शनिवार, 26 मार्च 2011

फ़ुरसत में …. कनपुरिया होली .......

व्यंग्य

कनपुरिया होली .......

हरीश प्रकाश गुप्त

यदि आप हमारे कानपुर नगर के इतिहास, भूगोल और संस्कार से परिचित नहीं हैं तो मान लीजिएगा कि आपकी जानकारी का लेविल कुछ कम है। बात कुछ कड़क लग रही हो तो कृपा करके इसे थोड़ा घुमाकर समझ लीजिए। यह आपका ही काम है। लेकिन सच तो सच ही है। हो सकता है कि आपने अभी तक इस शहर के दर्शन ही न किए हों। यह भी हो सकता है कि आपने यहाँ की पावन महिमा का बखान किसी के श्रीमुख से सुन रखा हो। फिर भी, यदि यह सच है तो आप अभी तक इस धरती की रज से पवित्र हुए बिना ही शेष धरा पर विचरण कर रहे हैं।

बात यदि दो चार सिद्धियों की हो तो उनका क्रमशः वर्णन कर दिया जाए। लेकिन यहाँ तो हरि अनंत “हरि कथा अनंता” की भाँति कोई ओर-छोर ही नहीं है। विश्वास नहीं तो आप कश्मीर से कन्याकुमारी तक अथवा कोटा से कोलकाता तक के रास्ते में कहीं भी कानपुर की चर्चा छेड़ दीजिए। बस। आपको अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रहेगी। आपके इर्द-गिर्द दो चार विद्वतजन जरूर मौजूद होंगे जो यहाँ की महिमा को अनेकानेक विशेषणों से विभूषित करते हुए विभिन्न उद्धरणों की मदद से इति सिद्धम करते हुए अविराम गतिमान रखेंगे।

यहाँ प्रसंग को आप अन्यथा न लें। मतलब वृत्तांत की दिशा आज वह नहीं है जिसे आप समझ बैठे। यहाँ पर बात होली की हो रही है। केवल होली की। दुनियाँ भर में अगर यहाँ और बरसाने की होली को छोड़ दें तो बाकी जगह होली तो बस हो ली की तरह बीती बात की तरह होकर रह जाती है। बरसाना तो ठहरा राधा जी का मायका। वहाँ की बराबरी कौन करे। वहाँ के लोग आज भी इसे दिल से मनाते हैं। महीने भर होली मनाते हैं कि कन्हैया आवें और पूरा गाँव उन्हें रंग में डुबो-डुबोकर होली खेले। लेकिन पहुचते हैं वहाँ ढीठ गोकुल वाले। सबके सब अपने को कृष्ण कन्हैया समझ बरसाने की ग्वालनों का सामीप्य और स्पर्श पाने का सपना संजोए पँहुच जाते हैं हर बार। अब वो द्वापर वाली ग्वालनें तो हैं नहीं, जो वंशी की तान सुनते ही अपना सब कुछ बिसराकर खुद ही समर्पण करने चली आवेंगी। भगाने के कितने उपाय तो कर लिए उन्होंने। होली के नाम पर नए नए हथकण्डे तक ईजाद कर लिए, मसलन लट्ठमार होली, कपड़ाफाड़ होली, कोड़ामार होली आदि, आदि। अभी बरसाने वालियों पर से देश की संस्कृति, मर्यादा और परम्परा का भार पूरी तरह उतरा नहीं है सो गज भर का लम्बा घूँघट काढ़कर गोकुल वालों पर लट्ठ बरसाती हैं कि एक-आध सही जगह पड़ जाए तो अकल ठिकाने आ जाए। हो सकता है कि उनके इस कला में पारंगत होने के कारण ही उनके गाँव का नाम बरसाना पड़ा हो। वे गोकुलवालों के कपड़े फाड़-फाड़कर अधनंगा कर भिगो-भिगो कर कोड़े मारती हैं । लेकिन गोकुलवासी इसे अपनी लज्जा से न जोड़ते हुए प्रेमरस भरे रंग की फुहार मान वापस लौट जाते हैं अगली बार अधिक जोश और उल्लास से सराबोर होकर वापस आने का संकल्प लेकर। शायद अगली बार सफल हों।

