फ़ुरसत में ...
जान की फ़िकर !
मनोज कुमार
एक ब्लॉगर मित्र से चैट पर चर्चा हो रही थी। वे अपने शहर से दूर एक महानगर की यात्रा करके, बस लौटे ही थे। मेरा भी कुछ वैसा ही हाल था। एक सप्ताह के व्यस्त कार्यक्रम एवं दिल्ली के दौरों के बाद थोड़ा थिर हुआ था तथा नेट पर जी-मेल खोल कर उसके स्टेटस में ‘हरी’ बत्ती जला कर न सिर्फ़ अपनी उपस्थिति बल्कि उपलब्धता भी दर्ज़ कर रहा था।
उस ब्लॉगर मित्र से ‘हलो’-‘हाय’ के आदान-प्रदान के बाद मैंने पूछा, “क्य़ा, ‘फलाँ’ ब्लॉगर से मिले?”
उन्होंने सीधा-सा जवाब दिया, “मुझे अपनी जान की फ़िकर है, भाई साहब!”
मेरे मुंह से अनायास निकला, “यह ‘जान’ भी बहु-अर्थी शब्द है। हालात बदले नहीं कि अर्थ बदल जाते हैं।”
ठहाके तो दोनों ही तरफ़ से निकले होंगे, पर चैट की लिमिटेशन होती है, अन्य परिस्थितियों में तो चिह्न से काम चला लिया जाता है, पर हमने तो ठहाके लगाए थे, इसलिए चैट में ‘हा-हा-हा ...’ लिखकर अपने उद्गार प्रकट किए !
मैंने ठहाके को ब्रेक लगाते हुए लिखा, “अब सब्जी ला ही दूँ, मुझे भी अपनी जान की फ़िकर हो रही है ...!”
रविवार का दिन था। दस बजने को थे। सप्ताह भर के बाद मैं घर में था और घर की आवश्यक ज़रूरत के सामान लाने का दायित्व मेरा था। ... और मेरी जान अटकी हुई थी कि ‘उनका’ किचन में प्रवेश करने का समय होने वाला था।
मेरे ये ब्लॉगर मित्र जो अपनी श्रीमती जी के साथ जिस महानगर का भ्रमण करके आए थे, उनसे मैं किसी महिला-मित्र से मिलने की बाबत पूछूं तो उन संदर्भों में ‘जान’ का अर्थ – बहु-अर्थी ही बन पड़ता है।
ख़ैर जानकारों का कहना है ‘जान है तो जहान है’! किसी तरह चैटिंग से जान छुड़ाकर मैं बाज़ार की तरफ़ सर पर पैर रखकर भागा। ‘जान’ एक अर्थ अनेक! इस बातचीत ने आज की पोस्ट ‘फ़ुरसत में …’ की भावभूमि दे दी।
सब्ज़ी-बाज़ार में एफ़.एम. रेडियो पर गाना बज रहा है … तूने किसी की जान को जाते हुए देखा है – देखो वो मुझसे रूठ कर मेरी जान जा ज रही है। एक गाने में इतने सारे अर्थ वाले शब्द ‘जान’ ने कितनी जान डाल दी है। और जिसने गाया उसने तो लगता है गाने में जान ही निचोड़ कर डाल दिया है।
एक जान पहचान के सब्जी वाले ने पुकारा, ‘क्या बाबू इतने दिनों के बाद दिखाई दिए, कहीं बाहर गए थे क्या?” हमने उसे समझाया, “घर में तीन जान हैं, उतनी सब्जी ले गए थे पिछली बार। खत्म होता तभी तो आते !”
सब्जी बाज़ार में तो आग ही लगी हुई थी। सब्जी के दाम सुन कर तो मेरी जान निकल ही गई। अमृता जी के उपन्यास के कुछ शब्दों को बदल कर जो भाव मेरे मन में आए वह इस प्रकार थे, हर कोई जब सब्जी बाज़ार झोले में बहुत से सपने और माथे में बहुत से ख़्याल डाल कर घर से जान ख़रीदने निकलता है, और ज़िन्दगी के बाज़ार में जान की क़ीमत सुनता है, तो उसकी छाती में खनकते सब सिक्के बेकार हो जाते हैं।
इतनी महंगाई है कि अब तो सच में जान के लाले पड़ने लगे हैं। पर मेरी तो स्थिति ऐसे थी कि मेरी जान ने जो लिस्ट थमाई थी उसके एक भी आइटम को जान बूझकर छोड़ने की हिमाकत करना जान जोखिम में डालना था। अब तो हमें करण का वह देसिल बयना याद आ रहा है जिसमें उसने कहा था, ‘बिना व्याहे घर नहीं लौटे, चाहे जान रहे या जाए !’
