गुरुवार, 24 जून 2010

आंच (23) पर नदिया डूबी जाए

आंच (23) पर

नदिया डूबी जाए

--- --- मनोज कुमार

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15012010008 मैं प्रसन्न हूँ कि आचार्य परशुराम राय का की कविता की समीक्षा मैं कर रहा हूं। अचार्य राय को मैं वर्षों से जानता हूँ। मेदक (आं.प्र.) में उनके साथ काम किया था मैंने। उनके साथ जीवन-दर्शन पर, बातचीत कर ह्मेशा कृतार्थ हुआ, और उनकी ऊर्जा से ऊज्र्वसित हुआ, रोमांचित हुआ। आचार्य परशुराम राय ‘लोक-सत्य के आग्रह से उद्दीप्त व्यक्तित्व’ का नाम है। उनके व्यक्तित्व में एक अक्खड़पन है। इसी अक्खड़ कवि-व्यक्तित्व की साधना का समुच्चय है कविता नदिया डूबी जाए। जिसमें उनके अक्षर-व्यक्तित्व, उनके वागर्थ-वैभव की छटा खूब-खूब निखारी है।

किसी कवि को ठीक-ठीक जान पाना बड़ा कठिन होता है। उसकी केवल एक कविता को पढ़कर उसे जान लेने का भ्रम भले ही हो, पर ऐसा जानना सर्वदा सही नहीं होता। कविता समय होती है और समय की पहचान भी। कविताएँ पढ़कर आप तत्कालीन समय को भले जान लें, पर कवि को, जो कविता का अतीत जीता है, वर्तमान भुगतता है और भविष्य के प्रति आश्वस्त होने के लिए स्वयं को ऊर्जस्वित करता है, समग्ररूपेण जानना सहज और सरल नहीं होता। यथार्थ के धरातल पर हुए अनुभव को समेटे इस कविता में बहुत गहरा व्यंग्य है। जो अपने से बड़ों का अपमान करते हैं, वह भी अकारण, उनकी नदी नाव में डूबेगी ही। यही इस कविता का सार है। उनकी, खुद को आइना दिखाती, कविताएँ इतनी सशक्त और समृद्ध हैं कि उनको एक ‘अच्छा कवि’ मानने के लिए मैं विवश हो उनकी यह कविता पढकर मुझे कबीर याद आते हैं। हालाकि उन्होंने इसका शीर्षक कबीर के दोहे से ही लिया है।

सिर से पैर तक मस्त मौला, स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़, चाहने वालों के साथ निरीह, बनने वालों के आगे प्रचण्ड, दिल से साफ, दिमाग से दुरुस्त, भीतर से कोमल, बाहर से कठोर, ऐसे हैं हमारे आचार्य परशुराम राय। कुछ कम-कुछ अधिक कबीर की तरह। अभूतपूर्व एवं अभिनव कवि-प्रतिभा की दृष्टि से देखें, तो एक विद्रोही कवि के रूप में राय जी समोद्भूत होते हैं कविता-प्रांगण में।

कविता का प्रारम्भ ही चमत्कृत करने वाले बिम्बों से होता है-

किस अचेतन की तली से

चेतना ने बाँग दी, कि

काल का घेरा कहीं से

टूटने को आ गया है।

शब्द वही हैं पर प्रयोग की विशिष्टता अर्थ को नई आभा प्रदान करती है। चेतना कभी पूर्ण सुप्त नहीं होती, जब तक जीवन है, वह सूक्ष्म रुप में विद्यमान रहती है और समय आने पर झकझोरती है, उद्वेलित करती है। “किस अचेतन की तली” में एक तो अचेतन वह भी तली अर्थात नितांत गहराई में, “चेतना ने बांग दी” अर्थात वहां भी अंतरद्वन्द्व की गूंज स्पष्ट विद्यमान थी। व्यतिरेक की प्रतिमानों से अर्थ का ऐसा अभिनव प्रवर्तन कम ही देखने को मिलता है।

कविता का स्वर विद्रोही है। आधुनिक विकास के द्वन्द्व एवं पाखण्ड को उजागर करती यह कविता विद्रोह से भरी हुई जन चेतना की आवाज को तो बुलन्द करती ही है, भविष्य के प्रति नियति को चुनौती देने की हद तक, आश्वस्त भी कराती है।

काव्य का आदि कारण है वेदना.... ! ‘आदिम इच्छा के एक फल.....’ सांसारिक लालसा का प्रतीक है। मिथ्या मोहपास मे आबद्ध इस जग की विपरीत वारि में नैय्या में नदिया न डूबे तो क्या हो.... ? इस मिथ्या इच्छापूर्ति के अहसास और परिणाम में कवि ‘काट रही सजा, सृजन के कारागार में, अब बाहर निकलकर आ गई’ कह सर्जनात्मक निकष खोज लेता है।

