो कोई सर्टिफ़िकेट ही नहीं जारी किया गया है। मैंने उसे अपने दफ़्तर में बुलवाया और उसकी इस जालसाज़ी की घोषणा की। वह बोला क्या बकवास कर रहे हैं आप। इसी सर्टिफ़िकेट के बूते पर मैंने नौकरी पाई है और पुलिस भी इसका वेरिफ़िकेशन कर गई थी। मैंने कहा कि अभी भी सच-सच बता दे वरना पुलिस को रिपोर्ट करते देर नहीं लगेगी। वह मन ही मन भुनभुनाता हुआ और कुछ-कुछ बकता हुआ मेरे दफ़्तर से चला गया।

शाम को जब मैं घर पहुंचा तो वह पहले से ही मेरे घर में पर विराजमान था।

उसने कहा, “आप मेरे जीवन के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते। मुझे मत फंसाइए। मैं तीन साल की ट्रेनिंग और दो साल की नौकरी कर चुका हूं”।

मैंने कहा, “तुम जैसे धोखेबाज़ को मैं अब तो कार्यालय में पैर भी नहीं रखने दूंगा।”

वह धमकी भरे स्वर में बोला, “इसका अंजाम बहुत बुरा होगा।“

वह चला गया। अगली सुबह एक महिला अपनी दो छोटी-छोटी बच्चियों के साथ मेरे घर में थी। बताने की आवश्यकता नहीं कि वह उसकी बीवी थी, और वे उसकी बेटियां। महिला ने बताया कि वह सारी रात घर पर हंगामा करता रहा। कह रहा था कि जान दे देगा। अब आप ही रक्षा कीजिए। इन बच्चियों के सर से बाप का साया उठ गया तो इन्हें कौन देखेगा। अगर पुलिस केस हुआ तो गाँव-समाज में बदनामी होगी और फिर इन बच्चियों का भविष्य क्या होगा? हम पैर पड़ते हैं, आप हमारी रक्षा कीजिए।”

किसी तरह उस महिला से पीछा छुड़ाया और दफ़्तर पहुंचा। कुछ देर के बाद मेरी बहन का फोन आया। वे भी उसकी मेरे द्वारा की गई दुर्दशा से चिंतित थीं। मैंने किसी तरह समझा-बुझा कर बहन को शांत किया। मेरे सामने धर्म-संकट की स्थिति थी। क्या करूं? रह-रह कर बच्चियों का चेहरा मेरे सामने आ रहा था। शाम को घर पहुंचा। चाय अभी खतम की थी कि फिर वो धमक गया। अबकी बार मुझे कहने लगा कि आपने अगर पुलिस केस कर दिया तो यहीं आपके घर में सुसाइड कर लूंगा। मुझे ज़ोर का गुस्सा आया। मैंने कहा, “रस्सी दूं या किरासन तेल। मुझे धमकी मत देना।

अब वह रोने लगा और नीचे बैठ गया। मैंने कहा, “देख मुझे तेरे प्रति कोई सहानुभूति नहीं है। बस रह-रह कर मुझे तेरी बच्चियों का ख्याल आ रहा है। दफ़्तर में तो तुझे घुसने नहीं दूंगा। लेकिन तुझे एक बात पर अमल करना होगा। तेरे हाथ में हुनर तो है ही। तू भूखों नहीं मरेगा। तू कल ही शहर छोड़ कर चला जा। फिर दफ़्तर न आना। कुछेक महीने बाद तेरे खिलाफ़ अनऔथराइज़्ड एबसेन्स की अनुशानात्मक कार्रवाई कर तुझे नौकरी से डीसमिस कर दूंगा। तू अपना जीवन चला लेगा मुझे भरोसा है। और हाँ, ये भरोसा कभी मत तोडना!”

दूसरे दिन से वह उस शहर में नहीं दिखा। कुछ महीनों बाद मेरा भी तबादला एक दूसरे राज्य में हो गया। उसकी नौकरी जाती रही और एक नए शहर में मैं अपनी दीन दुनिया में रम गया।

उस वाकये के क़रीब चार साल बाद एक दिन मेरे टेबुल पर एक पत्र पड़ा था। यह उसी का पत्र था।

