आँच-86
परिष्कृत हिन्दीः सामान्य त्रुटियों पर विचार
- हरीश प्रकाश गुप्त
आँच के नियमित अंकों में प्रायः काव्य और गद्य रचनाओं पर चर्चा होती रही है। कुछ प्रंसग शास्त्रीय चर्चा के भी आए हैं। कभी पाठकों की जिज्ञासा के समाधान के लिए तो कभी आलोचना कर्म और पाठक के बीच की प्रच्छन्न रिक्ति की पूर्ति के लिए। बलात अधिरोपण के लिए नहीं बल्कि विषय को सहज, सरल और ग्राह्य बनाने के संकल्प के साथ। आज का अंक भी उसी दिशा में एक चरण मात्र है।
जिस प्रकार मानव जाति की सहज वृत्ति होती है कि जब वह दूसरों के सामने उपस्थित होता है तो वह बन-सँवरकर, ठीक से पहन-ओढ़कर सलीके से सामने आता है, ताकि लोगों पर अच्छा प्रभाव पड़े और लोग उसे सभ्य, सुसंकृत और शिक्षित समझें। समाज में भिन्न-भिन्न तरह के लोग हैं तो उसी प्रकार उनका बनना-ठनना, सजना-सँवरना भी भिन्न-भिन्न ही है। भाषा की भी स्थिति भी कमोवेश वैसी ही है और वैसी ही अपेक्षा रखती है अर्थात् जैसी रचना हो उसी के अनुपरूप उसकी भाषा, शैली हो, उसका साज-शृंगार और अलंकरण हो। गद्य की भाषा कुछ अलग है तो काव्य की भाषा नितांत अलग है। नाटक की भाषा की प्रकृति उन दोनों से थोड़ी भिन्न। रचना का स्वरूप उसका निर्माता अर्थात रचानाकार, साहित्यकार तय करता है। तो रचना के लिए उपयुक्त भाषा का चयन भी उसी का दायित्व है। अच्छी भाषा के लिए आवश्यक है कि उपयुक्त शब्दों का चयन किया जाए। अनावश्यक शब्द एक भी न आने पाएं, नहीं तो ये नाहक अवरोध उत्पन्न करते हैं । तभी भाषा का परिष्कार है।
इसे एक उदाहरण से समझते हैं – जैसे, स्कूल जाता हूँ तो बीमार पड़ सकता हूँ, नहीं जाता तो जरूरी कक्षा छूटती है। इस वाक्य में में जाता हूँ और नहीं जाता में एक में सहायक क्रिया हूँ का प्रयोग हुआ है और दूसरे में नहीं। यदि दूसरे उपवाक्य में भी नहीं जाता हूँ प्रयोग कर दिया जाता तो व्याकरण की दृष्टि से यह प्रयोग गलत नहीं होता, लेकिन इसे उपयुक्त प्रयोग नहीं कहा सकता। यह बाद वाला हूँ बलात् घुसा हुआ लगता है। भाषा किसी भी प्रकार की जबदस्ती स्वीकार नहीं करती। वह तो नदी की धारा की तरह प्रवाहित होती है। जिधर सुगम रास्ता मिलता है, नियमों और सिद्धान्तों की सीमा का न्यूनाधिक त्याग करते हुए उधर ही मुड़ जाती है। वही प्रयोग सुप्रयोग व सम्यक प्रयोग कहा जाता है और यही भाषा कौशल को प्रतिष्ठित करता है।
हिन्दी वाक्य संरचना का अपना व्यवस्थित क्रम है – कर्ता, कर्म और क्रिया व सहायक क्रिया। तथापि हिन्दी भाषा में पद का स्थान परिवर्तन करके भी वाक्य रचना की मान्यता है। लेकिन यह केवल विशेष अर्थ की स्थिति में ही है, अन्यथा पद क्रम परिवर्तन हास्यापद के सिवा कुछ नहीं होगा। कभी-कभी वाक्य में किसी शब्द पर अधिक जोर देना होता है। सामान्य समझ है कि जिस शब्द का प्रयोग पहले किया जाता है, बल उसी पर होता है। लेकिन स्थिति भिन्न है। प्रायः जो पद बाद में प्रयुक्त पद ही सूक्ष्म अर्थ का नियमन करता है। जैसे – पैसे से काम बनता है। – एक साधारण वाक्य है। अब पैसे को थोड़ा आगे ले चलते हैं - काम पैसे से बनता है। पहले वाले वाक्य में काम के लिए पैसे का कोई विशेष प्रभाव नहीं था। इस वाक्य में काम के लिए पैसे का प्रभाव स्पष्ट हो रहा है। अब पैसे को बिलकुल अंत में ले जाते हैं – काम तो बनता है भई, पैसे से। अर्थात् काम