सत्येन्द्र झा
व्यख्याता पद केलिये साक्षात्कार चल रहा था।
“सबसे छोटी लघुकथा क्या हो सकती है ?” एक साक्षात्कार में विशेषज्ञ ने आवेदक से पूछा।
“सब कुछ मर गया।” आवेदक ने कुछ सोचते हुए उत्तर दिया।
“कैसे...? यह कैसे हुई लघुकथा?”
“श्रीमान इसमें आपको लघुकथा के सभी आवश्यक अवयव मिल जायेंगे। यह अपने आप में सम्पूर्ण है।”
“ट्रीन-ट्रीन......” तभी टेबल पर रखा सरकारी फोन खनखना उठा। फोन पर हुए वार्तालाप का मतलब आवेदक अच्छी तरह समझ चुका था।
“मैं समझा नहीं... जरा आप इसे विस्तार से समझायेंगे?”
विशेषज्ञ की बदली हुई मुख-मुद्रा को आवेदक ने परिलच्छित कर लिया था। “छोड़िये न सर.... ! विस्तार से कहने लगे तो वो लघुकथा ही क्या? तब तो यह दीर्घकथा हो जायेगी।”
इतना कहते हुए वह आवेदक गेट खोल बाहर निकल गया। वहां अभी भी प्रत्याशियों की भीड़ उमर रही थी।
(मूलकथा मैथिली में “अहींकेँ कहै छी” में संकलित ’लघुकथा’ से हिन्दी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित।)
आवेदक का गेट खोलकर बाहर निकलना इस बात का द्योतक है कि आवेदक स्वयं समझ गया कि विशेषज्ञ की आत्मा भी मर गयी थी।लघु कथा अच्छी लगी।धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसटीक कथा ...हर जगह सिफारिश चलती है ...सब कुछ मर चुका है
जवाब देंहटाएंजब आत्मा मर जाती है तब कुछ नहीबचता…………बेहतरीन लघुकथा।
जवाब देंहटाएंbar div...
जवाब देंहटाएंsadar.
सटीक! लघुकथा के माध्यम से भ्रष्टाचार का चेहरा बेनकाब करने की कोशिश कामयाब रही.
जवाब देंहटाएंगंभीर लघुकथा...
जवाब देंहटाएंव्यंग अच्छा है, मज़ा आया|
जवाब देंहटाएंइस लघु कथा ने बहुत कुछ कह दिया !
जवाब देंहटाएंमूल कथा के लेखक सत्येन्द्र झा के साथ साथ अनुवादक केशव कर्ण भी बधाई के पात्र हैं ! कहानी का भाव पूरी तरह संप्रेषित हो रहा है !
आभार !
अच्छे कटाक्ष के साथ सटीक लघुकथा.
जवाब देंहटाएंwah.....iske alawa kuch nahin.
जवाब देंहटाएंगागर में सागर .
जवाब देंहटाएंविलक्षण कथा।
जवाब देंहटाएंबहुत कम शब्दों में सार्थक बात रखने में महारत हासिल है सत्येन्द्र झा जी को।
जवाब देंहटाएंएक और सशक्त लघुकथा।
वाह एक ही शव्द मे पोल खोल दी, फ़िर फ़ोन ने रही सही कसर पुरी कर दी
जवाब देंहटाएंलघुकथा ने तो सोचने को बाध्य कर दिया!
जवाब देंहटाएंहकीकत भी और व्यंग्य भी है!
प्रभावी लघुकथा...
जवाब देंहटाएंव्यंग्य अच्छा है।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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