बुधवार, 8 जून 2011

देसिल बयना–84: दूर का ढोल सुहावन…

 

 

- करण समस्तीपुरी

 

’आ…गे माई कौने बाब हरदी चढ़ावे ला..न…. आ…गे… माई हरदी-हरदिया दूभ पातर ना…….!” अहहा…. दूर घुघुलिया पर से आ रहे शारदा सिन्हा के मधुर गीत सुनकर मन तिरपित हो गया। शहर बंगलौर में तो बस दुइये गीत सुनते हैं, ’झिंके मारी..ना…’ और नहीं तो करेक्टर ढीला है….!

 

बड़े दुलार से चौबनिया को बोले, “अरे बौआ ! ई गीत कहाँ बज रहा है…?” चौबनिया बताया था, घुघुलिया वाला घुटरु दास कने बेटी का बियाह है न परसो।” हम कहे, “अरे बियाह है परसो और लाउडिस्पीकर आजे से गनगना रहा है…? चौबनिया बोला, “हाँ…. राते भगवान का पूजा है। बिसेसर राम के कीर्तन मंडली को भी बोलाया है।

गाँव में तो बहुत दिन बीता था। पहिले डरोरी, बथुआ, लछमनपुर के मंडली सब आता था कीर्तन करे। “बिसेसर राम… ई कौन नया किरतनिया जनमा है रे…!” जवाब में चौबनिया कहा था, “एंह… कौनो ऐसा-वैसा मंडली मत बुझिये भैय्या…! उ ढोल-तासा, बैंजो-उंजो सब साज-बाज लेके आता है एकदम से मोहल्ला गनगना देता है।”

चौबनिया के मुँह से बिसेसर राम कीर्तन मंडली की तारीफ़ सुनकर मन आतुर हो गया। दोनों कान ढोल-तासा-बैंजो के स्वर खोजने लगे और आँखों के आगे विशुनदेव गुरुजी, असेसर, सरंगपुरिया, विदपतिया, भचलु, बसुरिया बाबा…  एक-एक कर पुराने किरतनिया का चेहरा घूम गया। आह… बचपन में हमभी भारी कीर्तन-प्रेमी थे। सलाना परीक्षा के तैय्यारी छोड़्कर, बाबूजी की मार का डर बिसराकर, उ अगहन मास के कनकन्नी में पुरना ठकुरवाड़ी पर अधरतिया तक जमे रहते थे, डरोरी वाला का विवाह-कीर्तन सुनने के लिये।”

व्याकुल मन प्रतीक्षा करने लगा… काश तासा से फिर कहीं ’धा तिरकिट धिन… धा दिग… धा…’ का ताल और बैंजो पर फिर से डरोरी वाला बैजु बबाजी का सुर निकल पड़े, “एहन सुंदर मिथिला धाम… कहाँ पायब दोसर ठाम… बबुआ रहि जइऔ सियाजी के चरणिया में….!

रात्रीभोजन के बाद खुले दलान में विश्राम कर रहे थे। उपर आँवला पेड़ की छोटी-छोटी पत्तियाँ कभी-कभार हिल तो जाती थीं मगर यह सरैसा की चाम जलाकर घाम बहाने वाली गरमी के लिये नाकाफ़ी था। चौबनिया हमरे चौकी पर एक साईड में बैठकर हथपंखा घुमा रहा था। खटिआ पार लालकक्का पसरे थे और दूसरी चौकी पर पकौरीलाल और अजगैबी बिस्तरा लगाये थे।

उतरवारी छोड़ पर अमरुद गाछ के नीचे बंधी कबरी गाय रह-रह कर श्यमुआ बछड़े को चाटने लगती थी तब उसके गले की घंटी का स्वर रात के सन्नाटे को चुनौती देता हुआ सा लगता था। मच्छर भगाने के लिये रुदलदास घूरा सुलगा गया था। धुआँ जादे बढ़्ने पर वहीं खाट पर पसरा नेबुआ खवास कभी-कभी अपने गमछे को झटक देता है।

धीरे-धीरे नीन्दिया रानी सबको अपने आगोश में लेने लगती है मगर हमको तो इंतिजार था कीर्तन शुरु होने का। झपकी लेरहे चौबनिया को झकझोरकर बोले, “कब कीर्तन शुरु होगा रे चौबनिया…?” चौबनिया अनमनाकर बोला, “धुर्र… ई बिसेसरा का मंडली अधरतिया में शुरु करता है और भोर में खतम…!”

