भारत और सहिष्णुता-अंक-21
जितेन्द्र त्रिवेदी
अलबरनी के हवाले से मैं यह कहना चाहता हूँ कि आक्रांताओं के बारे में हमदर्दी दिखाना सच पर जानबुझ कर पर्दा डालने जैसा है। अलबरनी खुद गजनी की सेना का हिस्सा था और उसका नमक खाता था लेकिन उसने अपने लेखन में कहीं भी महमूद गजनी के कारनामों की प्रशंसा तो दूर उन्हें छिपाने की भी कोशिश नहीं की। उसने बड़ी बेबाकी से गलत को गलत कहा और गजनी के हमलों को कहीं से भी ‘ईस्लाम सम्मत’ नहीं बताया। अपितु अलबरनी ने साफ-साफ शब्दों में लिखा कि इससे इस्लाम को फायदे की अपेक्षा नुकसान ही अधिक हुआ। अलबरनी ने भारतीय साहित्य को पढ़ने के लिये स्वयं अधेड़ अवस्था में संस्कृत सीखी और वेद, उपनिषदों सहित दर्जनों पुस्तकों को पढ़ने के बाद भारत के बारे में बड़ी मुकम्मल राय दुनियां के सामने रखी। जहाँ वह भारतीय मेधा और ज्ञान का कायल था वहीं उसने यहाँ की कुरीतियों की निंदा भी की है। वह लिखता है - "भारतीय किसी बर्तन को दूसरे के छू लेने पर अपने उपयोग का नहीं समझते जो कि उनके तंग दायरे को बताता है। और उन्हें चीजों को पुन: शुद्ध करके इस्तेमाल करने की कला आती ही नहीं।" इस तरह अलबरनी ने जिस आलोचनात्मक और निष्पक्ष तरीके को अपनी बात कहने का माध्यम बनाया, उसी अंदाज में आज फिर से मुसलमानों के भारत आगमन और यहाँ बस जाने के सूत्रों को समझने की कोशिश करनी चाहिए। जिस तरह तुर्क आक्रांताओं की बर्बरता पर पर्दा डालने का प्रयास मूर्खतापूर्ण होगा उसी तरह भारत में मुसलमानों की मौजूदगी को विदेशी या विजातीय तत्वों की उपस्थित करार देना उससे भी बड़ी मूर्खता होगी क्योंकि जिस तरह इस अध्याय में हमनें देखा कि कैसे यहाँ अगणित विदेशी जातियों के हमले हुए, उन्होंने यहाँ जो भी न करने लायक चीजें थी, कीं, फिर भी अन्तत: वे इसी मिट्टी का हिस्सा बन गये उसी लहजे में हमें मुसलमानों के आगमन को भी देखने की जरूरत है। डॉ. अमर्त्यसेन ने इस बात की गहराई को समझते हुए अपनी पुस्तक – ‘आर्ग्यूमेन्टेटिव इंडिया’ में बड़ी मार्के की बात कही है:
"महमूद गजनी और अन्य आक्रांताओं द्वारा किये गये भीषण विनाश के ही किस्से बखानने तथा धार्मिक सहिष्णुता के लंबे इतिहास की अनदेखी करने के प्रयास उचित नहीं होगें। वास्तविकता यही है कि भारत में आते समय आक्रांताओं ने चाहे जितनी क्रूरता और बर्बरता का प्रदर्शन किया हो किन्तु यहाँ बस जाने के बाद कुछ एक अपवादों को छोड़कर उन्होंने भी सहनशीलता ही अपना ली थी। भारत के मुसलमान शासकों में मुगलों को तो विध्वंसक नहीं अपितु निर्माणकर्ता कहना अधिक उपयुक्त लगता है।" उन्होंने भारत में बाहरी तत्वों के प्रवेश पर अलग से टिप्पणी करते हुए उसी किताब में लिखा है कि "धार्मिक सहिष्णुता तो भारत के इतिहास में यहाँ अनेक धर्मों के फलने-फूलने से ही स्पष्ट हो जाती है। यहाँ हिन्दू, बौद्ध, जैन, यहूदी, ईसाई, इस्लाम, पारसी, सिख, बहाई आदि अनेक धर्मो के अनुयायी सदियों से रह रहे हैं। हिन्दू शब्द भी बाहर से आया है और फारसी और अरबों की देन माना जाता है – उन्होंने सिंधु नदी के नाम पर यहाँ बसे लोगों का और उनके नाम का निर्धारण कर लिया था। यहूदी तो येरूशलम के पतन के तुरंत बाद ही भारत आ गये थे। उनसे भी पहले 8वीं शताब्दी ई.