जान बची रहे इसके लिए संग्राम करना ही जीवन है। जान रुपये से बड़ी चीज़ है। आपने सुना तो होगा ही जान बची तो लाखों पाये। तो हजार के चक्कर में लाख तो गंवाना मूर्खता ही था। हम भी जान हथेली पर लेकर सब्जी बाज़ार में कूद पड़े। एफ़.एम. पर गाना बदल गया था। ‘जान चली जाये, जिया नहीं जाए, जिया जाए तो फिर जिया नहीं जाये।’
मानव जिस दिन से जन्म लेता है, उसी दिन उसके पीछे कर्म, मृत्यु, सुख-दुख, जय-पराजय, लोभ, माया, आदि सब लग जाते हैं उसकी जान के पीछे। यह जान ही है जो हमें सदैव समझौतों के लिए विवश करती है। कुछ क्षण के लिए सोचता हूं कि इतनी महंगाई में कम सब्जी में काम चला लिया जा सकता है पर तभी ख़्याल आता है कि जिन मूल्यों के लिए जान दी जा सकती है उन्हीं के लिए जीना सार्थक है।
अपने दोषों तथा कमियों को जान लेना उन पर विजय प्राप्त करने की ओर पहला कदम है। मुझे मोल-तोल की जानकारी तो नहीं है, पर मेरे सामने कोई विकल्प भी तो नहीं है इस सब्जी मंडी में। ‘कितना सरल हो जाता है जीवन, जब विकल्प नहीं रहते।’ इस बाज़ार के राजमार्ग पर चलने वाले रास्ता नहीं चुनते; रास्ता उन्हें चुनता है। अज्ञेय जी आपकी ही तरह मैं भी रोज़ सवेरे थोड़ा-सा अतीत में जी लेता हूं, --क्योंकि रोज़ शाम को मैं थोड़ा-सा भविष्य में मर जाता हूं।
सब्जी मंडी से बाहर आते आते जेब में इतनी भी जान नहीं बची थी कि मैं इस शहर की जान ट्राम से घर जा पाता। तो इससे क्या, अभी इन टांगों में जान तो बाक़ी है। अतएव पैदल ही घर की तरफ़ चल पड़ा। घर पहुंचा तो दरवाज़े पर अपनी जान को मुस्कुराते देखा तो मेरी जान में जान आ गई और बोल पड़ा, “जानू, तुम्हारे लिस्ट की सारी चीज़ें ले आया हूं।”
“हां-हां जान गई तुम्हें कि कितनी जानकारी रखते हो सब्जी और सब्जी मंडी की। क्या ज़रूरत थी जान जोखिम में डाल कर सड़ी-गली सब्जी लाने की।” अपनी जान के मुख से ये मधुर वचन सुन कर मेरी तो ‘काटो तो जान ही नहीं’ वाली स्थिति हो गई थी। सच ही कहा है गुणी जनों ने, खस्सी की जान गयी, खवैया को स्वाद ही नहीं !
शनिवार १७-९-११ को आपकी पोस्ट नयी-पुरानी हलचल पर है |कृपया पधार कर अपने सुविचार ज़रूर दें ...!!आभार.
जवाब देंहटाएंजान शब्द के इतने रूपों से परिचय करवाने के धन्यवाद
जवाब देंहटाएंउनको अपनी जान की परवाह थी , या साथ वाली जान की या उस शहर वाली जान की ...
जवाब देंहटाएंजान जान कह के मेरी जान ले गये..
वाकई जान के परिस्थितियों के अनुसार कई अर्थ होते हैं ...
रोचक!
थोडा और लम्बी होती पोस्ट तो आप जान ही ले लेते.....
जवाब देंहटाएंजान जान कर भी आप अनजान बने रहते हैं जानी !
जान लिया। तीन जानों के लिए,एक अकेली ‘जान’ को जान बचाकर कितने पापड़ बेलनें पाड़ते है,ये तो कोई जान ही समझ सकती है ...हा हा हा(यहाँ इसी से काम चलाना पड़ेगा न!)
जवाब देंहटाएंजान नहीं हुई जी का जंजाल हो गयी। बहुत ही खूबसूरती के साथ जान का महिमा मंडन किया है आपने बधाई।
जवाब देंहटाएंयह देसिल बयना क्या है? मैं इसका अर्थ ही नहीं समझ पाती, आज पूछने का मन कर गया।
सच है, जान है तो जहान है।
जवाब देंहटाएंजान शब्द के इतने रूपों से परिचय करवाने के धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंबहुत जानदार लिखा है आपने.
जवाब देंहटाएंकविताकारी देखी , कथाकारी देखी अब 'जान' कारी भी देख ली.