आदरणीय भाई साहब,
चरण स्पर्श!
आज यह पत्र लिखने में मुझे बहुत शर्म महसूस हो रही है, लेकिन यह पत्र लिखना भी ज़रूरी है, नहीं तो मेरी अंतरात्मा मुझे कभी चैन से जीने नहीं देगी। उस दिन आपने मुझे दुत्कार कर निकाल दिया और मुझे बख्श दिया। आपने मेरी ज़िंदगी बख्शी ही नहीं, बना भी दी। आपने कहा था कि हो सके तो मेरा भरोसा कभी नहीं तोड़ना। आपके शहर से निकले तो बाबा विश्वनाथ के नगर बनारस में शरण मिली। कहते हैं उन्हीं के त्रिशूल पर बसा है शहर। हाथ का हुनर, आपके धिक्कार के शब्द और और आपके भरोसा के त्रिशूल पर अपना काम शुरू किया मैंने। कहते हैं गंगा मैया सब पाप धो देती है। हमारे पश्चाताप के आंसू की गंगा में हमारा पुराना पाप धुल गया और धीरे-धीरे काम जमता चला गया। आज बनारस में अपनी इलेक्ट्रोनिक्स सामानों के रिपेयरिंग की दुकान है और बाबा की कृपा तथा आपके आशीर्वाद से तीस-चालीस हज़ार रुपये महीने के कमा लेता हूँ। इतना तो उस सरकारी नौकरी में भी नहीं कमा पाता। और फिर इस पैसे में पसीने की गंध और ईमानदारी की खुशबू भी है।

आपकी दोनों बेटियाँ अच्छे स्कूल में पढ़ रही हैं। मैंने उन्हें सदा मिहनत और ईमानदारी से शिक्षा हासिल करने की सीख दी है। आपके आशीर्वाद से एक दिन दोनों बेटियाँ अपने बाप की तरह नकली नहीं असली डिग्रियां लेकर आपकी तरह सरकारी अफसर बनेंगी। मेरी पत्नी और बच्चियों के लिए तो असली भोलेनाथ आप ही हैं।

हमारा प्रणाम स्वीकार कीजिए और हो सके तो माफ करने का कोशिश कीजियेगा ताकि अंतिम समय हमारे कलेजा पर कोई बोझ न रहे!
आपका
.............

उस रोज वह पत्र पढ़ने के बाद मैंने सोचा कि किसी अपराधी को फाँसी की सज़ा दी जाए, तो उसके साथ उसपर निर्भर परिवार के सभी सदस्यों को फांसी लग जाती है। किसी एक के अपराध की सज़ा कई निरपराध भोगते हैं।

उस रात मुझे बड़ी चैन की नीद आई, पिछले चार सालों से वो औरत और उसकी दो छोटी बच्चियां मेरी नींद में मेरे सामने आकर खडी हो जाती थीं और मुझसे कहती थीं कि मुझे मेरे पापा लौटा दो, मुझे मेरा पति वापस दे दो!!

मुझे यह भी संतोष था कि मेरा ज़मीर सरकार के प्रति, मेरी नौकरी के प्रति, मेरी जिम्मेदारी के प्रति, सामाजिक रिश्तों के प्रति और समाज के प्रति बिलकुल साफ़ था! 

शनिवार, 17 मार्च 2012

फ़ुरसत में ... देखी ‘कहानी’, आप भी देखिए

फ़ुरसत में ...95

देखी ‘कहानी’, आप भी देखिए

SDC11128_editedमनोज कुमार

मेरे लिए, इस सप्ताह की शुरुआत एक शानदार फ़िल्म से हुई। बहुत दिनों बाद एक ऐसी फ़िल्म देखी जिसमें शुरू से अंत तक थ्रिल बना रहा। आजकल हिंदी में ऐसी फ़िल्में बहुत कम ही बनती हैं। आम तौर पर हिंदी फ़िल्मों का पुनरावलोकन (रिव्यू) करते वक़्त अंग्रेज़ी अखबारों के समीक्षक पश्चिम का चश्मा पहन कर नाहक ही उसकी आलोचना करने लगते हैं। इस फ़िल्म के साथ भी ऐसा ही देखने-पढ़ने को मिला।

 

फिल्म “कहानी” भारतीय सिने-जगत के इतिहास में फिल्माई गई एक ऐसी कहानी है, जो वर्षों में एकाध बार लिखी जाती है और इस कहानी को परदे पर सफल बनाने में विद्या बालन ने जो महत्वपूर्ण योगदान दिया है, उसे सालों-साल तक याद किया जाता रहेगा। एक के बाद एक सशक्त किरदार निभाकर विद्या अपनी एक्टिंग का लोहा तो मनवा ही रही हैं, अब उन्होंने यह भी साबित कर दिया है कि वे सिर्फ़ अपने दम पर फ़िल्म को सफलता के शिखर तक ले जा सकती हैं, और उसे हिट करा सकती हैं।

