समीक्षा
आँच-85- यादें
- हरीश प्रकाश गुप्त
प्रतिमा राय चण्डीगढ़ में रहती हैं। पत्रकारिता में परास्नातक कर रहीं हैं, जाहिर है अल्पवय हैं। उन्होंने कुछ दिनों पहले एक ब्लाग शुरू किया है – “दि फायर”। ब्लाग का नाम भले ही आग का पर्याय हो लेकिन आग हमेशा विध्वंसक नहीं होती बल्कि उपयुक्त स्थान पर सृजन का निमित्त भी बनती है। प्रकाशित हो रही हैं रचनाओं को देखते हुए प्रतिमा का यह ब्लाग सर्जना का पर्याय बनता दिख रहा है। इस पर पहली रचना उनकी एक कविता “आखिरी लम्हे” प्रकाशित हुई थी। फिर कुछ और पोस्ट लगीं। उनकी पहली रचना ने संकेत किया कि रचनाकार के अन्दर एक दहकती आग है जो प्रस्फुटित होने पर यदि नियोजित आकार ले पाती है तो सुन्दरतम रचनाओं का रूप ले सकेगी और ब्लाग के नाम को चरित्रार्थ कर सकेगी। इस कड़ी में उनकी एक और कविता “यादें” विगत 14 अप्रैल को प्रकाशित हुई थी। यद्यपि यह रचना कुछ टंकण त्रुटियों के साथ प्रकाशित हुई थी तथापि बाद में उनपर ध्यान आकर्षित कराए जाने पर प्रतिमा ने तुरत अपेक्षित सुधार कर दिए। यह कविता भाव और शिल्प की दृष्टि से अत्यंत संश्लिट है कि यह विश्वास करना कठिन होता है कि यह कवयित्री की मात्र दूसरी ही रचना है। उदीयमान कवयित्री की इस प्रतिभा सम्पन्न विशिष्टता ने कविता को आज की आँच में स्थान देने के लिए प्रेरित किया है।
प्रस्तुत कविता विप्रलम्भ की अभिव्यक्ति है जिसमें उसकी “स्मरण” अवस्था का चित्रण हुआ है। नायिका का नायक से वियोग है। वह इस अवस्था में नायक के साथ बिताए गए क्षणों की स्मृति में खो जाती है। ऐसे क्षण जो उसे सुख देते हैं, प्रसन्नता देते हैं उनका वह स्मरण करती है। यह मानवीय स्वभाव है कि जब कोई व्यक्ति समीप होता है तो उसके महत्व पर, उसके गुणों पर हमारा ध्यान कम जाता है। लेकिन जब वह हमसे दूर होता है तो उनकी कमी अखरती है। उससे जुड़ी छोटी से छोटी बातें याद आती हैं और वे आकर्षक भी लगती हैं। विशेष रूप से यदि उससे जुड़ी घटनाएं सुखद हैं अथवा सुविधादायक, तो वह रिक्ति के रूप में हमारे चारो ओर पसर जाती हैं। नायक का सामीप्य असीम सुखदायक होता है और विछोह अपार वेदनादायक। तब विप्रलम्भ की अवस्था में नायक की स्मृतियाँ और संवाद उसी भावलोक में पहुँचा देते हैं और सुख का निमित्त बनते हैं।
कविता में कवयित्री ने अपनी भावनाओं को साधारण से बिम्बों के माध्यम से सरलतम अभिव्यक्ति दी है लेकिन कुछ स्थानों पर आसान शब्दावलियाँ आकर्षक बिम्ब के रूप में चमक उठी हैं। जब नजदीकियाँ अधिक आत्मीय होती है तो शब्दों में अभिव्यक्ति अधिक महत्व नहीं रखती। संवाद अन्तरात्मा से होते हैं। स्मृतियों की लम्बी शृंखला के दौरान जब कवियित्री “तमाम रात साथ बैठ / खामोश निगाहों का / आपस में गुफ्तगू करना” कहती है तो अन्तरात्मा से संवाद के लिए “खामोश निगाहों” का प्रयोग बहुत सुन्दर और सार्थक बन जाता है। जीवन यात्रा अनवरत प्रवाहमान रहती है बिलकुल नदी की भाँति, कभी उसकी राह दुष्कर होती है तो कभी सहज। जब राह सहज होती है तो जीवन मधुर संगीत की तरह होता है, उसका अपना गीत होता है। वातावरण का कलरव भी उस गीत में अवरोध उत्पन्न करता है। “कुछ दूर साथ चलना / निशब्द फिजाएं, और / मधुर गीत गुनगुनाना .....” कुछ ऐसा ही व्यक्त करता है। कठिन परिस्थितियों में नायक के सान्निध्य में कठिनाइयों और झंझावातों का सामना आसान होता है। उसके सामीप्य के सुखद अहसास के लिए प्रयुक्त बिम्ब “खिलती धूप सा खड़े होना” प्रफुल्लता का परिचय देते हुए आकर्षक एवं कोमल सा लगता है। साहचर्य की आत्मिक अनुभूति “आपकी गोद में / सिर रखकर सोना, / याद है हमें” में मुखरित हुई है। इस प्रकार कविता आसान बिम्बों के माध्यम से कोमल भावों को सम्प्रेषित करने में सफल रही है।
