नमस्कार मित्रों !
अरे ! आप भूल गए क्या ? आज गुरूवार की शाम है !! और हम हैं चौपाल में। आज हम बात कर रहे हैं लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की। क्या है आधुनिक मीडिया की दशा वा दिशा... कहाँ तक निभा रहा है यह अपनी जिम्मेबारी... ? किस रूप मे है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता... पढिये आर-पार की बात ! चौपाल के साथ !!
अरे ! आप भूल गए क्या ? आज गुरूवार की शाम है !! और हम हैं चौपाल में। आज हम बात कर रहे हैं लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की। क्या है आधुनिक मीडिया की दशा वा दिशा... कहाँ तक निभा रहा है यह अपनी जिम्मेबारी... ? किस रूप मे है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता... पढिये आर-पार की बात ! चौपाल के साथ !!
यह मीडिया की नयी दिशा है
-- मनोज कुमार
अधिकारी, रक्षा मंत्रालय
भारत सरकार
कल मैंने एक आलेख पढ़ा। शीर्षक था - “कृपया प्रभाष जोशी का झूठा महिमा
मंडन न करें” । इसके लेखक प्रिंट मीडिया से जुड़े हैं। यह लेख उस व्यक्ति के बारे में है जो अब इस संसार में नहीं है। जो अपना पक्ष नहीं रख सकता। किंतु एक पाठक के तौर पर मुझे अपना पक्ष रखने का पूरा अधिकार है। एक पाठक के रूप में तीन-चार हिन्दी के अख़बार तो प्रतिदिन “देखता” ही हूं। मैं किसी एक विचारधारा, किसा एक घराना या किसी एक समूह की ही पत्रिका का पाठक नहीं हूं। हिन्दी से मोह है, इस इस हिन्दीतर भाषी प्रदेश में जो भी मिल जाता है, सबको खरीदता हूं, “देखता” हूं। किसी की आलोचना नहीं करता। पर पाठक के तौर पर, इन पत्रिकाओं के बुद्धिमान लेखकों को एक दूसरे पर तलवार भांजते जब देखता हूं तो दुख होता है। शालीनता भी एक चीज होती है। बड़े-बड़े, नामचीन संपादक यह राय दे रहें हैं कि कौन-सी पत्रिका चलनी चाहिए, कौन-सी बंद हो जानी चाहिए। कोई इस बात से क्षुब्ध है कि फलां को पुरस्कार मिल गया, फलां को नहीं
मिला। कोई इस लिए परेशान है कि फलां ने फलां के हाथ से पुरस्कार क्यों ले लिया। कोई कहेंगे फलां पत्रिका बाबा आदम के जमाने की बात करती है, तो कोई कहेंगे कि वह प्रगतिशील नहीं है। ये तलवार बाज़ी प्रिंट मीडिया को किस दिशा में ले जा रहा है ?? मैं तो पाठक हूं, और पाठक पढ़ता है। मैंने पढ़ी थी कि क़लम तलवार से भी बड़ी चीज़ है। पर जब क़लम ही तलवार बन जाए तो उसे कौन बचाए।
हिन्दी इलेक्ट्रानिक मीडिया में समाचार चैनलों के प्रस्तुतकर्ता आए दिन चैनल बदल-बदल कर इधर-से-उधर हो जाते हैं, फिर उनकी बोली, विषय और अंदाज भी बदल जाते हैं। दूसरे इधर कुछ समय से देखता हूं कि समाचार चैनलों पर योग, ज्योतिष के अलावा ऐसी चीज़ों की भरमार होती है, जो मनोरंजन चैनलों पर आप देख चुके होते हैं। कार्यक्रम – हास्य का हो, या तथाकथित रियलिटी शो, वही पुराना माल फिरसे परोस रहे होते हैं। और मनोरंजन चैनल तो भेंड़चाल में ही फंसा नज़र आता है – एक ने नृत्य पर आधारित कार्यक्रम क्या दिया, सब उसी में लग गए। अब आजकल जो दुल्हन चुनो प्रतियोगिता हो रही, जो स्वयंवर हो रहा है। मैं इसी उलझन में रहता हूं कि परफेक्ट ब्रइड मां-बेटे चुन रहें हैं या दर्शक ? बिग बॉस फ्रेंच-कट दाढ़ी बाबा हैं या वो जि