पू. में ‘बेन’ नामक इजरायली कबीले के लोग भारत आ गये थे। बाद में भी यहूदियों का आगमन समय-समय पर होता रहा। 5वीं और छठी शताब्दियों में दक्षिण अरब, फारस से, तो फिर बगदाद और सीरिया से 18वीं से 19वीं सदी में भी यहूदी भारत में आकर बसे है। ये मुख्यत: कोलकाता और मुंबई के आसपास ही केन्द्रित रहे हैं। ईसाई भी बहुत जल्दी ही भारत आ गए थे। चौथी शताब्दी तक आज के केरल प्रांत में ईसाईयों की अच्छी-खासी बस्तियॉं बस चुकी थी। 7वीं शताब्दी के अंत में ईरान में धार्मिक उत्पीड़न से त्रस्त पारसी समुदाय ने भी भारत की ओर रूख किया। भारत में शरणार्थी बना अंतिम समुदाय बहाई है। इस लंबे इतिहास काल में और अनेक धाराओं में यहाँ आकर लोग बसे हैं। 8वीं शताब्दी में पश्चिमी तट पर मुस्लिम अरब व्यापारियों ने बसना शुरू कर दिया था। यह उत्तर-पश्चिम से आक्रमणकारी इस्लाम के आगमन से कहीं पहले की बात रही है। भारत के बहुधार्मिक परिदृश्य में प्रत्येक धर्म का अनुयायी समुदाय अपना विशिष्ट स्वरूप बनाये रह सका है। विविधता और बहुलता की समृद्ध परंपरा ने सदा अन्यों से सम्मानपूर्ण आदान-प्रदान और संवाद के आधार पर सहिष्णुता को ही उचित ठहराया है।"
उपरोक्त अध्ययन से यह स्पष्ट हो गया है कि 1000 ई. तक भारत की धरती पर कई सजातीय और विजातीय तत्व एक साथ रहने लग गये थे और यहाँ की संस्कृति एक मिश्रित संस्कृति का स्वरूप धारण कर चुकी थी और इसे भानुमती का कुनबा कहा जा सकता है और जब 1000 वर्ष पूर्व ही भारत में नाना भाँति के विचारों, धर्मों वाले लोग रहने की पंरपरा शुरू हो चुकी थी तो 20वीं – 21वीं सदी में अचानक से हम एक ही धर्म और संस्कृति की प्रमुखता की बात क्यों करने लग गए हैं?
"धार्मिक सहिष्णुता तो भारत के इतिहास में यहाँ अनेक धर्मों के फलने-फूलने से ही स्पष्ट हो जाती है। यहाँ हिन्दू, बौद्ध, जैन, यहूदी, ईसाई, इस्लाम, पारसी, सिख, बहाई आदि अनेक धर्मो के अनुयायी सदियों से रह रहे हैं।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति पर
बहुत बहुत बधाई ||
बेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंगहन चिन्तनयुक्त सासामयिक प्रासंगिक लेख....
जवाब देंहटाएंअति रोचक लेखन।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंभारत के मुसलमान शासकों में मुगलों को तो विध्वंसक नहीं अपितु निर्माणकर्ता कहना अधिक उपयुक्त लगता है।"
जवाब देंहटाएंसर....इस कथन से सहमत नहीं हूँ! मुगलों को निर्माकर्ता कहना भी गलत है! वैसे लेख जानकारी वाला है!
धार्मिक सहिष्णुता ही हमारा स्वभाव है क्यूं कि हमारा धर्म सारे धर्मो को सम्मान करना सिखाता है । अल बरूनी के बारे में थोडा ज्यादा खुल कर बताने का आभार । सुंदर प्रस्तुति पीछे के लेख भी पढूंगी ।
जवाब देंहटाएं♥
जवाब देंहटाएंआपको सपरिवार
नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार