देसिल बयना – 98 : अरहर की टाट अलीगढ़ का ताला
n करण समस्तीपुरी
रेवाखंड में सालो भर हरियरी रहता था। फ़गुआ, चैती, कजरी, झूला, बिरहा, चौमासा नहीं कुछ तो बारहमासा। नाच, नौटंकी, कुश्ती, मेला, खेल-तमाशा भी चलते ही रहता था। बड़ा मौज था। बड़ी निश्चिंती। चौठचंद के खीर-पूरी खाते ही रामलीला का सूर-सार शुरु हो जाता था। पहिले आशिन से स्थल पर गनगनाने लगता था, “जो सुमिरत सिधि होय............... !” दिन भर खेत-पथार, बाड़ी-झाड़ी में मेहनत मजदूरी करके लोग रात में खेल-तमाशा का आनंद लेते थे। हमलोग तो सांझे से अगले पांति में जगह छेके रहते थे।
उधर कुछ दिनों से फ़ुटबाल का खेल भी होने लगा था। पछिला सीजन में रेवाखंड का टीम भी उतरा था जिला-जीत मुकाबला में। सच में, बजा के चुटकी धूल चटा दे... पूरा इलाका हरहरा दिया था। बरहमदेवा बाप रे बाप उ तो ससुर ई कोना से ऐसन लात मारता था कि गेंद उ तरफ़ के गोलकी को लेकर उड़ जाए। और जगिया था कलाकार। उ लोग का बोलता था पिलंडी कोरनल का ससपेस्लिस्ट ( पेनाल्टी कार्नर का स्पेस्लिस्ट)। ऐसन चकमका के लात घुमाता था कि गेंद गोलकी के टांग के बीच से पास।
ई गुरुप से रेवाखंड और उ गुरुप से गंडक पार का टीम पहुँचा था फ़ाइनल में। एतबार के दिन जोरदार टक्कर चल रहा था। दोनों गाँव उठ कर चला आया था, पटेल मैदान समहतीपुर में। एक-एक गोल पर दे ताली गरगराके। बाप रे बाप... महंगू बूढा भी बजरंगिया के साइकिल पर लद के आया था। बूझे कुछो नहीं बूझे मगर कपार पर हाथ चढ़ाए आँख सिकोरे एकटक निहार रहा था। नहीं बरदास हुआ तो पुछिये दिया, “हौ मरदे... ई दू-दू दर्जन आदमी एगो गेन (गेंद) खातिर काहे एतना धर-पकर किये हुए है...?” हम बोले, “कका उ सब गोल कर रहा है... गोल...!” महंगू कका थोड़ा चिढ़ते हुए बोले थे, “मार बुरबक... ! गोल कर रहा है.... अरे उ गेन तो पहिलहि से एतना गोल है.... अब केतना गोल करेगा....?”
“अ... हा.... हा... हा.... हें.... हें.... हें.... हें....... हु...हु.... हु... हु....” अरे बाप रे बाप महँगू बूढ़ा की बात खतम भी नहीं हुई थी ई खेमा का लोग सब हँसते-हँसते लोट-पोट हो गया था... ! इ से पहिले कि सब हँस के दम धरे मैदान में हो-हल्ला शुरु हो गया।.... पकड़ो... मारो... स्स्स्स..... ला... बेइमान.... धराम..... चटाक....! आहि तोरी जात के.... ई का हो गया....? फ़ुटबाल के बदले रेसलिन शुरु हो गया...! जिसके हाथ जो ही लगा उसी से दे दना... ई पाटी का आदमी उ पाटी को... उ पाटी का आदमी ई पाटी को...! मगर जादा पिटाया गंडके पार वाला।
उ तो कहिये कि इसपी ओफ़िस का डंटाधारी जवान किसी तरह रेलम-पेल करके दुन्नु पाटी को अलग किया। घमासान थमने के बाद पता चला कि गोल पर गोल से नरवासाया उ पार का इस्टाइकर जान-बूझ कर जगिया को नाके पर एक लात मार दिया तान के...!
जगिया को उधरे होस्पीटल ले जाया गया...! और बांकी आदमी गरियाते-धिक्कारते वापिस रेवाखंड। मुखिया-सरपंच सब बैठा था। मगर बिगरु ठाकुर बमक गये, “ससुर गेंद का आँख देखा नहीं लात चला दिया खिलाड़ी पर....! और आया है पंचायती करने....? उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे... अएं....? ई बार रवी का आधा फ़सल उठा लायेंगे रेवाखंड।” इहां भी झंझट-पंगा हो गया। उ पार वाला मोछुआ लठैत भी बमक गया, “हे... गाँव में आये हैं तो जादा बलगरी नहीं दिखाइये... नहीं तो पूरे रेवाखंड को रात भर चैन से सोना मोस्किल कर देंगे...!” उ तो धन भाग कि मुखिया जी थे नहीं तो उहाँ लट्ठम-लाठी हो जाता।
फ़िर रवी घर आया और खरीफ़ खेत में। होली, चैता के बाद रेवाखंड कजरी के मद में था। सब लोग आनंद का झूला झूल रहे थे। एक दिन भोरे-भोर पता चला कि पैंचू साह कने चोरी हो गया है। आह... बोरा के बोरा तोरी, खल्ली, और न जाने केतना कनस्तर तेल उठा ले गये थे। सुने कि कुछ गहना जेवर और नकदी भी गया। दफ़ेदार झा इधर-उधर डंटा चमका रहे थे, “हई... उधर कोई टपना नहीं... अभी साहेब आ रहे हैं तफ़तीस के लिये...!” केहु का पैर-निशान नहीं उखरना चाहिये... हे... हौ... उधर नहीं... उधर नहीं....!” दफ़ेदार झा की चौकस नजर उत्सुक दर्शनार्थियों के लिये बड़ी वाधा थी। पहर सांझ गये पुलिस-दरोगा भी आये थे। बाप रे सुखरिया और जटबा तो पुलिस को देखते ही डरे गीला कर दिया....!
धनमा चट से परमोध बाबू कने से दू कुर्सी खीच लाया था। फिर शुरु हुआ दरोगा साहेब का पूछ-ताछ, “केतना बजे रात में आया....? केतना लोग था...? पूरब से घूसा कि पच्छिम से...? एतना बड़ा सेंध फोर दिया और आप लोग नींद नहीं खुली....? एतना सारा गहना-जेवर घर में काहे रखते हैं....?” दरोगा साहब के सवालों की झड़ी लगी हुई थी और बेचारा पैंचू साह जवाब क्या दे... उ तो फ़फ़क-फ़फ़क कर रोने लगा, “हाकिम... हम तो बरबाद हो गये हाकिम....! अब तो जिंदगी भर भीख मांगे पड़ी हाकिम....!” दरोगाजी का सवाल आगे भी जारी था। उ तो सहुआइन हिम्मत कर के थोड़-बहुत बता रही थी। पैंचू साह तो भोकार पार के रो रहे थे। आखिर करते भी तो का....? एक तो धन-माल चोरी गया उपर से दरोगा साहेब ऐसे “इंटरीगेट” (एंट्रोगेट) कर रहे थे जैसे घर में चोरी हो जाना पैंचू साह का ही अपराध हो।
मोहन मांझी इसटिलही (स्टील की) थाली में दू गिलास चाह और एम्प्रो बिस्कुट ला कर रख दिया था। चाह-बिस्कुट के बाद दरोगा जी फ़टफ़टिया हांक दिये थे। दफ़ेदार झा आसन्न गतिविधियाँ सबको समझा रहे थे। घरों में दिया-बाती जल गया तो लोग-बाग भी खिसकने लगे। पैंचू साह का फ़फ़काना भी कम हो चुका था। उस रात और दो-चार रात तक लोग बड़ी सावधानी से बिताए थे।
अगिला हफ़्ते फिर गोधन कका कने सेंध फोर दिया। उतना माल असबाब तो नहीं मिला मगर कका का कचहरिया कमाई....! फिर दफ़ेदार झा का डंडा डोलने लगा था। फिर वही सब बात-व्यवहार। दो-चार रात गये फ़ुचाई झा कने भी अटेंप किया था मगर जाग हो गया तो भाग खड़े हुए मगर पछियारी टोल में एक जगह हाथ मार ही लिये थे।
बाप रे बाप फिर तो पूरे गाँव में रतजग्गा ही होने लगा था। दुकान-दौरी वाला सब मोटका-मोटका जंजीर और बड़का-बड़का ताला लटकाके भी अचकते रहता था। ओहि दिन में स्थल पर शुरु हो गया मेला। मरद-मानुस जाए रमलीला देखे तो बूढ़-बिरिध और जर-जनानी जगे। मगर मंगनी महतो क्या करें? घर में कुल जमा दो जने एक फ़ुसही घर। उ में भी लुगाई पीहर में। रामलीला देखने के लिये जी तो जोर मारता था मगर घर छोड़कर जाएं कैसे?
