भारत और सहिष्णुता-अंक-18
जितेन्द्र त्रिवेदी
अंक-18
भारत पर अगला हमला ‘हिन्द-यवनों’ ने किया। इन्हें ‘हिन्द यवन’ इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि सिकंदर के जाने के बाद भी कुछ यूनानी बस्तियां भारत के वक्ष में आश्रय ले रहीं थी और इन्होंने मौर्य साम्राज्य के अंतिम शासन वृहद्रर्थ (जिसका उल्लेख किया जा चुका है) की कायरता और प्रमाद का फायदा उठाकर भारत पर कब्जा करने के इरादे से हमला कर दिया। यह हमला 180 ई.पू. के लगभग हुआ था। इतिहास में इसे ‘बैक्ट्रियन’ हमले के नाम से जाना जाता है और इसका नेता था- डेमेट्रियस। पुष्यमित्रशुंग ने इस हमले को नाकामयाब कर दिया और उसके वंशज वसुमित्र ने उन्हे सिंधु नदी के किनारे तक खदेड़ दिया। यद्यपि बैक्ट्रियन भारत पर कब्जा नहीं कर सके किन्तु उनकी कई टोलियों का बसाव यहाँ हो गया और उनके एक नेता मिनांडर ने तो बौद्ध धर्म ही ग्रहण कर लिया। जहाँ भारत का प्रभाव बैक्ट्रियनों पर पड़ा, वहीं उनका भी प्रभाव हम पर पड़े बिना नहीं रह सका और कला के क्षेत्र में ‘गांधार शैली’ का विकास उसी वजह से हुआ। इसके अलावा सिक्कों, नक्षत्र विज्ञान, चिकित्सा में आये तत्व आज तक उनके प्रभाव को बयान कर रहें हैं। यूनानी दवाएं (होम्योमेथी) भारत में तभी से आने लग गई थीं।
विदेशी हमलों की शृंखला में अगला आक्रमण शकों का हुआ। इसका समय ई.पू. 20 से शुरू हुआ और छुटपुट हमलों के बाद शक भारत की मिट्टी के अंग ही बन गये। वे मूलत: सीरदरया के खानाबदोश लोग थे जिन्होंने उर्वर क्षेत्रों की तलाश में भारत पर चढ़ाई की थी किन्तु यहाँ की जलवायु उन्हें इतनी रास आयी कि यह कबीला यहीं बस गया और 20 ई.पू. से लेकर 200 ई. तक शकों ने भारत के किसी न किसी क्षेत्र में अपनी सत्ता स्थापित करके रखी। शकों का सबसे प्रतापी शासक रूद्रदामन था और उसी ने 72 ई. में शक संवत की नींव डाली। वह अशोक की तरह एक प्रजावत्सल सम्राट था जिसने प्रजा की भलाई के लिये नहरों, बाँधों और झीलों का निर्माण करवाया। सौराष्ट्र की सुदर्शन झील आज भी उसकी जनोन्मुखता की गवाही देती है।
विदेशी हमलवरों की अगली कड़ी में पहलवों का नाम जोड़ा जा सकता है किन्तु शक और पहलवों का इतिहास एक दूसरे से अत्यधिक उलझा हुआ है। पहलव मूलत: कैस्पियन सागर के दक्षिण पूर्व में पार्थिया नामक स्थान से आये थे। 46 ई. के आस-पास पहलव जाति का नेता गोदोफर्नीज पंजाब और सिंध पर राज कर रहा था किन्तु पहलव अधिक दिन तक यहाँ राज नहीं कर पाये और 65 ई. के आसपास कुषाणों ने उस क्षेत्र से उन्हें अपदस्थ कर दिया।
कुषाण चीन के पास कानसू के यूची कबीला से संबंध रखते थे और 50 ई. के आसपास इस कबीले ने भारत का रूख किया। कुषाणों का सबसे प्रतापी सम्राट कनिष्क हुआ और 78 ई. के लगभग उसने दक्षिण भारत के नीचे के तीन-चार राज्यों को छोड़कर वर्तमान पाकिस्तान समेत वर्तमान भारत के संपूर्ण प्रदेश पर एकक्षत्र राज किया। यही नहीं, उसने चीन पर भी हमला बोला और उसके बहुत बडे़ भू-भाग पर कुछ समय के लिये कब्जा कर लिया। इस तरह कनिष्क के नियंत्रण वाला भारत एक अंतरराष्ट्रीय साम्राज्य था। भारत में कुषाणों का नियंत्रण 250 ई. के आसपास तक रहा और इस अवधि में उन्होंने बहुत सी चीजें भारत की सभ्यता और संस्क़ति में जोड़ीं। स्थापत्य की मथुरा और सारनाथ, दोनों शैलियॉं कुषाणों के नवाचारों से भरी पड़ी हैं। इससे पूर्व भारत में स्थापत्य का यह स्वरूप कभी देखने को नहीं मिला। भारतीय स्थापत्य कला को मध्य एशियाई स्थापत्य के तत्वों से समृद्ध करने का काम कुषाणों ने ही किया। स्वयं कनिष्क ने वेशभूषा के स्तर पर कई प्रयोग किये और लंबे चोंगे वाली पोशाक के साथ पतलून जैसा अधोभाग में धारण करने वाला वस्त्र पहनने की आदत हिन्दुस्तानियों को सिखाई। यही नहीं, उन्होंने यहाँ के धर्म को भी अपना लिया और यहाँ के धर्म-नेताओं ने भी इन सब विजातीय तत्वों को अपने वक्ष में स्थान देना प्रारंभ कर दिया। मनु ने घोषित किया है कि शक, यवन, पहलव, कुषाण आदि विदेशी लोग संस्कार युक्त होने पर क्षत्रिय जाति में गिने जा सकते हैं। फलस्वरूप वैष्णव एवं शैव संप्रदायों के प्रति इन विदेशियों का आकर्षण बढ़ा और इनमें से किसी ने गरुणध्वज स्थापित कर भागवत धर्म ग्रहण किया तो किसी ने वासुदेव (कनिष्क के वंशज का नाम) नाम धारण कर इस धरती के प्रति अपनी निष्ठाएँ देने का प्रयास किया। कुषाण राजाओं के सिक्कों पर त्रिशूल और नंदी का अंकन उन्हें सहज ही शैव घोषित करने के लिये पर्याप्त आधार है।
ईरानी, यूनानी, पहलव, शक, कुषाणों के अलावा बीच-बीच में कई अन्य कबीले भी भारत में घुसते रहें और इस ‘महानद’ में आकर विलीन होते गए, कहाँ तक कोई उनके नाम गिनाये, मैं नाम गिनाता जाऊँगा और सूची लंबी होती जायेगी – मंगोल, तातार, हूण भी यहाँ आये और सबको इस देश की मिट्टी ने इस कदर रचा-बसा लिया कि आज वे तत्व कहीं से भी विजातीय नहीं नजर आते। मोहम्मद इकबाल इस देश की इसी अदा पर फिदा हो गये थे:
"यूनानों मिस्र रोमाँ मिट गये सब जहॉं से
अब तक मगर है बाकी नामों-निशाँ हमारा
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा।"
पराये को भी अपना लेने की भारत की विशेषता कोई आधुनिक घटना नहीं है अपितु हमने इस अध्ययन से सत्यनारायण के दर्शन कर लिये कि इस धरती पर विजातीय तत्वों को हजम करने की जो शक्ति प्रकृति ने इस भू-भाग को दी है। वैसा हाजमा पूरे विश्व में अन्य किसी भू-भाग को नसीब नहीं हो पाया है। शायद इसीलिये गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी कालजयी कविता में डंके की चोट पर कहा था:-
"आर्य, हेथा अनार्य
हे थाय, द्रविड़-चीन
शक, हूण दंत पाठान-मोगोल
एक देहे होलो लीन"
भारत में बाहरी हमलों की गिनती करने का काम जिस उद्देश्य से किया गया था वह अभी पूरा नहीं हुआ है क्योंकि ऊपर गिनाये गए बाहरी तत्वों के आगमन की कड़ी में सबसे अधिक उल्लेखनीय है: इस्लाम का हिन्दुस्तान में आगमन। मैं इस्लाम के आगमन को सूत्र बना कर कुछ बातें कहने की कोशिश करूँगा।
इतिहास की जानकारी प्रदान करने के लिए आभार!
जवाब देंहटाएंइंतज़ार रहेगा अगली कड़ी का
जवाब देंहटाएंअतीत में जड़ें तलाशने कोशिश जरूरी है. सुंदर जानकारी. अगली कड़ी और भी ज्ञानवर्धक रहेगी ऐसा लगता है. इन्तेज़ार रहेगा.
जवाब देंहटाएंइतिहास की जानकारी प्रदान करने के लिए आभार!
जवाब देंहटाएंबहुत जानकारीपूर्ण पोस्ट रही...आभार.
जवाब देंहटाएंइतिहास की रोचक गाथा डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया सा ही आनंद दे रही है ...
जवाब देंहटाएंउपयोगी श्रृंखला !
इतिहास के दुर्लभ तथ्यों के प्रकाशन के लिए साधुवाद!
जवाब देंहटाएंसिकंदर था तो यूनान का पर उसका शासन था अलेक्जेंड्रिया में . भारत आक्रमण के समय वह वहीं था. भारत से वापस जाते समय वह अपने साथ भारतीय वैद्यों और सपेरों को भी ले गया. अलेक्जेंड्रिया पहुँच कर उसने वहाँ की स्थानीय चिकित्सा पद्यति को समृद्ध करने के उद्देश्य से अपने साथ ले जाए गए वैद्यों से आयुर्वेद के संहिता ग्रंथों का स्थानीय भाषा में अनुवाद कराया.इसी परिवर्धित चिकित्सा पद्यति को यूनानी चिकित्सा पद्यति के नाम से जाना जाता है. यूनानी पद्यति पर आयुर्वेद का बहुत प्रभाव है. आयुर्वेद ने तो वहाँ की केवल कुछ जडी-बूटियों का ही समावेश अपने में किया है. जबकि यूनानी ने आयुर्वेद के मौलिक सिद्धांत से लेकर शल्यचिकित्सा तक को अपनाया है. यूरोप (जर्मनी) में जब यूनानी चिकित्सा का प्रचार-प्रसार हुआ तो एक नयी चिकित्सा पद्यति का जन्म हुआ जिसे होम्योपैथी के नाम से जाना गया. भारत में होम्योपैथी बहुत बाद में आयी. सिकंदर के समय तो इसका जन्म भी नहीं हुआ था.
सुधी पाठक कृपया अधिक जानकारी के लिए चौखम्बा प्रकाशन की काश्यप संहिता के उपोद्धात का अवलोकन कर सकते हैं.