सोमवार, 22 सितंबर 2025

349. तीसरा गोलमेज सम्मेलन

राष्ट्रीय आन्दोलन

349. तीसरा गोलमेज सम्मेलन


1932

तीसरे और अंतिम गोलमेज सम्मेलन का आयोजन 17 नवम्बर 1932 से 24 दिसम्बर 1932 तक लंदन में किया गया। उस समय इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड था और भारत का सचिव सेमुअल होर। भारत का वायसराय लॉर्ड विलिंगडन था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इसका बहिष्कार किया। कांग्रेस का मानना था कि सरकार ने जो दृष्टिकोण अपनाया है उसके कारण सम्मेलन में शामिल होने से किसी सार्थक उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती। अधिकांश अन्य भारतीय नेताओं ने भी इसे अनदेखा ही किया। ब्रिटेन की लेबर पार्टी ने भी इसमें भाग नहीं लिया।

इस सम्मेलन में केवल 46 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। ये मुख्यत: प्रतिक्रियावादी तत्त्व एवं ब्रिटिश राज भक्त थे। देशी राजाओं ने दिल्ली में एक बैठक कर यह निर्णय लिया कि उन्हें भारतीय संघ में शामिल होना तभी स्वीकार्य होगा यदि अँग्रेज़ सरकार आंतरिक स्वायत्तता और राज्यों की सार्वभौमिकता का आश्वासन दे। सम्मेलन में देशी राज्यों का संघ में विलय के प्रारूप पर चर्चा की गई। रजवाड़ों की तरफ से विधान मंडल में 125 सीटों की मांग रखी गई। भारतीय नेता केवल 80 सीट देना चाहते थे। नरेशों की तरफ से यह भी मांग रखी गयी कि विधान मंडल में राजाओं द्वारा मनोनीत प्रतिनिधि रहें, जबकि भारतीय नेताओं द्वारा कहा गया कि जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों को ही मान्यता दी जाए। इस मुद्दे पर दोनों में मतभेद उग्र हो गया। इस मतभेद ने अंग्रेजों को मौक़ा दिया की वे विधान मंडल के प्रश्न पर विचार-विमर्श करना बंद कर दें। अब राजाओं ने अपने पैतरे बदल लिए। वे ब्रिटिश नेताओं और सरकारी अधिकारियों के साथ मिलकर भारतीय नेताओं की आज़ादी हासिल करने के प्रयासों को विफल करने की योजना बनाने लगे। उन्हें अपनी मांगें मनवाने में असफलता मिली तो नरेश मंडल संघ को संदेह की दृष्टि से देखने लगे थे। अंतत: सम्मेलन की असफलता के पीछे भारतीय राजाओं का सबसे बड़ा योगदान था। इस सम्मेलन में भारतीयों के मूल अधिकारों की मांग की गयी। साथ ही वायसराय के अधिकारों को सीमित करने का सुझाव दिया गया। सरकार ने इन सुझावों को ठुकरा दिया। फलतः यह सम्मेलन भी विफल रहा।

गोलमेज सम्मेलन में संवैधानिक प्रश्नों का हल ढूंढ़ने का नाटक किया गया। सरकार की कथनी और करनी में र्क स्पष्ट था। सुधारों की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। सम्मेलन के विचार-विमर्श से जो एकमात्र प्रगति हुई वह यह थी कि कुछ अतिरिक्त सुधारों के साथ सरकार ने भारतीय विधेयक पास करने का फैसला लिया। इस विधेयक में केंद्र में संघीय शासन और प्रान्तों को पहले से अधिक स्वायत्तता देने का प्रस्ताव था।

वर्ग विशेष के हितों और सरकारी फूट डालो और राज करो नीतियों के चलते तीनों ही सम्मेलन विफल रहे। इन सम्मेलनों की विफलता के साथ-साथ साप्रंदायिकता का ज़हर देश में फैलता ही गया। संवैधानिक सुधारों के नाम पर तीनों गोलमेज सम्मेलन का नाटक ब्रिटिशों द्वारा पूर्व-रचित पटकथा के आधार पर खेला गया। भारतीय सदस्यों की एकता के अभाव का लाभ सरकार ने पूरी तरह से उठाया। तीनों ही गोल मेज सम्मेलनों से किसी भी तरह का कोई फ़ायदा किसी भी समूह को नहीं मिला।

***  ***  ***

मनोज कुमार

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

रविवार, 21 सितंबर 2025

348. सामाजिक स्तर पर अस्पृश्यता निवारण का काम

राष्ट्रीय आन्दोलन

348. सामाजिक स्तर पर अस्पृश्यता निवारण का काम


1932

1932 की अंतिम तिमाही में सविनय अवज्ञा आंदोलन धीमी गति से जारी रहा। गांधीजी अभी भी यरवदा जेल में थे। सरकार के अनुसार गांधीजी को सविनय अवज्ञा के कारण जेल में रखा गया था, जो उनका घोषित कार्यक्रम था। गांधीजी का मानना ​​था कि जेल एक कैदी को अद्भुत लाभ प्रदान करती है। यह उसकी इच्छाशक्ति की परीक्षा लेती है, उसे पढ़ने और ध्यान करने का अवकाश प्रदान करती है, और उसे स्वयं के साथ अकेले रहने की स्वतंत्रता प्रदान करती है। यदि वह दीवारों पर ज़ोर से प्रहार करता, तो वे गिर जातीं। यदि वह ज़ोर से बोलता, तो उसकी बात सुनी जाती, और यदि वह प्रभावशाली ढंग से लिखता, तो वह एक ऐसी पुस्तक लिख सकता था जो दुनिया को हिला दे।

