भारत और सहिष्णुता-अंक-19
जितेन्द्र त्रिवेदी
अंक-19
इस्लाम का उदय मुहम्मद साहब के उदय से गुँथा हुआ है। उन्होंने तत्कालीन अरब के भोग-विलास और बेहयाई पूर्ण समाज को सही दिशा दिखाने के उद्देश्य से उन्हें ईश्वर की राह पर लाने की जो जद्दोजहद शुरू की, उसकी चरम परिणति थी – ‘इस्लाम’। ‘इस्लाम’ का अर्थ है – शांति में प्रवेश करना और ईश्वर के आगे अपने को सौंप देना। मुहम्मद साहब का जन्म 570-71 ई. में अरब प्रायदीप के मक्का नगर में हुआ था। उनके पिता अब्दुल्ला तथा माता आसीना ‘कुरैश’ नामक कबीले से संबंधित थे। अरब के कबीले आपस में लड़ते रहते थे और उनकी एक-दूसरे से बदला लेने की रस्म पीढ़ीयों तक चलती थी। मुहम्मद साहब यह देख कर दुखी रहते थे और इससे भी ज्यादा वे दुखी थे – उस समाज की अश्लीलता, नग्नता, जहालत और खुली गुमराही से।
जब वे 30 वर्ष पार कर गये तो धीरे-धीरे उनके व्यक्तिव में बदलाव आने लगा। उनका मन सांसारिक विषयभोगों में नहीं लग रहा था और वे मक्का के समीप एक पहाड़ की गुफा के तंग रास्ते पर बैठकर घंटों ध्यान लगाते रहते थे। जब वे 39 वर्ष की अवस्था में पहुँचे तो अचानक ध्यान में उन्हें ईश्वरीय अनुभूति हुई और यह पैगाम मिला कि ईश्वर ने उन्हें अपने काम के लिये चुन लिया है। इसी दिन से उन्हे नबूबत हासिल होना माना जाता है, किन्तु मुहम्मद साहब इस घटना से डर गये और दौड़ते हुए घर पहुँचे और डरते-डरते अपनी पत्नी खदीजा को सारी बातें बता दीं। भय से उनका सारा शरीर कंपायमान था और उन्हें लग रहा था कि अब वे जीवित नहीं रह पायेंगे। इस पर उनकी पत्नी ने उन्हे ढाढस दिया और समझाया- ‘आपके प्राणों को कोई भय नहीं है। आप एक नेक इंसान हैं, सगे-संबंधियों का हक देते हैं, लोगों की जिम्मेदारी उठाते हैं, सज्जनों, संतो, गरीबों और मुहताज लोगों की सहायता करते हैं, लोगों की कठिनाइयों में मददगार बनते हैं। आपके साथ ईश्वर कुछ गलत क्यों करेगा? पत्नी के समझाने पर उन्हें थोड़ी तसल्ली तो हुई पर पत्नी भी भीतर से सहम गयी थी। पत्नी उन्हें लेकर एक वृद्ध ईसाई धर्माचारी के पास गई। उन्होंने उस वृद्ध ईसाई को सब कुछ बताया तो वह बोला- ‘यह वही तत्व ज्ञाता फरिश्ता है जो हजरत मूसा पर उतरा था किन्तु इसकी जाति के लोग इसका बहिष्कार कर देंगे, इसे सतायेंगे।‘ इन बातों ने मुहम्मदसाहब को सचेत कर दिया किन्तु वे ‘हीरा’ नामक गुफा पर नियमित रूप से जाते रहे और पुन: उस तरह की अनुभूति की प्रतीक्षा करने लगे। इस प्रतीक्षा में उनका ध्यान निरंतर एकाग्र होने लगा और उनके हृदय पर जो अकस्मात संस्कार मनुष्य प्रवृत्ति के कारण पड़े थे दूर हो गये। अब उनके हृदय में लगातार उसी ईश्वरीय अनुभूति के संदेश की इच्छा बलबती होने लगी। एक दिन जब वे ध्यान में बैठे तो उन्हें ‘ज्ञान के रूप में सुरा-ए-मुद्दसिर की आरंभिक आयतें अवतीर्ण हुई जो इस प्रकार हैं:
"ऐ कमली ओढ़ने वाले! उठ! पथ भ्रष्ट लोगों को सचेत कर ......." उन्हे स्पष्ट ईश्वरीय आदेश मिल गया कि - ‘ला इलाह इल्लल्लाह मुहम्मदरसूलउल्लाह’, अर्थात् ईश्वर एक है और मुहम्मद उसका पैगंबर है, ईश्वर के अलावा अन्य किसी की भी उपासना करना मानवता के लिये जहर है। मनुष्य को स्वार्थ रहित होकर समस्त कामनाओं का त्याग करके परस्पर भाईचारे से रहना चाहिये। हजरत मुहम्मद साहब ने इन ईश्वरीय संदेशों को मक्का के लोगों तक पहुँचाना शुरू कर दिया, किन्तु उनका भारी विरोध हुआ, उनका मजाक उड़ाया गया और उन्हें तरह-तरह से सताया गया। लेकिन लोग यह भी देख रहे थे कि जो लोग मुहम्मद साहब की शिक्षाओं पर अमल करने लगे वे और भी अधिक सत्कर्मी, सत्यवादी, शुद्ध और विनम्र होने लग गए थे। इस फर्क का असर जनता पर पड़ना स्वाभाविक था।
मुहम्मद साहब के मार्फत कुरान की ऐसी-ऐसी आयतें उतरने लगी जिनको पढ़ने और सुनने पर उनकी मिठास लोगों के अपनी ओर खींचने लगी:
"और ‘यतीमों’ को उनका धन दो और न बुरी चीज को उनकी अच्छी चीज से बदलो और न उनके माल को अपने माल के साथ गड्डमड्ड करके उसे हड़पो।"
(सूरा अन-निसा। आयत संख्या-2)
"जो कुछ अल्लाह ने तुममें से किसी को दूसरों के मुकाबले अधिक दिया है, उसकी कामना न करो ....."
(वही / आयत सं. 32)
"और अच्छा व्यवहार करो, माता-पिता के साथ और नातेदारों, अनाथों, मुहताजों और पड़ोसियों के साथ और पास के व्यक्तियों के साथ और उन नौकरों के साथ जो तुम्हारे पास हो। निसंदेह अल्लाह किसी ऐसे व्यक्ति को पसंद नहीं करता जो इतराने वाला और डींग हाँकने वाला हो।"
(वही / आयत सं. 36)
"यदि तू मुझे कत्ल करने को मेरी ओर अपना हाथ बढ़ायेगा तो मैं तुझे कत्ल करने को तेरी ओर अपना हाथ बढ़ाने वाला नहीं हूँ ....... जिसने किसी बेगुनाह व्यक्ति को मारा तो मानों उसने समस्त मानवता की ही हत्या कर डाली और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, उसने मानो समस्त मनुष्यों को जीवन प्रदान किया।"
(सूरा अलमाइदा / आयत सं. 28 एवं 32)
"हे नबी कह दो- मैं तुम लोगों से यह नहीं कहता कि मेरे पास अल्लाह के खजाने हैं और न मैं परोक्ष की सारी बातें जानता हूँ और न मैं तुमसे यह कहता हूँ कि मैं फरिश्ता हूँ। मैं तो बस उसी पर चलता हूँ जो राह मेरा ईश्वर दिखाता हे।"
(सूरा अल-अनआन/ आयत सं. 50)
"और तुम्हारे पास तुम्हारे ईश्वर की ओर से सूझ-बूझ की बातें आ चुकी हैं तो जिस किसी ने सूझ-बूझ से काम लिया तो उसमें उसका अपना भला है और जो कोई फिर भी अंधा बना रहा तो उसने खुद अपना बुरा किया। ........ और अल्लाह के सिवा ये जिन्हें पुकारते हैं इस्लाम मानने वाला उन्हें कतई गाली न दे क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि ये लोग फिर आगे बढ़ कर ईश्वर को ही गाली देने लग जाये।"
(वही / आयत सं. 105 एवं 109)