डर्टी पिक्चर के बाद, उन्हें न जाने किन-किन खिताबों से नवाज़ा गया, किंतु फ़िल्म “कहानी” में बिना किसी अंग-प्रदर्शन और ग्लैमर के उन्होंने साबित कर दिया है कि किसी चरित्र में जीवंत अभिनय के द्वारा कैसे जान फूंकी जा सकती है। पूरी फ़िल्म में न कोई नाच-गाना है, न कोई “ऊ ला ला” ही। मुख्य किरदार भी ऐसा जिसमें ग्लैमर या डर्टी दिखने और दिखाने का कोई चांस नहीं। एक महिला जो आठ-नौ महीने की गर्भवती है और उसका पति अचानक ग़ायब हो गया है। ऐसी कठिन परिस्थिति में उस महिला के लिए जीवन न तो सिल्क सा कोमल है न उसमें इश्क़िया होने का ही कोई चांस है। विद्या बालन ने ऐसी ज़बरदस्त पटकथा वाली इस फ़िल्म में उस ताकतवर स्त्री के किरदार को जीकर यह बताया है कि वे अपने उत्कृष्ट अभिनय के बल पर फ़िल्म में जान फूंक सकती हैं।

ग़ौर करने वाली बात है कि इस फ़िल्म में न कोई खान है, न कपूर, न ही कोई कुमार और न कोई फ़िल्म को हिट कराने वाला नाच-गाना, न आइटम नम्बर। फिल्म में जो प्रमुख पुरुष अभिनेता हैं उनके नाम से भी हिंदी फ़िल्म के दर्शक अनजान ही होंगे - परमब्रत चट्टोपाध्याय, नवाज़ुद्दीन सिद्दिक़ी और इंद्रनील सेनगुप्त। इन्होंने भी अपने जानदार अभिनय से फ़िल्म में जान डाल दी है। फिल्म की कहानी भी बड़ी साधारण सी है। विदेश (लंदन) में रहने वाली एक गर्भवती महिला अपने “मिसिंग हसबैंड” को ढ़ूंढ़ने कोलकाता आती है और एक होटल में ठहरती है। कोलकाता पुलिस की मदद से वह अपने पति की तलाश में कोलकाता के गली-मुहल्ले की ख़ाक छानती फिरती है।

चूंकि यह फ़िल्म एक सस्पेंस थ्रिलर है, इसलिए इससे ज़्यादा कहानी बताना उन पाठकों के प्रति अन्याय होगा जिन्होंने यह फ़िल्म नहीं देखी है, लेकिन इतना कह सकता हूं कि शुरू से आखिर तक सांस रोके देखने को आप बाध्य हो जाएंगे। फिल्म में न किसी तरह के अनावश्यक लाईट-साउंड इफ़ेक्ट के द्वारा लोगों में डर पैदा करने की कोशिश की गई है, न फालतू की कोई कार चेज़िंग या मारधाड के दृश्य के द्वारा जबरन रोमांच ही ठूंसा गया है। अगर कुछ इस फ़िल्म को अन्य फ़िल्मों से अलग करता है, तो वह है सारे कलाकारों का सशक्त अभिनय, और उससे भी बढकर फ़िल्म का चुस्त निर्देशन। और फिल्म की रफ़्तार को दर्शकों के दिल की धडकन से मुकाबला करने वाली एडिटिंग के बिना फिल्म का यह रोमांच कभी संभव नहीं होता। एक भी फ़ालतू दृश्य नहीं, एक भी अनावश्यक डायलॉग नहीं। चुस्त पटकथा के कारण यह फ़िल्म इतनी सशक्त बन पड़ी है कि रोमांच अपने चरम पर है।

“झंकार बीट्स” से अपनी पहचान बनाने वाले फ़िल्म के निर्देशक सुजॉय घोष ने कोलकाता के परिवेश को दिखाने के लिए अनावश्यक रूप से फुटेज़ खाने की ज़रूरत नहीं समझी है, फिर भी कोलकाता का शायद ही कोई रंग छूटा हो। फ़िल्म अपनी रफ़्तार में चलती रहती है और कोलकाता का परिवेश, उसके गुण और उसकी विशेषताएं खुद-ब-खुद सामने आती रहती है। कोलकाता के परिवेश का इससे बढ़िया चित्रांकन शायद ही किसी फ़िल्म में देखा होगा। यह कमाल एक कुशल व प्रभावशाली संपादन और निर्देशन से ही संभव हो सका है। विशाल शेखर ने फ़िल्म में संगीत दिया है और अमिताभ बच्चन की आवाज़ में कविगुरु रविन्द्र नाथ टैगोर के गीत “एकला चलो रे” की प्रस्तुति भाव-विभोर कर देती है। यह गीत दर्शकों के लिए एक ऐसा कलात्मक उपहार है, जिसे आप वर्षों तक नहीं भूल पायेंगे।