जवाब देंहटाएंआशा जी का -----मुझे जा न कहो ,मेरी जान गीत भी गुनगुना लें.
हम 'जान'बूझ कर कुछ भी 'जान'दार नहीं कह रहे है इस 'जान'दार पोस्ट पर ... क्या करें बाकी सब 'जान'कारो ने इतने 'जान'दार कमेन्ट दिए है आपके इस 'जान' के ज्ञान पर कि हमे अपनी 'जान' बचाने के लिए 'जान'दार कोशिश करनी पड़ रही है ... आगे तो आप सब 'जान'ते ही है !
जवाब देंहटाएंये जान-जान का खेल भी बड़ा जानलेवा है.. एक पुरानी कहावत है कि किसी के लिए जान देना बड़ा आसान है मगर कोई ऐसा मिले जिसके लिए जान दी जा सके वो बड़ा मुश्किल है.. जो भी हो आपकी कलम ने इस पोस्ट में जान डाल दी है..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...वाह!
जवाब देंहटाएंबहुत जानदार प्रस्तुति ! बहुत सुन्दर.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआपके मित्र अपनी जान के साथ जान बचाकर आ गए ना ? यही बहुत है . वो कहते है ना , जान है तो जहान है . फुरसत में जान डाल दी आपने .
जवाब देंहटाएं‘जान’ पर इतना शानदार विमर्श पहलीबार पढ़ा.
जवाब देंहटाएंआज की बेजान ब्लोगिंग में आपके इस जानदार लेख से जान पड़ गयी भाई जान !
जवाब देंहटाएंजान की फिकर में फलां ब्लोगर से मुलाक़ात नहीं कर पाए आपके ब्लोगर मित्र ..और आप भी जान बचाने के लिए निकल पड़े जान के लिए सब्ज़ी लाने ..जान शब्द के बहुअर्थ की जानकारी जानदार और शानदार रही ...
जवाब देंहटाएंअज्ञेय जी पंक्तियाँ मन को छू गयीं
रोज़ सवेरे थोड़ा-सा अतीत में जी लेता हूं, --क्योंकि रोज़ शाम को मैं थोड़ा-सा भविष्य में मर जाता हूं।
चलिए जान बची और लाखों पाए ..लौट के बुद्धू घर को आए ..
अच्छी जान+कारी
जवाब देंहटाएंऔर......चिरैया के जान जाए चिरंटी के खिलौना..
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंजाननहार की जानपनी,
जान का ग्राहक जान |
बहुत खूब ।
जवाब देंहटाएंजान के भी जाना नहीं
जवाब देंहटाएंजान की अमानत हो तो अर्ज करू की
जान कर चैट पर
जान के बारे में ज्यादा ना जाने ,
ना जाने कब कौन सी जान
आप की जान का बबाल बन जाये .
जाने भी दे अब
'जान' गया 'जान' को इतनी सारी जानकारियां पाकर.
जवाब देंहटाएंजब भी जान शब्द के बारे में कुछ जानने की आतुर उत्कंठा मन में जाग्रत होती है तब यह शब्द न जाने कितने अर्थों के साथ हम सबके सामने आ जाता है । समयानुचित अवसर पर इसकी उपयोगिता अभिव्यक्ति में जान डाल देती है । मैं जब कभी भी यादों के गलियारों से गुजरता हूँ तब उस पल की बात याद आ जाती है जब किसी को जान कह कर संबोधित किया करता था । आपका यह पोस्ट मुझे अतीत की स्मृतियों के विवर में झाँकने के लिए मजबूर कर दिया । पोस्ट अच्छा लगा । जान शब्द को विभिन्न रूपों में प्रस्तुत करने के लिए आपका आभार ।
जवाब देंहटाएंजान का इतिहास ... वर्तमान और भविष्य सभी कुछ जान किया ... और जान कर भी जान नहीं जन पाया .. अब सोचता हूँ कितना जान के पास जा कर समझूंगा ...
जवाब देंहटाएंआपकी इस जान भरी पोस्ट से हमें भी जान की जान पता चल ही गयी ......
जवाब देंहटाएंहा हा हा आपकी जान की जानकारी पाकर हमारी जान मे भी जान आ गयी कि जान नही गयी बस जानकारी बढ गयी जान ना हुई जी का जंजाल हुयी………जान पर इतना सुन्दर उपाख्यान पढकर जान की भी जान निकल गयी होगी कि आज किस जानकार के हाथों मे फ़ंस गयी कि जान ही निकाल दी।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया पोस्ट।
जवाब देंहटाएंपढ़ते-पढ़ते ज्ञान हुआ कि हम सभी अपने जान के वर हैं लेकिन कोई जानवर कहता है तो बुरा मान जाते हैं।
मैने हंसने के लिए लिखा है...
