रविवार, 17 अप्रैल 2011

भारतीय काव्यशास्त्र-62 : अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि

भारतीय काव्यशास्त्र-62

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में शब्दशक्त्युत्थ ध्वनि पर प्रकाश डाला गया था। इस अंक मे अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि पर चर्चा की जाएगी।

जब शब्द के बदले उसका पर्यायवाची शब्द प्रयोग करने का बाद भी ध्वनि का अस्तित्व यथावत बना रहे तो वहाँ अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि होती है या उसे अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि कहते हैं अथवा जहाँ अर्थ के कारण ध्वन्यार्थ की अभिव्यक्ति हो, उसे अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि कहते हैं। इसके विषय में पिछले अंक में बताया जा चुका है कि अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि के तीन भेद के कुल बारह भेद होते हैं। सर्वप्रथम इसके निम्नलिखित तीन भेद होते हैं-

  1. स्वतःसम्भवी, 2. कविप्रौढोक्तिसिद्ध और 3. कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्ध।

जो केवल कवि के कथन मात्र से ही नहीं सिद्ध होता, अपितु लोक में पाया जाता है, उसे स्वतःसम्भवी अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि कहते हैं। परन्तु जो केवल कवि के प्रौढ़ उक्ति से सिद्ध हो और संसार में न पाया जाता हो, उसे कविप्रौढ़ोक्तिसिद्ध अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि कहते हैं। जहाँ कवि द्वारा निबद्ध, किन्तु वक्ता की प्रौढ़ उक्ति (प्रतिभा) द्वारा सिद्ध हो, उसे कविनिबद्धवक्तृप्रौढ़ोक्ति अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि कहते हैं।

पुनः इन तीनों के क्रमशः निम्नलिखित चार-चार भेद होते हैं-

  1. वस्तु से वस्तु व्यंग्य, 2. वस्तु से अलंकार व्यंग्य, 3. अलंकार से वस्तु व्यंग्य,

4. अलंकार से अलंकार व्यंग्य।

जहाँ कविता में स्वतःसम्भवी अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि के अन्तर्गत अर्थ में वस्तु से वस्तु ध्वनित हो, वहाँ वस्तु से वस्तु ध्वनि माना जाता है, जैसे-

अलसशिरोमणि धुत्ताणं अग्गिमो पुत्ति धणसमितिद्धमओ।

इअ भणिएण पअंगी पप्फुल्लविलोअणा जाआ॥

(अलसशिरोमणिर्धूर्तानामग्रिम: पुत्रि धनसमृध्दिमय:

इति भणितेन नतांगी प्रफुल्लविलोचना जाता ॥ इति संस्कृतम्)

अर्थात् हे पुत्री, तुम्हारा प्रस्तावित पति बड़ा ही आलसी और धूर्तों शिरोमणि है, परन्तु धन-धान्य से समृद्ध है। यह सुनकर उस नतांगी का मन प्रसन्नता से खिल उठा।

यहाँ आलसी होने के कारण घर से नहीं जाएगा, सदा साथ रहने का अवसर मिलेगा यह व्यंग्य है और दूसरा व्यंग्य है कि धूर्त होने के कारण कम से कम मूर्ख या साधु नहीं होगा एवं विभिन्न कलाओं को जानता होगा, अतएव सहवास में आनन्द आएगा। इस प्रकार यहाँ वस्तु से वस्तु ध्वनि है।

इसी प्रकार वस्तु से अलंकार ध्वनि का उदाहरण नीचे दिया जा रहा है। इसमें अपने-अपने रति की आलोचना करनेवाली स्त्रियों में से किसी एक द्वारा किए गए कथन का वर्णन है-

धन्याSसि या कथयसि प्रियसंगमेSपि

विस्त्रब्धचाटुकशतानि रतान्तरेषु।

नीवीं प्रति प्रणिहिते तु करे प्रियेण

सख्य:! शपामि यदि किञ्चिदपि स्मरामि॥

अर्थात् हे सखि, तुम धन्य हो जो अपने प्रियतम के साथ समागम के समय भी चापलूसी भरी बातें कर लेती हो, मैं सौगन्ध खाकर कहती हूँ कि मुझे तो अपने प्रिय का हाथ नारे की ओर बढ़ते कुछ भी याद नहीं रहता।