फ़िल्म विद्या बालन की है, जो विद्या (बिद्या का नहीं) का ही किरदार निभाती है। कभी परिस्थितियों के आगे विवश भारतीय नारी बनकर अपने गुस्से का इज़हार करती, तो कभी बच्चों के साथ खुशियाँ शेयर करती हुई और कभी अपनी जान जोखिम में डालकर रोमांचक कारनामे अंजाम देती हुई, फिर भी कमाल ये कि ये सब कहीं से बनावटी या ज़बरदस्ती थोपा हुआ नहीं लगता।

इस “मस्ट सी” फ़िल्म में विद्या बालन का अभिनय कम से कम उन आलोचकों का मुंह ज़रूर बंद कर देगा जो उनके श्रेष्ठ अभिनय के लिए मिले राष्ट्रीय पुरस्कार पर उंगली उठा रहे थे।

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

कहानी :: उत्तरदायी कौन?

उत्तरदायी कौन?

बीना अवस्थी

बाहर स्याह अंधेरा बढ़ता जा रहा था, धरती से अम्बर तक कालिमा छाती जा रही थी, किसी भयावह दैत्य के पंजे की तरह बढ़ता अंधकार प्रकाश को निगलता जा रहा था और उस अंधेरे को देखती सुरभि का मन अतीत की स्मृति में छटपटा उठा। कल प्रभात के साथ ही अंधेरा समाप्त हो जायेगा, सूर्य की सुनहली रश्मियों के पदार्पण से जड़ से लेकर चेतन तक जगमगा उठेगा, उषा की गुलाली में कालिमा की स्मृति भी न रहेगी .......... लेकिन उसके अपने जीवन में कभी उषा न आयेगी प्रकाष की एक किरण के लिये तरसता उसका हृदय रेत में पड़ी मछली की तरह हमेशा तड़पता रहेगा, आखिर इस सबका उत्तरदायी कौन है? दोष किसका है? उसने कुछ अधिक तो चाहा नहीं था जिसे पल्लव दे पाने में असमर्थ था/बस! जीवन के प्रभात में उसकी ऑंखों में भी मासूम सपनों की मादकता तैरी थी, लेकिन उसे मिला क्या? एक सूना जीवन -- दूर-दूर तक फैले रेगिस्तान की तरह वीरान जीवन।

अभी बी0ए0 के अन्तिम वर्ष में ही थी कि उसके कानों में माँ का स्वर पड़ा था - चहक से भरा उल्लास से पूर्ण। एक दिन कालेज से वापस आई तो घर में उत्सव का सा वातावरण था, सब कुछ जानकर भी अनजान बनी रही। मन में कोई हल्के से गुदगुदान लगा। उसी शाम घर में विशिष्ट मेहमानों की चहल-पहल हुई। उससे भी तैयार होकर बैठक में आने के लिए कहा गया। लाज और शर्म से उसके पैर उठते ही न थे। मेहमानों के हर प्रश्न का उत्तर उसनें पलके झुकाये हुए ही दिया था। मन-मीत देखने की इच्छा लाज के आवरण से ढक गई।

इसके बाद तो जैसे सुरभि की दुनियां बदल गई। रंगीन सपनों से उसकी रातें सज गई, सुखद भविष्य की आकांक्षा से उसका अन्तर भीग गया। पल्लव का ख्याल आते ही मन अजीब सा हो उठता। पलकें अपने आप बोझिल होने लगती। एकान्त और नीरवता ही उन दिनों रास आती थी उसे। सुरभि के मन में, ऑंखों में, ख्वाबों में और यहाँ तक साँसों में भी पल्लव समा गया। पल्लव के नाम से उसके हृदय में गुलाब की पंखुड़ियां चटकने लगती। सुरभि को खुद नहीं मालूम था कि उसके कानों में किलकारी का प्यारा सा शोर क्यों गूँजा करता है। क्यों शहनाइयों की आवाज उसकी आत्मा में समा गई है ...............। लेकिन स्वप्न केवल स्वप्न सिद्ध हुए। ख्वाबों के टुकड़े-टुकड़े होने से उसका दिल छलनी हो गया। सुरभि ने तो बहुत चाहा था..............।

