शनिवार, 13 मार्च 2010

अभिव्यक्ति

अभिव्यक्ति

मुझे लोगों की सहज अभिव्यक्ति बहुत अच्छी लगती है। वे लोग भी सुहाते हैं जो अपनी बात को बिल्कुल सीधे-सीधे रखते हैं। मैं ऐसा ही करता हूँ। ज़िन्दगी में जो भी अनुभव किया वह मेरी रचनाओं में प्रकट होता है। मैं जब लिखता हूँ तो बातें मेरी होती हैं। वे ही बातें जिन्हें मैंने भोगा है, देखा है, पाया है। कोई मुखौटा लगा कर मैं अपनी बात नही रखता। एक साधारण आदमी हूँ, अतः मेरा लिबास बड़ा सीधा-सदा है, कोई फैशन डिज़ाइन किया हुआ नहीं। जो पीड़ाएँ, अभाव, तनाव, दबाव आदि झेला है वही मेरी रचनाओं में व्यक्त हो जाती हैं।

कविता, लघुकथा, लेख, चर्चा आदि के ज़रिए अपने संवाद आप तक पहुँचाने का प्रयास किया। कोई ध्यान खींचने या टी.आर.पी. बढाने वाले न मेरे पास शब्द हैं, न अनुभव और न ही ईरादा। समाज में एक साधारण व्यक्ति के तौर पर रहता हूँ और इसका दायित्वबोध भी है। कोई समाज सुधारक का लिबास ओढ नहीं रखा है, पर यदि इस काम आ सकूँ तो जीवन कृतार्थ हो जाए, ऐसी कामना है। मेरी नैतिकता और ईमानदारी मेरे हथियार हैं, और इन्हीं के भरोसे छोटी-मोटी लड़ाई कुप्रथा, कुव्यवस्था के विरुद्ध लड़ लेता हूँ।

यह ज़रूरी नहीं कि मैं जीत ही जाऊँ, पर पत्थर तबियत से उछलता हूँ, आसमां में सूराख हो-न हो, शायद कोई हलचल हो जाए। चुनौतियाँ अगर हैं तो स्वीकारने में हर्ज़ भी नहीं समझता, अकेला अगर हूँ, तो आगे बढने से हिचकता भी नहीं। कोई साथ न हो तो एकला चलो रे का सिद्धांत क्यूँ छोड़ूँ।

कविताएँ साथ देती हैं। लहरों के थपेरे पर अपने गीत गुन लेता हूँ। कोई सुने या न सुने, सुना देता हूँ, सुन लेता हूँ, औरों की राहों के कांटे चुन लेता हूँ।

किसी की अवमानना से मेरा दिल दुखता है। जिससे दिल दुखे वह मुझे कष्ट देता है। मैं इस तरह का कष्ट न झेल सकता हूँ, न देना चाहता। अनुभव से बल संचित करता हूँ, इसलिये भीड़ का एक हिस्सा हूँ, बने रहना चाहता हूँ। क्या हुआ यदि रगड़ खाए, क्या हुआ यदि किसी ने धक्का दिया, क्या हुआ यदि मैं गिर पड़ा? ! भीड़ का हिस्सा तो हूँ। यही मेरे संतोष का कारक है। यही मेरा बल है।

आलोचना करने वाले करें, मैं उन्हें सिर आंखों पर लेता हूँ। फिर भी मेरे लिये भीड़ ज़्यादा अहम है। मैं वहां हूँ, रहूँगा। ये भीड़ ही मेरी भूमिका तय करती हैं, मेरा निर्णायक बनती है। मैं उनसे सीधे संलाप कर लेता हूँ। हवाई दुनियाँ में न रहता हूँ, न रहने का ख़्वाब संजोता हूँ॥ वहां बौद्धिक सन्निपात से ग्रस्त लोग रहते हैं, रह लेते हैं। वे मेरे सांचे और खांचे में फिट नहीं बैठते। मैं तो वह रचना चाहता हूँ जो भीड़ की, भीड़ के लिये और भीड़ के गले द्वारा निकली बाते हैं। भीड़ यानी आम जन, ख़ास जन नहीं।

ख़ास जन की कुछ बातें तो यूँ चुभती हैं कि शब्दों में बयां करना मुश्किल हो जाता है। कविता ही सहारा बनती है।

मैं तो लिबास सहित

नदी में उतरा था

तुमने मुझे वस्त्र रहित

देख लिया?

कर दिया नज़रों से ही चीर-हरण मेरा!!

*** ***

मना कि मैंने रेत के घरौंदे नहीं बनाए

तो क्या हुआ?

घर तो मेरा भी है

वहीं

जहां तुम्हारा है!

*** ***

द्रौपदी मेरे घर में है

उसी घर में

मेरा बाप उसे बेटी

और भाई दीदी कहता है

वह (भाई) मेरे ही घर में रहता है।

*** ***

मेरी तरह

तुम्हारे भी घर में

बाप-भाई होंगे

क्या वे करते हैं

द्रौपदियों के चीर-हरण?

या कौरव की सभा में बैठकर

होते हैं उसके साक्षी!

*** *** ***

14 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर ढंग से आप ने अभिव्यक्ति व्यक्त की, ओर आप की कविता भी बहुत सुंदर ओर थोडी अलग हट के है, धन्यवाद

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  2. सहजता सीधे प्रवेश करती है-विचार के तल पे,भाव के तल पे। सादगी भरी टिप्पणी। विचारोत्तेजक कविताएं।

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  3. आपकी अभिव्यक्ति गज़ब की है.....विचारणीय क्षणिकाएं...बहुत खूब

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  4. ....प्रभावशाली अभिव्यक्ति,प्रसंशनीय!!!!!

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  5. sunder abhivykti........saaree kshnikae gahan arth liye hai.........

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  6. बहुत ही सुन्दर रुप से अभिव्यक्ति की है आपने. शुभकामनाएं...

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  7. कई दिनों से आपके ब्लौग के लिये फुरसत निकालने की सोच रहा था...आज निकाल ही लिया। बड़ी देर से टिका हूं। कितनी ही बातें अपनी-सी लगी।

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  8. ....प्रभावशाली अभिव्यक्ति,प्रसंशनीय!!!!!

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  9. जो आप हैं और जैसे व्यक्त करते हैं, वही आपकी मौलिक अभिव्यक्ति है । अपनी मौलिकता से परे क्यों जाया जाये ?

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  10. bahut gahara arth hai chhoti-chhoti kavitaon me.vyanjana adbhut hai aur usme painapan bhi hai. Wah!

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  11. मुझे लोगों की सहज अभिव्यक्ति बहुत अच्छी लगती है। वे लोग भी सुहाते हैं जो अपनी बात को बिल्कुल सीधे-सीधे रखते हैं। मैं ऐसा ही करता हूँ। ज़िन्दगी में जो भी अनुभव किया वह मेरी रचनाओं में प्रकट होता है। मैं जब लिखता हूँ तो बातें मेरी होती हैं। वे ही बातें जिन्हें मैंने भोगा है, देखा है, पाया है। कोई मुखौटा लगा कर मैं अपनी बात नही रखता। एक साधारण आदमी हूँ, अतः मेरा लिबास बड़ा सीधा-सदा है, कोई फैशन डिज़ाइन किया हुआ नहीं। जो पीड़ाएँ, अभाव, तनाव, दबाव आदि झेला है वही मेरी रचनाओं में व्यक्त हो जाती हैं।
    Baat ekdam sahi hai...is tarah dilse nikla lekhan hi suhata hai!

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  12. Manoj ji..Apki dil se likhi gai abhivyakti hamare dil ko chhu gai....

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