ऐसा देखा जाता है कि राजनीतिक जागरण आंदोलन प्रायः गुटवादी का स्वरूप धारण कर लेते थे। अंग्रेज़ सरकार, जो अब अकेली पड़ती जा रही थी, इस गुटवादी को भड़काने का प्रयास करती। इससे भारतीय एकता का संकट उत्पन्न होने लगता। पहले अंग्रेज़ों ने रजवाड़ों का इस हेतु इस्तेमाल किया। केन्द्र में जब उत्तरदायी सरकार देने की बात उठी, तो केन्द्रीय धारा सभा में रजवाड़ों की एक सशक्त टुकड़ी का नाम शामिल था। इसी तरह मुसलमानों में हिंदु आधिपत्य का भय उभारने का काम किया गया। और अब अंग्रेज़ों द्वारा डा. अंबेडकर के आंदोलन के माध्यम से जो अछूतों का क्षोभ उभर रहा था, उसे राष्ट्रवादियों की स्वाधीनता प्राप्ति के आंदोलन के विरुद्ध प्रयोग किया गया। ऐसा नहीं था कि राष्ट्रीय आंदोलन के नेता अंग्रेज़ों की इस ‘फूट डालो और राज करो नीति’ से अनभिज्ञ थे, लेकिन इसे विफल करने के उनके प्रयासों को उतनी सफलता नहीं मिली जितनी वे चाहते थे। गांधीजी ने अपनी आत्मा की पीड़ा को कई बयानों में व्यक्त किया, जिनमें सवर्ण हिंदुओं से अस्पृश्यता को समाप्त करने का आह्वान किया गया था। "मैंने यह अपील आपसे की है, जो मेरी आत्मा की पीड़ा से उपजी है। मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि आप उस पीड़ा और शर्म को मेरे साथ साझा करें और मेरा सहयोग करें।"

अस्पृश्यता के विरुद्ध संघर्ष लंबे समय से कांग्रेस के कार्यक्रम का हिस्सा रहा था, लेकिन एक स्वायत्त और स्थायी अस्पृश्यता-विरोधी आंदोलन की शुरुआत सांप्रदायिक पंचाट के विरुद्ध गांधीजी के उपवास से हुई। उपवास तोड़ने के बाद अपने बयान में गांधीजी ने ज़ोर देकर कहा था कि "यज्ञ की अग्नि" एक बार प्रज्वलित हो जाने के बाद, जलती रहनी चाहिए और सवर्ण हिंदुओं को सुधार कार्य को दोगुनी ऊर्जा के साथ जारी रखना चाहिए ताकि "सामाजिक और धार्मिक अक्षमताओं का पूर्ण उन्मूलन" हो सके, जिनसे अछूत कराह रहे थे। गांधीजी के उपवास ने जनचेतना को जगाया और जनता का ध्यान सामाजिक सुधारों की ओर आकर्षित किया। नवंबर में कांग्रेस कैदियों की संख्या 17,000 से घटकर दिसंबर में 14,000 हो जाने की व्याख्या करते हुए, सर सैमुअल होरे ने हाउस ऑफ कॉमन्स में कहा, "कई कांग्रेस कार्यकर्ताओं की रुचि श्री गांधी के अस्पृश्यता विरोधी अभियान की ओर मुड़ गई है।" पूना समझौता (गांधीजी डा. अंबेडकर समझौता) होने से दलितों के पृथक मतदान की व्यवस्था की अंग्रेजों की कुटिल चाल तो सफल नहीं हो सकी थी लेकिन इस समझौते के बाद भी गांधीजी के मन में यह तीव्र इच्छा थी कि हमारे समाज में कुछ जातियों के साथ बेहद क्रूर व्यवहार शीघ्रातिशीघ्र समाप्त होना चाहिये। गांधीजी ने हिन्दू समाज में जातियों के निचले पायदान पर रखे लोगों के साथ समानता का व्यवहार करने के लिए ही उन्हें हरिजन नाम दिया था।

हालांकि आंबेडकर के आंदोलन को कांग्रेस में आत्मसात नहीं किया जा सका, फिर भी गांधीजी अपना अधिकांश समय हरिजनों के बीच कार्य करने में लगाने लगे। महाराष्ट्र, मैसूर और तमिलनाडु में उन्हें काफी हद तक विभिन्न आंदोलनों के माध्यम से इसमें सफलता मिली। कल्याणकारी गतिविधियों के माध्यम से आदिवासियों का समर्थन प्राप्त करने के प्रयास किए गए। ‘वन सत्याग्रह’ तो सविनय अवज्ञा आंदोलन का एक अभिन्न हिस्सा बन गया।

‘महा-उपवास’ ने गांधीजी को एक मोटी, ऊँची दीवार को तोड़कर सामाजिक सुधार के विशाल उपेक्षित क्षेत्र में प्रवेश करने में सक्षम बनाया। पूना पैक्ट के द्वारा दलित जातियों के प्रतिनिधित्व की एक प्रकार की चुनाव-योजना के स्थान पर दूसरे प्रकार की चुनाव-योजना को स्वीकार किया गया था। छुआछूत को दूर करने और दुखी पददलित जातियों को ऊपर उठाने के आंदोलन को अद्भुत गति प्राप्त हुई। इस समस्या के राजनैतिक और संवैधानिक पक्ष से भी अधिक महत्त्वपूर्ण था इसका सामाजिक और भावनात्मक पक्ष। दलित वर्गों के प्रतिनिधित्व की नई चुनाव-योजना तो अगले चार साढ़े चार सालों तक क्रियान्वित नहीं हो सकी, लेकिन सामाजिक स्तर पर अस्पृश्यता निवारण का काम तुरंत शुरू हो गया। उपवास ने हिन्दू समाज का 'आत्मिक शुद्धिकरण' कर दिया था। उनके कई मित्र इस बात से नाखुश थे कि उन्होंने खुद को दलितों और किसानों के कल्याण कार्यों में 'भटकने' दिया। राजनेता चाहते थे कि वे राजनीतिक बनें। लेकिन गांधीजी के लिए गाँवों के लिए विटामिन ही सर्वोत्तम राजनीति थी और दलितों की खुशी ही स्वतंत्रता का महामार्ग थी।

