नई किरणों के लिए
श्यामनारायण मिश्र
दिन कटा,
ज्यों किसी सूमी महाजन का
पुराना ऋण पटा।
कल सुबह की
नई किरणों के लिए,
पी रहे आदिम-अंधेरा
आंख मूंदे, मुंह सिए।
करवटें लेते हुए
महसूस करते रहे भीतर
स्वर्ण केशों की घटा।
सीखना है,
हाथ बांधे हुए चलना
इस कसाई वक़्त के पीछे।
भूलना है,
एक मीठी आग का बहना
नसों में रक्त के नीचे।
भागना है,
जले जंगल से उठाकर कांवरों भर
याद की स्वर्णिम छटा।
एक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल।
जवाब देंहटाएंदिन कटा,
जवाब देंहटाएंज्यों किसी सूमी महाजन का
पुराना ऋण पटा।
वाह,शुरुआत में तबियत ख़ुश हो गई.पूरा नवगीत ख़ुश कर देने वाला.
अच्छी प्रस्तुति.
bahut hi saarthak rachna
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंश्यामनारायण मिश्र जी का सुन्दर गीत पढ़वाने के लिए हार्दिक आभार...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर व सार्थक रचना।
जवाब देंहटाएंbahot pasand aayee......
जवाब देंहटाएंbahut uttam aur saarthak rachna.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ....
जवाब देंहटाएंसीखना है,हाथ बांधे हुए चलना इस कसाई वक़्त के पीछे।
जवाब देंहटाएंकड़वा सच!
बहुत खूब ... यथार्थ की अभिव्यक्ति है ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर नवगीत!
जवाब देंहटाएंमिश्र जी का गीत पढ़वाने के लिए हार्दिक आभार...
जवाब देंहटाएंबहुत भावपूर्ण और नए बिम्बों से सजी कविता!
जवाब देंहटाएंसुन्दर.
जवाब देंहटाएंis geet ko padhwane k liye aabhar.
जवाब देंहटाएंएक शब्द में कहूँ तो मनमोहक!!
जवाब देंहटाएंवर्ग-संघर्ष लगभग हर युग की दास्तान है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति पर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई ||
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंदिन कटा,
जवाब देंहटाएंज्यों किसी सूमी महाजन का
पुराना ऋण पटा।
bahut satik abhivyakti...aabhar