-- करण समस्तीपुरी
’कान-कनैठी… उट्ठा-बैठी…. पीपल तर पंचायती…. बबुआ पीपल तर पंचायती!’…. आह…! रेवाखंड के पछियारी छोड़ पर जो ब्रह्म बाबा का तीनगछा पीपल है, उका भी बड़ा महात्तम है। गाँव-जवार का सारा पंचायती उहें होता है। लोग कहते हैं कि रेवाखंड के ब्रह्म बाबा एकदम जाग्रत हैं। उकी पीरी छूके कोई झूठ नहीं बोल सकता है। हलांकि ई परीक्षा तो आज तक नहीं हो सका कि ई बात-सच है कि झूठ…. काहे कि आज तक वहाँ कौनो नेता की पंचायती नहीं हुई। होती तब पता चल जाता कि ब्रह्म बाबा का पीरी छूकर झूठ बोले वाला का क्या हाल होता है। इहाँ तो सब दिन भोले-भाले गँवई लोगों की ही पँचायत होती रही। उ लोग तो बेचारे ब्रहामन-वैष्नव के सामने भी झूठ बोलने से डरते हैं तो साक्षात ब्रह्म बाबा के पीरी छूकर क्या झूठ बोलेंगे। इसीलिये ब्रह्म थान रेवाखंड में पंचायती केलिये फ़िक्स हो गया था। वैसे गाँव के सरपंच भी खानदानी ही थे। पछिला तीन पुश्त से सरपंची उन्ही के घर में था। पहिले भंगेरन चौधरी, फिर उनके सपूत लखेरन चौधरी और फिर गंजेरन चौधरी।
और जो भी हो मगर रेवाखंडी पंचायती के आगे बिहुला के नाच और सुल्ताना के डिरेमा भी फेल था। क्या रहेगा बम्बईया फ़िलिम…! स्वांग, संवाद, जिरह, रोना-धोना, सजा सब-कुछ। बुझिये कि तीन घंटा के पूरा पैकेज। गये शनिचर बेड़िया में बूटन सिंघ और लूटन सिंघ का पंचायती था। दोनो फ़रीक ही थे। पटीदारी झगरा बारहो बरिस से चला आ रहा था। दोनों यजमान हाय कोट पटना तक से लौट के पहुँचे थे पीपल तर। बिलैतिया हजाम दोपहरे से दरी-जाजिम बिछा के ओगरवाही (रखवाली) कर रहा था। हम, चौबनिया, पकौरी लाल, कटोरिया, झोंटैला, अजगैबी और पछियारी टोल के कुछ बच्चा-बुतरु सब वही दरी पर बानर जैसे गुलाटी भर रहे थे। कबहुँ उल्टा तो कबहुँ सीधा…!
कुछ देर में दोनो पाटी अपने-अपने गवाह-पहचान के साथ दरी पर आमने-सामने जगह छेक लिये। दोनो सिंघ भाई तो चुपे-चाप थे मगर और आदमी में खैनी-तम्बाकू होने लगा। दुपहरी गये सरपंच बाबू भी पहुँच गये। साथ में महँगी मिसिर, चुल्हामन लाल, रकटु मियाँ और गोंगा लठैत भी थे। मोहन सरपंच बाबू को देखते ही अपने गमछे से दरी झारने लगा। पहिले सबका कुशल-समाचार हुआ। फिर शुरु हुई कार्र्वाई।
बड़ी बेढब मामला था रे भाई। बूटन सिंघ पाँच भाई थे। सबसे बड़े घूटन सिंघ, फिर बूटन सिंघ, उठन सिंघ, बैठन सिंघ और जूठन सिंघ। घूटन सिंघ ब्रह्म्चारी रह गये थे मगर राज में आन-जान था। पूरा जवार उनका धाख मानता था। बूटन सिंघ अपने गिरहस्थ। उठन-बैठन दोनो पहलवान और जूठन सिंघ बहेलवा के तरह इधर-उधर घुमते रहता था।
बेचारा लूटन सिंघ एक अकेले और एक विधवा माय। पिता के अकाल मौत के बाद बूटन सिंघ सब भाई मिलके लगा उपद्रव करे। बूटन सिंघ ललकारे नहीं कि उठन-बैठन लूटन सिंघ को सोंट देता था। उपर से घूटन सिंघ का रोआब… कौन कहचरी-पंचायती बुलाए। बरकुर्वा और खिलहा का खेत तो जबरदस्ती जोत ही लिया था फिर भी आये दिन सोंटियल बजरता था। बेचारे लूटन सिंघ हारकर डीह छोड़ घरारी पर जा बसे। इधर डीह पर बूटन सिंघ कब्जा जमा लिये थे।