कानपुर में होली की अपना अलग ही इतिहास है। यहाँ की होली का कोई पौराणिक दृष्टांत नहीं है। इसका संबंध देश के स्वतंत्रता आंदोलन से है, सम्मान से है, स्वाभिमान से है। कहते हैं वर्ष 1923 में हटिया मोहल्ले कुछ स्वतंत्रता सेनानियों की बैठक हो रही थी। जिसमें गुलाबचन्द्र सेठ, जागेश्वर त्रिवेदी, पं0 मुंशीराम शर्मा सोम, रघुबर दयाल, बाल कृष्ण शर्मा नवीन, श्याम लाल गुप्त ‘पार्षद’, बुद्धूलाल मेहरोत्रा और हामिद खाँ सहित देशप्रेमी बुद्धिजीवी, व्यापारी और साहित्यकार सभी थे। तभी पुलिस ने इन आठ लोगों को हुकूमत के खिलाफ साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार करके गंगा किनारे सरसैया घाट स्थित जिला कारागार में बन्द कर दिया। इनकी गिरफ्तारी का कानपुर की जनता ने एकमत होकर विरोध किया और होली नहीं मनाई। आठ दिन बाद फिरंगी सरकार झुकी और जब उन्हें रिहा किया गया, तो उस समय आकाश में ‘अनुराधा-नक्षत्र’ लगा हुआ था। जैसे ही इनके रिहा होने की खबर लोगों तक पहुँची, लोग कारागार के फाटक पर पहुँच गये। उस दिन वहीं पर मारे खुशी के अबीर-गुलाल और रंगों की होली खेली गई तथा पवित्र गंगा जल में स्नान किया गया। गंगा तट पर मेला सा दृश्य था। तभी से यहाँ पर परम्परा बनी। होली से अनुराधा नक्षत्र तक कानपुर में होली की मस्ती छायी रहती है। असल होली तो अखिरी दिन ही दिन में जमकर खेली जाती है। सुबह हटिया से रंग का ठेला निकलता है। ठेले पर रंग से भरे ड्रम लेकर मस्ती में हु़ड़दंग करती अगल-बगल, ऊपर-नीचे सभी पर रंग उड़ेलती हुई चलती है हुलवारों की टोली। ढोल, नगाड़े की गूँज और फाग गाते हुए जो मिलता गया सबको दल में समेटते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। एक बड़े हुजूम जैसा, अपने से नियंत्रित और अपने में ही केन्द्रित। पूरा कानपुर रंग से नहाया हुआ। सायं गंगा तट पर मेले का आयोजन होता है। जहाँ सभी लोग इकट्ठे होते हैं। अपने राग द्वेष भूलकर एक दूसरे से मिलते हैं। जाजमऊ और अहिरवाँ में अलग ही कथा है। जाजमऊ और उससे लगे बारह गाँवों में पाँच दिन बाद होली खेली जाती है। कहा जाता है कि कुतुबुद्दीन ऐबक की हुकूमत के दौरान ईरान के जंजान के शहर काजी सिराजुद्दीन के शिष्यों के जाजमऊ पहुँचने पर तत्कालीन राजा ने उन्हें जाजमऊ छोड़ने का हुक्म दिया तो दोनो पक्षों में युद्ध हुआ। इस युद्ध के दौरान किले के बहुत से लोग मारे गये। उस दिन भी होली ही थी। इस दुखद घटना के चलते नगरवासियों ने निर्णय लिया कि वे पाँचवें दिन होली खेलेंगे। तभी से यहाँ पाँचवें दिन होली खेले जाने की प्रथा है। इस क्षेत्र में सायंकाल पंचमी का मेला लगता है। यह तो ठहरा ऐतिहासिक दृष्टांत। अब देखिए कनपुरिया होली का रंग।

दृश्य - 1

कनपुरियों का कहना है कि होली में गोकुलवासियों को लज्जा नहीं आती तो हमें काहे की लज्जा। आनी भी नहीं चाहिए। कैसा भी कर्म हो, बस संकल्प के साथ किया जाए। और यह नगरी कोई भगवान की नगरी तो है नहीं। न द्वापर के कृष्ण की, न त्रेता के राम की। ये नगरी है छज्जू और बाँके की। बरसाने में रंग एक महीने चलता है तो होली में रंग यहाँ भी हफ्ते भर से कम नहीं चलता और छज्जू, बाँके की रंगबाजी भी कुछ कम नहीं चलती। हफ्ते भर की होली में मार्केट-वार्केट सब बन्द। प्रतिदिन आठ से बारह का टाइम शेड्यूल रहता है होली का। खूब खेलो। होली कम हुड़दंग ज्यादा। व्यापारी लोग भी सोचते हैं कि अपनी तहस-नहस कौन कराए और सरकारी विभागों की त्यौहारी वसूली से नोच खसोट कौन कराए। सो जिनका बस चलता है, निकल लेते हैं वार्षिक छुट्टी पर सैर करने। पुलिस प्रशासन अमला जमला मुस्तैद रहता है, चौक चौराहे या मेन मेन लोकेशन्स पर, ताकि दिखे कि वे मुस्तैद हैं। गलियाँ जाएं चूल्हे भाड़ में।

बस यही वो पेच है जिसकी आस छज्जू, बाँके को खास रहती है पूरे साल भर। दोनों के पेशे अलग अलग हैं। पेशा कोई खास नहीं। एक सरकारी विभाग में मुलाजिम है पाव टके दर्जे का। लेकिन विभाग धमकदार है। आई मीन, हिन्दी में कहें तो तीस तारीख की पगार चायपानी और एक आध बैठकी में ही पानी माँग जाती है। लेकिन उसकी फिकर किसे है। जब भी जेब हलकी लगी, घुस लिए किसी फर्म, फैक्टरी, दुकान, दालान का इन्सपेक्शन करने। विभाग का रसूख और बड़ी बड़ी मूँछों का मायाजाल ऐसा कि तुम्बा भी गुलदार सी बातें करना न भूले। बस अपना मान सम्मान अँजुरी में सामने रखकर चलना होता है।

होली की साप्ताहिक बन्दी में व्यस्तता कुछ अधिक ही बढ़ जाती है। रात बारह बजे तक पार्टियों के साथ चाही अनचाही बैठकें चलती हैं तो दिन के बारह तक आफिस में नींद के झोके। होली दीवाली ही तो पेशे की सहालग हैं, सो वह चैन-सुख और नैन-निद्रा को खूँटे से बाँध निकल पड़ता हाड़ तोड़ मेहनत के लिए। सो वह मेहनत एक बार फिर हाड़ तोड़ साबित हुई।

दो दिन बाँके नहीं दिखा तो छज्जू ने उसकी खैर खबर ली। बिस्तर पर बाँके। पैर में पलस्तर। टाँग आसमान की ओर उठी और दो ईंटों के ट्रैक्सन से खिंची। दो्स्त को देखा तो भावुकता में नैनों से नीर नदी सा बह निकला। उसकी घरवाली पड़ोसन को बता रही थी – किसी ने इनके स्कूटर में पीछे से टक्कर मार दी। देख तक न पाए। यह टाँग तीसरी बार उसी जगह से टूटी है। हाय री किस्मत। रंग का त्यौहार ही बदरंग हो गया।