30 सितंबर 1932 को मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में बंबई के कावसजी जहाँगीर हॉल में हिंदुओं की एक विशाल जनसभा हुई। सभा में एक प्रस्ताव पारित कर यह निर्णय लिया गया कि अस्पृश्यता के विरुद्ध प्रचार करने के लिए एक अखिल भारतीय अस्पृश्यता विरोधी लीग की स्थापना की जाए, जिसका मुख्यालय दिल्ली में हो और जिसकी शाखाएँ विभिन्न प्रांतीय केंद्रों में हों। इस उद्देश्य से निम्नलिखित कदम तुरंत उठाए जाने चाहिए: (क) सभी सार्वजनिक कुएँ, धर्मशालाएँ, सड़कें, स्कूल, श्मशान, श्मशान घाट आदि दलित वर्गों के लिए खुले घोषित किए जाएँ। (ख) सभी सार्वजनिक मंदिर दलित वर्गों के लिए खोले जाएँ। बैठक में जी.डी. बिड़ला को अध्यक्ष और अमृतलाल ठक्कर को लीग का महासचिव नियुक्त किया गया और उन्हें लीग को संगठित करने, लीग के उद्देश्यों की पूर्ति करने और इसके कार्यों के लिए धन संग्रह की व्यवस्था करने हेतु सभी आवश्यक कदम उठाने के लिए अधिकृत किया गया। दिसंबर 1932 से लीग का नाम, जिसके अध्यक्ष जी.डी. बिड़ला थे, बदलकर सर्वेंट्स ऑफ अनटचेबल्स सोसाइटी या हरिजन सेवक संघ कर दिया गया।

4 नवंबर, 1932 के अपने वक्तव्य में गांधीजी ने कहा था, "ईश्वर के आह्वान पर मैंने उपवास शुरू किया था, और यदि यह कभी शुरू होगा, तो ईश्वर के आह्वान पर ही इसे फिर से शुरू किया जाएगा। लेकिन जब यह शुरू किया गया था, तो निस्संदेह यह अस्पृश्यता को जड़ से मिटाने के लिए था। इसने जो रूप धारण किया, वह मेरा अपना निर्णय नहीं था। कैबिनेट के निर्णय ने मेरे जीवन के संकट को जन्म दिया, लेकिन मैं जानता था कि ब्रिटिश कैबिनेट के निर्णय को रद्द करना अंत की शुरुआत मात्र था।" उन्होंने आगे कहा था, "यदि उपवास करना ही पड़ा, तो वह उन लोगों को मजबूर करने के लिए नहीं होगा जो सुधार के विरोधी हैं, बल्कि इसका उद्देश्य उन लोगों को कार्रवाई के लिए उकसाना होगा जो मेरे साथी रहे हैं या जिन्होंने अस्पृश्यता निवारण के लिए प्रतिज्ञाएँ ली हैं। अंतर्मन की आवाज़ सुनकर उपवास पुनः शुरू किया जाएगा, और वह भी केवल तभी जब यरवदा संधि स्पष्ट रूप से भंग हो जाए, क्योंकि सवर्ण हिंदुओं ने उसकी शर्तों को लागू करने में आपराधिक लापरवाही बरती है। ऐसी उपेक्षा का अर्थ होगा हिंदू धर्म के साथ विश्वासघात। मैं इसका जीवित गवाह बने रहना नहीं चाहूँगा।"

गांधीजी ने सुधार करने वालों को आगाह किया: "मैं इस सुधार को, चाहे वह अपने आप में कितना भी वांछनीय क्यों न हो, एक अखिल भारतीय सुधार का हिस्सा बनाने की कभी कल्पना भी नहीं कर सकता, जिसकी लंबे समय से प्रतीक्षा है। अस्पृश्यता, जिस रूप में हम सभी इसे जानते हैं, हिंदू धर्म के मूल में ही एक नासूर है। भोजन और विवाह संबंधी प्रतिबंध हिंदू समाज को अवरुद्ध करते हैं। मुझे लगता है कि यह अंतर मौलिक है।" रूढ़िवादी हिंदू, जिनके लिए अस्पृश्यता हिंदू धर्म का सार थी, गांधी को एक धर्मत्यागी मानते थे। गांधीजी ने इसका जवाब दिया था, "मैं स्वयं को एक सनातनवादी होने का दावा करता हूँ। सनातनवादी की उनकी परिभाषा स्पष्ट रूप से मेरी परिभाषा से भिन्न है। मुझे खुद को हिंदू कहने में गर्व है, क्योंकि मुझे यह शब्द इतना व्यापक लगता है कि मैं न केवल सहन कर सकता हूँ, बल्कि दुनिया भर के पैगम्बरों की शिक्षाओं को आत्मसात भी कर सकता हूँ। मुझे इस जीवन-ग्रंथ में अस्पृश्यता का कोई आधार नहीं मिलता। इसके विपरीत, यह मुझे यह विश्वास करने के लिए बाध्य करता है कि सारा जीवन एक है और यह ईश्वर के माध्यम से है और उसे उसी के पास लौटना है। पूज्य माता द्वारा सिखाए गए सनातन धर्म के अनुसार, जीवन बाहरी कर्मकांडों और अनुष्ठानों में नहीं, बल्कि परम आंतरिक शुद्धि और स्वयं को, शरीर, आत्मा और मन को, दिव्य सार में विलीन करने में निहित है। मैं गीता के इस संदेश को अपने जीवन में समाहित करके लाखों लोगों के पास गया हूँ, और उन्होंने मेरी बात सुनी है, किसी राजनीतिक ज्ञान या वाक्पटुता के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि उन्होंने सहज रूप से मुझे अपने में से एक, अपने धर्म से संबंधित व्यक्ति के रूप में पहचाना है। जैसे-जैसे दिन बीतते गए, मेरा विश्वास और मजबूत होता गया और मुझे लगा कि सनातन धर्म से संबंधित होने का दावा करना गलत नहीं हो सकता, और यदि ईश्वर की इच्छा हुई, तो वह मुझे अपनी मृत्यु के साथ उस दावे पर मुहर लगाने देंगे।"