हिन्दी इलेक्ट्रानिक मीडिया में समाचार चैनलों के प्रस्तुतकर्ता आए दिन चैनल बदल-बदल कर इधर-से-उधर हो जाते हैं, फिर उनकी बोली, विषय और अंदाज भी बदल जाते हैं। दूसरे इधर कुछ समय से देखता हूं कि समाचार चैनलों पर योग, ज्योतिष के अलावा ऐसी चीज़ों की भरमार होती है, जो मनोरंजन चैनलों पर आप देख चुके होते हैं। कार्यक्रम – हास्य का हो, या तथाकथित रियलिटी शो, वही पुराना माल फिरसे परोस रहे होते हैं। और मनोरंजन चैनल तो भेंड़चाल में ही फंसा नज़र आता है – एक ने नृत्य पर आधारित कार्यक्रम क्या दिया, सब उसी में लग गए। अब आजकल जो दुल्हन चुनो प्रतियोगिता हो रही, जो स्वयंवर हो रहा है। मैं इसी उलझन में रहता हूं कि परफेक्ट ब्रइड मां-बेटे चुन रहें हैं या दर्शक ? बिग बॉस फ्रेंच-कट दाढ़ी बाबा हैं या वो जि
सके हाथ में रिमोट है। रियलिटी शो पर पहले रोने-धोने का नाटकीय सिलसिला चलता था। आजकल तो नौबत यह है कि मार-पीट और कपड़ा उतारो तक की होड़ लगी है, वह भी क्रूर-से-क्रूरतम अंदाज में। आख़िर किसी रैम्प पर कैटवॉक करती मॉडल का वस्त्र इधर-उधर हो गया तो जो न्यूज़ आइटम सेकेण्ड्स का हो सकता था, उसे घंटों में दिखाना इनकी आदत हो गयी है। अब इसे दिशाहीनता कहूं या नहीं ? मैं इससे बचकर ये कहना चाहूंगा कि ये मीडिया को आजकल एक नई दिशा दे रहें हैं।
धन्य है ब्लॉग जगत का, जब से इससे जुड़ा हूं, मेरे पास टीवी देखने का समय ही नहीं बचता और अखबार खोलने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती।
धन्य है ब्लॉग जगत का, जब से इससे जुड़ा हूं, मेरे पास टीवी देखने का समय ही नहीं बचता और अखबार खोलने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती।
कुछ तो मजबूरियां है...
-- सुभाष चंद्र
युवा पत्रकार, दिल्ली
कहना बहुत आसान है कि आज का मीडिया दिशाहीन हो गया है। कहने-सुनने में, विचार-गोष्ठियों में वाद-विवाद के लिए अच्छा विषय है। सामाजिक सरोकारों और दायित्वों को आत्मसात करते हुए यदि कहा जाए तो 'हां' में सहमति प्रदान की जा सकती है। पर सामूहिकता के संग, विचारणीय है। पथ से भ्रमित होना कोई नहीं चाहता। संभव है कई कारण हैं। जिन पर विचार करना होगा। सीधे शब्दों में कहा जाए तो चूंकि मीडिया बाजार में खड़ा है और बाजार द्वारा संचालित है, सो, उसके सरोकारों में कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष ढंग से हस्तक्षेप होता है। और कुछ लोग बड़े ठसके के संग कह देते हैं कि
कहना बहुत आसान है कि आज का मीडिया दिशाहीन हो गया है। कहने-सुनने में, विचार-गोष्ठियों में वाद-विवाद के लिए अच्छा विषय है। सामाजिक सरोकारों और दायित्वों को आत्मसात करते हुए यदि कहा जाए तो 'हां' में सहमति प्रदान की जा सकती है। पर सामूहिकता के संग, विचारणीय है। पथ से भ्रमित होना कोई नहीं चाहता। संभव है कई कारण हैं। जिन पर विचार करना होगा। सीधे शब्दों में कहा जाए तो चूंकि मीडिया बाजार में खड़ा है और बाजार द्वारा संचालित है, सो, उसके सरोकारों में कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष ढंग से हस्तक्षेप होता है। और कुछ लोग बड़े ठसके के संग कह देते हैं कि
मीडिया दिशाहीन हो गया है।आखिर क्यों? इस पर विचार नहीं किया जाता है। तनिक विचार कीजिए। हम क्या खाते हैं, क्या पहनते हैं, कैसा दिखता है - सब बाजार तय करता है तो क्या हमारे विचारों पर बाजार का प्रभाव नहीं होगा। वर्तमान में मीडिया में आना सबसे सहज हो गया है। आपके पास करोड़ों रुपए हैं, आपका स्वागत है। यह आपसे कोई नहीं पूछेगा कि आप अपने समाज, राष्ट्र और पेशे यानी पत्रकारिता के प्रति कितने ईमानदार हैं। तभी तो आज केवल राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से साढ़े तीन सौ के करीब समाचार पत्र और दर्जनों न्यूज चैनल संचालित होतै हैं, जिसका नाम भी आम जनता नहीं जानती। पत्रकारिता का लाइसेंस प्रदान करने वाली संस्था क्या कभी किसी बिल्डर-बिजनैस से उसका चरित्रप्रमाणपत्र मांगती है? जैसे जिसके सोच होंगे, वैसा ही उसका कर्म होगा। मीडियाकर्मी भी किसी दूसरे ग्रह के प्राणी नहीं हैं, जो एकनिष्ठ होकर अपने सरोकारों के प्रति सदा सचेष्ट रहेंगे। उनका भी परिवार है, उनकी भी जरूरते हैं। उत्तर आधुनिकतावाद कह
लीजिए अथवा नव उपनिवेशवाद की संज्ञा दीजिए, वर्तमान का भारतीय समाज केवल और केवल बाजार की भाषा समझता है। और जब हम-आप बाजार में हैं तो बाजारू बनने से भला कितने दिनों तक बच सकेंगे?
मीडिया से दिशा-निर्देशक तत्व ही विलुप्त
-- करण समस्तीपुरी
पटकथा लेखक,बेंगलूर
आज के चौपाल में मूर्धन्य सदस्य ने मीडिया के आधुनिक प्रवृति को 'नयी दिशा'
कहा और उनके अनुवर्ती ने कहा, 'कुछ तो मजबूरियां रही होंगी... !!' अब मैं क्या कहूँ ? किन्तु मुझे इस से इनकार नहीं कि आज की मीडिया दिशाहीन हो गयी है। रही बात मजबूरी की तो मुझे दीखता है कि मीडिया से दिशा निर्देशक तत्व ही विलुप्त हो गए हैं। अब तो "कुमति-कुपथ रथ दौड़ाता जो, पथ-निर्देशक वह है !" मैं यहाँ बात विशेषतः हिन्दी मीडिया की करना चाहूँगा। आधुनिक पत्रकारिता के आरम्भ में प्रायः इसकी बागडोर साहित्यकारों के हाथों में हुआ करती थी। भारतेंदु, आचार्य द्विवेदी, प्रेमचंद, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर प्रभृति अनेक साहित्यकार हिन्दी पत्रकारिता के प्रमुख स्तम्भ रह चुके हैं। 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम्' का समेकित रूप है साहित्य, जिसमे निहित है समाज-कल्याण की भावना। लोकहित है जिसका प्राथमिक उद्देश्य। समाज पर साहित्य के प्रभाव के प्रति हमारे साहित्य के आदि-पुरूष कितने गंभीर थे इस बात का अनुमान आप इसी से लगा सकते हैं कि 'आरम्भ में संस्कृत नाटकों का दुखांत होना तक वर्जित था।' महाकवि कालिदास को भी इस वजह से आलोचना झेलनी पड़ीं थी। हालांकि पाश्चात्य प्रभाव मे आकर साहित्य की इस प्रवृति में ह्रास हुआ। परन्तु विषय यहाँ यह है कि जब तक मीडिया पर साहित्य का नियंत्रण था, जब तक पत्रकारिता साहित्य का अंग थी, इसे अपना सामजिक मूल्य और समाज के प्रति अपनी जिम्मेबारी पता थी। साहित्यिक पृष्ठभूमि से आये पत्रकारों को यह मालूम था कि उनके एक शब्द में कितना सामर्थ्य है। लेकिन जैसे ही पत्रकारिता साहित्य-विमुख हुई, अन्य अपकारकों ने इस पर अपना शिकंजा कसना शुरू कर दिया। इसे बाजारबाद कहें या पूंजिबाद, लेकिन नुकशान तो समाज का ही है। अब बुद्धू-बक्से पर टक-टकी लगाए भोले-भाले लोग क्या समझें कि यह सब उन्हें देश-दुनिया से अवगत कराने के लिए नहि बल्कि टी।आर।पी. बढाने के लिए किया जा रहा है। हाँ एक बात है, सूचना प्राद्यौगिकी के विकास और इन्टरनेट के प्रसार ने अभिव्यक्ति को नया आयाम दिया है। मुझे तो लग रहा है कि ब्लोगिंग मीडिया का सबसे सबल माध्यम हो सकता है। जहां तक बात अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का है, तो जन-संचार के अन्य माध्यमों में आत्मनिर्भरता नहीं है और बिना आत्मनिर्भरता के स्वतंत्रता का क्या अर्थ होता है मुझे पता नहीं। परन्तु ब्लॉग आपको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो देता ही है, वो भी पूरी आत्मनिर्भरता के साथ। लेकिन अंदेशा इस बात की है कि कहीं इसे भी बाजारबाद लील न ले !
Chaupal me AAkar Har Baar Ek nayi cheej se parichay hota hai.AAj ke chaupal ka vishay bahut acha hai. Uprokt Vaktao ne apne najariea se apni - apni baat kahi hai .Kuch had tak baat sahi hai ki media aaj apni disha se bhatak rahi hai.lekin aaj ke bajarwad se achuta kaun hai.Media par bhi iska prabhav dikh raha hai.yahi karan hai woh apni disha aur dasha badal rahi hai.Age kya hoga kaun jane . Ukt Prastuti ke liye DHANYAWAD. ( MOHSIN )
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब! पहले पत्रकारिता में उन्हें अवैध घुसपैठिया समझा जाता था बग़ैर साहित्यिक पृष्ठ्भूमि के यहां आ जाते थे. अब उन्हें अवैध घुसपैठिया समझा जाता है जो साहित्य की दुनिया से यहां आते हैं. बेचारे साहित्यिक प्रतिभासम्पन्न लोगों को तो मीडिया में आजकल ऐसे देखा जाता है जैसे दिल्ली शहर में बन्दरों को देखते हैं.
जवाब देंहटाएंAajkal harishchandra ji aur dwivedi ji Ka jamana raha nahi.Naye log, naya jamana ,nayi pasand aur nayi abhiruchi. Logo ki nabs pakad kar hi media apni disha tai karti hai par aaj media wakai apni disha se bhatak rahi hai . Ise apne mul kaaryo aur kartavyo par dhayan dena hoga. Aaj is vishay ko chunne ke liye aapko naman.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिखा है आपने! चौपाल में आकर नई चीज़ों के बारे में जानने का सौभाग्य प्राप्त हुआ! आजकल मीडिया वाले अफ्वायें फैलाने में ज़्यादा रुची लेते हैं और कई बार ये भी देखा जाता है की छोटी सी बात को बढ़ा चढाकर कहते हैं ! मुझे ये लग रहा है की मीडिया वाले अपनी दिशा से भटक रहे हैं और उन्हें इस बात पर ध्यान देना चाहिए!
जवाब देंहटाएंHmm... Good discussion but I don't think it will make any mark to the modern days media. They are really crazy............
जवाब देंहटाएंhar ek vichaar jwalant aur apni jagah sahi hain.......media dishabhramit kyun hai? kya sirf wahi kasoorwaar hai?prashn aham,uttar kai
जवाब देंहटाएंAdhunik media..dasha ya disha...jaha tak mere vichar hai aj ke dor me media hume ek nai disha ki aur le ja rai hai..han ye alag bat hai ki pahle aur aj ke media me kafi farak hai ..hona b chaiye jaise jaise samay badalta hai..sab kuch badal jata hai chahe wo media he kyun na ho...kabi kabi media apne marg bhatak he jati hai to usse hume koi fark ni parna chaiye...
जवाब देंहटाएंAplogo ne inne ache topic ko charcha ka vishay banaya uske liye ap sabi writer ko bahot bahot dhnayabaad...
Jo dikhta hai so bikta hai.pahle apne girebaan me jhaank kar dekhiye hajoor !
जवाब देंहटाएंआज की चौपाल सार्थक रही
जवाब देंहटाएंमज़ा आया यहाँ आकर
मैं सुभाष चंद जी सहमत हूँ कि मीडिया कर्मी भी दूसरे ग्रह के प्राणी नहीं हैं
उनका भी परिवार है उनकी भी जरूरतें हैं।
मैने महसूस किया है कि
अखबार के मालिक पत्रकारों का शोषण करते हैं मगर विवशता यह कि पत्रकार विरोध भी नहीं कर पाते...!
धन्यवाद देवेन्द्र जी !
जवाब देंहटाएंअहोभाग्य कि आपने हमारे प्रयास को सराहा. भविष्य मे भी आपसे इसी स्नेह की अपेक्षा है !!
सब्च्छा है। सबसे अच्छा वह है जो अनाम है।
जवाब देंहटाएंaaj ka media ko program hi nahi miltha. kuch bi dikatha hai, wo society ka bala nahi kar saktha. aapka debate achcha hai.
जवाब देंहटाएं- thyagarajan
आपके विचारों से सहमत होन का मन नहीं करता पर असहमत भी नहीं हो सकता।
जवाब देंहटाएंमैं रश्मि प्रभा जी से सहमत हैं। उनके द्वारा उठाए गए प्रश्नों का जवाब ढ़ूंढ़ने के लिए चौपाल जमाइए।
जवाब देंहटाएंHi Folks !
जवाब देंहटाएंYou guys are doing really good work. Salute to your efforts for a social good !
Thanks !!
धन्यवाद हर्षिता जी !
जवाब देंहटाएंरश्मि प्रभा जी के प्रश्न बिलकुल सांगत हैं. हम उस पर भी चौपाल मे बहस कराने की कोशिश करेंगे. आप जैसे पाठकों का सक्रीय सहयोग आवश्यक है.
good keep it up !
जवाब देंहटाएंमित्रों !
जवाब देंहटाएंइस ज्वलंत विषय पर इतनी सार्थक, स्वस्थ्य, निर्भीक और निष्पक्ष विमर्श के लिए आपकी टीम सच मे धन्यवाद की पात्र है. आज दुःख होता है जब हम देखते हैं कि लोकतंत्र का चौथ खम्भा कितना लाचार हो गया है.... और कुछ मित्र हैं कि धरोहरों को पर भी गिराने पर तुले हैं !
achhi bahas hai. media kee bhi majburi hai lekin phir bhi ise apni responsibilities samajhna chahiye.
जवाब देंहटाएंgreat going !
जवाब देंहटाएंSorry late comment dene k liye.Bahut achi chaupaal hai.Bahut hi achaa laga aap sab ki vicharo ko jaan kar.
जवाब देंहटाएंअच्छी चर्चा।
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