वही टाँग, वही जगह, वही चोट ... वही छुट्टियाँ। छज्जू ने अश्रुधारा पर एक बार फिर दृष्टि डाली और इसके उद्गम के विषय, आहत और आह का विश्लेषण करने लगा। फिर उसने मसखरी के अन्दाज में एक प्रश्न उछाल दिया “यार मुझे तो सच बताओ। गए कहाँ थे. कहीं फिर वहीं पुराने जाजमऊ में, नफीस कटोरी के दालमिल कम्पाउण्ड में टेढे नाले के पास ......” “कभी चुप भी रहा करो। इज्जत पर पलीता लगाकर ही दम लोगे क्या. अरे यहाँ पर तो कुछ ढका छुपा रहने दो।” कहकर बाँके वर्तमान में आया और चेहरे पर कस के गमछा रगड़ लिया।

दृश्य -2

आज होली मेला है। दिन में खूब रंगबाजी हुई है। सड़कें हुसैन की चित्रकारी सरीखी रंगी हैं। नालियों में आज गंदे पानी पर रंग सवार होकर बहा है। कहीं तो सड़कें और दीवारें अभी तक सूख भी नहीं पाई हैं। लोगों ने शाम को मेला की तैयारी में खुद को रगड़-रगड़ कर साफ किया है तो कुछ का चेहरा जैसा अब जान पड़ने लगा है वर्ना सुबह तो पहचानना कहाँ से शुरू करें, यही तय करना मुश्किल हो रहा था। रंग के ठेले में जो गुम हो गया, सो हो गया। सभी लाल, हरे, पीले, काले रंग में डूबे पुतले की तरह ही जान पड़ रहे थे।

गोधूलि की बेला होने को है। पतित पावनी गंगा के तट पर भारी भीड़ जमा है। धुले, उजले, नवीन, रंगीन परिधानों में अधरंगे, रंग अभी तक पूरी तरह छूटा नहीं है, चेहरों वाले लोग किसी विशिष्ट समुदाय अथवा आधुनिक वस्त्रों में सुशोभित दूरदराज की वनजातियों के समूह से लग रहे हैं। बहुत चहल-पहल है। कहीं संगीत का कार्यक्रम चल रहा है, तो कहीं होली के लोकगीत का। कहीं बच्चे भी उत्साह से उल्लास में शामिल हैं। जगह-जगह छोटे बड़े टेन्ट, तम्बू, पाण्डाल, और शिविर लगे हैं। अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार। शासन-प्रशासन का टेन्ट, राजनीतिक, सामाजिक संगठनों के पाण्डाल, विभिन्न समुदायों, वर्गों, जातियों के तम्बू और स्वयंसेवी संस्थाओं के शिविर। सभी ने होली मिलन समारोह में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। थालियों में एक ओर अबीर और गुलाल सजा है, तो दूसरी ओर जलपान के लिए तमाम आइटमों के साथ गुझिया नवयौवना सी इतरा रही है। मिलन में अब सूखे रंग का तिलक ही लगेगा। तरल में ठण्डाई मिलेगी, हरी वाली भी। पीछे वाली लेन के और पीछे मेज के नीचे माधुरी भी उपलब्ध है, लेकिन यह केवल विशेष पास धारकों के लिए ही है।

इस भीड़-भाड़ से थोड़ा हटकर गंगा की तरफ एक तखत पड़ा है। उधर ज्यादा लोग नहीं आ-जा रहे हैं। दस-बीस लोग ही बैठकी लगाए हैं। आज तो सभी एक रंग में ही रंगे नजर आ रहे हैं, तो फिर ऐसा रंगभेद क्यों। लोग उस समूह से इतनी दूरी क्यों बनाए हैं। उत्सुकता ने कदमों को उधर ही खदेड़ना शुरू कर दिया। यह क्या ? देखा तो पहले आँखों पर विश्वास ही न हुआ। सब रंगों के मिक्स्चर से रंगे-सने काले कलूतड़े टेक्स्चर का एक व्यक्ति हिप-हिप-हुर्रे और यप्पी-यप्पीईई करते हुए पास आया और एक हाथ में हरी-हरी बड़ी सी गोली रखते हुए दूसरे हाथ में एक गिलास ठण्डाई पकड़ा गया। फिर कान में फुसफुसाया “ठण्डाई विद करण”। तभी बुर्राक सफेद कुर्ता पायजामें में एक सज्जन नदी की ओर से आते दिखाई दिए। धीरे-धीरे वे पास आ रहे हैं। शक्ल तो कुछ-कुछ करण जैसी ही लग रही है, रंगीन टेक्स्चर वाली। केवल कुर्ता पायजामा से तो पहचान होती नहीं, परंतु गीली मिट्टी पर उनके पैरों के निशान साफ दिख रहे हैं। पता चला कि कोई पहचान ही नहीं पा रहा था इसलिए नदी के पानी में अपना चेहरा एक बार फिर साफ करने गए थे। मनोज जी हैं भाई।