पूना समझौता का हवाला देते हुए उन्होंने घोषणा की, मैं अपने हरिजन मित्रों को (गांधीजी के ही शब्दों में, “मैं आगे से उन्हें इसी नाम से पुकारना चाहूँगा) को विश्वास दिलाता हूं कि इसके समुचित अनुपालन की ज़मानत के रूप में मेरे जीवन को बंधक रख सकते हैं। गांधीजी अभी जेल में ही थे। उन्होंने अपने आश्वासन को पूरा करने के व्यावहारिक उपायों पर अपना ध्यान केन्द्रीत किया। गांधीजी के एक जीवनी लेखक ने लिखा, इस प्रकार इतिहास में समाज सुधार के महानतम अभियानों में से एक का आरंभ एक राजबंदी ने किया। अधिकारियों ने उन्हें जेल से ही इस काम को चलाने की सुविधाएं प्रदान कीं। अधिकारियों को आशा थी कि इस प्रकार देश का ध्यान राजनीतिक आंदोलन से हटकर समाज सुधार में लग जाएगा। कांग्रेसी कार्यकर्ता हरिजन आंदोलन में लग गए। घनश्यामदास बिड़ला के सभापतित्व में हरिजनोद्धार के लिए एक अखिल भारतीय संगठन ‘हरिजन सेवक संघ’ बनाया गया और ठक्करबापा को उसका मंत्री बनाया गया। इस संघ का उद्देश्य क़ानून और व्यवहार दोनों में हिन्दू समाज से अस्पृश्यता का कलंक पूरी तरग से मिटा देना था। ‘हरिजन’ नाम से एक साप्ताहिक आरंभ किया गया और गांधीजी स्वयं इसके संपादक बने। साबरमती का आश्रम भी हरिजनों के कल्याण के लिए स्थापित हरिजन सेवक संघ को सौंप दिया गया।

यरवदा जेल में बैठकर, गांधीजी ने अछूतों के सेवक समाज के माध्यम से अपने अभियान का निर्देशन किया। गांधीजी ने आंतरिक सुधार के लिए एक व्यावहारिक कार्यक्रम तैयार किया: हरिजनों में स्वच्छता और आरोग्य को बढ़ावा देना; मैला ढोने और चमड़ा उतारने के बेहतर तरीके; यदि मांस नहीं तो सड़ा हुआ मांस और गोमांस का पूरी तरह से त्याग; मादक पेय पदार्थों का त्याग; माता-पिता को अपने बच्चों को दिन के स्कूलों में भेजने के लिए और स्वयं माता-पिता को रात्रि स्कूलों में भेजने के लिए प्रेरित करना; आपस में अस्पृश्यता का उन्मूलन।

छुआछूत हिन्दू समाज की इतनी पुरानी बीमारी थी और उसकी जड़ें इतनी गहरी थीं कि जनता की सदिच्छा चाहे जीतनी ही ईमानदारी भरी हो, मात्र उसके उद्गार से और जेल में गांधीजी को उपलब्ध सीमित साधनों से उनका उन्मूलन संभव नहीं था। लेकिन गांधीजी बेचैन थे। दूसरी ओर सरकार उन्हें एक सीमा से अधिक, असीमित सुविधाएं देने ओ तैयार नहीं थी क्योंकि वे बहरहाल एक कैदी थे और एक मुक्त व्यक्ति की अपेक्षा एक कैदी के रूप में अधिक दुर्जेय बन सकते थे।

दिसंबर में रत्नागिरी जेल में हुई एक घटना ने लोगों का ध्यान सामान्य मुद्दे से हटा दिया, जहाँ एक सवर्ण हिंदू, अप्पासाहेब पटवर्धन ने उपवास करना शुरू कर दिया क्योंकि उन्हें अपनी इच्छानुसार शौचालय साफ़ करने की अनुमति नहीं थी। गांधीजी ने सहानुभूति स्वरूप 3 दिसंबर को उपवास शुरू किया, लेकिन यह एक दिन से ज़्यादा नहीं चला, क्योंकि भारत सरकार ने प्रांतीय सरकारों से यह जानने का बीड़ा उठाया कि ऐसे मामले में जेल नियमों में किस हद तक बदलाव किया जा सकता है।

गांधीजी ने हिन्दुओं से अपने मस्तिष्क से ‘अस्पृश्यता को जड़-मूल समेत उखड फेंकने का आग्रह किया। कोई भी यह दावा नहीं कर सकता था कि अस्पृश्यता का यह पुराना रोग चुटकी बजाते ही दूर हो जाएगा। लेकिन कोई भी इससे इनकार नहीं कर सकता कि इस दिशा में एक प्रयास शुरू हो चुका था।

***  ***  ***

मनोज कुमार

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

शुक्रवार, 19 सितंबर 2025

347. साम्प्रदायिक पुरस्कार-3

राष्ट्रीय आन्दोलन

347. साम्प्रदायिक पुरस्कार-3


1932

डॉक्टरों को शुरू से ही उनकी जान को खतरा का आभास था। अब उनकी उम्र साठ से ज़्यादा हो चुकी थी, और 1924 में दिल्ली में इक्कीस दिन का उपवास किए हुए आठ साल बीत चुके थे। यह उपवास आज़ादी में, डॉक्टरों की एक टोली की मौजूदगी और दोस्तों की सांत्वना भरी मौजूदगी में किया गया था। सभी समाचार पत्र महात्मा गाँधी के गिरते स्वास्थ्य की दैनिक बुलेटिन से भर गए। 

मीरा बहन, वल्लभ भाई पटेल और मणि बेन ने जेल में उनसे मिलने का समय मांगा। मीरा बहन को अनुमति नहीं दी गई। गांधीजी ने अनशन आरंभ किया तो उनकी अवस्था तीसरे दिन तक बहुत बिगड़ गई। मीरा बहन ज़रूरत से ज़्यादा चिंतित होकर लगभग मूर्छित हो गई। सविनय अवज्ञा आंदोलन तो यों भी शिथिल होता जा रहा था और जब गांधीजी ने आमरण अनशन शुरू किया, तो राष्ट्र का ध्यान इस ओर से बंटकर उधर केन्द्रीत हो गया।