विवाह हुआ, दुल्हन बनी सुरभि के नयनों में कुंवारी आकांक्षाओं के गुलाबी डोरे डोलने लगे। क्या जानती थी कि उसके हाथ अरमानों की राख ही लगेगी। सौभाग्य कक्ष में पल्लव को जन्म-जन्मान्तर का देवता मानकर तन-मन से समर्पण को तत्पर सुरभि ने मदिरा के नशे में लड़खड़ाते शराबी को आते देखा, ''यह उसके मन-मन्दिर का देवता कैसे हो सकता है।'' हृदय में बसी पल्लव की सौम्य देव मूर्ति खंडित होने लगी। सपर्मण के अवसर पर मदिरा के चरणों में समर्पित पति को सहारा देने के लिये उसके हाथ चाहकर भी आगे न बढ़े और पल्लव बिस्तर पर गिरकर बेसुध हो गया।

अरमानों की पहली रात, सुख-सामीप्य एवं मिलन की रात में सुरभि के नैन सावन-भादों की घटा बनकर बरसते रहे। बरसों के संजोये सपने टूटकर बिखरे तो भविष्य का रंगमहल बिखरता नजर आने लगा। अरमानों के टुकड़ों को सीने से लगाये सिसकती सुरभि की ऑंखों का समन्दर कम होने नाम ही नहीं ले रहा था।

धीरे-धीरे सारे रहस्य प्रकट होने लगे। पतिदेव तो मदिरा ओर ताश की बेगम के गुलाम थे। उस घर में किसी को पत्नी या बहू की आवश्यकता थी ही नहीं। वहाँ तो एक मशीन की आवश्यकता थी - बेजान, भावनाशून्य, इच्छारहित और जो अत्याचार सहकर भी एक शब्द न बोले।

विवाह के पन्द्रह दिनों बाद जब सुरभि मायके आई तो माँ से भी उसने दिल का दर्द प्रकट न किया। क्या बीतेगी उन पर? माता-पिता को उस पर गर्व था। माँ बड़े विश्वास से कहा करती थी, ''मेरी बेटी हमेशा सुरभि ही बिखेरेगी। जिस घर में इसके पैर पड़ेंगे, वहाँ सुख, शान्ति और समृद्धि निवास करेगी।'' वह उस विश्वास को खंडित कर दे। सुरभि पढ़ाई में निपुण होने के साथ ही घर के कामों में भी कुशल थी। इसी कारण जब प्रसन्नता से खिले चेहरे के साथ माँ ने उससे पूछा, ''तेरी ससुराल वाले कैसे हैं?'' उस उत्फुल्ल आभायुक्त मुख पर पल्लव की असलियत बताकर वह कैसे निराशा की कालिमा लगा दे। सिर झुका लिया कहीं माँ सूनी ऑंखों का दर्द पढ़ न लें। माँ ने उसकी खामोशी को नारी-सुलभ लज्जा ही समझा, ''मैं जानती हूँ, पल्लव लाखों में एक लड़का है और घर-बार भी अच्छा है, बस अपनी बेटी के मुँह से सुनना चाहती हूँ। ''सीने पर पत्थर रखकर कह दिया, ''सभी लोग बहुत अच्छे हैं।'' माँ आश्वस्त हो गई। बेटी को सीने से लगा लिया।

सुरभि का मन छटपटा उठा। आखिर कब तक वह झूठ पर सच का आवरण डालेगी। लेकिन उसने आशा का दामन थाम लिया, वह प्रेम से जीत लेगी, सभी को। अपने प्रेम में पल्लव को इतना डुबो लेगी कि उसे कभी याद भी न रहेगी - ताश की बेगम और लाल परी। अपना छोटा सा घर होगा, एक सुखद भविष्य होगा।

सुरभि भाई-बहनों में सबसे बड़ी थी। माता-पिता के नैनों की ज्योति थी वह। पड़ोसी तक उसके स्वभाव की प्रशंसा करते थे। सुरभि को याद न था कि कभी किसी ने उससे तेज स्वर में बात भी की हो वही सुरभि पल्लव ओर उसकी माँ के अत्याचारों में पिसकर रह गई। पल्लव तो कोई न कोई बहाना बनाकर हमेशा पीटता ही रहता था उसे, शरीर के नीले निशान पल्लव की निर्दयता की कहानी कहते थे और उसकी सास तो हमेशा सुरभि पर झूठे इल्जाम लगाकर उसे प्रताड़ित किया करती थी। इतने बन्धन थे उस पर कि बाहर के किसी आदमी औरत से तो दूर बच्चे तक से बोलने की अनुमति न थी। घर का सारा काम अकेली सुरभि पर। काश! पल्लव का जरा सा भी प्यार मिला होता तो वह सारी व्यथा भूल कर उस जीवन में ही स्वर्ग की कल्पना कर लेती। लेकिन पल्लव तो आधी रात के बाद नशे में लड़खड़ाता उसके पास आता था - वह भी अपनी ही ज्वाला में झुलसता हुआ। उसका इन्तजार करती सुरभि थकान और नींद होते हुए भी कभी सो नहीं सकती थी वरना.............।