पैसे के अतिरिक्त किसी अन्य साधन से नहीं बन सकता। यही अन्तर प्रश्न वाचक वाक्य में भी दिखता है। जैसे – क्या मोहन कल आफिस आएगा ? – एक साधारण प्रश्न है। अब क्या का स्थान बदलते हैं। मोहन क्या कल आफिस आएगा ? अब इस वाक्य में प्रश्न साधारण नहीं रहा। मतलब, मोहन को कल आफिस आना नही है, परन्तु यह प्रश्न उसके आने की सम्भावना का वाचक है। वहीं क्या को जब बिलकुल अंत में लगाते हैं - मोहन कल आफिस आएगा क्या? – तब प्रश्न विस्मय का वाचक होता है। अर्थात मोहन को कल आफिस आना नहीं था और यदि वह कल आफिस आता है तो यह आश्चर्यजनक होगा। यह है पद का स्थान बदलने से अर्थ का सूक्ष्म परिवर्तन। यद्यपि पद का स्थान बदलने से स्थूल अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं होता लेकिन बलाघात से यह विशेष अर्थ में परिवर्तित होता है। यह सूक्ष्म अर्थ की दृष्टि रखने वाले समझ सकते हैं। संक्षेप में कहना होगा कि शब्दों के यथास्थान प्रयोग से ही अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति होती है।
एक और कठिनाई है, अन्विति की। अन्विति अर्थात अनुरूपता। इसे तर्कसंगति भी कह सकते हैं। सरल शब्दों में कहें तो जिस पद की तार्किक रूप से संगति जिस पद के साथ उपयुक्त होती है, प्रयोग क्रम में वही पद आना चाहिए। बोलचाल की सामान्य भाषा में हमसे अन्विति सम्बन्धी चूक अधिकतर होती रहती है, लेकिन बलाघात से अथवा भाव के अनुसार अर्थ ग्रहण कर लिया जाता है। परन्तु, लेखन में वह दोष के रूप में उभर कर सामने आता है। जब हम किन्हीं दो वाक्यों को किसी शर्त के साथ आपस में संयोजित करते हैं तो उनका योजक अव्यय पहले वाले के अनुरूप होना चाहिए। जैसे यदि मैं कल आफिस आया तो यह काम अवश्य करूँगा। जैसे कमला काम करती है, रमा वैसे नहीं कर पाती। चूँकि गंगा में पानी बढ़ गया है, इसलिए किनारे बसे लोग गाँव छोड़कर चले गए हैं। इसी प्रकार जब-तब, जैसे-वैसे, जैसे-जैसे - वैसे-वैसे, यद्यपि-अतएव आदि ऐसे ही योजक अव्यय हैं। हिन्दी में कर्ता के लिंग के अनुसार क्रिया भी परिवर्तित होती है। एक से अधिक संज्ञायें आने पर कभी-कभी लोग चकरा जाते हैं कि क्रिया एकवचन होगी या बहुवचन और यदि संज्ञाएं विभिन्न लिंग वाली हैं तो यह कार्य और मुश्किल हो जाता है। अतः यदि एक समान लिंग वाली संज्ञाएं और, एवं, तथा, व, योजकों से जुड़ी होंगी तो क्रिया लिंगानुसार बहुवचन होती है और यदि संज्ञाएं विभिन्न लिंग वाली हैं तो क्रिया पुल्लिंग बहुवचन। राम, श्याम और लखन स्कूल जाते हैं। सीता, गीता और रमा स्कूल जाती हैं। लेकिन राम, श्याम और रमा स्कूल जाते हैं। यही क्रिया की अन्विति होगी। इसी तरह या, अथवा जैसे विकल्प देने वाले योजक से जुड़ने पर क्रिया का रूप अन्तिम संज्ञा के लिंग और वचन से निर्धारित होगा। विशेषण संज्ञा के यथासम्भव समीप रहना चाहिए और क्रिया-विशेषण क्रिया के, अन्यथा अर्थ ग्रहण करने के लिए अतिरिक्त माथापच्ची करनी पड़ सकती है।