"आओ मैं तुम्हें सुनाऊँ कि तुम्हारे रब ने तुम्हें किन चीजों से रोका है, यह कि उसके साथ किसी और को शरीक न ठहराओ, माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करो, गरीबी के कारण अपनी औलाद की हत्या न करो, अश्लील बातों के पास भी मत फटको, चाहे वे खुली हों या छिपी हों और किसी जीव की हत्या मत करो ..... और यह कि अनाथ के माल के निकट भी न जाओ और जब बात कहो तो न्याय की कहो, चाहे मामला अपने नातेदार का ही का क्यों न हो"
(वही / सूरा 152 – 153)
"कह दो मेरी नमाज और मेरा जीना और मेरा मरना सिर्फ ईश्वर के लिये है, जो मेरा ही नहीं सारे संसार का मालिक है। अपने रब को गिड़गिड़ा कर और चुपके-चुपके पुकारो।"
(वही / सूरा 163 और सूरातुल अअराफि/ आयत 55)
"नरमी और क्षमा से काम लो, भले काम का हुक्म दो और अज्ञानी लोगों से न उलझो।"
(सूरातुल अअराफि/ आयत सं. 199)
"मॉं-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करो। यदि उनमें से कोई एक या दोनों तुम्हारे सामने बुढ़ापे को पहुँच जाये तो उन्हें ‘हूँ’ तक न कहो और न ही उन्हें झिड़को बल्कि उनसे भली बातें करो और दयालुता के साथ उनके लिये विनम्रता की भुजा झुका दो और कहो: ‘मेरे मालिक। जिस तरह इन्होंने बचपन में मेरा पालन-पोषण किया है, तू भी इन पर दया कर।"
(सूरा बनी इसराईल/आयत सं. 23 से 24)
"और व्यभिचार में लिप्त मत हो, निसंदेह वह एक अश्लील कर्म और बुरा मार्ग है। धरती में अकड़ते हुए न चलो। न तो तुम धरती को फाड़ सकते हो और न ही पहाड़ों की उँचाई तक पहुँच सकते हो।"
(वही सूरा /आयत सं. 32 व 37)
"और ए रसूल यह कह दो लोगों से तुम मुझे चाहे ‘अल्लाह’ कहकर पुकारो या ‘रहमान’ कहकर पुकारो, जो भी कहकर पुकारो, उसके लिये सारे नाम ही अच्छे हैं।"
(वही आयत सं. 110)
"और जो कुछ कि हमने सांसारिक जीवन की चमक-दमक इन नाना भांति के लोगों को बरतने को दे रखी है, उसके द्वारा इनको आजमाइश में डालने पर तुम कदापि उसी में मत उलझ जाना।"
(सूरा तॉहॉं / आयत सं. 131)
"और जो कुछ ईश्वर ने तुझे दिया है, उसके द्वारा ‘आखिरत’ का घर बनाने का उपाय कर और संसार में से अपना हिस्सा मत भूल, अहसान कर जिस प्रकार ईश्वर ने तेरे साथ अहसान किया है और धरती में बिगाड़ पैदा करने वाला मत बन। निसंदेह ईश्वर बिगाड़ पैदा करने वालों को पसंद नहीं करता।"
(सूरा अल कससि / आयत सं. 77)
"हे नबी! उस किताब को पढ़ो जो तुम पर उतारी जा रही है और नमाज कायम करो क्योंकि यह निश्चित रूप से अश्लीलता और बुरे कर्म से रोकने में मदद करती है।"
(सूरा अल-अन्कबूति/ आयत सं. 45)
"मेरा और अपने मॉ-बाप के कृतज्ञ हो, क्योंकि लौट के मेरी ही ओर आना है --- और चल उस व्यक्ति के मार्ग पर जिसने मुझसे लौ लगाई ----- हे मेरे बच्चे! नमाज कायम कर और भलाई का हुक्म दे और लोगों को बुराई से रोक और जो मुसीबत भी तुम पर पड़े तो उसे सहन करता जा क्योंकि यह बड़े साहस की बात है और लोगों के सामने अपना मुँह मत बिदकाया कर और न धरती में अकड़ कर चल। निसंदेह ईश्वर किसी आत्मश्लाघी और डींग मारने वाले को पंसद नहीं करता। सीधी-सीधी चाल चल और अपनी आवाज तो नीची रखा कर, निश्चय ही सब आवाजों से बुरी आवाज गधे की होती है।"
