सोमवार, 16 नवंबर 2009

दास न छाड़े चाकरी....

-- हरीश प्रकाश गुप्त

आज फिर जब राम किशोर आफिस के लिए घर से निकला तो रोज की तरह आज भी उसका मन खिन्न था। रोष और असन्तोष की रेखाएं उसके चेहरे पर साफ थीं। वह मन ही मन बुदबुदाया "......स्सा..... ली ! सुबह-सुबह मूड अपसेट करके रख देती है । लड़के को और मेरे लिए टिफिन तो बनाया जाता नहीं, ऊपर से कोहराम मचाए रहती है। कब से मेरा दोपहर का खाना आफिस में हीटर पर बनी दलिया या खिचड़ी बनकर रह गया है।" लम्बे समय से चली आ रही कटुता का दर्द लाचारी बनकर अभिव्यक्त हो गया। इसी उद्विग्नता में अपने मन से बातें करते, उसे ढाढस बंधाते और आफिस के रास्ते पड़ने वाले लगभग आधा दर्जन मन्दिरों की चौखट पर माथा टेकते आफिस कब आ गया उसे ध्यान ही न रहा। उसने झट से अपनी साइकिल स्टैण्ड में लगाई और गंगा जी को प्रणाम किया। आफिस की कुर्सी पर बैठने से पहले उसने मेज पर शीशे के नीचे लगी देवी-देवताओं की तमाम फोटुओं को सादर चरण स्पर्श किया और काम में लग गया। दोपहर बाद दिल्ली से बॉस का फोन आया। डिपार्टमेन्ट में पिछले चौबीस घंटों में क्या-क्या हुआ, उसकी जानकारी ली। बड़े साहब के हाल-चाल के साथ-साथ उनकी गतिविधियाँ भी जानीं, फिर जूनियर आफीसर की खबर ली। थोड़ी सी चुहल के पश्चात स्वीटी की खैरियत का नम्बर आया। बहुत ही सम्मान प्रकट करते हुए उसने बताया था "साहब, वो बहुत उदास हैं। दो दिन से कुछ खाया भी नहीं है। रात वाला दूध वैसे ही रखा है। बस, टुकुर-टुकुर ताकती रहती हैं कि कब आप आवें। बहुत चाहती हैं साहब आपको, इसीलिए शायद आपको मिस कर रही हैं।" "हाँ, वो तो है । अच्छा, ऐसा करो आज उसे खुला ही रखना। उसे सफोकेशन हो रहा होगा । अब वह साहब को कैसे बताये कि कल दिन में उसने कुछ देर के लिए जंजीर खोल दी थी। पूरे बंगले में कैसा चकरगिन्नी की तरह नचाया था उसने। एक तो मोटा थुलथुल शरीर ऊपर से इतनी भागदौड़, इतनी तो उसने अपनी युवा अवस्था में भी कभी न लगाई थी। उफ्! कलेजा बाहर निकलने को आ गया था। फिर भी, स्वीटी के प्रति विनम्रता और आदर भाव उसकी भावभंगिमा और शब्दों से अब भी रह-रहकर टपक रहा था और वह इसमें ही प्रफुल्लित था ।
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[कानपुर के समीप मंधना गाँव में जन्मे, हिन्दी, अर्थ-शास्त्र एवं वाणिज्य में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त हरीश प्रकाश जी सम्प्रति भारत सरकार के अधीन आयुध उपस्कर निर्माणी, कानपुर में बतौर हिन्दी अनुवादक कार्यरत हैं। आरम्भ से ही साहित्य में रूचि। कविता एवं लघुकथाओं का नियमित लेखन व पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन ! इस ब्लॉग पर पहली रचना। टिपण्णी के माध्यम से स्वागत एवं सुझाव अपेक्षित। -- मनोज कुमार]

16 टिप्‍पणियां:

  1. "हूँ... ! शीर्षक के मुताबिक़ कथा मे रवानगी तो है. पन्त का "शव को दे हम रूप,रंग, आदर मानव का ! मानव को हम कुत्सित रूप बना दें शव का !!" भाव प्रस्फुटित हो रहा है, परन्तु प्रतीक पात्र 'स्वीटी' का प्रक्षिप्त रह जाने से कथा का सार समझने में पाठकों को दिमागी कसरत करनी पड़ सकती है ! ब्लॉग पर आपका हार्दिक अभिनन्दन और बधाई !!!

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  2. दास न छाड़े चाकरी....
    कथा का सार समझने में पाठकों को दिमागी कसरत करनी पड़ सकती है !बिलकुल सही कहा, अब कसरत कर के भी कुछ पल्ले नही पडा-
    धन्यवाद

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  3. kathanak ko aur nikhara ja sakta tha.Mai bhi Karanji ki TIPPANI se sehmat. Blog ki duniya me padarpan karne ke liye apka hardik Abhinandan.(Shamim)

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  4. कुत्ता है क्या। बौस का। लघुकथा अच्छी है।

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  5. मानवेतर पात्रों का सफल प्रयोग किया है। लघुकथा अपनी संक्षिप्तता, सूक्ष्मता एवं सांकेतिकता में जीवन की व्याख्या को नहीं वरन् व्यंजना को समेट कर चली है। संवेदनशील रचना। बधाई।

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  6. बहुत ‍शानदार शुरूआत । बौस की स्वीटि , महत्वपूर्ण है । सारी थकान दूर कर देती है , बौस की कुतिया । (मोहसिन)

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  7. एक अच्छी लघुकथा जो संकेतों में अपनी बात कहती है ओर नौकरी के जीवन के कुछ कटु यथार्थ को सामने लाती है।

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  8. Kahani achhi hai. kaha bhi gaya hai "the grass is always greener on the other side." purushon par yah kuchh jyada hee sateek baithti hai.

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  9. A striking comment over poluted men mentality !

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  10. मैं स्वीटी जी से एक मत रखती हूं।

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