अब शब्द के पर्याय की बात करते हैं। कहने को तो एक शब्द के समानार्थी अनेक शब्द होते हैं। पर्यायवाची हम प्राइमरी कक्षाओं से पढ़ते ही चले आ रहे हैं। एक-एक शब्द के दस-दस बीस-बीस पर्याय। यहाँ पर प्रश्न यह है कि क्या सभी पर्यायवाची समान वजन का अर्थ रखने वाले होते हैं। तो उत्तर है – नहीं। स्थूल रूप में वे एक समान दिखते हैं परन्तु सूक्ष्म अर्थ में भिन्न होते हैं। जैसे - जलज, नीरज और पंकज सभी कमल के पर्यायवाची कहे जाते हैं। जब केवल फूल का नाम भर लेना होगा तो कमल पर्याप्त है। लेकिन ये सभी पर्याय विशेष अर्थों के वाचक हैं – जो पवित्र जल में जनमे वही जलज है। स्वच्छ पानी में पैदा होने वाला नीरज और पंक अर्थात कीचड़ में उगने वाला ही तो पंकज हो सकता है। साहित्य सृजन में जब तक अर्थ की इस सूक्ष्मता पर ध्यान नहीं दिया जाएगा तब तक रचना की भाषा उत्कृष्ट नहीं कही जा सकती।
एक प्रयोग देखिए – संस्कृत की एक धातु नी से बना है नयन और उसी से नेत्र भी बना है। दोनों का मायने भी एक है – आँख। व्युत्पत्ति भी समान है। अर्थात् जो आगे ले चले अथवा रास्ता दिखाए वही नेत्र है और वही नयन भी। नेत्र से ही व्यु्पन्न है नेता। इसका भी मतलब वही है - जो आगे ले चले अथवा रास्ता दिखाए। लेकिन तीनों में बहुत अन्तर है। एक के स्थान पर दूसरे का प्रयोग कदापि नहीं होता है। नेता तो बिलकुल अलग अर्थ में प्रयुक्त होता है। नेत्र में त् और र का संयोग रुक्ष है और कर्कश भी है, साथ ही जिह्वा को अधिक कसरत करनी पड़ती है। जबकि नयन सरल और कोमल सा शब्द है। यह मधुर भी और कर्ण प्रिय भी। अतः जहाँ कोमल भावों को अभिव्यक्त करना होगा वहाँ नयन अधिक मनभावन लगेगा। इसीलिए वीररस को छोड़कर काव्य में नयन ही अधिक प्रयोग होता है। स्त्री की सुन्दरता की उपमा के लिए मृगनयनी प्रयोग किया जाता है। मृगनेत्री कभी प्रयोग नहीं होता। यह न तो कोमल है और न ही सहज। लेकिन इसके विपरीत जब कठोरता और वीरता के भाव भरने होंगे तब नयन उपयुक्त नहीं होगा। वहाँ रुक्ष और कठोर नेत्र ही अधिक उपयुक्त प्रतीत होगा। उसके नेत्रों में प्रतिशोध की ज्वाला धधक उठी अथवा उसके नेत्र क्रोध से जलने लगे। न कि ऐसे प्रयोग उपयुक्त लगेंगे - उसके नयनों में प्रतिशोध की ज्वाला धधक उठी या फिर उसके नयन क्रोध से जलने लगे। ऐसे एक-आध उदाहरण नहीं हैं बल्कि अनेकानेक हैं। ये तो प्रसंग मात्र स्पष्ट करने के लिए हैं।
हिन्दी प्रयोगधर्मा भाषा है। वह स्वाभाविक प्रयोगों की दिशा में बढ़ती है और उनके अनुरूप परिवर्तनशील है। यही हिन्दी की विशिष्टता है। हिन्दी की इस विशिष्टि को अपने प्रयोग-कौशल से रचना में ढालना रचनाकार की योग्यता और भाषा सम्बन्धी उसके ज्ञान विस्तार पर निर्भर है। वैसे ही, जैसे एक कुशल योद्धा ही उत्तम शस्त्र का प्रयोग कर विजयश्री प्राप्त करता है, अन्यथा शस्त्र की उत्तमता क्या मायने रखेगी? यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जिस प्रकार अत्यधिक सौन्दर्य प्रसाधन के प्रयोग से स्त्री के सौन्दर्य की प्राकृतिक आभा क्षीण हो जाती है, उसी प्रकार अतिरंजना भाषा में विकार उत्पन्न करती है, उसके सौन्दर्य को भ्रष्ट करती है। कृत्रिम सौन्दर्य में सहज आकर्षण न्यून हो जाता है। अतः भाषा-प्रयोग में अतिरंजना से बचते हुए सदैव सजगता बरतनी चाहिए।
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गुप्त जी आपके इस आलेख को पढ़कर अपनी रचनाओं को पुनः पढने का मन कर रहा है ताकि प्राथमिक स्तर पर स्वयं ही ठीक कर लू इन्हें... बहुत सार्थक आलेख है यह. मैं तो कम ही सोचता हूँ इन पक्षों पर. लेकिन अब इनका ध्यान रखूँगा... आंच मंच की यह एक और सार्थक प्रस्तुति है..
