सोमवार, 9 नवंबर 2009

घिढारी का मंत्र

- करण समस्तीपुरी
हंसी मजाक मे भी सीखी गयी बात कभी कभी कितनी मर्मान्तक उपयोगी हो जाती है, इस बात की प्रतीति मुझे स्नाताक के अन्तेवासी छात्र जीवन में हुई। स्कूल में पंडीज्जी माट साब जब शब्द- रूप याद करवाते थे तो पता नही मन ही मन कितने अपशब्द कहता था। 'लट-लकार' महा-बेकार और 'लंग लकार' भंग डकार लगता था। लेकिन 'हर' धातु का क्रिया-रूप ख़ास कर प्रथम पुरुष मे - "हरामि हरावः हरामः'' खूब मन से पढता था। शायद अगली पंक्ति की जोरदार आवाज से मास्टर साहेब को लगता था कि छात्र गण को संस्कृत मे बहुत अनुरक्ति है। हम-लोग भी गुरूजी को यह आभाष तक नहीं होने देते थे कि "हरामि हरावः हरामः'' का यह अखंड जाप संस्कृत मे अभिरुचि है कि महज एक स्वांग ! खैर, गुरूजी गए कह ! और चेला गया बह!! लेकिन बहते-बहाते भी विद्या रानी की कुछ कृपा तो हो ही गयी। वैसे तो साहित्य से मुझे तभी भी लगाव था। सो "येनांग विकारे तृतीया" भले नहीं समझे मगर "राजद्वारे श्मशानेच यः तिष्ठति सः बान्धवाः" वाला फकरा आ "कार्येषु दासी कर्मेषु मंत्री ! भोजेषु माता शयनेषु रम्भा" वाला श्लोक न याद करने में कोई आलस्य ना ही उनके अर्थ समझने में कोई कष्ट। करत-करत अभ्यास ते संस्कृत के कुछ श्लोक तो ऐसे जुबान पर चढ़ गए जैसे गाँव के झगडे मे औरतों के मुंह पे गाली! इस तरह स्कुलिया शिक्षा को मेट्रिक घाट के पार लगा कालेज मे विज्ञान संकाय मे दाखिल हो गया. फिर तो दो-तीन साल तक संस्कृत से कोई भेंट मुलाक़ात नहीं. किन्तु साहित्य के मोह ने स्नातक मे फिर से अपनी तरफ खींच लिया ! तदुपरांत इसका रसास्वादन कर ही रहा हूँ !!
तब मैं स्नातकोत्तर प्रथम वर्ष मे था और झा जी स्नातक अंतिम वर्ष मे। दोनों जने साहित्य के छात्र। साहित्य, साहित्यकार, पत्रकार, सामाजिक सरोकार आदि विषयक नित्य सायं होने वाली परिचर्चा से मैत्री और प्रगाढ़ होती गयी। हाँ ! हम दोनों में एक और समानता है- आर्थिक रूप से कमजोर पारिवारिक पृष्ठ-भूमि। झा जी के कुछ पूर्ण-कालिक और कुछ सामयिक यजमान भी हैं जहां से पूजा-पाठ, विधि-व्यवहार, संस्कार आदि से आने वाली दक्षिणा झा जी के लिए तो जीवन यापन का बहुत बदा संवल है ही प्रायः हम लोगों के लिए भी सिंघारा-लिट्टी का जोगार है। लगन के समय मे झा जी की व्यस्तता कुछ विशेष ही बढ़ जाती है। वर्तालाप के क्रम मे मेरे संस्कृत उच्चारण से प्रभावित झाजी पूजा-पाठ मे मेरी सहायता लेने लगते हैं! मेरे विनोदी स्वभाव को भी यह काम एक अद्वितीय मनोरंजन लगता है. "ऐंह .... आज का लगन तो एकदम दंगल है।" अहले सुबह अन्गैठी करते हुए झा जी कह रहे थे... दिन मे मगरदही मे एक जनेऊ करवाना है, फिर थानेश्वर थान मे एक व्याह और रात मे फिर काशीपुर मे विवाह !!! कहते हैं न कि, ‘भगवान देते हैं तो छप्पर फार के....’ झा जी के मुँह की बात ख़त्म भी नहीं हुई थी कि एक और यजमान पहुँच कर लगे अनुनय विनय करने। पंडी जी, कल मेरी बचिया का लगन है और आज पूजा !! लेकिन पूजा कराये कौन ? झा जी तो आज पहले से ही ब्लैक मे बुक हैं। झा जी आशपूर्ण दृष्टि से मुझे देखते हैं। मैं भी मजाक मे ही राजी हो जाता हूँ। शाम को फिर यजमान बुलाने आते हैं। आज मेरे संस्कृत ज्ञान की 'अग्नि-परीक्षा' है। मन मे कुछ घबराहट तो है मगर प्रकट नहीं कर रहा हूँ। हाँ, झा जी का डेलबाह सेवकराम को सब कुछ पता है। वो मेरे साथ है। सो कुछ भरोसा भी है। इधर जब तक मैं कर-पग प्राच्छालन करता हूँ, सेवक उधर सारा जोगार कर के तैयार है। मैं भी झट से यजमान के चुल्लू मे पानी डाल कर, "अपवित्रः पवित्रो वा... पढाते हुए, पान सुपारी कलश-गणेश कर "एकदा मुनयः सर्वे.... से होते हुए 'लीलावती-कलावती कन्या...' की कथा कह "ॐ जय जगदीश हरे...." करवा कर ही सांस लेता हूँ। जैसे ही मैं अपना पोथी-पतरा समेटना शुरू करता हूँ कि एक झुंड महिलायें आ कर पंडित जी ! उधर चलिए। अब उधर चलिए का शोर शुरू कर देती हैं। मैं पूछ रहा हूँ,"अब उधर क्या है ? पूजा तो हो गयी..." छूटते ही महिला मंडल की मुखिया का उपहासपूर्ण स्वर फूटा, " ओ पंडी जी ! घिढारी नहीं करबाइयेग क्या ? विध-व्यवहार भी पता नही है ? ले बलैय्या के... अब तो बंदा बुरा फंसा... वो तो सत्य-नारायण कथा की पोथी हाथ में थी तो पढ़ दिया... अब घिढारी क्या होता है? एक बात तो पता है ना... लगन मे उन्मत्त मिथिलानी का सबसे चोटगर निशान पंडित जी पर ही पड़ता है। पंडितजी चूके नहीं कि "अकलेल बभना बकलेल बभना...." के स्वागत मे स्वर-लहरियां मचलने लगती हैं। मुझे मौन देख सभी रमणियां सरस व्यंग्य-बाण छोड़ रही हैं। मुझे झाजी पर गुस्सा आ रहा है। 'उन्होंने बताया क्यूँ नहीं कि यहाँ घिढारी भी है ...' !! किन्तु अभी तो सबसे महत्वपूर्ण है इस यजमानी के महाजाल से निकलना। खैर जल्दबाजी का अभिनय करते हुए मैं कहता हूँ, " जल्दी घिढारी की तैय्यारी कीजिये नहीं तो मुझे छुट्टी दीजिये... दूसरे जगह भी जाना है।" कह तो दिया लेकिन अब क्या... ? मैं तो इस विषय मे ठहरा "ठन-ठन गोपाल" ! फिर ध्यान आया, अरे.... कितना लगन और व्याह का पक्का खिलाड़ी सेवकराम तो मेरे साथ है ही। फिर इसी से मंत्रणा किया जाए। सेवक मुझे घिढारी का रश्म समझाते हुए कहता है, 'धुर्र महराज ! जाइए न कुछ पढा दीजियेगा... कौन बूझता है यहाँ... !! परन्तु मेरे समक्ष यक्ष प्रश्न यह था कि पढाएं क्या ?? मैं इसी उहा-पोह मे था कि महिला-मोर्चा उधर सारी तैय्यारी कर गीत-गाली गाते हुए पंडित जी को बुलाने लगी। मुझे ये चार कदम चार कोस जैसे लग रहे हैं। खैर ... मरता क्या नहीं करता.... ? वहाँ के सिचुएशन पर आधारित चट-पट एक मंत्र गढ़ता हूँ। कन्या और कन्या के माता-पिता हाथों मे घी लिए खड़े हैं। अब गोबर के बने गोसाईं पर घी ढारेंगे। उधर विधि शुरू होता है, इधर मेरा नव-रचित मंत्र, "माता सहित पिता पुत्री ! घृत धारम खरा-खरी !!" यजमान मेरे साथ पॉँच बार इसी मंत्र को दोहराते हैं। हतप्रभ गीत-गाईन महिलायें प्रशंसा की दृष्टि से देखती हैं। शायद पहली बार उन्हें घिढारी के मंत्र का मतलब पता चल रहा है.... सब कुछ सकुशल, सानंद संपन्न। मैं भी यथेष्ट दक्षिणा और मान-सम्मान के साथ बिदा होता हूँ। तो अब कहिये... सच मे न... "हंसी मजाक मे सीखी गयी बात कभी कितनी उपयोगी हो सकती है।"