’टिम… टिम… टक… सा…रे…ग…म…प….’ अरे हाँ…. ! अब टिम-टाम शुरु हो गया। लगता है कीर्तन मंडली ढोल-हरमुनिया का ताल मिला रहा है। अरे वाह… हई लो… अब सरगम भी शुरु हो गया, “मन तरपत हरि-दर्शन को आज…! धा… तिरकिट… धिन.. धा.. धा… तिन्ना…!”

’ओह… कितना मधुर हाथ है ढोलकिया का। ई तो सोगरथा मिरदंगिया से भी साफ़ बजाता है। अभी तक एक हाथ भी नहीं रपेटा है। आह… आनन्द आ गया। कीर्तन-भजन तो बाद में होगा अभी तो ढोल की आवाज ही इतनी सुहावन लग रही है। मन करता है सुनते रहें। एक दिन अपने इहाँ भी बुलाओ न ई मंडली को।’ चौबनिया से धीरे से कहे थे।

लगता है लालकक्का भी सोये नहीं थे। हमरा बुदबुदाना सुनके बोले, “मार बुर्बक…! ई घुघुलिया पर हो रहा है इसीलिये अच्छा लग रहा है। इहाँ करवायेगा तो कान फ़ाड़ देगा।” हमरे साथ-साथ चौबनिया भी टिहुंक पड़ा था, “एंह…. सुनने में मजा आयेगा कि… वहाँ से इतना अच्छा लग रहा है सुनने में… अपने इहाँ तो और मजा आयेगा। जी भरकर भरत शर्मा का गीत सब सुनेंगे।”

हमलोगों के मनुहार पर लालकक्का बोले थे, “ठीक है। कल्हे अकलुआ को बोला के साटा बंधा देते हैं, तुमलोगों की जिद् है तो।” आनन-फ़ानन में अगले सांझ बिसेसर राम एंड कम्पनी के कीर्तन का परोगराम हो गया पुरना दरवाजा पर। हे इहां से उहां तक सरदर दरी-जाजिम लग गया। आज रात परोगराम भी जल्दिये शुरु हो गया। फिर से “मन तरपत हरि-दर्शन को आज…! धा… तिरकिट… धिन.. धा.. धा… तिन्ना…!”

“मन तरपत हरि-दर्शन को आज…! धा… तिरकिट… धिन.. धा.. धा… तिन्ना…!”अहहह… अब चलती का हाथ आयेगा। हाँ-हाँ…. हई लो… ’धा… धिन… धा.. धा… धिन… धा…. धाक… तिनक… धिन… धाक… तिनक… धिन…. धा… धिन… धा…!”

“ओह तोरी के… ई ढोलकिया लगता है अंगुली में कमची बांध के बजा रहा है… टांय-टांय अवाज उठता है…!” हम स्थिर से बैजू काका को कहे थे। काका बोले, “धत तोरी के… तुम कमची की बात करते हो… उधर गद न देखो कैसे-गनगनाये हुए है…! लगता है कान फ़ाड़ देगा। हम चलते हैं नहीं तो हमरा तो धरकन बढ़ जायेगा…!” बैजू काका चले गये। हम भी कभी ई कोना तो कभी उ कोना करके कीर्तन का आनंद लेने की कोशिश करते रहे। मगर आनंद का आयेगा… उ करमकीट इतना जोर-जोर से ढोल पीट रहा था कि और कछु सुनाइये नहीं दे। लगता था कि ढोल का ’ठन-ठन’ चोट दिमागे पर पड़ रहा है।

आधा घंटा के बाद रहा नहीं गया। आखिर चिल्लाकर बोले, “बंद करो यह ढन-ढना-ढन….! बाप रे बाप… ई दिमाग फाड़ देगा। देखो… अगल-बगल का बच्चा-बूढ़ा सब भी नींद से जग गया। कल घुघुलिया पर बजा रहा था तो बढिया लगा… बाप रे बाप… ! अभी तो लगता है धम्मक से घर का नीव हिला देगा…!”

