--- मनोज कुमार
आज रविवार है, और मैं फ़ुरसत में हूं......
ब्लॉग की दुनियां में आज हम दो महीने का सफ़र पूरा कर रहें हैं। जितना-जितना आपका प्यार मिल रहा है उतनी ही ज़िम्मेदारी भी बढ़ रही है। जिस दिन पहला पोस्ट ड़ाला था कोई भी पाठक और अनुसरण कर्ता नहीं आया। थोड़ा हतोत्साहित हुआ। पर जब अन्य ब्लॉग पर गया, कुछ सीखा तो धीरे-धीरे और आगे बढ़ा। इन दो महीनों में हमें लगा ये ब्लॉग जगत – एक परिवार की तरह है, संयुक्त परिवार की तरह।
परिवार कुछ लोगों के साथ रहने से नहीं बन जाता। इसमें रिश्तों की एक मज़बूत डोर होती है, सहयोग के अटूट बंधन होते हैं, एक-दूसरे की सुरक्षा के वादे और इरादे होते हैं। हमारा यह फ़र्ज़ है कि इस रिश्ते की गरिमा को बनाए रखें। हमारी संस्कृति में, परंपरा में पारिवारिक एकता पर हमेशा से बल दिया जाता रहा है।
मेरा मानना है कि परिवार एक संसाधन की तरह होता है। परिवार की कुछ अहम जिम्मेदारियां भी होती हैं। इस संसाधन के कई तत्व होते हैं। आज विश्व बड़ी तेजी से बदल रहा है। पारिवारिक संसाधन को अक्षुण्ण रखने हेतु इस बदलते विश्व में परिवार की ज़िम्मेदारियां भी काफी बढ़ गई हैं। परिवार से जुड़े मुद्दों के प्रति हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए।
औद्योगीकरण, आधुनिकीकरण व वैश्वीकरण के कारण हमारी सामाजिक मान्यताएं बदलती जा रहीं हैं। हमारे देश की पारिवारिक पद्धति भी इससे अछूता नहीं है। पिछले डेढ़-दो दशक में पारिवारिक पद्धति, खासकर संयुक्त परिवार के रूप में काफी बदलाव आता गया है। इसका असर पूरे विश्व में और ख़ासकर भारत में तो काफ़ी बुरा पड़ा है। बीते समय के साथ संयुक्त परिवार का स्वरूप टूट कर लघु से लघुतम परिवार में बदलता गया है।
संयुक्त परिवार में जहां सामुदायिक भावना होती है वहीं छोटे परिवार में व्यक्तिगत भावना प्रधान होती है। जहां व्यक्तिगत भावना हावी होगी वहां स्वार्थ का आ जाना स्वाभाविक है। सब अपना-अपना सोचने लगते हैं। संयुक्त परिवार में सब एक दूसरे के प्रति प्यार व सम्मान दर्शाते हैं और सब की आवश्यकताओं को हर कोई मिलकर पूरी करता है। कोई भेद भाव नहीं होता। हर कोई सुख-दुःख में हर किसी के साथी होते हैं। हालांकि कुछ खामियां भी हैं, जैसे गोपनीयता का अभाव और छोटी-छोटी बातों पर तनाव व आंतरिक कलह। इसके अलावा संयुक्त परिवार की अपेक्षा छोटा परिवार चलाना काफी सुगम होता है।
आर्थिक विकास के कारण गांवों से शहरों की तरफ जो लोगों का पलायन बढ़ा तो छोटे परिवार रखना आवश्यक हो गया। ऐसे परिवार में व्यक्तिगत अधिकारों पर ज़्यादा जोर दिए जाने के फलस्वरूप घर के वातावरण में परिवर्तन आने लगा। बच्चों के ऊपर अंकुश की कमी हो जाने से युवा पीढ़ी अधिक उच्छृंखल हो गई। बुजुर्गों के प्रति सम्मान में कमी आने लगी है। वे अपने को उपेक्षित महसूस करते हैं। अकसर ही घर के बुजुर्गों को यह कहते सुना जा सकता है कि हमारे जमाने में इतना बड़ा परिवार था और हम सब दुःख-सुख बांट कर काफी हंसी-खुशी के दिन बिताया करते थे। वे बातें आज कहां ! आज तो जीवन बिल्कुल यांत्रिक हो गया है। रिश्ते भी औपचारिकता तक सीमित हो गये हैं जिसमें आपसी स्नेह, माधुर्य, सौहार्द्र और परस्पर विश्वास की कमी आ गई है।
आज यह बहुत ज़रूरी है कि हमारो सम्बन्धों में मज़बूती हो, एकजुटता हो, दृढ़ता हो। विश्वास की दृढ़ता। जिस परिवार में एकता और एकजुटता होती है उसमें समृद्धि होती है। वहां रिश्ते सुंदर होते हैं। क्योंकि वहां कोई भेद-भाव नहीं होता। सब एक दूसरे की मदद करते हैं। एक-दूसरे के प्रति स्नेह-प्रेम-सद्भाव रखते हैं। इस तरह का परिवार ऐसा लगता है मानों सारा संसार उसमें सिमट गया हो। हिन्दी-ब्लॉग संसार में मुझे ऐसा ही लगता है। यह परिवार की तरह है, एक संयुक्त परिवार की तरह। यहां मत-भेद हो सकते हैं, मन-भेद नहीं।
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रविवार, 22 नवंबर 2009
यहां मन-भेद नहीं है....!!!
