भारतीय काव्यशास्त्र – 83
- आचार्य परशुराम राय
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पिछले अंक से काव्य-दोषों पर चर्चा शुरु हुई है। इस अंक से पददोषों पर चर्चा प्रारम्भ करेंगे। सर्वप्रथम श्रुतिकटुत्व या दुश्रवत्व दोष पर चर्चा करते हैं। इस दोष के नाम से ही स्पष्ट है कि जब काव्य में ऐसे वर्णों का प्रयोग हो जो सुनने में जो कड़वे लगें, तो वहाँ श्रुतिकटुत्व या दुश्रवत्व दोष होता है। इसमें टवर्ग, चवर्ग, रेफ, त, थ आदि वर्णों वाले शब्द सुनने में कर्ण-प्रिय नहीं माने जाते। यह एक अनित्य दोष है, अर्थात् शृंगार आदि रसों में ये इन वर्णों से युक्त पद रस का अपकर्षक होने के कारण दोष होते हैं, लेकिन वीर, भयानक, रौद्र आदि रसों में गुण माने जाते हैं। इसके लिए संस्कृत के एक श्लोक का उदाहरण लेते हैं-
अनङ्गमङ्गलगृहापाङ्गभङगितरङ्गितैः।
आलिङ्गितः स तन्वङ्ग्या कार्तार्थ्यं लभते कदा।।
अर्थात् कामदेव के मंगल-गृह रूपी कटाक्षों से उन्मत्त तन्वंगी (पतले शरीर वाली स्त्री) के आलिंगन में बँधा वह (युवक) कृतार्थता को कब प्राप्त होगा, अर्थात् उसकी इच्छा कब पूरी होगी?
यहाँ कार्तार्थ्यम् पद में श्रुतिकटुत्व दोष है। इसी प्रकार हिन्दी की नीचे दी गयी कविता में धृष्टता, विषयोत्कृष्टता और विचारोत्कृष्टता पदों में भी श्रुतिकटुत्व दोष है-
इस विषय पर आज कुछ कहने चले हैं हम यहाँ।
क्या कुछ सजग होंगे सखे, उसको सुनेंगे जो जहाँ।
कवि के कठिनतर कर्म की करते नहीं हम धृष्टता।
पर क्या न विषयोत्कृष्टता करती विचारोत्कृष्टता?
च्युतसंस्कृति या च्युतसंस्कार दोष वहाँ होता है जहाँ व्याकरण के नियमों का उल्लंघन हो। लेकिन गँवारू भाषा का जब काव्य में व्यवहार हो तो वह गुण होता है। पर यह केवल हिन्दी भाषा के लिए ही लागू होता है। क्योंकि संस्कृत में यह नित्य दोष माना जाता है। जैसे-
गाण्डीवी कनकशिलानिभं भुजाभ्यामाजघ्ने विषमविलोचनस्य वक्षः।
अर्थात् गाण्डीवधारी अर्जुन ने अपने दोनों हाथों से किरातवेशधारी भगवान शिव के स्वर्णशिला के समान वक्षस्थल को आहत कर दिया।
इस श्लोकार्ध में प्रयुक्त आजघ्ने पद (क्रिया पद) आत्मनेपद में है। यदि भगवान शिव स्वयं अपने हाथों से अपना वक्षस्थल को आहत करते तो यह प्रयोग उचित होता। लेकिन यहाँ अर्जुन ने उनके वक्षस्थल पर आघात किया है। इसलिए यहाँ क्रिया परस्मैपद में आजघान होना चाहिए था। अतएव इसमें व्याकरण के अनुसार गलत प्रयोग होने के कारण च्युतसंस्कृति दोष है। इसी प्रकार नीचे हिन्दी कविता में व्याकरण के अनुसार तू के साथ अपना के लिए अन्तिम पद तेरा के स्थान पर अपना होना चाहिए। अंग्रेजी में इस प्रकार का प्रयोग he के साथ अपना के लिए his, I के साथ my, you के साथ your तो होता है, पर हिन्दी में ऐसा नहीं है। अतएव इस पद में भी च्युतसंस्कृति दोष है।
गत जब रजनी हो पूर्व-संध्या बनी हो।
उडुगण क्षय भी हों दीखते भी कहीं हों।
मृदुल मधुर निद्रा चाहता चित्त मेरा।
तब पिक करती तू शब्द प्रारंभ तेरा।।
जब काव्य में ऐसे शब्दों या पदों का प्रयोग हो जो व्याकरण या कोश आदि के अनुसार भले उचित हों, किन्तु काव्य में उनका प्रयोग न होता हो, तो वहाँ अप्रयुक्त दोष होता है।
यथाSयं दारुणाचारः सर्वदैव विभाव्यते।