(सूरा –लुकमान/ आयत सं. 14 से 19)
"इसमें (कुरान में) ईश्वर ने सर्वोत्तम बात उतारी है। एक ऐसी किताब के रूप में जिसके सभी भाग परस्पर मिलते जुलते हैं, क्रांतिकारी हैं ---- यह ईश्वर का मार्ग दर्शन है जिससे वह लोगों को सीधे मार्ग पर ले आता है।"
(सूरा तुजजुमरि/ आयत सं. 23)
"न अच्छा चरित्र परस्पर समान होता है और न बुरा चरित्र। तुम चरित्र की बुराई को अच्छे से अच्छे चरित्र के द्वारा दूर करो, फिर तुम क्या देखोगे कि तुम्हारे और जिसके बीच वैर था वह ऐसा हो जायेगा मानों कोई आत्मीय मित्र हो।"
(सूरा तुहामीम अस्सज्दति/ आयत सं. 34)
"बुराई का बदला लेना भी उसी जैसी बुराई है अत: तुम क्षमा कर दो और माफ कर दोगें तो उसका बदला ईश्वर के जिम्मे है और जो अपने ऊपर हुए जुल्म का खुद बदला ले ले तो फिर ऐसे लोगों के विरुद्ध उलाहने को कोई मार्ग नहीं और उसका बदला ईश्वर के जिम्मे नहीं है (क्योंकि वह खुद ही बदला ले चुका है) और जो सब्र करे और क्षमा कर दे तो निश्चय ही यह उन कामों में से है जो सफलता के लिये आवश्यक ठहराए गए हैं।"
(सूरा तुरा-शूरा /आयत सं. 40 से 43)
"हे ईमान वालों। यदि तुम्हारे पास कोई सुनी-सुनाई ख़बर आये तो छान-बीन कर लिया करो, ऐसा न हो कि किसी गिरोह के साथ बेजा हरकत कर बैठो और फिर तुम्हें अपने किए पर पछतावा हो। ---- हे ईमान वालों। बहुत से गुमान से बचा करो क्योंकि गुमान गुनाह है और न तुम में से कोई किसी की पीठ पीछे बुराई करे, क्या तुम में से कोई इस बात को पसंद करेगा कि अपने मरे हुए भाई का मास खाये? ईश्वर के यहाँ तुममें से सबसे ज्यादा इज्जत वह पायेगा जो बंदो के साथ व्यवहार में डर रखता हो।"
(सूरा तुल हुजुरात /आयत सं. 6, 12 एवं 13)
"तो जो अनाथ हो उस पर जोर ना दिखाना और जो माँगने वाला हो उसे झिड़कना मत।"
(सूरा अज-जुहा /आयत सं. 9 एवं 10)
Khoobsoorat aur jaanakaari bhari prastuti, aabhar
जवाब देंहटाएंवाह! क्या बात है
जवाब देंहटाएंसभी सम्प्रदायों की मूल बातें एक-सी हैं। इसलिए कहा जाता है कि धर्म भी एक ही होता है।
जवाब देंहटाएंअपने जीवन में हम काफी हद तक पूर्वाग्रहग्रस्त होते हैं, चाहे धर्म हो या कुछ और। हमें हर क्षेत्र मे मौलिक बातों पर चिन्तन करने की आवश्यकता है। यहीं से हम अपनी दृष्टि से अपने को देखना शुरु करते है। आभार।
जवाब देंहटाएंगहन चिन्तन।
जवाब देंहटाएंहमारे जीवन में मैं और मेरा ही सारे फसाद की जड़ है.. मेरा धर्म, मेरा इश्वर और मेरी प्रार्थनाशाला..
जवाब देंहटाएंयह मेरा ही अनर्थ का कारण है!!
बहुत ही जानकारी पूर्ण आलेख!!
गहन चिन्तनयुक्त विचारणीय लेख .....
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