जवाब देंहटाएंबहुत उपयोगी जानकारी सहज और सरल भाषा में दी गयी है। एकाधिक संज्ञाओं के साथ प्रयुक्त क्रिया का लिंग और वचन निर्धारित करने में मुझे भी परेशानी होती रही है। मैं यथासम्भव सभी संज्ञा पदों को एक ही लिंग का रखता और तदनुसार क्रिया का प्रयोग करता रहा हूँ। अब स्थिति स्पष्ट हो गयी।
जवाब देंहटाएंउपयोगी आलेख प्रस्तुति का आभार।
वाओ ..बेहद जानकारीपरक आलेख..किन शब्दों में शुक्रिया अदा करूँ हरीश जी!
जवाब देंहटाएंसमानार्थी शब्दों के अर्थ उनके स्वभाव और विशेषता से बताकर तो निहाल कर दिया आपने.
सार्थक आलेख के लिए धन्यवाद.
जात - पांत न देखता, न ही रिश्तेदारी,
जवाब देंहटाएंलिंक नए नित खोजता, लगी यही बीमारी |
लगी यही बीमारी, चर्चा - मंच सजाता,
सात-आठ टिप्पणी, आज भी नहिहै पाता |
पर अच्छे कुछ ब्लॉग, तरसते एक नजर को,
चलिए इन पर रोज, देखिये स्वयं असर को ||
आइये शुक्रवार को भी --
http://charchamanch.blogspot.com/
बहुत सुन्दर प्रयास...धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत पहले हिन्दी व्याकरण पर किशोरी लाल वाजपेयी की एक छोटी से पुस्तक पढी थी -याद आयी !
जवाब देंहटाएंआज सच में लाभान्वित हुये।
जवाब देंहटाएंलेखन में उपयोगी है ये जानकारियां ...
जवाब देंहटाएंआभार!
@ श्री अरविन्द मिश्र जी,
जवाब देंहटाएंआचार्य किशोरी दास वाजपेयी भाषा के प्रकाण्ड विद्वान ही नहीं रहे हैं, उनका स्वर भी मुखर रहा है। भाषा विज्ञान के क्षेत्र में उनका योगदान अप्रतिम ही नहीं, प्रामाणिक भी है और आज भी मानक की तरह स्वीकार किया जाता है। इसका मुझे सदा अफसोस रहेगा कि उनके मूल निवास के समीप के ही गाँव में जन्म से लेकर युवावस्था तक निवास करने के बावजूद उनका कभी सान्निध्य न मिल सका। कारण कि वे तब कनखल रहने लगे थे। बाबू जी से सम्पर्क रहा होगा। अब वे दोनों ही नहीं हैं। तथापि मैं आज भी उनके ग्रंथों से ज्ञान अर्जित करने का प्रयास करता रहता हूँ। उनका व्यापक प्रभाव मुझ पर है और मैं यदि चाहूँ, तो भी उस प्रभाव से नहीं छूट सकता।
लेख को शीघ्रता में पूरा करना पड़ा है इसलिए उसमें टंकण की कुछ त्रुटियाँ छूट गई हैं। पाठकों से अनुरोध है कि मुझे क्षमा करें।
जवाब देंहटाएंआज की आंच तो मेरा प्रिय विषय ले कर आई है ... बहुत खूबसूरती से आपने सभी बातें बतायीं हैं ...
जवाब देंहटाएंबलाघात की बात में आपने यह स्पष्ट नहीं किया कि बालाघाट मौखिक प्रक्रिया भी हो सकती है ... वाक्य में पद का स्थान बिना बदले भी जब वाक्य बोला जाता है तो बलाघात द्वारा वाक्य का अर्थ बदल जाता है ..
एक ही पोस्ट में आपने बहुत कुछ समेट लिया है ... साधुवाद
हरीश जी!
