रविवार, 8 नवंबर 2009

बिखरी चीज़ें

मुझे वे घर जहां हर चीज़ों के लिए निर्धारित जगह और हर चीज़ें अपनी जगह पर होती हैं बड़ा दमघोटू लगता है। ऐसे घर में पहुंचते ही मुझे पाक़ीज़ा फिल्म का वह डायलॉग “पांव जमीन पर मत रखना मैले हो जाएंगे” स्मरण हो जाता है। ... चीज़ों को हाथ मत लगाना, गंदी हो जाएंगी !!!
-- मनोज कुमार


ऐसा तो प्रायः कम ही होता है, फिर भी कभी-कभार रविवार की सुबह नौ बजे के पहले उठना हुआ तो मुझे सूर्य की किरणें मेरा मुंह चिढ़ाती प्रतीत होती हैं। आज भी ऐसा ही हुआ। अब चूंकि आज का क्रिकेट मैच साढ़े आठ बजे से ही था इसलिए सुबह ज़ल्दी ही उठना पड़ा। पर पहले ही ओवर में दो विकेट गिर जाने के बाद सूर्य की पीली किरणों की तरह टीवी स्क्रीन पर मचल रहे पीली जर्सी वाले भी मेरा मुंह चिढाते प्रतीत हो रहे थे। मैंने टीवी बन्द कर दिया। तभी मेरी नज़र टीवी पर चढ़ आयी धूल की परतों पर पड़ी। वहीं ड्राइंग रूम की सेंटर टेबल पर मेरा रूमाल पड़ा था। उससे मैंने धूल झाड़ दी। फिर सोचा इस तरह का मैच देखकर दिन-भर कुढ़ते रहने से अच्छा है कि अपने ब्लॉग के लिए “फुर्सत के क्षणों में ...” स्तम्भ के लिए ही कुछ रच डालूं।
प्रति रविवार ऐसा ही होता है जब मैं “फुर्सत के क्षणों में ...” स्तम्भ के लिए क्या लिखूं – क्या रचूं की कोशिश में प्रयासरत होता हूं तो अपने बिस्तर पर डायरियां, फाईलें, पुस्तकें आदि इधर-उधर बिखराकर रखना मेरी पहली पसंद हैं, और मेरी यह पसंद, मेरी
श्रीमती जी को बिल्कुल ना-पसंद। अभी मेरी विचार मंथन की प्रक्रिया शुरु ही हुई थी कि गृहस्वामिनी का चिरपरिचित स्वर सुनाई दिया, “ये रूमाल टीवी पर किसने रख दिया?” मैं ने विजेता की मुद्रा मे जवाब दिया, “मैंने।” मेरे इस उत्तर पर कुछ भ्रमित और चकित मेरी संगिनी बिगड़ गई और बोलीं, “क्यों?” मैंने सफाई दी, “अब रूमाल से उस टीवी पर की धूल झाड़ रहा था, वहीं रह गया।” अब तक मेरी परिणीता के सब्र का बांध टूट चुका था, “तुम कोई चीज़ तरतीब से नहीं रख सकते?”
मैंने हथियार डालते हुए कहा, “रखा तो है, ... तुम्हें।”
ये तरतीब शब्द बनाने वाले सख़्श पर मुझे परम क्रोध आता है। जब किसी के यहां मैं चीज़ों को तरतीब से रखी देखता हूं, तो मेरा जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। उनकी वे सारी चीज़ें हाथ बढ़ा-बढ़ा कर मेरा गला घोंट रहीं होती हैं। और अगर ख़ुदा-न-ख़ास्ता मेरी
उत्तमांग भी साथ हुईं तो उनकी नज़रें मुझसे शिकायतें कर रहीं होती हैं, मुझ पर भाले-बरछियां चला रहीं होती हैं।मुझे वे घर जहां हर चीज़ों के लिए निर्धारित जगह और हर चीज़ें अपनी जगह पर होती हैं बड़ा दमघोटू लगता है। ऐसे घर में पहुंचते ही मुझे पाक़ीज़ा फिल्म का वह डायलॉग “पांव जमीन पर मत रखना मैले हो जाएंगे” स्मरण हो जाता है। ... चीज़ों को हाथ मत लगाना, गंदी हो जाएंगी !!!
अरे ! चीज़ों को बिखराकर रखिए तो पता चलेगा इसमें कितना आनंद है ! जैसै अबोध बच्चा अपना पहला डग भर रहा हो ! जब बच्चा पहला डग भरने की कोशिश करता हुआ कभी इधर, कभी उधर पैर रखता है, तो हे प्राणेश्वरी ! क्या आप उसे डांटती हैं ? नहीं न। फिर मुझे क्यों ? ये इधर-उधर रखी चीज़ें, भटकती-सी, भूली-सी, चीज़ें कितनी आत्मीयता से आपको ताकती रहती हैं। उन्हें आप उठाकर, उन पर पड़ी धूल-गर्द झाड़ कर, किसी खास जगह पर रख दीजिए, देखिए कितना आनंद मिलेगा, कितना सुकून मिलेगा। पर जो पहले से ही व्यवस्थित ढ़ंग से खड़ी हैं, आंखें फाड़-फाड़ कर घूरती रहती हैं। लगता है घर में आपातकाल आ गया हो। संपूर्ण रूप-से व्यवस्थित घर मुझे कर्फ्यू ग्रस्त जगह की तरह प्रतीत होता है।
अख़बार को ही लीजिए। हॉकर नीचे से ही उसे अपनी पूरी जोर से मेरे तीसरे तले के मकान की बालकनी में फेंक देता है। फिर उस पर घर के सभी सदस्य महाभारत करते हैं, कभी सोफे पर, कभी कुर्सी पर, कभी बिस्तर पर, तो कभी डायनिंग टेबल पर, फिर भी वह मुस्कुराता नज़र आता है। कभी-कभी तो उधर भी पहुंच जाता है जहां हम नित्य क्रिया करते हैं। और जब मैं रविवार की अलसाई सुबह, जो प्रायः नौ बजे ही होती है, उसे खोजते-खोजते परेशान-सा किचन की फ्रीज के ऊपर पाता हूं तो मुझे एवरेस्ट चढ़ जाने का चैन मिलता है। अब वही अख़बार अगर ड्राईमरूम की सेंटर टेबुल पर व्यवस्थित पड़ा होता तो पढ़ने का यह मज़ा आता क्या?
मेरे शयन कक्ष का तो जवाब ही नहीं। हर चीज़ें किसी उदण्ड बच्चे की तरह पथभ्रष्ट होकर इधर-उधर बिखरी पड़ी होती हैं। उनकी मासूमियत देखने लायक होती है, जैसे भूले-भटके लोग आपस में बतिया रहें हों। हर वस्तु मदमस्त, अल्हड़ता-से, इठलाते, मचलते, हंसते, खेलते, कूदते होते हैं। किसी सैनिक की परेड के कदम-ताल करते सिपाहियों के सावधान की मुद्रा में अनुशासित चीज़ों वाले घर में रहना मुझे बिल्कुल नहीं भाता। इसमें मुझे रैम्प पर की मॉडल के कैटवॉक की सुनियोजित स्टेप्स की तरह की कृत्रिमता झलकती है। मैं जब मेरी बिखरी चीज़ों को देखता हूं तो लगता है, वे किसी छोटे से मंच पर भांगड़ा कर रहें हों। और इस भंगड़े में तो मौज़ा-ही-मौज़ा है....!!!