तथा मन्ये दैवतोSस्य पिशाचोराक्षसोSथवा।।
अर्थात् यह व्यक्ति हर समय ऐसा भयंकर आचरण करता हुआ दिखाई देता है। इससे तो ऐसा लगता है कि इसका उपास्य देवता कोई राक्षस या पिशाच है।
यहाँ दैवतः (देवता) पद पुल्लिंग में प्रयोग किया गया है, जो व्याकरण एवं कोश आदि के अनुसार अनुचित नहीं है। क्योंकि यह शब्द पुल्लिंग और नपुंसक लिंग दोनों में प्रयोग की अनुमति है। लेकिन यह शब्द संस्कृत में सदा नपुंसक लिंग में ही प्रयोग होता है। अतएव यहाँ अप्रयुक्तत्व दोष माना गया है। इसी प्रकार निम्नलिखित ब्रजभाषा की कविता में रात के लिए प्रयुक्त नक्त और हंसिनी के लिए बरटा पद व्याकरण आदि के अनुसार तो ठीक है, पर ब्रजभाषा में इनका प्रयोग नहीं देखा जाता। इसलिए यहाँ भी अप्रयुक्तत्व दोष मानना चाहिए।
नक्त अँधेरी में जु कहुँ बिहँसत मग मों लाल।
कूकत मुकुता हेतु चलि, बरटा बर अरु बाल।।
जब कविता में ऐसा कोई शब्द प्रयोग हो जो किसी विशेष अर्थ में रूढ़ हो और अभीष्ट अर्थ देने में असमर्थ हो या सक्षम न हो, वहाँ असमर्थ दोष होता है। जैसे-
तीर्थान्तरेषु स्नानेन समुपार्जितसत्कृतिः।
सुरस्रोतस्विनीमेष हन्ति सम्प्रति सादरम्।।
अर्थात् विभिन्न तीर्थों में स्नान द्वारा पुण्य अर्जित करके यह व्यक्ति अब श्रद्धा पूर्वक सुरस्रोतस्विनी गंगा नदी जा रहा है।
यहाँ हन्ति पद असमर्थ दोष से दूषित है। जबकि धातुपाठ में हन् धातु का विधान मारना और जाना दोनों अर्थों में किया गया है, परन्तु इसका प्रयोग मारने के अर्थ में रूढ़ है। इसलिए इसका जाने के अर्थ में प्रयोग अभीष्ट अर्थ वहन करने में अशक्त है। अतएव यहाँ असमर्थ दोष है। इसी प्रकार निम्नलिखित दोहे में महाराज जनक के लिए अनंग पद विदेह के अर्थ में किया गया है। वैसे अनंग का अर्थ है जिसका अंग (शरीर) न हो और यह कामदेव के अर्थ में रूढ़ है। इसलिए इसका विदेह के अर्थ में प्रयोग असमर्थत्व दोष उत्पन्न करता है।
सीय स्वयंबर में जुरे, नरपति सुभग बिसाल।
धनु न टर्यो, बोल्यो निरखि, तब अनंग महिपाल।।
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जवाब देंहटाएंबहुत महत्वपूर्ण जानकारी दे रहे हैं आप.
जवाब देंहटाएंहर बार की तरह सुंदर जानकारी से संपन्न पोस्ट.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंबधाई ||
उपयोगी रही यह प्रस्तुति भी!
जवाब देंहटाएंहर बार की तरह सुंदर जानकारी| धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंआचार्य जी!
जवाब देंहटाएंजैसा कि पहले भी कहा है मैंने, इस कक्षा में आकर हमेशा कुछ नया सीखने को मिलता है और फिर यह विषय तो मेरा प्रिय विषय है, किन्तु इसका शास्त्रीय ज्ञान शून्य. इनको पढाने के बाद ऐसा प्रतीत होता है मानो यह बातें हम भी ध्यान से कविता पाठ के समय अनुभव करते हैं, लेकिन यह बातें इस प्रकार व्याक्यायित होती हैं वह आपसे जान पाते हैं. प्रणाम स्वीकार करें!!
कमाल की जानकारी दी है आपने। अब कविता लिखने समय इनका ध्यान रखना ज़रूरी लग रहा है।
जवाब देंहटाएंनया ज्ञान मिल रहा है.
जवाब देंहटाएंaapke blog se itni mahatwapurna jaankari milti hai jiska koi jawab nahi hota..sadar pranam ke sath
जवाब देंहटाएंसंग्रहणीय आलेख.महत्वपूर्ण जानकारी.
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