देसिल बयना – 75 : मार के डर से भूत पराय
शहर-बजार में जादे ऐश-आराम है। शौक-मौज भी पूरा है। रुपैय्या-पैसा भी झमाझम बरसता है। मगर गाँव-घर का अपना अलगे सौरभ है। आगरा का ताजमहल और हावड़ा का पूल सब-कोई जानता है मगर गाँव का मुँहबंधा मोर तो गँवारे जानेगा। ई मत बुझिये कि गाँव-घर में शहर-बजार से कम खेल-तमाशा होता है।
हमरे पड़ोसी बेचारे बूढ़े बुद्धन भैय्या और छिमरी भौजी का तमाशा तो एक दिन बीच करके चलता ही रहता था, “लटकन लाय दे बालम करवी बिकाय”।‘’ ला दिये तो ठीक नहीं तो देख तमाशा जोरू का... ऐसा तमाशा कि बम्बैया कलाकार भी शरमा जाये।
तमाशा करे में नछत्तरदास भी बेजोर था। किसी का भी स्वांग एकदम डिट्टो उतार देता था। भुचरुदास से घोड़ा उधार लेकर अगतपुर वाले सेठ चुल्हामन बाबू का तो ऐसन रूप धरा कि उनका हरकारा भी सलाम ठोकके चला गया था। राम-नवमी में हनुमानजी, शिवरात्री में नारद बाबा, और जनमाष्टमी में सुदामा का रूप धरके पूरा टोला से दक्षिणा-उगाही कर आता था। कित्ती जर-जनानी तो उके पैर की धूल माथा लगा लेती थी और जब पता चलता था कि उ नछतरा था तो दुन्नु हाथे माथा पीटती थी।
इधर जिलेबिया को भी नौटंकी का शौख चढ़ा था। उ जादे तर इस्कूल जाने में नौटंकी करता था। माय-बाप का एकलौता औलाद। कभी-कभी रुपैय्या-पैसा टानने के लिये भी ऐसा डिरेमा करता था कि पूछिये मत। चार चवन्नी से कम पर तो मानता ही नहीं था। एक बार मैय्या के गांठ से चवन्नी निकला तो फिर चम्पैय्या का चनाचूर और रामदिन का आलूकट...! जिलेबिया का डिरेमा हमलोगों को भी खूब भाता था।
उ दफ़े सलाना परीक्षा के टाइम पर ही बड़का ठाकुरवाड़ी पर रामलीला आ गया था। पदुमलाल गुरुजी सबको चेता दिये थे। “ खेल-तमाशा भूल के सबक पक्का करो। ई बार जौन फेल करेगा उसको मोगलीबांध बांध के घोरन के छत्ता झारेंगे।” बिलैंती बांस के दर्जन भर छौंकी भी बना रखे थे। जिलेबिया तो भर साल चनाचूर और आलूचप में रहता था। हमरे किलास में सबसे अधिक भय उसीको था। उपर से सब सहपाठी चिढा दिया था अलगे, ““जिलेबिया ! अबकी तो गुरुजी तोहरे हरेक मोर से रस निकाल देंगे।”” मगर उ भी हार माने वाला खिलाड़ी नहीं। बोला, “अच्छा...! चलो देख लेंगे।”
हफ़्ता दिन बीते जिलेबिया हमसे विचार-विमर्श कर रहा था। हम कहे, “उस्ताद तुम बुखार लगे का नाटक कर लो।” जिलेबिया कहिस, “लो कर दी अनारी वाली बात! अरे बुखार का नाटक तो कर लें मगर देह कैसे तपाएं? उ में तो बाबू-मैय्या जैसे ही सिर-हाथ टटोले कि राज ही खुल जाये।”
हमभी परामर्श देने से चूकते नहीं थे। बोले, “तो तुम पेट में दरद का नौटंकी कर लो।” उ कहिस, “तुम तो मिट्टी के महादेव हो। पेट दरद का बहाना कर के पाठशाला से तो बच जायें, मगर खाना-पीना भी तो नहीं मिलेगा...?” तो यह आइडिया भी कैंसिल हो गया।
अचानक जिलेबिया के आंखों में शैतानी चमक दौड़ गयी, “जुगाड़ मिल गया गुरु...! ई बार हम भूत लगे का नाटक कर लेंगे। अलर-बलर बकेंगे...! न बैदजी के पुरिया चलेगा ना गुरुजी की छ्ड़ी। बहुत हुआ तो बटेसर भगत भुइयां बाबा का नीर छिड़केगा और झिंगुर भगत कान में सतगुर-सतगुरु करके फ़ू-फ़ू करेगा। खाय-पीये और रामलीला देखे में भूत उतार देंगे और पाठशाला के टाइम पर फिर से भूत चढ़ा लेंगे। का बोलते हो... है ना सालिड नुस्खा ?”
हम भी उसके यकबुद्धि के आगे नतमस्तक हो गये। अगले दिन पाठशाला से आया और अनमना कर बिस्तर पर पसर गया। रात में महतारी खाना दी तो अल-बल बोलके खाया। सुबह बिस्तर से हिला ही नहीं। महतारी जबर्दस्ती जगाई। फिरतो पूरा टोला में हंगामा मच गया। सब जैसे-तैसे भागा जिलेबिया के घर तरफ़।
जिलेबिया दोनो आंखे मूंदे मुरी को कुम्हार के चकरी जैसा घुमा-घुमा के बक रहा था, “ए कलबतिया काकी.... ! काहे हमनी के मेला मा भुलवले....? हम ना जाइं अब तोहके छोड़के...!” आह...! जिलेबिया की महातारी की आँखों से लोर बह चले थे। बाबू स्थल पर से फ़गुनीराम और बटेसर भगत को बुला लाये थे।
फ़गुनी भूत बकाए में मास्टर था। सूखी मिर्च दू बार जिलेबिया के नाक में जैसे ही घुमाया उके गर्दन घुमाने का इस्पिड और दोगुना हो गया। अब तो मुरी को धरती में सटा-सटा के लगा घुमाये। मुँह से ’आं...आं...ऊं...ऊं...’ निकाले जा रहा था। फ़गुनीराम पूछा, “बोल... कहां से आई है ?” जिलेबिया आँख मूंदे हुए ही बोला, “बड़की पोखर वाला महुआ गाछ से।” अगिला सवाल, “किसने भेजा है...?” जिलेबिया खी-खी-खी-खी कर के खिसियानी हंसी हंसा और फ़गुनीराम का मुंह नोचने के लिये हाथ जैसे ही बढ़ाया कि उ मिर्ची आगे कर दिया। फिर जिलेबिया सकपका के बैठ गया।
फ़गुनीराम मिर्च को उके चारो तरफ़ घुमाके तलहथ पर रखके फ़टाक से मारा और बोला, “बोल ! छिनरी के.... कौन भेजा है तुमको ?” अचानक जिलेबिया हांफ़ने लगा, “कलवतिया.... कलवतिया काकी....!” अगिला सवाल, “काहे भीजी है?” “उ हमको नहीं बताई...!” “जायेगी इहां से?” “नहीं... हमें मत भगाओ...! महुआ गाछ पर हमें बहुत कष्ट होता है...। हमें इके साथ ही रहने दो...। हम कुछ ना बिगाड़ेंगे।”
बाप रे बाप ! जिलेबिया जो देह कुदा-कुदा कर बोल रहा था कि सबका रोयां सिहर गया। फिर बटेसर भगर मंतर पढके स्थलपर वाला पवित्र नीर छिड़के तो जिलेबिया गों-गें कर के आँख खोला...! ’उं...आंह... क्या हुआ...? इत्ती भीड़ काहे है ?’ उसकी महतारी उसे कलेजे से लिपटा ली थी।
धत तेरे की...! जिलेबिया के भूत झराई में पाठशाला का टाइम भी निकल गया। उपर से हमरे दिमाग पर बल पड़ रहा था। ई जिलेबिया नौटंकी ही कर रहा था कि सच्चे में भूत पकड़ लिया उको...? लगता तो था सच्चो का भूत है। खैर उ दिन तो उतर गया मगर अगिला दिन पाठशाला के टाइम में फिर भूत खेलाने लगा। फिर वही झार-फूंक। वही नौटंकी। ई सब दो-चार दिन चलता रहा।
पदुमलाल गुरुजी हमलोगों से रोज उका हाल समाचार लेते रहते थे। आश्चर्य से बोले, “तो उको पाठशाला के टाइम पर ही भूत पछाड़ता है?” झिगुनिया बोला था, “हां गुरुजी!” गुरुजी बोले, “अच्छा...! अब हम समझ गये... उको कौन भूत लगा है? ई बटेसर बबाजी और झिंगुर भगत से नहीं भागेगा...! ई भूत का इलाज हमरे पास है। कल हम आते हैं, भूत झाड़ने। फिर देखते हैं, भूत की नानी न भागे तो कहना...।”
अगले दिन बिलैंती बांस का पंचगिरही छड़ी डुलाते हुए गुरुजी पहुंच गये। फिर वही नाटक। फ़गुनीराम मिर्च सुंघा के भूत बका रहा था। बटेसर भगर अपना नीर लेके तैय्यार थे। झिंगुरदास भी मट्टी पढ़ रहा था। अचानक गुरुजी बोले, “रुको...! ई का भूत तुमलोगों से नहीं भागेगा...। चार दिन से तुमलोग रोज भगाते हो और ई जिद्दी भूतनी वापिस आ जाती है। इत्ता प्यार-दुलार करोगे तो कौन जाना चाहेगा...? मेहमानी से कहीं भूत भागा है? ई को भगाने का मंतर ई भूतहरण सिंघ में है।” गुरुजी अपने डंडा के तरफ़ इशारा करके बोले थे।
जिलेबिया थोड़ा सुगबुगाया फिर मुरी घुमाने लगा। गुरुजी पूछे, “किसका भूत है?” जिलेबिया बोला, “बंठी तेलिन का।” “इहां काहे आयी है?” “इसको खाने।” “जाएगी कब?” “इसको खाके।” “अभी जाना होगा।” “तुमको भी ले जायेंगे।” बाप रे बाप दोनो का वार्तालाप तो ऐसे चल रहा था जैसे सुल्ताना डाकू नाटक में सुल्ताना और पुलिस का डायलाग हो।
गुरुजी छड़ी दिखा के बोले, “चुप-चाप जहां से आये हो वहीं चले जाओ। नतो ई भूतहरण सिंघ रस्ता दिखा देंगे।” जिलेबिया गुरुजी पर भी घोंघिआया था। हमको तो शक हो गया कि कहीं इसे सच्चो का भूत तो नहीं लग गया। मगर गुरुजी बोले, “तीन गिनते हैं। आराम से अपना रस्ता पकड़ लो... नहीं तो जय बजरंगबली...!” जिलेबिया फिर से घोंघिआया.... “ओं...ओं....!”