देश का सोया विवेक जागा

जिस चमत्कार की उम्मीद थी, वह पहले ही हो चुका था। गांधीजी ने स्वेच्छा से जिस अग्निपथ पर क़दम रखा था उसने हिन्दू समुदाय को ह्रदय को उद्वेलित कर दिया। उनके अनशन से देश का सोया विवेक जाग गया। करोडो लोगों ने जो कुछ कभी नहीं किया था वह किया और एकाएक महसूस किया कि वे भी छुआछूत की लानत के लिए दोषी हैं, और अगर गांधीजी प्रायश्चित करते हुए मरे तो उसका खून सबके सर पर होगा। दलित जातियों के प्रति स्नेह और सहानुभूति का जैसे देश में ज्वार ही आ गया। जगह-जगह लोगों ने दलितों का स्वागत समारोह किया। कई मंदिरों के द्वार दलितों के लिए खोल दिए गए। देश में उदारता की एक लहर दौर गई। जैसे-जैसे जेल में यह खबर पहुँची कि ज़्यादा से ज़्यादा मंदिर अछूतों के लिए अपने दरवाजे खोल रहे हैं, गांधी को विश्वास होने लगा कि सुलह का दिन आने वाला है। उन्होंने लिखा, "आत्मा की पीड़ा तब तक खत्म नहीं होगी जब तक अस्पृश्यता का हर निशान मिट नहीं जाता। भगवान का शुक्र है कि इस आंदोलन में सिर्फ़ एक आदमी नहीं, बल्कि हज़ारों लोग हैं जो इस सुधार को पूरी तरह से साकार करने के लिए अपनी जान दे देंगे।"

नेहरू जी कहते हैं, बापू में परिपक्व मनोवैज्ञानिक अवसर पर समयोचित कार्य करने की अद्भुत कुशलता थी। उनके इस उपवास की घोषणा का राष्ट्रीय संघर्ष के व्यापक क्षेत्र में बड़ा महत्वपूर्ण परिणाम निकला। देशभर में भयंकर उथल-पुथल मचा। समाज में उत्साह की एक जादू-सी लहर दौड़ गई। यरवदा जेल में बैठा हुआ यह सूक्ष्म-सा व्यक्ति कितना बड़ा जादूगर है और वह उस डोरी को खींचने में कितना प्रवीण है, जो जनसाधारण को हिला देती है।

अनौपचारिक वार्ता शुरू

20 तारीख को हिंदू नेताओं का सम्मेलन स्थगित होने के बाद, अनौपचारिक वार्ता शुरू हुई। संयुक्त निर्वाचक मंडल के मुख्य मुद्दे पर लंबी चर्चा हुई। जब डॉ. आंबेडकर इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं हुए, तो सप्रू ने सीमित संख्या में सीटों के लिए प्राथमिक और द्वितीयक चुनाव प्रणाली अपनाने का सुझाव दिया। सप्रू ने कहा कि यह प्रणाली, संयुक्त निर्वाचक मंडल के सिद्धांत को बनाए रखते हुए, दलित वर्गों को अपने उम्मीदवार चुनने में सक्षम बनाएगी। डॉ. आंबेडकर और उनके सहयोगी डॉ. सोलंकी ने प्रस्ताव का स्वागत किया, लेकिन कहा कि वे प्रधानमंत्री द्वारा निर्धारित सीटों की संख्या से कहीं अधिक सीटों की मांग करेंगे।

गांधीजी की तबीयत दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही थी। कस्तूरबा को दूसरी जेल से निकालकर यरवदा जेल भेज दिया गया। डॉ. भीमराव आम्बेडकर इस उधेड़बुन में थे कि दोहरा मताधिकार गांधीजी ने अगर रुकवा दिया तो उसके बदले अधिक-से-अधिक कितना अधिकार अस्पृश्यों के लिए प्राप्त किया जा सकेगा। देश के नेताओं ने डॉ. अंबेडकर को समझौता करने के लिए मनाना शुरू किया। डॉ. अंबेडकर ने कहा, अगर मुझे फाँसी पर भी चढ़ा दिया जाए तब भी मैं लोगों के साथ विश्वासघात कर अपने पवित्र कर्तव्य से नहीं डिग सकता।

मालवीयजी के नेतृत्व में देश के हिंदू नेता कभी मुंबई में तो कभी पूना में विचार-विमर्श कर रहे थे। उधर शिमला में भी उच्च स्तर पर चर्चा चल रही थी। सर तेजबहादुर सप्रू और माधवराव जयकर ने एक तरफ़ वायसराय और दूसरी तरफ़ बाबासाहब आंबेडकर से बातचीत शुरू कर दी। समस्या के समाधान के लिए इन नेताओं ने कम-से-कम पांच बार यरवदा जेल का चक्कर लगाया। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने कहा, मेरे निर्णय में तभी परिवर्तन हो सकता है, जब सारे हिंदू नेता एक मत हो जाएं। अंग्रेज़ सरकार ने निर्णय आंबेडकरजी पर छोड़ दिया। देश के विभिन्न भागों से नेतागण यरवदा जेल पहुंच रहे थी। सरदार पटेल, राजाजी, राजेन्द्रबाबू, सरोजिनी नायडू आदि पहुंच चुके थे। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर भी पहुंच गए। सप्रू और जयकर ने यह सुझाव दिया कि दलितों के लिए कुछ सीट आरक्षित कर दिया जाए।  यह एक द्विस्तरीय प्रणाली का प्रस्ताव था। एक प्राथमिक चुनाव, जहाँ केवल दलित वोट देंगे और एक माध्यमिक चुनाव, जहाँ हर कोई पात्र होगा।

