थिरक-थिरक उठते संबोधन
श्यामनारायण मिश्र
घुंघरू बांधे बिजली।
चौमासे के संग बावरी धरती गाती कजली।
गाय चराते अलगोजे
मड़वा चढ़ी पपिहरी।
खेत निराते बिरहा देखे,
दही बिलोती ठुमरी।
थिरक-थिरक उठते संबोधन, छुटकी-बड़की-मझली।
ससुर सवैया जेठ अल्हैती,
देवर जैसे रसिया।
सास-जेठानी जैसी सोहर,
ननदी बात-बतसिया।
ठनगन करते आंगन देखे सेज सुहागिन मचली।
सुआ पढ़ाते महाकाव्य,
खैनी मलते दर्शन।
मचिया बुनते अर्थशास्त्र,
इतिहास उतरते मसलन।
जिल्दें ही दिखती हैं मैली हर किताब है उजली।
श्याम नारायण निश्र जी की कविता जब भी पढ़ता हूँ उसमें मन के भावों का गुंफन अपने चरमोत्कर्ष पर होता है । कविता के हर शब्द समवेत बोल पड़ते हैं । "थिरक थिरक उठते संबोधन" उसी क्रम में अच्छी लगी । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंजिल्दें ही दिखती हैं मैली हर किताब है उजली।
जवाब देंहटाएंगाँव के जीवन का यथार्थ विवरण चित्रित करती हुई कविता ...वैसी ही सहज ...सुंदर ...भावपूर्ण अभिव्यक्ति....!!
श्याम नारायण मिश्र जी का अद्भुत ....सजीव लेखन ....!!abhar...
ध्वनी ,नाद ,अर्थ छटा को नए आयाम शब्दों को नै परवाज़ देती रचना .
जवाब देंहटाएंठहरा हुआ पानीढोल बजाते बादल देखे,
घुंघरू बांधे बिजली।
चौमासे के संग बावरी धरती गाती कजली।
प्रकृति,मानव-जीवन और कविता को एक-रस कर दिया !
जवाब देंहटाएंआभार !
सुआ पढ़ाते महाकाव्य, खैनी मलते दर्शन। मचिया बुनते अर्थशास्त्र, इतिहास उतरते मसलन
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति ||
आपको बहुत बहुत बधाई ||
गहन अनुभूति का सफल चित्रांकन।
जवाब देंहटाएं------
क्यों डराती है पुलिस ?
घर जाने को सूर्पनखा जी, माँग रहा हूँ भिक्षा।
लोक-जीवन दर्शन,लोक संस्कृति,छंद, गति , यति, लय , ताल ,ग्राम्य परिवेश ,माटी की महक सभी कुछ समाया है आपकी कविता में.कालांतर में निश्चय ही लोक गीत कहायेगी.हम तो पढ़ कर धन्य हो गये.वर्तमान साहित्य में ऐसी रचनाओं का अभाव है.अत: मैं तो इसे दुर्लभ ही कहूंगा.
जवाब देंहटाएं'धरती गाती कजली' वाह वाह वाह, माटी की इस सौंधास पर कौन न्यौछावर न हो जाये, बहुत खूब
जवाब देंहटाएंश्याम मिश्र जी की पूरी कविता में बिम्बों का भरपूर और प्रभावशाली प्रयोग मन को मोह लेता है.आपकी पसंद की दाद देता हूँ,मनोज जी.
जवाब देंहटाएंप्रकृति से लेकर रिश्तों तक का सफर इस रचना में अद्भुत है ..
जवाब देंहटाएंआह.... ! यह नवगीत मेरे ऊपर ऋण है। इस कविता के साथ मैं खुद शीघ्र ही आँच पर आउंगा।
जवाब देंहटाएंअभी धन्यवाद !
जिल्दें ही दिखती हैं मैली हर किताब है उजली।
जवाब देंहटाएंbehad sahaj , saral aur dil me utarti abhivyakti.
मिश्र जी के नवगीत समय से कहीं आगे के गीत हैं... इनको पढते हुए इनके रचना काल का अनुमान लगाना कठिन प्रतीत होता है... रचनाओं की भाषा अपने आप में सौंदर्य का प्रतिमान हैं और कविता के भाव को जीवंत कर देती हैं.जैसे इसी नवगीत को ले लें. जिन्होंने वह परिवेश देखा है वे आसानी से कल्पना कर सकते हैं कि यह गीत ढोलक की थाप पर आँगन में बैठकर गाया जा रहा है.
जवाब देंहटाएंअद्भुत!! नमन उस महाकवि को!!
वाह सुन्दरतम..
जवाब देंहटाएंस्व. श्री मिश्रजी की कविता की सबसे खासियत है भाषा की ताजगी।
जवाब देंहटाएंis sunder abhivyakti ko hamare saath baantne ke liye aabhar.
जवाब देंहटाएंis prakar ki abhivyaktiyan shabd kosh gyan me vriddhi karti hain.
प्रेम रस में पगी रचना
जवाब देंहटाएंवाह, इसका आनंद तो ऊँची आवाज में सस्वर पाठ करने में है। रात की इस बेला में भी मैंने यह आनंद उठाया।
जवाब देंहटाएंवाकई अनुपम रचना है। गाँव की बरसात याद आ गयी।
जिल्दें ही दिखती हैं मैली हर किताब है उजली।
जवाब देंहटाएंवारि जाऊं !!!!
शब्द भाव ले...ह्रदय तक पहुँच इसे हिलोर गए...
क्या कहूँ,निःशब्द हूँ....
अत्यंत मधुर और मनोहारी।
जवाब देंहटाएंमुग्ध हूँ!
ग्रामीण परिवेश का सहज वर्णन करती सुंदर नवगीत ....... श्याम नारायण मिश्र जी को पढना हमेशा अच्छा लगा है. सुंदर प्रस्तुति.
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पुरवईया : आपन देश के बयार
वाह एकदम अपनी लगती कविता...
जवाब देंहटाएंश्याम नारायण मिश्र जी को पढ़वाने का आभार...
जवाब देंहटाएंश्याम नारायण निश्र जी की प्रस्तुत कविता.. गाँव के जीवन का यथार्थ विवरण को चित्रित करती एक अद्भुत और सजीव रचना है.......मेरा शत शत. नमन !!
जवाब देंहटाएंइतनी उत्कृष्ट रचना को पढ़ने का अवसर देने के लिए धन्यवाद ......
जवाब देंहटाएंजमीन से जुडी रचना...
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