गुरुजी भी पक्का खिलाड़ी थे। एक... दो... तीन... तेरे भूत की ! और लगे छ्ड़ी चलाने। चार छड़ी में ही जिलेबिया को पूरा होश आ गया। “गुरुजी हम जिलेबिया हैं गुरुजी...। भूत भाग गया गुरुजी...।” तब तक दु-चार सोंटा और पड़ गया। बेचारा जिलेबिया देह-हाथ सहलाने लगा। चारों तरफ़ गुरुजी की जय-जयकार हो गया। गुरुजी तो बहुत गुणी आदमी हैं। जौन भूत बटेसर और झिंगुर से हफ़्ता भर में नहीं भागा उको भी गुरुजी मिनट में चलता कर दिये।
हमरे बाबूजी गुरुजी से पूछे, “गुरुजी ! आप कब से भूत का मंतर सीखे...?” “अरे काहे का मंतर...? ई है न सबसे बड़ा जंतर।” अपनी पंचगिरही छड़ी को सगर्व निहारते हुए बोले, “जंतर-मंतर से तो उ मेहमानी डटा रहा था मगर देखे मार के डर से कैसे भागा दूम दबा के...।”
बाबूजी बोले, “धन्य हैं गुरुजी आप और धन्य है आपकी छ्ड़ी... चेला तो चेला आपके मार के डर से तो भूत भी पराय...!” गुरुजी बोले, “और नहीं तो का... ’सठे-साठयं’ ठोस समाधान हो तो कैसन-कैसन मुश्किल का भूत उतर जाय।”
bahut manoranjak sansmaran hai . dhanyawaad.
जवाब देंहटाएंमार पड़े तो भूत भी, भागे पूँछ दबाय,
जवाब देंहटाएंभ्रष्टाचार के लिए भी, होता कोई उपाय !
होता कोई उपाय,देश आकाश को छूता ,
करन समस्तीपुरी हैं अदभुत शब्द-प्रणेता !
देसिल बयना का हर अंक अदभुत होता है ! नए कथानक के साथ गाँव की खुशबू इसे और भी रोचक बना देती है ! पात्रों के नाम के साथ परिवेश ,शिल्प और भाव ऐसे जुड़ जाते है मानो हम सारा दृश्य स्वयं देख रहें हों !
करन जी, आपकी कलम साहित्य और समाज की धरोहर है !
शुभकामनाएँ !
वाह ,क्या दृष्यांकन किया है ,
जवाब देंहटाएंआनन्द आ गया !
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (7-4-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
किस्सा मज़ेदार है. भूत पर मैं विश्वास नहीं करता..
जवाब देंहटाएंmarik dareh bhoot par-aa.....
जवाब देंहटाएंbar div katha.......shaili khoob manoranjak.......
pranam.
’सठे-साठयं’ ठोस समाधान हो तो कैसन-कैसन मुश्किल का भूत उतर जाय।...
जवाब देंहटाएंरोचक...बहुत रोचक...
BAHUT HI ROCHAK POST.
जवाब देंहटाएंई जो लास्ट तक सस्पें बनाके रखने का आर्ट है ना आपके पास करन बाबू , ओही बड़ा कटास है.. पढ़ते जाइए अऊर बाइस्कोप जैसा सिनेमा का सीन पार होते जाता है. लास्ट में लाके जब आप कहानी पटकते हैं तब पढ़े वाला का माथा खुल जाता है एदम!! असली मंतर सिखाये हैं आज.. वैसे डिरेमा हमहूँ केतना किये हैं, मगर अच्छा हुआ बता दिए, भूत धरे का रोल करे से पाहिले हैमलेट पहिन लेंगे माथा पर!!
जवाब देंहटाएंrochak prasang kee rochak prastuti......
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर आलेख!
जवाब देंहटाएंबधाई!
आनन्द आ गया पढ़कर!
करन जी आप नया रंग और स्वाद है आपकी बयना में . मिरचाई देख के तो हमको गाव याद आ गया जब चुडा दही पर मिरचाई खाते थे.. गज़ब कम्बिनेसन था वह .. लिखियेगा कभी चुडा दही पर भी.. रेवाखंड की चर्चा इसके बिन अधूरी रहेगी...
जवाब देंहटाएंआपके देशिल बयना के बारे में कुछ कहना समय बर्बाद करना है।इसका हमें बेसब्री से इंतजार रहता है।
जवाब देंहटाएंलगे रहो करन भाई।
सभी पाठकों को उत्साहवर्धन हेतु कोटिशः आभार!
जवाब देंहटाएंरोचक..मज़ेदार ..आनन्द आ गया
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