मगर कहते हैं न कि सब दिन होत न एक समान। घूटन सिंघ का देहांत का हुआ पुरा घरे ढनमना गया। उसी साल काली पूजा के कुश्ती में बनरसिया पहलवान सो धोबिया-पछाड़ मारा कि उठन सिंघ की कमर सदा के लिये बैठ गयी। बैठन सिंघ की लुगाई की बूटन सिंघ की बूढ़ी घरैतिन से कभी नहीं पटती थी। रोज-रोज के कांय-कट-कट से तंग आकर बैठन सिंघ भी रेवाखंड से उठकर ससुराली दोखदरी पर जा बैठे। जूठना कलकत्ता गया था कमाने मगर उहाँ कौनो बंगालिन के जादू में ऐसन गिरिफ़्तार हुआ कि तीन बरिस से न कौनो चिट्ठी-पत्री ना आन-जान। खेलावन साह का बेटा फ़गुआ में गाँव आया तो कह रहा था कि जूठन सिंघ को बराबर धरमतल्ला में देखते हैं।
इधर बूटन सिंघ का दिन लदता गया और उधर लूटन सिंघ के दिन फिरते गये। येह… कड़क्का जुआन हो गया था। खुरचन पहलवान और ढकरु लठैत से पक्की दोस्ती गांठ ली थी। दोनो लूटन का द्वार ही अगोरे रहते थे। चौमास चल रहा था। एक दिन लूटन सिंघ भोरे उठे और बरकुर्वा में हल चला दिये। बूटन सिंघ रोकने तो जरूर आये मगर बैल वाला सोंटा ऐसा लगा कि बेचारे गलियाते हुए भागे। अगले हफ़्ते लूटन सिंघ खिलहा भी जोत लिये थे। इस बार बूटन सिंघ खेत पर तो नहीं गये मगर सुना था कि घरे से धमकी दिये थे। और तो और परवत्ता वाला डेढ़ बीघा गैर-मोजरुआ जमीन जो अब तक बूटन सिंघ के परिवार के जिम्मे था उस पर भी लूटन सिंघ का झंडी गड़ा गया।
पुत्र-शोक बर्दाश्त हो जाता है मगर धन-शोक नहीं। बूटन सिंघ की घरैतिन (पत्नी) उसी दिन के बाद से बिछावन पकड़ ली। एक दुपहरिया में लूटन सिंघ खुरचन और ढकरु के साथ पुरनका डीह पर आया और बूटन सिंघ की बंगली उजार कर अपना बांस-बल्ली लगा दिये। बूटन सिंघ थे तो घरे में, लेकिन निकले नहीं। ठीके किये। रात भर लूटन सिंघ की मंडली ढोल पीट-पीट के चौमासा गाया था। भोर भये बूटन सिंघ दूसरे पड़ोसियों को सुबक-सुबक कर पुकार रहे थे। ओह… बेचारी सिंघाइन ई मौगत बर्दाश्त नहीं कर सकी। उनके प्राण-पखेरु उड़ गये थे।
सिंघाइन के जाने के बाद बूटन सिंघ अलख-निरंजन हो गये थे। चलित्तर साह के चूरा-दालमोट और रामदयाल के चाय पर ही हफ़्ता के हफ़्ता काट देते थे। कहीं भोज-भात हो तभी सिद्ध दाना नसीब होता था। जे न मित्र दु:ख होहि दुखारी….! मिसरी पाठक की हमदर्दी कुछ बढ़ गयी थी। इधर यजमानी के नैवेद में से बूटन सिंघ का हिस्सा भी लगा देते थे। पाठकजी सच्चे हितैषी थे। खरमास खतम होते ही बूटन सिंघ को लेकर शहर पुरैनिया निकले थे। हफ़्ता भर बाद बूटन सिंघ रिक्शा पर गाँव लौटे थे… ! मगर आहि रे बाप….! गये थे मिसरी पाठक के साथ मगर रिक्शा पर ई जनानी कौन बैठी है…? कहीं पाठकजी पर कमरु-कमख्या का जादू-वादू तो नहीं करवा दिये….! सब लोग दौड़ा अचरज देखे। बूटन सिंघ का रिक्शा बढता गया डीह के तरफ़। अरे तोरी के…पाछे से पाठकजी भी तेजकदम झटकते आ रहे हैं….! भीड़ उन्हे ही घेर लिया। पाठकजी संक्षेप में सब कथा बता्ये। भीड़ की आँखें चौरी हो गयी, “आहि रे दैय्या… ई बुटना की नयी लुगाई है!”