तखत पर आचार्य राय जी विराजमान हैं। आज उनका व्याख्यान काव्यशास्त्र पर नहीं हो रहा है। बताते हैं करण ने ओवर डोज दे दी है। होली के दिन बात हुई थी तो करण ने कहा था सारी भाँग रख दी है अगली होली के लिए। इसी विश्वास में आचार्य जी चार गिलास गटक गए। एक जिज्ञासु पधारे हैं जो उनकी शिष्यता और सान्निध्य पाने के उपक्रम में उन्हें प्रभावित करने के लिए उनसे प्रश्न पर प्रश्न किए जा रहे हैं और आचार्य जी हैं कि उन्हें टाल रहे हैं। उनका फिर एक प्रश्न आया – आचार्य जी ज्ञानचंद और मर्मज्ञ में क्या अंतर है, क्या दोनों का अर्थ एक सा नहीं है। यदि ऐसा है तो इनके एक साथ प्रयोग में पुनरुक्ति दोष नहीं होगा। इस बार आचार्य जी से नहीं रहा गया, बोले – वत्स, इसका लक्षण न तो पंडितराज जगन्नाथ ने रस गंगाधर में दिया है, न आनन्दवर्धन ने ध्वन्यालोक में। आचार्य ममम्ट भी इस पर मौन हैं। इसकी व्याख्या आधुनिक भृंग सम्प्रदाय के आचार्य ही कर सकते हैं। इनके आदि आचार्यों का तो ज्ञान नहीं। इनके कुछ शिष्यों में करण आदि का नाम आता है। इनका निवास बंगलौर के आसपास है। वैसे, प्रश्न किया है तो इसका विस्तृत उत्तर इसी मंच से अगली होली के अवसर पर दिया जाएगा। तब तक प्रतीक्षा करें।

अरुण राय ने खाँटी देशज अंदाज में होली खेली है, गोबर से। अपनी कमीज खराब न हो इसलिए बाबूजी की कमीज कल से ही पहने घूम रहे हैं। इस बार एक तो खोए के भाव आसमान को छू गए, ऊपर से मिलावटी खोए से दुखी होकर उन्होंने तय किया कि बिना खोए की, केवल चीनी की ही गुझिया बनेगी। जिसने भी उनकी गुझिया खाई गीली चीनी का स्वाद बहुत भाया। एक बुजुर्ग महिला संदूकची लेकर पधारी हैं। उन्होंने तखत पर संदूकची खोल कर पलट दी है। गुझिया, पापड़, चिप्स वगैरह सहित तरह-तरह के नमकीन व मीठे स्नैक्स का ढेर लग गया। धुंधलका होना शुरू हो गया है। दिन के स्वामी अर्थात भगवान भास्कर अस्ताचलगामी हो रहे हैं। लोगों की मस्ती गहराती जा रही है। तभी, जिसे लोग अभी तक रंग का ढेर समझ रहे थे, उसमें कुछ हलचल हुई। रंग झड़ा तो बड़ी-बढी दाढ़ी और बड़े-बड़े बालों वाले व्यक्ति का आकार उभरा। जब उन्होंने अपने सिर को एक बार और झटका दिया तो आकृति कुछ स्पष्ट हुई। लेकिन यह अभी भी सभी ब्लागर्स की समझ से बाहर थी। मैंने आवाज लगाई। अरे भई, दादा श्याम सुन्दर चौधरी हैं। कुछ ज्यादा ही चढ़ गई थी, करण के रहमो करम से। अच्छी तरह पहचान लीजिए। जल्दी ही इनसे आपकी फिर भेंट होने वाली है। अब हम लोग भी चलते हैं। फिर मिलेंगे। आप सबको होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं।