जवाब देंहटाएंवैसे ही..हा..हा..हा..।
जान को आप जल्दी जान गए यह जानकर अच्छा लगा !
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया जान के अर्थ मालूम हुये, हमारे यहां जान का एक अर्थ बारात भी होता है.
जवाब देंहटाएंरामारम.
जान में मेरी जान आई है,
जवाब देंहटाएंज़िंदगी आज काम आई है!!
हम भी देर से घर घुसते ही जान की सेवा में जुट जाते हैं लेकिन उसके पीछे की मंशा हमारी जान जान जाती हैं.... बहुअर्थी जान !... आपके पोस्ट को पढ़कर जान हरी हो गई..
जवाब देंहटाएंbehtreen prstuti....
जवाब देंहटाएंआज तो फुर्सत में जान कर या अनजाने या जान बूझ कर जाने किसकी जान लेने की ठान ली आपने :).पर इतना हल्का फुल्का सुरुचिपूर्ण आलेख पढकर हमारी जान को तो सुकून आ गया.आप और आपकी जान भी सलामत रहे और यूँ ही हँसती खिलखिलाती रहे..शुभकामनाये.
जवाब देंहटाएंजान को खुश करने के लिए आपने कैसे जान की बाजी लगाई प्रशंसनीय है। आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत जानदार प्रस्तुति..आभार
जवाब देंहटाएंwah ji aapne to lekh me jaan daal di apni jan bacha kar. bahut khoob.
जवाब देंहटाएंविविध रूप रंगों में जान को बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है आपने। आपकी जान-दार व्यंजना आद्योपांत गुदगुदाती रही।
जवाब देंहटाएंआभार,
Mast manoranjan kiya is post ne
जवाब देंहटाएंaabhar manoj ji.
"जान" के बारे में इतना जान कर मेरी तो 'जान' ही निकल गयी |
जवाब देंहटाएंhttp://premchand-sahitya.blogspot.com/
यदि आप को प्रेमचन्द की कहानियाँ पसन्द हैं तो यह ब्लॉग आप के ही लिये है |
यदि यह प्रयास अच्छा लगे तो कृपया फालोअर बनकर उत्साहवर्धन करें तथा अपनी बहुमूल्य राय से अवगत करायें |
जान बची तो लाखों पाए, लौट के हम सब घर को आये।
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब ,आपने जान-जान कर तमाम जानें इकट्ठी कर दीं अब बिना सबको जाने ,जाने का सवाल कहाँ उठता है !
जवाब देंहटाएंजान की इतनी सुंदर जानकारी जान कर हमारी जान भी सांसत में आ गई। हा हा हा हा हा
जवाब देंहटाएंसर्वव्यापी जान के विषय में जानकर जान में जान आई...बहुत सुन्दर....
जवाब देंहटाएंमनोज भैया ! जान छुड़ाकर जानू के हुकुम से जान खरीदने गए, बाज़ार के भाव जान बेजान होते-होते बचे......और यह जान कर कि जीना अब उतना आसान नहीं रहा रोज सुबह कुछ पल जानबूझ कर अतीत में जी लेते हो......शाम को जाती हुयी जान से अनजान बन चुपचाप पड़े रहते हो......जीने के ये बेहतरीन नुस्खे मुझे क्यों नहीं सूझे पहले ...ये सोच-सोच के जान जल रही है और आप हैं कि होठों पे हंसी छा रही है :-))
जवाब देंहटाएंजान का बढि़या चक्कर यहां चला रखे हैं। जान जान में फ़र्क़ भी मालूम है आपको यह जानकार बढ़िया लगा।
जवाब देंहटाएंजान मुंह को आ गया .
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक सर....
जवाब देंहटाएंमुस्कराहट तैरती रही पूरे वक़्त...:))
सादर...
‘जान’ पर इतना शानदार विमर्श !!!!! :)
जवाब देंहटाएंचकाचक जानबाजी !
जवाब देंहटाएंवैसे आपको बता दें कि जब इस तरह ब्लॉगर मित्र से चैट के किस्से आप बतायेंगे तो सबको पता चल जाता है कि कौन सा ब्लागर महानगर गया और किस साथी से नहीं मिला। चूंकि नाम लिखा नहीं तो वो साथी ब्लागर अपना गुस्सा भी जाहिर नहीं कर पायेगा लेकिन आपके लिये जरूर सोचेगा कि मनोज बाबू भी लग लिये!
ये अंदाजेबयां रोचक है लेकिन खतरनाक! खासकर तब जब आप गाहे-बगाहे बताते हैं कि आप किसी का मन दुखाना नहीं चाहते।
जान एक और इसके रुप अनेक।
जवाब देंहटाएंजानकारी के लिए धन्यवाद।