बुधवार, 2 जून 2010

देसिल बयना - 32 : घर में आग लगे, भर घर इजोत

-- करण समस्तीपुरी
बाप रे बाप ! ओह... !! उ साल भी ऐसने झरकल (जला हुआ) गर्मी पड़ रहा था। किरिन के साथे लू चलने लगता था। लोग गोसाईं उगने से पहिलही मुंग-उंग तुडवा के घर पकर लेते थे। मगर घरो में का चैन था... ! घैला का पानी भी लगता था घुर पर चढ़ा के लाया है।
उहो दिन गर्मी एकदम बेशर्मी हो गया था। घर में लग रहा था कि देह से लहरा फेक रहा है। बांस के बैनिया (पंखा) झलते-झलते बांह दुखा गया। उ तो कहिये कि जमेरी नीबू के शरबत पीये तब जा कर कुछ राहत मिली। फिर हम, पचकोरिया, झुरुखना, बटिया, चौबन्नी लाल, कुक्कू, लहरू सब गमछी से माथा ढक के चले पछियारी गाछी। मनसुक्खा, तेतरा और जट्टा झा पहिलही से आम ओगर रहे थे। किशन-भोग और बम्बैय्या तो लला गया था, मालदहो में कोसा पकर लिया था।
झुरुखना घर से गुरम्मा लाया था। मनसुक्खा ढोराई चौधरी के खेत से मकई का बाल तोड़ लाया। फिर आम के पत्ता में ओढ़ा पका के गुरम्मा के साथे सब लोग चटाक से चट कर दिए। बेरिया में पुरबैय्या डोला तो टोला से एकाध लोग और आ गए। पचकोरिया जुडुवा गाछ से किशन-भोग आम का एगो गुच्छे गिरा दिया। फिर तो जो मजा आया कि पूछिये मत। आप विश्वास नहीं कीजिएगा, मगर कच्चो में उ आम ऐसा मीठा था की.... ओह रे ओह ! चीनियो से बढ़ के।
आम-उम खा के हम लोग सुस्ता रहे थे। झरकल दुपहरी के बाद पुरबा हवा से देह में कुछ प्राण आया ही था कि तोला दिश से हल्ला हुआ... ! दौड़ो हो... !! दौड़ो हो...... !!! हम लोग को लगा कि का हुआ... भाई दिन देखारे कौन चोर-छुहार घुस गया टोला में... ? सोचे आगे-पाछे मगर दौड़ पड़े हम सब लोग एक्के साथ। टोला में घुसे से पहिलही दिख गया... सब लोग लोटा, बाल्टी ले के दौड़ रहे हैं। समझते देर नहीं लगी कि ओ.... जरूर कहीं आग लगा है।
बाप रे बाप ! बैशाख महीना के कड़क धूप में सूखल जौन चीज आग देखेगा सब जल जाएगा... पूरा टोला सुडाह हो (जल) जाएगा.... ! उधर सब आग बुझाने में जुटा हुआ था कि अचानक झोटैला इधर से 'मिल गया... मिल गया' .... करते हुए निकला। सब घामे -पसीने तर मगर झोटैला अभियो ख़ुशी से होंठ चीर रहा था। सब पूछा, "का मिल गया जी ?" ससुरा बोलता है का... "हमरी पहली ससुराल वाला अंगूठी था नहीं.... हे देखिये... अभियो तक एकदम चक-चक कर रहा है.... ! कित्ता दिन हो गया था ई के गुम हुए..., खोज-खोज के ठक गए, मिला नहीं... ! आज अगिन-देवता के आशीर्वाद से मिल गया... !!"
बदरू काका डपट के पूछे, 'का बात करता है, मरदे... !" झोटैला बोला, 'नहीं कक्का... ! ठीके कहते हैं। गरीब आदमी का कचिया घर.... दिनों में घुप अन्धेरा रहता है.... ! महीना लगचिया गया खोजते-खोजते.... ! हम तो हिम्मत हार दिए थे कक्का। मगर आज हमरे भाग से आग लगा... ! 'घर में आग लगा, भर घर इजोत... !' जैसे ही इजोत (प्रकाश) हुआ, भक से कोठी के दोग (बगल) में अंगूठी चमक उठा। सच्चे कहते हैं, 'कक्का !"
आग-उग तो बुताइए दिया था सब मगर सब लगा झोटैला को चोटाहे। कोई अभागा कहे तो कोई बेवक़ूफ़... ! मगर हम कहे कि भाई आग लगिए गया तो उसमे उ का का गलती है। बेचारा कहा तो ठीके, 'घर में आग लगे, भर घर इजोत !' आखिर घर में लगे आग से उत्पन्न प्रकाश के कारण ही न बेचारा का महीना दिन से भुलाया हुआ ससुराली अंगूठी मिल गया। ठीक है कि आग लगना अशुभ था, उस से बहुत नुकशान हुआ... मगर एक फायदा भी तो हुआ... ! खोयी हुई अंगूठी तो मिल गयी... !" मतलब 'वक़्त चाहे जितना भी बुरा हो मगर उसमें भी कुछ न कुछ सकारात्मक बात छुपी होती है। आखिर घर में आग लगने से घर भर में रौशनी हुई या नहीं....?'
फिर सब लोग हाँ-हाँ कर उठे और झोटैला का बात उ दिन से कहावते बन गया, "घर में आग लगे, भर घर इजोत"तो यही था आज का देसिल बयना। अब मिलेंगे अगले हफ्ते। अभी खातिर राम-राम !!!

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सही कहा है
    वक़्त चाहे जितना भी बुरा हो मगर उसमें भी कुछ न कुछ सकारात्मक बात छुपी होती है।

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  2. बेमिसाल लहजा है आपका इस देसिल बयना का...बहुत बढ़िया

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  3. पूर्व की तरह अच्छी प्रस्तुती.

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  4. वाह बहुत सुन्दर ! बेहतरीन प्रस्तुती!

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  5. achee prasstuti. Prantiy bhashaon kee apanee hee ek mithas hai........

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  6. आईये जाने .... प्रतिभाएं ही ईश्वर हैं !

    आचार्य जी

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