पहले प्रकाशित कविता में प्रथम दृष्टया कुछ दोष थे जिन्हें कवयित्री ने दूर कर दिए। उसके बाद कविता में निखार आया, क्रमबद्धता आई। तथापि अन्तिम दो पंक्तियाँ “कभी आपको करीब पाकर / फिर से खो देना” अभी भी अवलम्ब की तलाश करती प्रतीत हो रही हैं। सामान्य शिल्प में रचित प्रस्तुत कविता में भावों की सघनता है, आवेग हैं, जो आकर्षित करते हैं। इस दृष्टिकोण से यह अधिक महत्वपूर्ण है कि नवोदित कवयित्री ने रचना के क्षेत्र में अभी कदम ही रखे हैं। यह रचना कवयित्री में अपार सम्भावनाओं का संकेत मात्र है।
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बहुत रोचक और सार्थक समीक्षा..शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंकविता तो बहुत पहले पढ़ी थी। प्रस्तुत समीक्षा कविता के विभिन्न आयामों का दर्शन कराती है। आभार।
जवाब देंहटाएंयह मानवीय स्वभाव है कि जब कोई व्यक्ति समीप होता है तो उसके महत्व पर, उसके गुणों पर हमारा ध्यान कम जाता है। लेकिन जब वह हमसे दूर होता है तो उनकी कमी अखरती है। उससे जुड़ी छोटी से छोटी बातें याद आती हैं और वे आकर्षक भी लगती हैं। विशेष रूप से यदि उससे जुड़ी घटनाएं सुखद हैं अथवा सुविधादायक, तो वह रिक्ति के रूप में हमारे चारो ओर पसर जाती हैं।
जवाब देंहटाएंश्री हरीश प्रसाद गुप्त जी,
वैसे तो समीक्षा के बाद भी समीक्षा की प्रक्रिया का चलन है लेकिन आपकी पैनी नजर एवं समीक्षक के रूप में की गयी समीक्षा अकाट्य है । एक सुंदर समीक्षा को सर्वरूपेण एवं सर्वभावेन सुसज्जित कर हम सबके समक्ष प्रस्तुत करने के लिए आप एक निष्पक्ष समीक्षक के रूप में उभर रहें हैं ।
धन्यवाद ।
naye hastakshar se parichay ke liye saadhuvad. ganesh chaturthi par hardik shubhkaamanayen !
जवाब देंहटाएंआगत और अनागत, सभी पाठकों को गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएं। भगवान गणेश सभी जनों की विघ्न हरें।
जवाब देंहटाएंभावप्रवण रचना की सार्थक समीक्षा ...
जवाब देंहटाएं@ प्रेम सरोवर जी,
जवाब देंहटाएंआपकी भावनाओं का आदर करता हूँ। जिस प्रकार कोई वस्तु पूर्ण नहीं है उसी प्रकार समीक्षा भी कभी अंतिम नहीं हो सकती। एक विचार के पश्चात कुछ नए विचार सामने आते हैं और नए विचारों का हमेशा स्वागत होना चाहिए। ध्यान देने योग्य विषय यह है कि हमारी निष्ठा कहाँ है और हम अपने को कहाँ तक तटस्थ रख पाते हैं। जहाँ तक मेरी अपनी बात है, मैं प्रयास भर करता हूँ लेकिन मेरी अपनी भी सीमाएं हैं। आप सबका स्नेह निरंतर मिल रहा है। इससे कभी-कभी मुझे भय लगता है कि मैं कहीं अपने अन्दर कोई खुशफहमी न बैठा लूँ।
बहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंअंत में यहां 'अधित' क्या टंकण दोष है.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया समीक्षा की है हरीश प्रकाश गुप्त जी ने!