बिम्ब अद्भुत हैं, पारम्परिक नहीं है – सर्वथा नवीन से हैं और जिस तरह शब्द-योजना में उन्हें पिरोया गया है, वह गहरा प्रभाव देते प्रतीत होते हैं। व्यंग्य में प्रयुक्त प्रतीक व उपमाएं नए से लगते हैं और हैं बिलकुल सटीक। ‘आदिम इच्छा के / मात्र एक फल चख लेने की / काट रही सजा’ जैसे वाक्यांशों में निहित भाव विस्तार व नवीन अवधारणाएं हृदयग्राही हैं। कवि का दृष्टिकोण रूमानी न होकर यथार्थवादी है। कविता में प्रांजलता पूरी तरह बनी हुई है।

सोच तो लेते ,

कि मुक्त शीतल मन्द पवन

जब भी करवट बदलेगा

महाप्रलय की बेला में

हिमालय की गोद भी

शरण देने से तुम्हें कतराएगी।

यहाँ कवि दृढ़ प्रतिज्ञ हैं और वह मार्ग दिखलाने वाले निर्देशक कि भाँति आगाह करता है। वचन कठोर हो सकते हैं लेकिन एक हितैषी की मंगलकामना वाली वाणी के समान हैं। कविता में भावोत्कर्ष प्रवाहित करने में रायजी को महारत हासिल है। उनकी यह कविता पढ़कर पाठक दूसरी दुनिया में पहुंच जाता है।

इस रचना में जीवन में तात्कालिक परिस्थितियों से आंदोलन, लाखों युवकों की बेरोजगारी के दंश से पीड़ित, लालफीताशाही, सांप्रदायिकता, घूसखोरी, अफसरशाही के खिलाफ सही और निर्भीक इजहार है। कवि ने इस कविता के माध्यम से देश की खोखली होती जा रही व्यवस्था और हालात का पर्दाफाश किया है। यह कविता आज की भारतीय राजनीति के स्वरूप को उद्घाटित करती है जहां राजनीतिज्ञों तथा उनकी संतानों की प्रतिबद्धता केवल अपनी पार्टी और संगठन के प्रति है। जो प्रजा उनको चुनकर भेजती है उसको केवल नीति, धर्म और न्याय आदि का उपदेश देकर कर ही जनता के समक्ष अपनी उदारता व्यक्त करते हैं। किंतु देश के प्रति, प्रजा के प्रति कितनी निष्ठा और चिंता है वह जग ज़ाहिर है।

लेकिन कवि स्वयं के व्यक्तिवादी ना होने की पुरजोर स्थापना करता हैं साथ ही निरपेक्षता भी प्रस्तुत करता है। उसका उद्देश्य व्यापक है, परिक्षेत्र व्यापक हैं। कोरा निदेशन ही नहीं है। भावनाओं का आवेग है, करुणा है, आत्मीयता है और इन सबसे ऊपर समाज को परिणाममूलक दिशा प्रदान करने का उद्देश्य भी है। यह व्यंजना बहुत ही चमत्कृत करने वाली और हृदयस्पर्शी है-

मेरे तो सौभाग्य और दुर्भाग्य की

सारी रेखाएं कट गईं,

संस्कारों का विकट वन

जलाने से निकले श्रम सीकर

अभी तक सूखे नहीं”

बन्धन मेरी सीमा नहीं,

मात्र बस ठहराव था।

साथ बैठकर रोया कभी

तो मोहवश नहीं

करुणा की धारवश।

रचना में न तो अनिश्चय है और न अस्तव्यस्तता। कवि ने अपनी सबसे अलग और वजनदार आवाज से ‘चुप’ रहे लोगों को अपनी वाणी दी है, उन्हें ऊर्जस्वित किया है। जो मनुष्य को पलायन या वैराग के राग से नहीं, अपितु मनुष्य में कर्मों के प्रति संघर्ष-चेतना भरता है, असीम ऊर्जा और क्षमतावान बनाता है।

तल्ख और तेवरदार आचार्य राय ने कुछ ऐसी समस्याओं की ओर हमारा ध्यान खींचा है, जो आज से 20 वर्ष पहले भी थीं, आज भी हैं और तब तक रहेंगी जब तक सामंती एवं पूँजीवादी आधारों पर टिकी व्यवस्था खत्म नहीं हो जाती। पूँजी पर टिके हुए किसी समाज में पूँजी आदमी और आदमी के बीच एक बड़ी दीवार के रूप में खड़ी हो जाती है। जिनके पास पैसे हैं, वे दुनिया की हर अच्छाई का वरण कर सकते हैं, वे दुनिया की हर खूबसूरत वस्तु का उपभोग कर सकते हैं, वे देश और दुनिया को अपने इशारे पर नचा सकते हैं और तथाकथित स्वर्ग का सुख इस धरती पर ही हासिल कर सकते हैं। कवि ने कविता में न सिर्फ़ विषमता के जहरीले प्रभाव को ही चित्रित किया है; अपितु उस विद्रोह की ओर भी इशारा किया है जो नौजवानों के दिल और दिमाग में पैदा हो रहा है। यह संकेत करता है कि अब अधिक दिनों तक आर्थिक विषमता कायम नहीं रखी जा सकती।