गांधीजी की तबीयत बिगड़ी

अधिकारियों ने जिस तरह से उपवास को हैंडल किया, खासकर शुरुआती दौर में, वह निंदनीय था। जेल प्रशासन और जेल के डॉक्टरों ने उपवास करने वाले नेता की ऊर्जा संरक्षण की ज़रूरत पर कोई ध्यान नहीं दिया। हर बार जब कोई आगंतुक आता, तो गांधीजी को जेलर के कार्यालय तक पैदल जाना पड़ता था। यहाँ तक कि 21 सितंबर को जब बंबई से हिंदू नेता उनसे मिलने आए, तो मुलाकात जेलर के कार्यालय में हुई। बातचीत के दौरान होने वाली व्यस्त बातचीत के कारण बातचीत का तनाव मतली का कारण बना। दो बार उन्हें निर्जलीकरण और अम्लता से निपटने के लिए मलाशय के माध्यम से सोडा और पानी देना पड़ा। जब ​​भी उन्हें ज़रूरत महसूस होती, वे बाथरूम चले जाते और किसी भी तरह की मदद लेने से इनकार कर देते। उपवास के तीसरे दिन उनकी ताकत जवाब दे गई। जेल अधिकारी बहुत चिंतित थे, लेकिन जेल के डॉक्टरों को अनशन पर बैठे लोगों का इलाज करने का कोई अनुभव नहीं था। उन्हें उनकी ज़रूरतों का अंदाज़ा नहीं था। 1924 में, गांधीजी के अपने डॉक्टरों ने ही उनकी देखभाल की थी। 22 सितंबर को सरकार ने गांधीजी के अपने डॉक्टरों को बुलाने का प्रस्ताव रखा, लेकिन गांधीजी ने यह कहते हुए प्रस्ताव ठुकरा दिया कि उन्हें सरकारी डॉक्टरों पर पूरा भरोसा है। उन्हें पूरा विश्वास था कि अगर इस बार वे अनशन से उबर पाएंगे, तो यह सिर्फ़ इसलिए होगा क्योंकि ईश्वर चाहते हैं कि वे जीवित रहें, न कि किसी डॉक्टर या नर्सिंग की वजह से। जैसे-जैसे उपवास आगे बढ़ा और शरीर के ऊतक जलते गए, उन्हें तेज़ दर्द और पीड़ा होने लगी।

जनमत संग्रह का प्रश्न

22 सितंबर की सुबह, डॉ. अंबेडकर ने पुणे की यात्रा की और दोपहर में गाँधीजी से मिले। डॉ. अंबेडकर ने गाँधीजी से कहा, मैं अपने समुदाय के लिए राजनीतिक शक्ति चाहता हूँ। हमारे जीवित रहने के लिए यह बेहद आवश्यक है। लेकिन अभी भी एक अड़चन थी। डॉ. अंबेडकर चाहते थे कि प्राथमिक चुनाव प्रणाली एक दशक के बाद स्वतः समाप्त हो जाए, और 15 साल बाद तथाकथित दबे-कुचले वर्ग के बीच जनमत संग्रह पर सशर्त सीटें आरक्षित कर दी जाएँ। कई हिंदू नेताओं ने इसका कड़ा विरोध किया था और गाँधीजी खुद पाँच साल बाद जनमत संग्रह चाहते थे। डॉ. आंबेडकर और उनके सहयोगियों का मानना ​​था कि अस्पृश्यता 20 साल बाद भी खत्म नहीं होने वाली है और वे चाहते थे कि जनमत संग्रह का प्रावधान सवर्ण हिंदुओं पर दबाव बनाने का एक जरिया बने ताकि वे अछूतों के साथ न्याय करें। देवदास गांधी और अन्य लोगों ने डॉ. आंबेडकर से अनुरोध किया कि गांधीजी का अस्पृश्यता उन्मूलन पर जोर और ऐसा न होने पर उनकी ओर से उपवास की धमकी, जनमत संग्रह के डर से बेहतर गारंटी थी। आरक्षण जारी रहने से अस्पृश्यता दूर करने और अछूतों में राष्ट्रवाद और आत्मविश्वास की भावना के विकास में बाधा आएगी। इसके अलावा, जनमत संग्रह कराने में व्यावहारिक कठिनाइयाँ भी थीं। इस प्रकार यह दलित वर्गों के हित में नहीं था। लेकिन डॉ. आंबेडकर अविचल रहे। अंबेडकर ने सुझाव दिया कि जनमत संग्रह का प्रश्न गांधीजी के समक्ष रखा जा सकता है। उन्होंने याद दिलाया कि गांधीजी ने जनमत संग्रह के पक्ष में अपनी राय व्यक्त की थी और उन्हें विश्वास था कि गांधीजी उनकी बात मान लेंगे। गांधीजी ने कहा कि वे जनमत संग्रह के पक्ष में हैं। लेकिन दस साल बाद क्यों? वे इसे एक साल के अंत में, या ज़्यादा से ज़्यादा पाँच साल बाद, चाहते थे। इस कोशिश ने उन्हें थका दिया।

पिता मर रहे हैं

शुक्रवार, 23 सितंबर उपवास के चौथे दिन, को फिर बातचीत हुई। गांधीजी के हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ. एम.डी.डी. गिल्डर और डॉ. नाथूभाई पटेल बम्बई से आये और जेल के चिकित्सकों से परामर्श के बाद बताया कि घटते बढ़ते ब्लड प्रेशर से गांधीजी की तबीयत बहुत ख़राब थी। गांधीजी लगातार कमज़ोर होते जा रहे थे। उनका रक्तचाप चिंताजनक रूप से बढ़ गया था, वे अब चल नहीं सकते थे और उन्हें स्ट्रेचर पर बाथरूम तक ले जाना पड़ता था, और रात में बिस्तर पर करवट लेते समय भी उन्हें सहारा देना पड़ता था। वे अपनी मांसपेशियों पर जी रहे थे, क्योंकि उन पर चर्बी बिल्कुल नहीं थी। प्यारेलाल, जो उनसे मिलने आए थे, ने भय से देखा कि वे अब अपने स्वास्थ्य की रक्षा नहीं कर रहे थे, वे लापरवाह हो गए थे, और स्पष्ट रूप से ऐंठन से बहुत दर्द में थे, अब उन्हें अपने शरीर पर पूरा नियंत्रण नहीं था। सरकार का मानना ​​था कि वे आमरण अनशन करने की अपनी धमकी पर गंभीरता से विचार कर रहे थे, और आनन-फानन में कस्तूरबाई को साबरमती की जेल से पूना की जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। "फिर वही पुरानी कहानी!" उन्होंने उनका अभिवादन करते हुए कहा। इस मज़ाकिया अंदाज़ में उसने उसके प्रति अपना असहाय स्नेह व्यक्त किया। जेल में इतने सारे आगंतुकों को आने की अनुमति थी कि सरोजिनी नायडू ने खुद को द्वारपाल नियुक्त कर लिया; केवल उन्हीं आगंतुकों को प्रवेश की अनुमति थी जो उनकी स्वीकृति प्राप्त करते थे। देवदास गाँधी ने दुखी होकर कहा, पिता मर रहे हैं। उनकी आँखों में आँसू थे।