कई बार उसने पति को समझाने का प्रयत्न किया - प्यार से, उलाहनों से, मनुहार से। लेकिन कुछ कहने का प्रयत्न करते ही हर बार पल्लव का क्रोध चरम सीमा पार कर जाता। आज भी उस व्यवहार को याद करके सिहर जाती है सुरभि। नारी त्याग और सहनशीलता की प्रतिमा होती है। क्षमा, दया, प्रेम उसके हृदय के अंग होते हैं। वह चाहे तो पत्थर में जान डाल दे। परन्तु पल्लव और उसकी माँ न जाने किस धातु के बने थे, जिन्होंने सुरभि को कभी कुछ कहने का अवसर ही न दिया। कभी सोचा भी नहीं कि सुरभि भी हाड़-माँस की एक इन्सान है। उन्हें तो बस मासूम सुरभि को प्रताड़ित करने में ही आनन्द आता था। कभी उसके पिता लेने आते तो सुरभि ही न जाने का कोई न कोई बहाना बना देती। एक-एक करके सुरभि के सारे जेवर मदिरा के प्यालों और क्लब के पत्तों की भेंट चढ़ गये।

उन्हीं दिनों रिंकी का जन्म हुआ। माँ बनने की खुशी में उसके जीवन में एक बार फिर मधुरिम इच्छाओं की बेलें लहराने लगीं। गृहस्थी का बोझ, खाने-पीने पर पाबन्दी, प्रताड़नाओं का अंतहीन सिलसिला - परन्तु मातृत्व की सुखद अनुभूति सब सहन कर गई। बच्चे के लिये छोटी-छोटी इच्छाएं मचल कर रह जाती। रिंकी को देखकर उसे लगा जैसे उसने अपना ही कोई अंश साथी के रूप में धरती पे ला उतारा हो। लेकिन पल्लव और उसकी माँ दोनों ही रुष्ट हो गये। उन्हें बेटा चाहिए था। रिंकी को देखकर सुरभि सारी व्यथा, सारा गम पी जाती। कुदरत की वह देन जब उसकी गोद में आकर मुस्कराने लगती तो पागलों की तरह वह उसे चूमने लगती लेकिन पल्लव की माँ रिंकी को दूध पिलाने और गोद में उठाने पर भी पाबन्दी लगाती तो पीड़ा से उसका मन कराह उठता। बच्ची के रोने की आवाज उसके कानों में पड़ती तो ममता छटपटाने लगती, ऑंखें मचल उठतीं।

ऐसे ही एक दिन रिंकी के बहुत देर तक लगातार रोने पर उससे न रहा गया। रसोई से निकल कर उसके कदम बेटी के पालने तक पहुँच गये और इसी बात पर नाराज होकर उसे बरसात की अंधेरी रात में घर से निकाल दिया गया। जाये तो कहां जाये? पल्लव के स्वभाव से परिचित कोई भी कुछ न कर सका। उस रात बरसते पानी में बेटी को सीने से लगाकर वह सारी रात दरवाजे पर बैठी सिसकती रही। काश! वह रात न आई होती तो वह सारा जीवन हर अमानवीय अत्याचार सहकर भी उफ तक न करती। परन्तु वह रात तो उसका सर्वस्व हरने आई थी। मौत सी काली रात - उसके जीवन का एकमात्र आशादीप छीनने आई थी।

सुरभि ने सब कुछ बर्दाश्त कर लिया। 'कल रिंकी ही बड़ी होकर अपने पिता को पूछेगी तो वह क्या जवाब देगी, जरा सी भूल से उस मासूम का जीवन अंधेरे से घिर जायेगा।' परन्तु नियति को तो कुछ और ही मंजूर था। हिन्दू नारी के पति को देवता मानने के संस्कारों, खोखली सामाजिक मान्यताओं और असुरक्षा का भय उसे जकड़े था।

लगातार भीगने से रिंकी बीमार पड़ गई। बेटी की दवा के लिये उसके पास कुछ न था। रो-रोकर उसने पल्लव और सास के पैर पकड़ लिये, पर व्यर्थ। सुरभि की तड़प, उसकी पीड़ा ही तो उनके आनन्द का स्रोत था। एक माँ की इससे अधिक परीक्षा क्या होगी कि उसकी ऑंखों के सामने उसके कलेजे का टुकड़ा तड़पता रहे और वह कुछ कर न सके। हालाँकि उसकी सास भी एक माँ थी, पर पता नहीं कैसे ममता की तड़प नहीं थी उसके दिल में। असहाय सुरभि ज्वर से जलती बेटी को कलेजे से लगाकर रो पड़ती ईश्वर से उसके जीवन की भीख मांगती। सिवा ऑंसुओं के उसके पास था ही क्या? और मासूम रिंकी भी विषम ज्वर में भी कभी-कभी अपनी बड़ी-बड़ी ऑंखें खोल कर मानो मुस्करा कर उसे सान्त्वना दे देती थी।

आज वह सब याद करके सुरभि का मन हाहाकर कर उठता है। दूसरे दिन करीब 8-9 बजे रिंकी हमेशा-हमेशा के लिये उसकी गोद से चली गई। सुरभि तो जैसे पत्थर की हो गई। बेटी की मासूम सूरत उसे कभी न भूली। उसकी गोद सूनी हो गई, ममता तड़प-तड़प कर रह गई।

उस दिन के बाद से उसे वह घर हमेशा के लिये छोड़ दिया। उस घर के कण-कण से उसे घृणा हो गई। और यहाँ तक कि कभी-कभी अपने आप से घृणा होने लगती। यही करना था तो थोड़ा पहले साहस किया होता। कम से कम जीवन को वीरान होने से बचा लेती। कभी भी न पल्लव ने ही जानने का प्रयत्न किया कि सुरभि कहाँ है? कैसी है? जिन्दा भी है या नहीं। और न ही सुरभि ने उसे। आज पल्लव की स्मृति में उसकी ऑंखों में महकते सपनों की तस्वीर नहीं तैरती। आज तो पल्लव का ख्याल आते ही उसकी ऑंखों में ऐसे इन्सान की तस्वीर तैर जाती है जिसने अपनी ही बीवी पर जुल्म और अत्याचार का कहर ढा दिया। अपनी ही मासूम बेटी की हत्या कर दी।

पल्लव का घर छोड़ने के बाद सबके बहुत मना करने पर भी उसने एक अध्यापिका की नौकरी कर ली। उसके पिता ने भी बेटी के दर्द को महसूस करके निरन्तर आगे बढ़ने की प्रेरणा दी - और आज वह डा0 सुरभि है, विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य की प्रवक्ता। मातृत्व से वंचित उसका हृदय अपनी कक्षा की छात्राओं की हर सम्भव सहायता करके जैसे तसल्ली पा जाता था। जीवन में न कोई उत्साह है न उमंग। बस, जन्म लिया है इसीलिये जिये जा रही है। साँसों के रहते जिन्दगी का क्या करे।

लेकिन आज जो घटना घटी है वह तो अप्रत्याशित थी। वैसे तो उसके जीवन में हर घटना अनहोनी ही घटी है पर आज ............................ एम.ए. प्रथम वर्ष की क्लास ले रही थी तभी चपरासी ने आकर उसे सूचना दी, ''कोई सज्जन आपसे मिलने आये हैं।''

''उनसे कह दो कि दो पीरियड बाद आयें, तुम्हें तो मालूम है मैं कक्षा छोड़कर किसी से नहीं मिलती। और हाँ, उनका नाम और काम भी पूछ लो।''

चपरासी थोड़ी देर बाद फिर वापस आ गया, बोला 'वे आपके कोई रिश्तेदार हैं और शाम को आपसे मिलने बंगलें पर आयेंगे, मैंने पता बता दिया है।''

''अच्छा जाओ मुझे पढ़ाने दो।''

लेकिन सुरभि का मन फिर पढ़ाने में न लगा। सारा दिन एक अजीब से मानसिक तनाव में ही बीता। आज किस रिश्तेदार को ऐसे आना है जिसने अपना नाम तक नहीं बताया। उसके भाई-बहनों में से कोई होता तो सीधे बंगले पर आता। इस नाटकीयता की क्या जरूरत थी।