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आपके प्यार और स्नेह का इससे अच्छा उदहारण और क्या होगा की एक अदना सा ब्लॉगर को आपने अनुसरण कर एक सम्मान दिया है. मुझे भी अपने ब्लॉग परिवार का एक सदस्य समझा है. मैं आपका ह्रदय से आभारी हूँ और रहूँगा.
जवाब देंहटाएंआज काफी देर से प्रतीक्षा थी। आलेख आया तो मन प्रसन्न हो गया, संयुक्त परिवार और एकल परिवार के गुण -दोंषो को बखूबी समझाया है आपने। मेरे ब्लाग में आकर सलाह दी ,इसके लिए भी आभार व्यक्त करता हूं।
जवाब देंहटाएंwaah ! shabdon me bhi anushaan... margdarshak lekh.
जवाब देंहटाएंBahut khub kaha aapne- यह परिवार की तरह है, एक संयुक्त परिवार की तरह। यहां मत-भेद हो सकते हैं, मन-भेद नहीं। Aaj ka lekh Bahut Badia & gyanwardhak hai.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लिखा आप ने मत भेद कितने भी हो लेकिन मन भेद नही होना चाहिये आप की बात से सहमत हुं.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
सही कह रहे हैं-एक परिवार ही है.
जवाब देंहटाएंबहुत बधाई दो माह पूरे करने पर-अनेक शुभकामनाएँ.
वाह मनोज जी बहुत बडी बात कह दी आपने मतभेद तक ठीक है मनभेद नहीं होना चाहिये .दो माह पूरे करने पर बधाई और शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंअजय कुमार झा
यही तो खूबसूरती है अपने परिवार समाज(या ब्लॉग समाज) की. और फिर आप जैसे सहयात्री हो तो साथ चलने का आनंद भी भरपूर है.
जवाब देंहटाएं- सुलभ
Manoj ji apne hum pathako ko apne priwar ka sadasya mana uske liye apko bahot bahot dhnayawad...aur apki ye rachna humesa ki tarah ek achi sikh de rai hai..
जवाब देंहटाएंachchi jaankaaree ! achchhe vichaar !!
जवाब देंहटाएंmatbhed se to vicharon ka srijan hota hai, mann bhed- sab khatm
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर और ज्ञानवर्धक लेख लिखा है आपने ! अच्छे विचारों के साथ शानदार प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंआलेख अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना। बधाई।
जवाब देंहटाएंbahut achhi rahi manoj ji.
जवाब देंहटाएंpls contact kijiye ya apna no. dijiye... kolkata se raj..9831057985
snehpurn evam gyanprad !
जवाब देंहटाएंGood one !
जवाब देंहटाएंA truthful stuff direct from the heart.
जवाब देंहटाएंsachchi baaten!
जवाब देंहटाएंbahut khoob !
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने यह एक नये विस्तारित परिवार या समुदाय की सदस्यता है . और यह पारिवारिकता आभासी जगत से होती हुई वास्तविक जगत में भी आत्मीयता बिखेरती दिखती है .
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत प्रस्तुती के लिए साधुवाद ! आज अर्थवाद के अंध दौड़ के समय में इसी तरह की सोच सामाजिक चेतना को मुख्यधारा में ला सकती है ! पुनः बधाई !
जवाब देंहटाएंरवि पुरोहित
Bahut achha laga aapka lekh. Aaap itne achhi tarah koi bhi baat prastut karte hain such mein padhkar aise lagata hai ki yah blog apna ghar jaise hai, jisme hum apne dukh-sukh ke saath duniya ka dard kuch to baant hi sakte hai .....
जवाब देंहटाएंBahut achha laga aap initial stage se kis tarah aap ek ek sidhi upar chad rahe hai jaan kar....Aasha hain esi tarah aap aur v ache ache lekh likhein jinko padh kar humein gyan arzit ho.
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