जवाब देंहटाएंज्ञान और भाषा का विज्ञान दोनों इस पोस्ट में देखने को मिला.. भाषा और साहित्य का विद्यार्थी न् होने के कारण आपकी पोस्टों को पढते समय पंगु होने की भावना मन में आती है.
रेडियो पर नाटक करते समय जो सिखाया जाता था आज वह भी स्मरण हो आया आपके दृष्टांत के द्वारा.
राम कल स्कूल जाएगा. एक साधारण वाक्य है. लेकिन अब कुछ प्रश्न देखें:
कौन कल स्कूल जाएगा: "राम" कल स्कूल जाएगा.
राम कल कहाँ जाएगा: राम कल "स्कूल" जाएगा.
राम कब स्कूल जाएगा: राम "कल" स्कूल जाएगा.
क्या राम कल स्कूल जाएगा: राम कल स्कूल "जाएगा".
एक सामान्य वाक्यांश में किसी एक शब्द का बलपूर्वक उच्चारण करने से उसके भावार्थ में भी परिवर्तन आता है, यह रेडियो से सीखा है!
और आज आपसे भी बहुत कुछ सीखने को मिला!
बहुत उपयोगी जानकारी दी है मनोज भाई आपने इस लेख में । कभी इतने गहरे जाकर सोचती नही हूँ मैं ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन आलेख.
जवाब देंहटाएं"नेत्र से ही व्यु्पन्न है नेता"
उदाहरण से समझाया भी अच्छा.बहुत उपयोगी.
सार्थक एवं उपयोगी आलेख....
जवाब देंहटाएं@ संगीता जी,
जवाब देंहटाएंआँच के प्रति आपकी रुचि और लगाव के लिए आभार प्रकट करता हूँ।
आपने बलाघात के लिए मौखिक प्रक्रिया के बारे में प्रश्न उठाया है तो मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि बलाघात और स्वराघात में मौखिक क्रिया ही प्रबल है और वाक्य में पद का स्थान परिवर्तन किए बिना केवल बलाघात द्वारा ही अर्थ भेद किया जा सकता है। इसे आँच के अभी हाल के पूर्व के अंकों (23 जून व 30 जून 2011 के अंकों में) में आचार्य परशुराम राय जी ने उद्धरणों के साथ स्पष्ट किया है, अतः मैंने यहाँ विस्तार देना उपयुक्त नहीं समझा। देखें -
"इसी प्रकार बलाघात और स्वराघात से भी अर्थबोध होता है। बलाघात और स्वराघात में बहुत ही सूक्ष्म अन्तर है। अंग्रेजी में इन्हें क्रमशः stress और accent कहते हैं। बलाघात के द्वारा अर्थ-बोध के लिए एक उदाहरण लेते हैं- तुम कोलकाता जा रहे हो। तुम कोलकाता जा रहे हो। पहले में तुम पर बलाघात होने के कारण इसका अर्थ हुआ कि केवल तुम कोलकाता जा रहे हो, दूसरा नहीं। जबकि दूसरे में कोलकाता पर बलाघात होने के कारण इसका अर्थ हुआ कि तुम कोलकाता जा रहे हो, कहीं और नहीं। आप कानपुर आ गए? आप कानपुर आ गए! इन दोनों वाक्यों में स्वराघात के कारण एक प्रश्न-सूचक वाक्य बन गया, तो दूसरा विस्मय-सूचक।"
लिंक http://manojiofs.blogspot.com/2011/06/blog-post_23.html
तथा
"14. स्वर- स्वर के आरोह-अवरोह से भी अनेकार्थक शब्द का अर्थ निर्णय किया जाता है। वैसे प्राचीन विद्वान वेदों में ही स्वरों के उदात्त, अनुदात्त आदि के प्रयोग भेद को अर्थनियामक मानते हैं। लेकिन इसका प्रभाव प्रायः सभी भाषाओं में देखा जाता है। जैसे- तुम आ गये। इस वाक्य में स्वर-भेद (आरोह-अवरोह/stress or/and accent) के प्रयोग द्वारा आश्चर्य, घृणा, भय, क्रोध, निराशा आदि अर्थ की प्रतीति होती है। पर किसी विशेष ढंग से स्वर के आरोहण-अवरोहण के प्रयोग द्वारा किसी एक अर्थ में इसका नियमन किया जा सकता है।"
लिंक -
http://manojiofs.blogspot.com/2011/06/3.html