25 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया हरीश जी, लेकिन गुरु, आप तो कहीं नजर ही नहीं आ रहे हो। आप किस मंडली में हो। बहुत सुन्दर। इति सिद्धम्, इति सिद्धं कृतञ्च।

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  2. केशव कर्ण to हरीश, me
    show details 5:47 AM (1 hour ago)
    हरीशजी,
    नमस्ते !

    इस पोस्ट पर तो बारे गए महाराज. इतिहास, भूगोल और सामयिकी की जो सरस त्रिवेणी आपने बहाई है, अगर मेरे वश में होता तो इस पर "कानपीठ" पुरस्कार अवश्य देता. यह आलेख इस ब्लॉग पर मील का पत्थर होगा. अद्भुत है. सांकेतिक पात्रों का आपने बड़ा ही स्वाभाविक और जीवंत चित्रण किया है. आपकी लेखनी को नमन.

    सधन्यवाद !

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  3. होली की सही कनपुरिया तश्वीर बधाई

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  4. जी, मैंने तो देखा है कि वहां आठंव के मेले तक होली खेली जाती है.मैं वहां 1971 se 1978 तक रहा भी हूँ.मैंने कानपुर से क्राइस्ट चर्च कालेज से 1973 में M.Sc.किया है और वहां की होली के रंगों में खूब भीगा भी हूँ.वैसे उस शहर का इतिहास पढ़कर अच्छा लगा.

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  5. कानपुर की होली का इतना विस्तृत वर्णन पढ़कर ज्ञानवर्धन हुआ। आभार।

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  6. फुर्सत से खेली जाने वाली फुरसतिया होली की अच्छी रपट !

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  7. आइ हो दद्दा... इहां तो हमार आए से पहिलहै हमार टिप्पणिया लगी है.... कही हम भकुआय तो नहीं गये.... वैसे भी गुपुतजी कहिन हैं कि उहां हफ़्ता भर तक होली चलती है..... ! अलख-निरंजन !

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  8. हरीश जी आपके व्यंग्य लेखन पर तो मैं दंग हूं!
    कृपया इस विधा को ज़ारी रखें।
    बहुत सी जानकारी भी मिली, होली भी खेला।

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  9. मऊज आ गया गुरु. व्यंग अंग अंग में चुभ गईस

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  10. कनपुरिया होली के बारे में अच्छी जानकारी मिली ...होली का दृश्य २ बहुत बढ़िया रहन ...अभी तक मैं संदुकची वाली महिला को ढूँढ रही हूँ ...कुछ चिप्स वगैरह मिल जाते ..

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  11. @ आदरणीय आचार्य जी,
    अरे, मैं वहीं आपके ही तखत के नीचे श्याम सुन्दर चौधरी के ही पास तो बैठा था। रंगा पुता था न। हो सकता है इसीलिए आप मुझे पहचान न पाए हों। या फिर ठण्डाई का असर रहा होगा। याद कीजिए करण ने मुझे ही तो पहला गिलास पकड़ाया था।

    प्रोत्साहित करने के लिए आपका बहुत ही आभारी हूँ।

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  12. @ करण जी,

    कहो कैसी रही ?