33 टिप्‍पणियां:

  1. adbhut swatah-sfurt lekhan. gujaarish hai ki aap fursat me yun hee likhte rahen. Kritrimata ke prati vyangya aur prakritijanyata ke prati aapka moh sampreshneey shabdon ke saath man-mohak paathya-vastu pradaan kar raha hai.
    dhanyawaad !!!

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  2. HA HA HA.....wah!aapki yeh rachna toh har ghar ki kahani vyakt karta hai.Ravivaar k din aapki es rachna ne mann ko prafullitt kar diya.

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  3. घर की बात सार्वजनिक करना अच्छी बात नहीं। ब्लॉग की दुनिया से वापस घर ही आना है... ध्यान रहे।

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  4. इस रचना ने मन नोह लिया। हास्य व्यंग्य की चाशनी से तैयार लेख स्वादिष्ट और मन को तृप्त करने वाला है। अभिनंदन है।

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  5. सच है सजा सजाया घर होटल लगता है, घर नहीं। कुछ बिखरा हो तो वहाँ जीवन्‍ता लगती है। अच्‍छा आलेख, दिल खुश हो गया।

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  6. वाह मनोज जी वाह ! अद्भुत रचना लिखा है आपने! हर एक पंक्तियाँ बेहद सुंदर है! उम्दा रचना !

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  7. वा वा,
    इस लेख को इस सज्जन के पास भेजिए - inext में छपने के लिए। महोदय मेरे पीछे पड़े रहते हैं - ब्लॉगर राजीव ओझा।
    rajivojhaji@gmail.com

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  8. bahut achha laga,,,,,,,,,,,,

    ni:sandeh aapbadhaai ke patra hain

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  9. Bahut hi sundar rachna hai. Aapne jis vishay me rachna ki jise shayad hi koi karta hai.Apne grehast jeevan ki charcha bahut hi nirbhik rup me ki hai. Aapki rachna to nirjiv vastu me bhi praan daal deti hai,jaisa aapne akhbaar ke baare me kaha.Dhanyawaad. MOHSIN

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  10. रचना ने दिल को गुदगुदाकर रख दिया। सरस, रोचक और एक सांस में पठनीय रचना के लिए बधाई।

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  11. ghar ka yah drishya hi zindagi ke pannon ko khushnuma rangon se bharta hai, yaaden ban ek muskaan de jata hai

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  12. zindgi meiN
    ZINDGI ka ehsaas bharti hui
    aapki ye rachnaa
    w a a h !!

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  13. मुझे लगता है पुरुष स्वभाव से ऐसा ही होता है, थोड़ा बेतरतीब, थोड़ा अस्त व्यस्त. हास्टल में कुछ साथियों के कमरे बड़े व्यवस्थित रहते थे. हम लोग फिकरे कसते थे कि साला फलनवां लड़कियों की तरह रहता है. मैं अखबार में काम करता हूं और मेरे घर में आसपास बिखरेन्यूजपेपर वैसे ही लगते हैं जैसे यार-दोस्त की मंडली के बीच बैठे हों.

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  14. Apka lekh acha laga .Aise chote aur rochak lekh ki pratiksha rahegi.Namaskar.

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  15. Padhne ko kafi interesting laga. Aisa tho hamare ghar me bhi naya shadi hua phir bhi hotha. lekin aisa likhne sabko nahi hotha.
    - thyagarajan

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  16. एक सामान्य विषय को इतनी खूबसूरती के साथ परोसा है आपने कि बार बार शुक्रिया कहने को जी चाहता है !

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  17. व्यवस्थित घर पहली नज़र में तो बहुत अच्छे दिखाते हैं ...लेकिन थोड़ी कृतिमता झलकती है...हाँ ऐसी भी अव्यवस्था न हो की पूरा घर ही फैला बिखरा लगे ....आपने बहुत सलीके से बिखरी चीज़ों को समेटा है ....सुन्दर रचना....

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  18. बडी अच्छी लगी आपकी प्रस्तुति मनोज जी पर भाभीजी की व्यथा का अनुभव ज्यादा हुआ क्योंकि कालेज से घर घुसते ही मैं बच्चों पर बरसती
    हूं। घर व्यवस्थित हो तो मेरा मन भी खुश रहता है।

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  19. मैंने हथियार डालते हुए कहा, “रखा तो है, ... तुम्हें।”...........:)

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  20. दादा
    मेरे घर कभी आइऐ,,,,,

    पांज जमीन पर ही रखने दुंगा,,

    और अपनी इसी आदत की वजह से कहीं किसी रिश्तेदार के यहां बड़े शहरों में मेरा मन रूकने को नहीं करता,,, होटल को गंदा संदा कर देता हूं.....

    अगर कहीं रूकना हुआ तो मन मलीन हो जाता है अपनी अशिष्टता से और हमेशा यही सोंचता रहता हूं कि कहीं कुछ गलती न हो जाए....

    और आपकी लेखनी से यह प्रसंग जिवंत हो उठा....
    सादर..

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  21. दादा
    मेरे घर कभी आइऐ,,,,,

    पांज जमीन पर ही रखने दुंगा,,

    और अपनी इसी आदत की वजह से कहीं किसी रिश्तेदार के यहां बड़े शहरों में मेरा मन रूकने को नहीं करता,,, होटल को गंदा संदा कर देता हूं.....

    अगर कहीं रूकना हुआ तो मन मलीन हो जाता है अपनी अशिष्टता से और हमेशा यही सोंचता रहता हूं कि कहीं कुछ गलती न हो जाए....

    और आपकी लेखनी से यह प्रसंग जिवंत हो उठा....
    सादर..

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  22. :-)

    क्षमा करें....
    हम आपकी साइड नहीं है...हम आपकी श्रीमती जी/प्राणेश्वरी/संगिनी/परिणीता/गृहस्वामिनी ...
    का दुःख समझ सकते हैं....
    सादर.

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  23. सच है.. सब कुछ व्यवस्थित यानि कि तरतीब से हो तो घर घर नहीं लगता... घर में कुछ हलचल तो होनी ही चाहिए...

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  24. main apne bachchon ko ye post zaroor padhaoongi......ve puri tarah aapse sahmat honge.....khair,apki saafgoi achchi lagi.

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  25. “रखा तो है, ... तुम्हें।”
    बहुत सुन्दर.... :)))
    सादर.

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