पूरा मंडली अक-बक होके टुकुर-टुकुर मुँह ताकने लगा। लालकक्का आहिस्ते से इशारा किये थे। सब ढोल-झाल समेट के एकात हो गया। लालकक्का उसी कोना में जाकर बिसेसर महंथ के हाथ में विदाई थमा दिये थे। मंडली विदा हुआ तो इधर भी लोग राहत की सांस लिये। फिर लालकक्का भी आकर वहीं चौकी पर बैठ गये। हँसते हुए बोले, “का हुआ… ढोलकिया का हाथ तो सोगरथा मिरदंगिया से भी मधुर था… फिर कान मुँद के चिचियाने काहे लगे…?” हम चुप-चाप नीचे धरती कुरेदते रहे। फिर कक्का खुदे बोले, “चलो कोई बात नहीं। आज से कम से कम एक बात तो सीख ही गये कि ’दूर का ढोल सुहावन’ होता है। घुघुलिया पर बज रहा था तो बड़ी मीठा लग रहा था और दरबाजे पर वही बजा तो कानफ़ाड़ू हो गया। मतलब कोई भी परिस्थिती दूर से आसान लगती है लेकिन जब वही खुद पे आती है तो मुश्किल लगने लगती है।

तो यही था आज का देसिल बयना। इसी बात पर बोले भैय्या रेवाखंड धाम की जय।

12 टिप्‍पणियां:

  1. ’दूर का ढोल सुहावन’...बखूबी समझाया आपने..
    दिलचस्प प्रस्तुति...

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  2. करन विवाह में बाद आपके लेखन में अधिक सरसता आई है.. बहुत सुन्दर आज का बयना.... मन करता है कि गाँव लौट जाएँ...

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  3. वाह!ये ढोल जितने दूर रहें उतने ही सुहावने.
    घुघूती बासूती

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  4. ये पोस्टें पढ़ कर एक भाव बहुत जोर मारता है कि अपनी अवधी अगर माटी की गन्ध युक्त होती तो मेरी ब्लॉगिंग का रंग ही कुछ और होता!

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  5. ये कहावत तो बचपन से ही सुनते आ रहे हैं ,पर इसका सही अर्थ आज समझ में आया है :)
    आपकी वर्णन शैली बेहद रोचक लगी .....

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  6. हम त एक्के बात कहेंगे कि आपका देसिल बयना पढ़ने का मन नहीं करता है.. आप भी कहियेगा कि चचा बुझाता है दम मार कर आए हैं चाहे एकाध घुटकी मार के आये हैं.. हर्मेसा तारीफ़ करते हैं अउर आज का रहे हैं कि मन करता है नहीं पढ़ें. त असली बात ई है कि पढ़ने के बाद बहुत देर टक मन बेचैन रहता है.. करेजा में टीस उठता है कि ई कहाँ आ गए हैं हम अउर कौन डंस लिया ऊ पुराना जुग को..
    आपका ई देसिल बयना मील का पत्थर साबित होगा.. अब इसको हमरा भबिस बानी बूझिये चाहे आसिरबाद!! जीते रहो बाबू!!

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  7. देसिल बयना पढ़ने में बहुत आनंद आता है.एक अलग खुशबू है बढ़िया करण जी.

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  8. सरस शैली का चमत्कार इस बार फिर दिखा, और कथा द्वारा आपने एक बार फिर बयना का अर्थ समझा दिया।

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  9. यह मुहावरा बहुत रोचक शैली में बयान किया है ...

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  10. बहुत ही सरस और रोचक वर्णन लगा। आभार।

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