    भगवान करे आपका वश पूरा चले। पर भाई समय रहते मुझे सूचित जरूर कर देना ताकि मैं वहाँ समय पर पहुँच जाऊँ।

    बहुत बहुत शुक्रिया। आपके क्षेत्र में जबरन प्रवेश करने पर अब मुझे भी आनन्द आ रहा है।

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  13. @ कुसुमेश जी,

    यहाँ होली मेला पहले भी अनुराधा नक्षत्र वाले दिन ही होता था। यह कभी पाँचवें दिन पड़ता है कभी छठे, सातवें या आठवें दिन। इसबार 24 तारीख को मेला सम्पन्न हुआ। आपका सम्बन्ध यहाँ से रहा है अतः आप यहाँ की होली से भलीभाँति परिचित हैं। इसी क्षेत्र में तो होती है जमकर होली। आपका यादों में प्रवेश करना मुझे भी अच्छा लगा।

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  14. @ मनोज जी,

    आपकी भावना का मैं आदर करता हूँ।

    इस होली पर मैंने तो साधिकार सब पर रंग उछाल दिया। मेरे ऊपर कैसा रंग आने वाला है पता नहीं।
    यहाँ हम लोग दूसरों पर रंग डाल कर कहते हैं - बुरा न मानो होली है।

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  15. अरे भैया अब हम का बतायी ! एक बार हमहूँ फंसि गए रहन कानपुर की गोबरिहा होली मां .......अष्टमी की होली वाला किस्सा तो हमका नाईं पता रहाय......अब याद रही १९२३ .....बाकी मज़ा आइ गवा .....

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  16. ये कौनो बात भई। होली तो अइसेन होंइ का चही, हमरे कानपुर जैसिन। अरे चाचा दादा बाबा सबै रँगि गे। आज का किस्सा बड़ा मजेदार रहा। जय हो ठण्डाई महराज की!

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  17. तीनों भागों का अंदाज बहुत ही मजेदार है। किस्सा गोई इतनी सरस और प्रवाहमय है कि वृत्तांत सजीव से लगने लगे हैं। कहानी चाहे छज्जू, बाँके की हो या फिर गंगा तट पर जुटे ब्लागर्स की, एक बार पढ़ने के बाद मन से उतर ही नहीं रही।

    यह फुरसत वाली पोस्ट बहुत अच्छी लगी। आभार,

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  18. बहुत बढ़िया .कनपुरिया होली का अगला पिछला सब इतिहास भूगोल समझा दिया.सुन्दरतम विवरण रहा.आभार.

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  19. कनपुरिया होली के आंखन देखे वृत्तांत ने पर्याप्त ज्ञानवर्द्धन किया । आभार इस रोचक प्रस्तुति के लिये...

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  20. दिल को जबरन रंग गया व्यंग्य भरा यह रंग,
    पीयें'गुरुवर' ठाट से, 'करन' पिलावें भंग !
    'करन पिलावें भंग,खूब मस्ती है छाई,
    ब्लॉग जगत में देखो होली आज है आई !

    हरीश जी,
    बरसाने और कानपुर की होली का विश्लेषण करते करते आपने रंगों की धार को ऐसा मोड़ा कि मज़ा आ गया !
    होली पर यह विशेष पोस्ट निश्चय ही संग्रहणीय है !
    आभार !

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  21. बहुत ही दुर्लभ पोस्ट ..मनोज भाई । एक ही सांस में पढ गया

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  22. bahut badhiya Harish Bhai, mouj aa gayi, ek baargi phir se holi ka mood bun gawa, bahut dhang se sumjhayo kanpuria holi ka subke, yehi tara lage raho

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  23. हरीश जी.. देरी से ही सही हमारी भी हाजिरी दर्ज कर लें..एक दम सिनेमा का माफिक आप लिखे हैं.. केतना बार तो हमको लगा कि मुह पर हाथ लागाएंगे तो हमको भी रंग लग जाएगा.. गोबर का मंहक भी दिमाग में उतर गया!!
    भीजा दिया आप!! सराबोर कर दिए!!

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  24. इतना अच्छा व्यंग्य कम ही पढने को मिलता है।
    खास कर ब्लॉग पर।
    साहित्य की हर कसौटी पर खरा।
    इसे एडिट कर हास्य-व्यंग्य ब्लॉग पर लगा देता हूं।

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  25. बहुत दिलचस्प .... बहुत रोचक ....

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