पूना समझौता

शनिवार, 24 सितंबर, पाँचवें दिन, डॉ. आंबेडकर ने हिंदू नेताओं के साथ अपनी बातचीत फिर से शुरू की। सुबह की बहस के बाद, वे दोपहर में गांधी से मिलने गए। डॉ. आंबेडकर और हिंदुओं के बीच यह सहमति हुई थी कि दलित वर्गों को 147 आरक्षित सीटें मिलेंगी, न कि आंबेडकर द्वारा माँगी गई 197 और मैकडोनाल्ड द्वारा आदेशित 71 सीटें। गांधीजी ने समझौता स्वीकार कर लिया। डॉ. आंबेडकर अब दस साल बाद अलग प्राइमरी को खत्म करने के लिए तैयार थे। गांधीजी ने पाँच साल की माँग पर ज़ोर दिया। गांधीजी ने कहा, "पाँच साल या मेरी जान।" डॉ. आंबेडकर ने मना कर दिया। राजगोपालाचारी ने अब कुछ ऐसा किया जिससे शायद गांधीजी की जान बच गई। गांधीजी से सलाह लिए बिना, वे और डॉ. अंबेडकर इस बात पर सहमत हो गए कि प्राइमरीज़ को खत्म करने का समय आगे की बातचीत में तय किया जाएगा।

डॉ. अंबेडकर ने कहा कि अगर वे गाँधीजी के जीवन के लिए समझौता नहीं करते तो दलितों को पूर्वग्रह से जूझना पड़ेगा। आखिरकार, पूना समझौते पर 24 सितंबर को शाम 5 बजे 23 लोगों ने हस्ताक्षर किए। मदन मोहन मालवीय ने इसे हिंदुओं और गाँधीजी की ओर से और अंबेडकर ने अछूत वर्गों की ओर से हस्ताक्षर किए।  समझौते पर हस्ताक्षर करते समय गाँधीजी से कहा था, यदि आप अछूत वर्गों के कल्याण के लिए पूरी तरह से खुद को समर्पित करते हैं, तो आप हमारे नायक बन जाएंगे।

रविवार, 25 सितंबर को बॉम्बे सम्मेलन में, जिसमें यरवदा संधि या पूना समझौते को मंजूरी दी गई थी, डॉ. आंबेडकर ने एक दिलचस्प भाषण दिया। गांधीजी के सुलहकारी रवैये की प्रशंसा करते हुए, आंबेडकर ने कहा, 'मुझे स्वीकार करना होगा कि जब मैं उनसे मिला, तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ, बहुत आश्चर्य हुआ, कि उनमें और मेरे बीच इतनी समानताएँ थीं। वास्तव में, जब भी कोई विवाद उनके पास लाया जाता था—और सर तेज बहादुर सप्रू ने आपको बताया है कि उनके पास लाए गए विवाद बहुत ही गंभीर प्रकृति के होते थे—मैं यह देखकर चकित रह जाता था कि गोलमेज सम्मेलन में मेरे विचारों से इतने भिन्न विचार रखने वाला व्यक्ति तुरंत मेरे बचाव में आया, न कि दूसरे पक्ष के बचाव में। मैं महात्माजी का बहुत आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे एक बहुत ही कठिन परिस्थिति से निकाला।'

समझौता लंदन में कैबिनेट के सामने पेश

26 सितंबर तक, यरवदा समझौते के रूप में जाना जाने वाला समझौता, जिसे इतने लंबे समय से बड़ी मुश्किल से तैयार किया गया था, लंदन में कैबिनेट के सामने पेश किया जा रहा था, जिसमें चार्ली एंड्रयूज लंदन के प्रतिनिधि के रूप में कार्य कर रहे थे। दलित वर्गों के सदस्यों के चुनाव के लिए सटीक व्यवस्था की गई थी, सभी सूत्रों पर सहमति बन गई थी, और केवल रामसे मैकडोनाल्ड और सर सैमुअल होरे को अपना फैसला सुनाना बाकी था। प्रधानमंत्री ससेक्स में एक अंतिम संस्कार में शामिल होने गए थे, लेकिन खबर इतनी महत्वपूर्ण थी कि उन्हें डाउनिंग स्ट्रीट लौटने की मांग करनी पड़ी। आधी रात तक उन्होंने फैसला किया कि उन्हें अपने फैसले के स्थान पर समझौते को बदलने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती है, और लंदन और दिल्ली में एक साथ घोषणाएं की गईं।

कम्यूनल अवार्ड रद्द

उस सुबह डॉक्टरों ने उनकी जाँच की, और बताया कि वे लगातार कमज़ोर होते जा रहे हैं, और हालाँकि वे दिखने में ठीक लग रहे थे और अब मतली और उल्टी से पीड़ित नहीं थे, फिर भी वे उपवास के खतरनाक दौर में प्रवेश कर रहे थे। वे उस स्थिति में पहुँच गए थे जहाँ, अगर वे उपवास तोड़ भी देते, तो भी इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि वे पूरी तरह ठीक हो जाएंगे। ख़तरा यह था कि उन्हें लकवा भी हो सकता था। हर हाल में उपवास तोड़ना ही होगा।

उस सुबह बाद में, रवींद्रनाथ टैगोर अपने मित्र के पास बैठने के लिए पूरे भारत को पार करके जल्दी से जेल के प्रांगण में दाखिल हुए। वे भावुक हो गए, उन्होंने अपना चेहरा गांधीजी की छाती पर छिपा लिया, और कुछ देर तक इसी मुद्रा में रहे, फिर बोले। उन्होंने कैबिनेट समझौते की खबर सुनी थी। उन्होंने कहा, "मैं खुशखबरी की लहर पर तैरता हुआ आया हूँ।" "मुझे बहुत खुशी है कि मैं समय पर पहुँच गया।"

26, सितम्बर 1932 को सरकार ने कम्यूनल अवार्ड रद्द कर दिया। इस तरह दलितों के लिए अलग निर्वाचन और दो वोट का अधिकार खत्म हो गया। छह दिनों के उपवास के बाद शाम पांच बजे गांधीजी ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर की उपस्थिति में धार्मिक भजन और प्रार्थना के बाद कस्तूरबा के हाथों संतरे का रस पीकर उपवास भंग किया। गुरुदेव ने अपना प्रसिद्ध भजन ‘जीवन जोखन सुकाई जाय’ गाकर गांधीजी को सुनाया।