जवाब देंहटाएंप्रतिमा राय जी से परिचय कराने के लिए आभार!
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गणेशोत्सव की शुभकामनाएँ!
आदरणीय राहुल सिंह जी,
जवाब देंहटाएंबिलकुल आपने सही अनुमान किया है। लगता है कि अधिक के लिए अधित टाइप हो गया है।
@ राहुल सिंह जी,
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने यह टंकण त्रुटि ही है। इसे "अधिक" ही होना चाहिए। और यही नहीं,इसी पंक्ति में "दृष्टिकोण" भी गलती से "दष्टिकोण" टाइप हो गया है।
त्रुटि पर ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद।
- हरीश
बच्ची की अल्पवय एवम् अनुभव की कमी दिखाई देती है इस रचना में.. किन्तु प्रारंभिक प्रयास की पृष्ठभूमि में यह क्षम्य है..कुछ शब्दों के फेर बदल से कविता का सौंदर्य उभर कर सामने आ सकता है.. गुप्त जी ने भी समीक्षा जल्दबाजी में लिखी लगती है!!
जवाब देंहटाएंध्यानकर्षण के बावजूद प्रतिमा जी के ब्लाग पर नहीं जा सका। आज उनकी चर्चा यहाँ देखकर सुखद अनुभव हो रहा है। कमोबेश उनकी लेखन-शैली से भी परिचय हो गया। इस हीरे को तराशा जा सकता है।
जवाब देंहटाएंसार्थक समीक्षा ...
जवाब देंहटाएंapni bhoomika ke sath aapne nyaay kiya hai steek smeeksha likh kr .
जवाब देंहटाएंआंच की सार्थकता इसी में है कि वह रचनाकार और रचना दोनों को सहजता से पकाती है... प्रतिमा को शुभकामना... गुप्त जी की एक और सकारात्मक समीक्षा
जवाब देंहटाएंकिसी भी कृति को पूर्णता समालोचनात्मक समीक्षा के बाद ही प्राप्त होती है, आप का यह कर्म वंदनीय है
जवाब देंहटाएंसार्थक समीक्षा.
जवाब देंहटाएंKavita par ki gai sameeksha se seekhne ko mila...Meri kavita ko aanch ka hissa banane ke liye aabhar.. :)
जवाब देंहटाएं@ प्रतिमा
जवाब देंहटाएंबेटे!
हरीश जी और राय जी के हाथों में पत्थर भी पड़ जाए तो हीरा बन जाता है। आपका सौभाग्य है कि आपकी दूसरी ही रचना को इनकी पैनी नज़र का आशीष मिला है। इनके बताए मार्गदर्शन का समुचित उपयोग करते हुए सार्थक सृजन में लगे रहें यही आशीष और शुभकामना है।
Manoj Uncle: aap ki baat se poori tarh se sehamat hun.Harish uncle aur papa ka hi saath hai jo har rachna saarthk hai.Aap sabka bahut bahut aabhar.. :)
जवाब देंहटाएंएक प्रतिभा से मुलाकात,सुन्दर रचना और सार्थक समीक्षा.
जवाब देंहटाएंसभी कुछ लाजबाब.
सार्थक समीक्षा.......शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन समीक्षा।
जवाब देंहटाएंअरे!
जवाब देंहटाएंयह तो टिप्पणी से ज्ञात हुआ कि कवयित्री आचार्य जी की सुपुत्री हैं.. ऐसे में कुछ भी कहना अनुपयुक्त होगा.. जब घर में ही शिक्षक, समीक्षक और मार्गदर्शन उपलब्ध हो तो उनकी दृष्टि से बचना असंभव ही होगा!!
आपकी समीक्षा ने कविता पढ़ने के लिए प्रेरित किया ! सार्थक समीक्षा के लिए आभार !
जवाब देंहटाएंपरिचय के लिये बहुत आभार आपका.
जवाब देंहटाएंरामराम.