यहाँ मैं तुमसे अधिक धन्य हूँ यह ध्वनि है। चूँकि इसमें अपने को दूसरी स्त्री से बढ़कर अधिक बताया गया है, इसलिए यहाँ व्यतिरेक अलंकार व्यंग्य है।

अब अलंकार से वस्तु का उदाहरण लेते हैं-

दर्पान्धगन्धगजकुम्भकपाटकूट-

संक्रान्तिनिघ्नघनशोणितशोणशोचि:।

वीरैर्व्यलोकि युधि कोपकषायकान्ति:

कालीकटाक्ष इव यस्य करे कृपाण:

अर्थात् मदमत्त गन्ध-गजराज के कपाट सदृश विस्तृत घुसने के कारण अत्यधिक रक्त लगने से लाल रंग की आपके हाथ की तलवार को वीरों ने काली के क्रोध से लाल हुए कटाक्ष की तरह देखा।

यहाँ (काली के कटाक्ष के समान) उपमालंकार से आपकी तलवार क्षणभर में समपूर्ण शत्रओं का विनाश कर देगी, यह वस्तुपरक व्यंजना है।

अब अर्थशक्त्युत्थ स्वतःसम्भवी ध्वनि के अलंकार से अलंकार ध्वनि का उदाहरण दिया जा रहा है-

गाढकान्तदशनक्षतव्यथासङ्कटादरिवधूजनस्य यः।

ओष्ठविद्रुमदलान्यमोचयत्रिर्दशन् युधि रुषा निजाधरम्।।

अर्थात् युद्ध भूमि में क्रोध के कारण अपने ओठ को चबाते हुए जिस राजा ने अपने शत्रुओं की स्त्रियों के विद्रुम-दल (लालरंग के मूँगों को उत्पन्न करने वाले वृक्ष के लाल पत्ते) सदृश लाल ओठों को अपने पतियों द्वारा जोर से काटे जाने के संकट से बचा लिया।

यहाँ अपने ओठ के काटने से दूसरों के ओठों को काटने के संकट से बचाना कहने से विरोधाभास अलंकार है और ओठ को चबाने के साथ ही शत्रुओं को मार गिराया इस कथन में तुल्ययोगिता अलंकार है। साथ ही अपना ओठ काटने की क्षति से शत्रओं की पत्नियों का ओठ काटने से रक्षा हो सके, राजा की इस प्रकार की बुद्धि उत्प्रेक्षित होने के कारण उत्प्रेक्षालंकार व्यंजित होता है। अतएव यहाँ विरोधाभास और तुल्ययोगिता अलंकारों से उत्प्रेक्षा अलंकार की व्यंजना है।

अगले अंक में कविप्रौढोक्तिसिद्ध अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि के भेदों पर विचार किया जाएगा।

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14 टिप्‍पणियां:

  1. कई बार हम अपने लेखन में ऐसे अलंकारों का उपयोग तो करते हैं लेकिन इसकी उत्पत्ति का ज्ञान नहीं था... आपके इस श्रंखला से ज्ञान वर्धन हो रहा है...

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  2. यह श्रृंखला काव्य मने रूचि रखने वालों के लिए महत्वपूर्ण है ...आपका आभार

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  3. हर बार कि तरह संग्रहनीय लेख. बहुत आभार.

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  4. वाह! बढ़िया जानकारी दी आपने... अच्छा प्रयास!

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  5. आज तो काव्यशास्त्र का पिटारा ही खोल दिया आपने!

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  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  7. तुल्ययोगिता अलंकार के बारे में पहली बार जाना.
    बहुत महत्वपूर्ण प्रस्तुति रहती है आपकी.

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  8. काव्यशास्त्र विषय पर किया गया आपका श्रम ब्लाग के लिए अमूल्य धरोहर है। इस महती कार्य के लिए आपको आभार,

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  9. बहुत सी जानकारियां मिली |
    ज्ञानवर्धक पोस्ट शुक्रिया दोस्त |

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  10. बहुत उपयोगी और संग्रहणीय पोस्ट. आभार.

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  11. इस अद्भुत साहित्य श्रंखला से ज्ञान वर्धन हो रहा है।

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  12. बहुत ही उपयोगी और ज्ञनवर्धक श्रृंखला।

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