जब मेरा दिल सूख जाए और प्यासा हो जाए, तो

दया की बौछार लेकर आ जाओ,

जब जीवन से कृपा चली जाए, तो

गीतों की बौछार लेकर आ जाओ।

कस्तूरबा ने नारंगी का रस पिलाया। उपस्थित सभी लोगों ने मिलकर ‘वैष्णव जन’ भजन गाया। गांधीजी का यह उपवास न तो अंग्रेज़ अधिकारियों के ख़िलाफ़ था, न ही भारत में उनके विरोधियों के ख़िलाफ़। इस उपवास का मुख्य उद्देश्य हिंदू अंतःकरण में ठीक-ठीक धार्मिक कार्यशीलता उत्पन्न करना था। कवि, संत, समाजसुधारक सदियों से हिन्दू समाज में छुआछूत की बुराई की निंदा करते रहे हैं। लेकिन अगर किसी एक कृत्य ने इस बुराई की कमर तोड़ी तो इसी व्रत ने तोड़ी।

उपवास समाप्त होने के पाँच दिन बाद गांधीजी का वज़न निन्यानवे पौंड तक कम हो गया था, और वे कई घंटे कताई और काम करते रहे। उन्होंने मिस स्लेड को लिखा, 'यह उपवास उन कष्टों की तुलना में कुछ भी नहीं था जो बहिष्कृत लोग सदियों से झेल रहे हैं।'

रात में गांधीजी ने प्रेस के लिए एक बयान लिखवाया जिसमें उन्होंने लोगों को याद दिलाया कि उनके उपवास तोड़ने से उन पर अस्पृश्यता उन्मूलन और तथाकथित अछूतों की कमियों को दूर करने के लिए कड़ी मेहनत करने की ज़िम्मेदारी आ गई है। इसमें कोई भी ढिलाई उन्हें फिर से उपवास पर मजबूर कर सकती है। उन्होंने सुधार के इस कार्य को पूरा करने के लिए एक समय सीमा तय करने के बारे में सोचा था, "लेकिन मुझे लगता है कि मैं अंदर से एक निश्चित आह्वान के बिना ऐसा नहीं कर पाऊँगा"। उन्होंने आगे कहा कि स्वतंत्रता का संदेश हर अछूत घर तक पहुँचना चाहिए और ऐसा तभी हो सकता है जब सुधारक हर गाँव तक पहुँचें। गांधीजी ने यह भी आशा व्यक्त की कि दलित वर्गों के प्रतिनिधित्व के प्रश्न पर जो लगभग आदर्श समाधान निकाला गया है, वह विभिन्न समुदायों के बीच व्यापक एकता का मार्ग प्रशस्त करेगा और आपसी विश्वास, आपसी लेन-देन और सभी समुदायों की मौलिक एकता की मान्यता के एक नए युग की शुरुआत करेगा। अगले दिन, 27 सितंबर, हिंदू कैलेंडर के अनुसार, गांधीजी का जन्मदिन था। पूरे देश ने 27 सितंबर से 2 अक्टूबर तक के सप्ताह को अस्पृश्यता उन्मूलन सप्ताह के रूप में मनाया। राजाजी और राजेन्द्र बाबू ने राष्ट्र के सामने अस्पृश्यता निवारण के लिए गहन कार्य का एक कार्यक्रम रखा।

क्या उपवास उत्पीडन था? गांधीजी इस बात को जानते थे कि उनका उपवास लोगों पर नैतिक दबाव की तरह काम करता है। लेकिन अपने से असहमत होनेवालों पर वे इसे कभी नहीं आजमाते थे; इसका प्रयोजन होता था अपने स्नेहियों और विश्वास-भाजनों की आत्मा को जगाने और आत्मपीडन के माध्यम से अपनी असह्य मनोव्यथा का उन्हें भान कराने के ही लिए। अपने आलोचकों से उन्होंने कभी यह आशा नहीं की कि उपवास आदि पर उन लोगों की वही प्रतिक्रिया हो, जो उनके मित्रों, सहयोगियों, साथियों और समर्थकों की होती है। लेकिन उनके आत्मदंड से अगर विरोधियों और आलोचकों को उनकी ईमानदारी में विश्वास हो सकता तो वह अपने प्रयोजन को बहुत अंशों में पूरा हुआ मान लेते थे। अस्पृश्यता के प्रश्न पर गांधीजी के उपवास ने लोगों की तर्क बुद्धि को नहीं, भावनाओं को झकझोरा, और यही गांधीजी चाहते भी थे। समस्या का समाधान लोगों की तर्क बुद्धि को कुरेदकर नहीं, उनकी भावनाओं को - जड आत्मा को - जगाकर ही किया जा सकता था। सदियों से सामाजिक विषमता को प्रश्रय देती आ रही बौद्धिक जडता, कुसंस्कार और पूर्वाग्रहों को किसी भी तर्क से परास्त नहीं किया जा सकता। केवल लोगों की भावनाओं को जगाकर ही इस बुराई को मिटाया जा सकता था।

अगर उपवास खत्म हो गया था, तो भारत में अस्पृश्यता को खत्म करने का काम अभी शुरू ही हुआ था। गांधीजी ने एक ऐसी लौ जलाई थी जो पूरे भारत में फैल गई। ऐसा लग रहा था कि अछूतों को फिर कभी सवर्ण हिंदुओं द्वारा तिरस्कृत और नफ़रत नहीं की जाएगी। उन्हें फिर कभी मंदिरों, कुओं, चरागाहों और ब्राह्मणों के निवास स्थानों से बहिष्कृत नहीं किया जाएगा। ऐसा लग रहा था जैसे हिंदू अचानक एक नए शासन में प्रवेश कर गए हों जहाँ सफाईकर्मियों और सफाईकर्मियों के साथ अब कोई दुर्व्यवहार नहीं था, और जहाँ अछूत अब अछूत नहीं थे। गांधीजी के उपवास ने पूरे देश में हलचल मचा दी थी।

***  ***  ***

मनोज कुमार

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर