भारतीय काव्यशास्त्र – 82
- आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में गुणीभूतव्यंग्य पर चर्चा समाप्त कर दी गयी थी। इस अंक से काव्य-दोष पर चर्चा प्रारम्भ की जा रही है। काव्य-दोष को परिभाषित करते हुए आचार्य मम्मट लिखते हैं-
मुख्यार्थहतिर्दोषो रसश्च मुख्यस्तदाश्रयाद्वाच्यः।
उभयोपयोगिनः स्युः शब्दाद्यास्तेन तेष्वपि सः।।
अर्थात् मुख्यार्थ का अपकर्ष करनेवाला कारक दोष है और रस मुख्यार्थ है तथा उसका (रस का) आश्रय वाच्यार्थ का अपकर्षक भी दोष होता है। शब्द आदि (वर्ण और रचना) इन दोनों (रस और वाच्यार्थ) के सहायक होते हैं। अतएव यह दोष उनमें भी रहता है।
आचार्य विश्वनाथ कविराज अपने ग्रंथ साहित्यदर्पण दोष का लक्षण करते हुए कहते हैं- रसापकर्षका दोषाः, अर्थात् रस का अपकर्ष करनेवाले कारक दोष कहलाते हैं।
काव्यप्रदीपकार के शब्दों में नीरस काव्य में वाक्यार्थ के चमत्कार को हानि पहुँचानेवाले कारक दोष हैं- नीरसे त्वविलम्बितचमत्कारिवाक्यार्थप्रतीतिविघातका एव दोषाः।
इन सभी परिभाषाओं को ध्यान में रखकर यदि विचार किया जाय तो यह बात स्पष्ट होती है कि मुख्यार्थ शब्द, अर्थ और रस के आश्रय से ही निर्धारित होता है। इसलिए काव्य-दोषों के तीन भेद किए गए हैं- शब्ददोष, अर्थदोष और रसदोष। चूँकि शब्ददोष होने से काव्य में प्रयुक्त पद का कोई भाग दूषित होने से पद दूषित होता है, पद के दूषित होने से वाक्य दूषित होता है। अतएव शब्ददोष के पुनः तीन भेद किए गए हैं- पददोष, पदांश-दोष और वाक्य-दोष। दूसरे शब्दों में जो पददोष हैं वे वाक्यदोष भी होते हैं और वाक्यदोष अलग से स्वतंत्र रूप से भी होते हैं। इसके अतिरिक्त एक समास-दोष होते हैं, पर संस्कृत भाषा की समासात्मक प्रवृत्ति होने के कारण ये दोष संस्कृत-काव्यों में ही देखने को मिलते हैं, हिन्दी में बहुत कम पाया जाते हैं। अतएव जितने पददोष हैं वे समासदोष भी होते हैं। समास के कारण कुछ दोष स्वतंत्र रूप से समासदोष के अन्तर्गत आते हैं।
इन दोषों पर आगे चर्चा करने के पहले एक और बात स्पष्ट करनी पड़ेगी कि इन दोषों को दो भागों में बाँटा गया है- नित्य-दोष और अनित्य-दोष। नित्य-दोष वे दोष हैं जो सदा बने रहते हैं, उनका समर्थन अनुकरण के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता, जैसे च्युतसंस्कार आदि। अनित्य-दोष वे होते हैं जो एक परिस्थिति में दोष तो हैं, पर दूसरी परिस्थिति में उनका परिहार हो जाता है, जैसे श्रुतिकटुत्व आदि। श्रुतिकटुत्व दोष शृंगार वर्णन में दोष है, जबकि वीर, रौद्र आदि रस में गुण हो जाता है। दोषों की चर्चा करते समय इन भेदों का संकेत किया जाएगा।
निम्नलिखित तेरह दोषों को पददोष कहा गया हैः श्रुतिकटु, च्युतसंस्कार, अप्रयुक्त, असमर्थ, निहतार्थ, अनुचितार्थ, निरर्थक, अवाचक, अश्लील, संदिग्ध, अप्रतीतत्व, ग्राम्य और नेयार्थ।
इसके अतिरिक्त तीन दोष- क्लिष्टत्व, अविमृष्टविधेयांश और विरुद्धमतिकारिता- केवल समासगत दोष होते हैं। काव्यप्रकाश में इन्हें दो कारिकाओं में दिया गया है-
दुष्टं पदं श्रुतिकटु च्युतसंस्कृत्यप्रयुक्तमसमर्थम्।
निहतार्थमनुचितार्थं निरर्थकमवाचकमं त्रिधाSश्लीलम्।।
सन्दिग्धमप्रतीतं ग्राम्यं नेयार्थमथ भवेत् क्लिष्टम्।
अविमृष्टविधेयांशं विरुद्थमतिकृत समासगतमेव।।
इन कारिकाओं में वे ही नाम दिए गए हैं जिनका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। अतएव पुनरावृत्ति के भय से पुनः इसका अर्थ अलग से नहीं दिया जा रहा है। अगले अंक से उदाहरण सहित इनपर चर्चा की जाएगी।
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आचार्य जी!
जवाब देंहटाएंआगे की कड़ियों में जब इन दोषों की व्याख्या की जायेगी तब और आनंद आएगा!! बहुत कुछ सीखना है अभी इस श्रृंखला से!!
बहुत सुन्दर वाह!
जवाब देंहटाएंसादर अभिनन्दन ||
जवाब देंहटाएंकाव्य दोषों पर आधारित इस श्रृंखला का स्वागत है !
जवाब देंहटाएंपूर्व की भांति इस श्रृंखला से भी काफी कुछ सीखने को मिलेगा !
अगली कड़ी का इंतज़ार है !