16 टिप्‍पणियां:

  1. Hasi-Majak me sikhi gayi baat hamesha upyogi hoti hai.Lekh rochak laga.Aasha hai aage aur adhik rochak lekh padne ko milega. (Mohsin)

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  2. शुक्रिया मनोज जी ....बस आप सब की ज़र्रा नवाजी है ....मन में ख्याल आये लिख दिए ....!!

    इधर मेरा नव-रचित मंत्र,"माता सहित पिता पुत्री ! घृत धारम खरा-खरी !!" यजमान मेरे साथ पॉँच बार इसी मंत्र को दोहराते हैं. हतप्रभ गीत-गाईन महिलायें प्रशंसा की दृष्टि से देखती हैं, शायद पहली बार उन्हें घिढारी के मंत्र का मतलब पता चल रहा है.... सब कुछ सकुशल, सानंद संपन्न ! मैं भी यथेष्ट दक्षिणा और मान-सम्मान के साथ बिदा होता हूँ !

    वाह....करण जी ने लाजवाब mantra padha ....!!

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  3. इस लघुकथा में एक सशक्त हास्य-व्यंग्य के अनेक लक्षण मौज़ूद हैं। प्रवाहमान भाषा और विनोदपूर्ण शैली के साथ ही प्रतीक और यथार्थ के सोने में सुगंध वाले योग के कारण यह रचना काफी आकर्षित करती है।

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  4. इतना अच्छा लगा कि क्या कहूं, मेरे पास शब्द नहीं हैं

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  5. बहुत ही सुंदर और रोचक लेख लिखा है आपने! पढ़कर बहुत अच्छा लगा! इस बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई!

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  6. Bahut achi comedy hai is story me..aur karan g mai apke is bat se sehmat hun ki hansi majak ki bat sach me he kabi kabi bahot upyogi hoti hai...aise he aplog hume hasante rahe....dhanyavaad.....

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  7. Thanks for the healthy humour! Dude, believe me, you are worth of hitting the laughters' deck.

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  8. "माता सहित पिता पुत्री ! घृत धारम खरा खरी !!........."
    धन्य हो महाप्रभु ! ब्रह्मन तो मैं भी हूँ पर आज तक मंत्र की रचना नहीं कर पाया. आनंद आ गया. आपकी भाषा और प्रत्युत्पन्न्मत्तित्व दोनों प्रशंसनीय है !!

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  9. पंडितजी के अप्पन घीढ़ारी भेल छई की नई....
    बढ़िया है।

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  10. Badhaee ho karan ji ! Bahut hee achchhee kahanaee hai ab sachchi kitni hai ye to lekhak ko he pata....

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  11. VAAH KAMAAL KE MANTR KI UTPATTI KI HAI ...HAASY - VYANG KA BEJOD MISHRAN HAI IS RACHNA MEIN ...

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  12. Hats of to your exellent comic timing.

    Regards,
    Sunil CK

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  13. Bohot acha laga aapki yeh rachna parh k.Aur sach hansi mazak mein hi insaan bohot kuch siikh jata hai jo usse uske vyaktitwa ko nikharne mein bara upyogi hota hai.Bohot kuch siikhne ko mila aapki es rachna se.

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  14. Wow ! Great reading to start a day !!!

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