बूटन सिंघ अपनी गिरहस्ती फिर से बसाने में लगे थे। उधर लूटन सिंघ धीरे-धीरे कीमती जमीन सब हथियाये जा रहा था। लचार बूटन सिंघ नयी जोरू के सामने बेजार होने से बच रहे थे। और कोई चारा भी नहीं था। लूटन सिंघ फिर से अपना बोरिया-बिस्तर डीह पर ही ले आये थे। दरवाजे पर जोरा बैल और सिम्पनी गाड़ी भी बांध लिया था। इधर जितना ही रमन-चमन था उधर उतनी ही लाचारी। अभावग्रस्त अधवयस बूटन सिंघ और शहर पुरैनिया की नयी लुगाई… रोज अट्ठा-बज्जर होने लगा। एक दिन सांझ को बूटन सिंघ मंगल पेठिया से लौटे तो घर सूना मिला। बड़ी देर तक बाहर बैठ के इंतिजार किये थे। हर आने-जाने वाली से पूछे मगर कौनो सुराग नहीं मिला। बेचारे सिंघजी रात भर सो नहीं सके। भरे रात दलान में बैठे अंगोछे से मच्छर भगाते रहे। अगले दिन पूरे गाँव में गुल-गुल हो रहा था। बूटन सिंघ सांझ में कंजरी कहारिन से बात कर रहे थे। वो लूटन सिंघ के दलान के तरह इशारा करके कुछ फुसफुसा रही थी। कंजरी की आँख-मुँह, भौंह सबकुछ चमक रहा था। बेचारे बूटन सिंघ डबडबाई आँखों को गमछी के कोर से पोछ रहे थे।
सारी बातें सुनने के बाद सरपंच बाबू लूटन सिंघ की ओर मुखातिब हुए। लूटन सिंघ बोले, “सरपंच बाबू, जमीन हमने सिरिफ़ वही जोता है जो हमरे हिस्से का था। बरकुर्वा और खिलहा इन्होने जबर्दश्ती हथिया लिया था। परवत्ता और कोठा वला गैर-मोजरुआ पर इत्ता दिन से यही कब्जा जमाए थे। आखिर हम भी तो उसी खानदान से हैं। हमें भी तो हिस्सा मिलना चाहिये। जब इनकी बांह में जोर था तो ये जोते। अब हमारा जोर है हम जोत रहे हैं। है हिम्मत तो लेके दिखायें। रही बात इनके जोरू की… तो हम उको डोली फ़ना के नहीं लाये हैं। वो खुदहि हमरे द्वार पर आ गयी। अब कुछो है… मगर है तो हमरे खानदान की औरत। हम धक्का देके तो नहीं निकाल सकते हैं न। और न ही इनका जोर-अजमाईश चलने देंगे। हाँ, अगर उको इच्छा हो तो कहीं जाए। हम नहीं रोकेंगे।”
फिर पंचायत ने पुरैनिया वाली को तलब किया। उंहु…. ई शहर पुरैनिया की औरत है। टकाटक जवाब दे रही है, “कुछो हो जाये, हम लूटन सिंघ को छोड़कर नहीं जाएंगे। ई बेइमान पठकवा हमें किसी और का फोटु दिखाया था। कहिस कि ई बुढौ लड़के का काका है। और इहाँ आके…. हाय राम…..!” अहि तोरी के… इ का पुरैनिया वाली तो एं-एं कर के रोने भी लगी। उधर लूटन सिंघ की आंखों में रोष था। यही सब वजह से तो हमें पंचायती में बिहुला के नाच से भी ज्यादे मजा आता है।