और शाम को जो व्यक्ति आया उसे देखकर तो सुरभि हतप्रभ रह गई। आज कितने दिनों बाद उसने पल्लव को देखा है। समय और शराब ने पल्लव को बिल्कुल जर्जर कर दिया था। जिस व्यक्ति के साथ अग्नि के फेरे लेते समय जीवन-भर साथ रहने की प्रतिज्ञा की थी, जिसके नाम के स्मरण मात्र से मादक स्वप्न लहराते चले आते थे, वही व्यक्ति ऐसी जर्जर स्थिति में सामने खड़ा है और सुरभि के मन में तो दूर हमदर्दी और दया की हल्की सी किरण भी नहीं उभरीं, बल्कि नफरत की अनगिनत परछाइयाँ उसके चेहरे पर तैरने लगी। घृणा और क्रोध के आवेष से उसका चेहरा विकृत हो गया। उसने तो यही सोचा था कि कभी भी पल्लव की सूरत न देखेगी और न उसे अपनी दिखायेगी। लेकिन किसी तरह अपने को संभालकर धीमे स्वर में ही पूछ ''कहिये क्या काम है?''

''सुरभि, माँ नहीं रहीं, मुझे तुम्हारी जरूरत है। आखिर मैं तुम्हारा पति हूँ।''

आज भी वही क्रूरता, पति होने का दंभ। वर्षों से सुरभि के अन्तर में दहकता लावा आज अवसर पाकर बाहर आ गया। ''हैं नहीं थे कहिये कुछ अधिक ही शोभा देगा। आज कैसे याद आ गया कि आप मेरे पति भी हैं? आज आपको जरूरत है तो आप आ गये पति के अधिकार का दंभ भरे अपने अधिकार की दुहाई देने। मैं भी तो आपकी पत्नी थी, कभी सोचा था आपने कि मुझे क्या चाहिये? क्या दिया था आपने मुझे? बीते दिनों में क्या-क्या नहीं सहा मैंने और आज सहते-सहते मैं पत्थर की हो गई हूँ। मेरी इच्छायें मर चुकी हैं।''

''मुझे क्षमा कर दो।''

''कैसी क्षमा? जब मैंने जीवन के प्रभात में अपनी अछूती भावनाओं और कुंवारी आकांक्षाओं के साथ आपके घर में कदम रक्खा था तब कभी उस घर की दीवारों तक ने मुझे इन्सान नहीं समझा था। माँ की बात तो जाने दीजिये, अगर आपसे प्रेम के दो शब्द भी मिले होते...... '' उत्तेजना से सुरभि का चेहरा लाल पड़ गया, ''आज, जब मैंने अंधेरों को जीवन मान लिया है, तब आप मुझे लेने आये हैं?''

''मैं तुम्हारे जीवन का हर अभाव दूर कर दूँगा।''

''कौन सा अभाव दूर करेंगे आप? उम्र की इस सन्ध्या में आप दे भी क्या पायेंगे। मेरी आकांक्षाओं और हसरतों ने मचल-मचल कर दम तोड़ दिया है।'' सुरभि के कानों में एक बार फिर किलकारी का शोर गूँजने लगा। उस छोटे से घर के सपने तैर गये जो बन सकता था पर बना नहीं, ''लौटा सकते हैं तो लौटा दीजिये मेरे टूटे अरमाँ, जो मुझसे बीते दिनों का हिसाब माँगते हैं। भर सकते हैं तो भर दीजिये एक माँ का हृदय जिसकी ममता तड़प-तड़प कर अपने अधिकार माँगती है। मुझे मेरी रिंकी चाहिये। इस अभाव की पूर्ति कर दीजिये, मैं आपके साथ चलने को तैयार हूँ, बस। कैसे माफ कर दूँ आपको?'' सुरभि की पलकें भीग गई।

''लेकिन सुरभि एक बार..................'' पल्लव का स्वर बहुत हल्के से उभरा।

''मैंने अपने आपको इस जीवन के अनुरूप ढाल लिया है। मैं संतुष्ट हूँ। प्लीज पल्लव जी, मेरा अधिक समय नष्ट न करें। मुझे अभी कल का लेक्चर तैयार करना है।'' पल्लव की समझ में न आया क्या करे, क्या कहे। यही सुरभि है जो हर सितम चुपचाप होठों में पी लेती थी।

तभी सुरभि ने नौकर को आवाज दी, ''श्याम सिंह, साहब को बाहर छोड़ आओ।''

पल्लव कुछ देर तक खड़ा रहा फिर धीरे-धीरे सिर झुकाये बाहर निकल गया।

इतना मर्मान्तक आघात पहुँचाकर सुरभि भी तो बुरी तरह आहत हो गई। दूसरे कमरे में जाकर पलंग पर गिर पड़ी, ऑंखें बरस पड़ी।