कविता की भाषा में ताजगी है। प्रवाहमान भाषा और विनोदपूर्ण शैली के साथ ही प्रतीक और यथार्थ के सोने में सुगंध वाले योग के कारण यह रचना काफी आकर्षित करती है। कविता की अलग मुद्रा है और इसे प्रस्तुत करने का अंदाज नया है। रचना को धारदार बनाने के लिए प्रयुक्त भाषिक संयम की अनूठी मिसाल है यह कविता। जहाँ कई वाक्यों की बात कम से कम वाक्यों में कहीं जा सके, कथन स्फीत न होकर संश्लिष्ट हो; वहां भाषिक संयम स्वतः आ जाएगा। इसमें वर्णन और विवरण का आकाश नहीं वरन् विश्लेषण, संकेत और व्यंजना से काम चलाया गया है।

विद्रूपताओं पर प्रहार करने के लिए व्यंग्य की आवश्यकता पड़ती है और नाव में नदी का डूबना से बढकर अद्भुत व्यंजना क्या हो सकती है!!!

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत विस्तृत और सटीक समीक्षा.....हर पहलू का ध्यान रखा गया है...

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  2. Shri Manoj Kumar ji ki 'Nadiya Dubi Jai' par Aanch ka yah ank mul kavita se bhi adhik moulik laga. Yah samiksha ke atirikt bhi adhik sandesh deti abhivyakti. Yadi Kahin asahamati hai to matra un shabdon ke prati jo meri prashansa mein kahe gaye hain. Yah ank samiksha ka ek naya andaj hai.

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  3. बहुत सुंदर समीक्षा। विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है।

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  4. यह समीक्षा अब तक की श्रेष्ठतम समीक्षाओं में से एक है. समीक्षा मे भाषिक और वैचारिक स्तर का इतना उत्कर्ष देखकर अन्तर्मन के किसी कोने में ईर्ष्या सी होने लगी है. कम से कम मैं तो ऐसा नहीं लिख सकता.

    मनोज जी की साहित्यिक प्रतिभा और कौशल का आदर करते हुए उनसे और अपने सभी पाठक बन्धुओं से क्षमा के आग्रह के साथ मैं कविता के प्रमुख बिम्ब 'नाव में नदी डूबने' को जो समझ रहा हूँ उसे कुछ स्पष्ट करना चाहता हूँ.

    यहाँ नाव व्यक्ति का प्रतीक है और सूक्ष्म रूप है जबकि नदी प्रतीक है बाह्य पगत का, विस्तार पा चुकी अराजक और अनाचारी प्रवृत्तियों का. परिस्थितियों की पराकाष्ठा (जैसा कि वास्तविक चित्रण समीक्षा में किया गया है) में जब व्यक्ति अपनी समस्त ऊर्जा को केन्द्रित कर आध्यात्मिक तप और बल से अपनी शक्तियों का इतना विस्तार कर लेता है कि वह सूक्ष्म अनन्त विराट से एकाकार हो जाता है या यों कहें कि उक्त दुराचारी - अनाचारी प्रवृत्तियों के समक्ष विराट हो जाता है तो ऐसी स्थितियों में नदी नाव में डूबेगी ही. शायद, कवि ने ऐसी स्थितियों की कल्पना करते हुए ही 'अचेतन की उस तली से चेतना ने बाँग दी' और 'काल का घेरा टूटने को आ गया है' कहते हुए 'नदी के नाव में डूबने' की बात अर्थ के इसी स्तर पर कही होगी.

    सम्भवतः आचार्य रायजी भी इससे सहमत होंगे.

    पुनः क्षमा के साथ,
    - हरीश.

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  5. कविता पर टिप्पणी की थी ।
    सबको लील लेने की क्षमता को प्रकाशित करते शब्द ।

    आज पुनः वही भाव उजागर हो गये । कुछ तथ्य जो अनुभववश दृष्टिगोचर नहीं थे, आपकी समीक्षा ने दिखा दिये ।

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  6. कविता तो बेशक उम्दा थी.... प्रस्तुत समीक्षा में समीक्षक अपने इरादे में पूरे इमानदार और कोशिशों में सौ फीसदी कामयाब रहे हैं ! समीक्षित कविता के गूढ़ भाव को प्रतिध्वनित करने में सक्षम हैं ! धन्यवाद !!!

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  7. यह समीक्षा अब तक की श्रेष्ठतम समीक्षाओं में से एक है!

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  8. pahli baar aisi sameeksha padhi. bahut acchha laga padh kar aur kavita aur kavi ko gahre tak jaanNe ka mauka mila.

    aapka kaam prashansniye hai.

    aabhar.

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