आखिर पंचो ने आपस में सलाह मशवरे के बाद फ़ैसला सुनाया, “चूकि जो जमीन लूटन सिंघ जोत रहे हैं उसपर बूटन सिंघ के परिवार का कानूनन अधिकार कभी भी नहीं रहा है। जिसका जोर चला उ जमीन जोत लिया। इसमें पंचायत कुछ नहीं कर सकती। रही बात बूटन सिंघ की जोरू की। तो उसके शादी-बियाह का भी कौनो परमाण है नहीं….! मूल-मोकाम भी पता नहीं। चार महीना बूटन सिंघ के घर में रही। वो भी बालिग है। अपनी मर्जी से गयी है। इसीलिये पंचायत ई में लूटन सिंघ का कौनो दोष नहीं देखती है। साथ ही बूटन सिंघ को यह सलाह देती है कि जौन हुआ उको होनी समझ कर कबूल कर लें। आखिर ईसब के पीछे शुरुआत तो उन्हीं का है।”
लूटन सिंघ मूँछ पर ताव देने लगे तो बूटन सिंघ महँगी मिसिर के आगे गिरगिरा पड़े, “पंडीजी ! आप तो शास्त्र-पुराण बांचते हैं। आपही कहिये ई कहाँ का न्याय हुआ?” पंडीजी तम्बाकू पर चाटी देते हुए बोले, “अब का कीजियेगा बूटन बाबू! ई तो सब दिने से चला आ रहा है। ’जोरू-जमीन जोर के ! जोर घटे किसी और के !!’ रमैण में भी परमाण है। किष्किन्हा के राजा सुगरीब था। मगर उससे ज्यादे बलबान बाली लौटा तो राज भी छीन लिया और लुगाई भी। ई तो तभिये से चला आ रहा है। आपके पास अपनी संपत्ति याकि जिम्मेदारियों को संभालने की कूवत है तो ठीक है नहीं तो जिसमें कूवत होगी वह ले जायेगा।” पंडीजी एक चुटकी खैनी बूटन मिसिर की हथेली पर रखकर आगे बढ़ गये। उधर लूटन सिंघ पुरैनिया वाली के साथ आगे चल रहे थे और पीछे से खुरचन पहलवान और ढकरु लठैत।
बेचारे बूटन सिंघ डबडबाती आंखों से एक बार पुरैनिया वाली को और एक बार हथेली पर पड़ी चुटकी भर खैनी को देखते रहे। बहुत रोकने पड़ भी आंसू ढलक ही पड़े। होंठ बुदबुदा कर रह गये, “जोरू जमीन जोर के ! जोर घटे किसी और के !!”
वहा वहा क्या कहे आपके हर शब्द के बारे में जितनी आपकी तारीफ की जाये उतनी कम होगी
जवाब देंहटाएंआप मेरे ब्लॉग पे पधारे इस के लिए बहुत बहुत धन्यवाद अपने अपना कीमती वक़्त मेरे लिए निकला इस के लिए आपको बहुत बहुत धन्वाद देना चाहुगा में आपको
बस शिकायत है तो १ की आप अभी तक मेरे ब्लॉग में सम्लित नहीं हुए और नहीं आपका मुझे सहयोग प्राप्त हुआ है जिसका मैं हक दर था
अब मैं आशा करता हु की आगे मुझे आप शिकायत का मोका नहीं देगे
आपका मित्र दिनेश पारीक
Bahut khoob..bahut badhiya
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक.
जवाब देंहटाएंकेशव जी देसिल बयना मिथिलांचल की लोक संस्कृति से परिचय का सबसे जीवंत माध्यम होगा.... आपकी रचना एक डाक्युमेंटरी की तरह लगती है, शब्दों से ऐसा चित्र खींचना बहुत कम हो रहा है आंचलिक साहित्य में... बहुत बढ़िया...
जवाब देंहटाएंकेशव जी देसिल बयना मिथिलांचल की लोक संस्कृति से परिचय का सबसे जीवंत माध्यम होगा.... आपकी रचना एक डाक्युमेंटरी की तरह लगती है, शब्दों से ऐसा चित्र खींचना बहुत कम हो रहा है आंचलिक साहित्य में... बहुत बढ़िया...
केशव जी देसिल बयना मिथिलांचल की लोक संस्कृति से परिचय का सबसे जीवंत माध्यम होगा.... आपकी रचना एक डाक्युमेंटरी की तरह लगती है, शब्दों से ऐसा चित्र खींचना बहुत कम हो रहा है आंचलिक साहित्य में... बहुत बढ़िया...
एक दम मस्त पोस्ट! सब कथानक एक दम चित्र का माफ़िक आंख के सामने से गुज़रने लगता है और आंचलिक लक्षण साकार हो जाता है।
जवाब देंहटाएंआपके 'देशिल बयना" का भैया कवनों जबाव नईखे। एकदम पिक्चर के माफिक सब कुछ सामने आते रहता है।पात्र लोगन के नाम अउर परिवेश का वर्णन आंचलिकता का सामीप्य-बोध बरबस ही करा देता है।बबुआ हमार सुझाव बा कि इ सब देशिल बयना का संकलन करीके आपन मनोज जी से मिलिए,(अरे भाई उ "मनोज" जी जवन कुछ दिन पहीले "जानकी बाबा" का इंटरव्यू लिए थे)अउर इस पर एक किताब छपवा ही डालिए।धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंदेसिल बयना का जवाब नाहीं।
जवाब देंहटाएं---------
देखिए ब्लॉग समीक्षा की बारहवीं कड़ी।
अंधविश्वासी आज भी रत्नों की अंगूठी पहनते हैं।
उकी पीरी छूके कोई झूठ नहीं बोल सकता है।
जवाब देंहटाएंअरे बाबा यह पीरी को दिल्ली भेज दो थोडे दिन के वास्ते, इंहा सब सच्चे बने फ़िरते हे..मनमोहना से ले कर शीला तक, सब की आजमाईश हो जाये
jeevant chitran hai...
जवाब देंहटाएंbehatreen prastuti sadaiv kee bhanti...
देसिल बयना का जवाब नाहीं। धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंअब तो बुझाता है कि बुध का दिन तबले सुद्ध नहीं होता है जबले देसिल बयना ना पढ़ लें.. सोने चले गए थे तो अचानके याद आया. भागे भागे आए हैं अउर लिख रहे हैं.. भरसक आपका खिस्सा कहने का कला से अमित जी पर्भाबित हो गए थे.. बुझाता है कोनों सिनेमा का रील दनादन पास हो रहा है सामने से.. २३ रील का सिनेमा देखला के बादो लगता है कि १३हे रील में लपेट दिए हैं आप.. जीते रहिये करन बाबू!!
जवाब देंहटाएंअरुण चन्द्र राय ने बड़ी ही सटीक टिप्पणी की है। बिलकुल रनिंग कमेंट्री की तरह देसिल बयना लग रहा है।
जवाब देंहटाएंफकरा तो सही बना है और खिस्सा भी उसको सार्थक कर रहा है...पर मन बोझिल हो हगाया और मानाने लगा की ऐसा न हो तो कितना अच्छा हो ...
जवाब देंहटाएंताज़गी और रोचकता से भरा !
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