बतहू सिंह कहे, “धुर्र बुरबक अरे बुटला और झुरखना कैसे जाता है..? ताला... मरदे .... ताला....! अरे बजार से एगो बढ़िया मजबूत ताला खरील लाओ और लटकाय दो घर में....!” बेचारे मंगनी महतो को सिंहजी का विचार खूब सूझा। कनहू कका के मार्फ़त बजार से मंगाइये लिये बड़का ताला, अलीपुर वाला।
जैसे ही ताला हाथ में आया, महतो जी पूरे गाँव में हकार बाँट दिये, “आज रात से हमभी चलेंगे रमलिल्ला देखने। सब लोग बोला बढ़िया बात। उनका घर पड़ता था गाछिये टोल में। हमलोग सबेर-सकाल खा-पीकार महतो जी का फ़ाटक ठकठका दिये। बेचारे हरबराकर चिल्लाये, “क...कौन है...?” फिर हमलोग की आवाज पहचान हथबत्ती लेकर निकले। उनके निकलते ही चौठिया फ़ाटक सटाते हुए बोला, “चलिये जल्दी... मरदे जो सुमिरत सिधि हो गया....!” महतोजी बोले, “धर खचरा कहीं के... घर में ताला तो लगा लेने देओ।” महताजी घपोचन भैय्या को हथबत्ती थमाकर बड़ा सा पितरिया ताला लगाने लगे। अरहर के सूखे डांट से बने फ़ाटक को लोहे के जंजीर से कस अलीपुरिया ताला जर दिये। दो बार खींच के इत्मिनान कर लिये। तभी दमरी दास पूछ बैठा, “अहो महतो....! उ टाट पर पीला-पीला क्या चमक रहा है?” “कहाँ?” महतोजी चौंके थे फिर ताला की तरफ़ इशारा पाकर बोले, “अरे उ ताला है...! आज-कल देखिये रहे हैं, चोर-चुहार सब कैसा उतपात मचाया हुआ है। सार रमलिल्ला पर भी आफ़त...! आजे बजार से मंगाए हैं, पकिया पीत्तल है, अलीपुर वाला...! चोर का नाना भी पकर के झूलते रह जाए।”
बेचारे मंगनी महतो का गर्व ज्यादा देर तक टिक नहीं सका। दमरी दास बोला, “वाह बहादुर...! इसे कहते हैं ’अरहर की टाट पर अलीपुर का ताला....!’ मरदे जितने की टाट भी नहीं होगी, उतने का ताला लगा लिया है। और फ़ायदा भी क्या... ताला छोड़ के अधफ़टा टाट में न घुस जाए चोर....? बुद्धि की बलिहारी, ग्राम-पोस्ट रेवाड़ी, चलो झार के...!”
बात में पाइंट था। थोड़ा हंसी-ठहक्का भी हुआ मगर सब दमरी दास के मुँह पर हथबत्ती जला-जला कर देखने लगे। सही तो कहा था, “जितने की टाट नहीं उतने का ताला लगा लिया। वैसे भी बेकार की वस्तु की रक्षा के लिये बेशकीमती इंतजाम किया जाए तो सब केन्द्र सरकार ही न हो जाए..... “अंदर सेफ़ रहो कसाब... बाहर मिलिटरी का पहरा है... सबा करोड़ महीना पर!”
“मार बुरबक... ! गोल कर रहा है.... अरे उ गेन तो पहिलहि से एतना गोल है.... अब केतना गोल करेगा....?...
जवाब देंहटाएं:):)सही तो कहा ..
वैसे भी बेकार की वस्तु की रक्षा के लिये बेशकीमती इंतजाम किया जाए तो सब केन्द्र सरकार ही न हो जाए..... “अंदर सेफ़ रहो कसाब... बाहर मिलिटरी का पहरा है... सबा करोड़ महीना पर!”
देसिल बयना कहते कहते बात कहाँ पहुंचा दी ..सटीक ..बहुत बढ़िया लेख
खूबसूरत प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंवैसे भी बेकार की वस्तु की रक्षा के लिये बेशकीमती इंतजाम किया जाए तो सब केन्द्र सरकार ही न हो जाए ||
पिलंडी कोरनल का ससपेस्लिस्ट ...
जवाब देंहटाएंऐसे सबद मन हरिया देते हैं....कौनो अंग्रेज से पूछे कि का मतबल हुआ इसका तो मुँहे चियारे रह जायेगा... नहीं ?
आ ई जो बात कहे न -
“जितने की टाट नहीं उतने का ताला लगा लिया। वैसे भी बेकार की वस्तु की रक्षा के लिये बेशकीमती इंतजाम किया जाए तो सब केन्द्र सरकार ही न हो जाए..... “अंदर सेफ़ रहो कसाब... बाहर मिलिटरी का पहरा है... सबा करोड़ महीना पर!”
जियो....
बहुत ही सुन्दर और मनमोहक ढंग से लिखा गया है। परन्तु इस माहौल में "आसन्न गतिविधियाँ" पद जम नहीं रहे हैं। आभार।
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह मज़ेदार !
जवाब देंहटाएंकसाब कहां आ टपका इन बातों के बीच.
जवाब देंहटाएं@ पिलंडी कोरनल का ससपेस्लिस्ट
जवाब देंहटाएंई सपेसलिस्ट हमरो इसकूल में हुआ करता था।
@ डंटाधारी जवान किसी तरह रेलम-पेल करके दुन्नु पाटी को अलग किया।
जवाब देंहटाएंकरण भाई लाल टोपी काहे छोड़ दिए हैं।
@ बुद्धि की बलिहारी, ग्राम-पोस्ट रेवाड़ी
जवाब देंहटाएंकरण बाबू ... ई त अलगे एगो देसिल बयना हो गया। जब लोग यही फ़करा कह के चिढ़ाता था तब त दिमागे में नहीं आया।
मतलब ठीके लोग पहले कहता था ... बुद्धि की बलिहारी, ग्राम-पोस्ट रेवाड़ी
एक दम माफ़िक बात है। बेकार की वस्तु की रक्षा के लिये बेशकीमती इंतजाम किया जाता हमरे देश में ..!
जवाब देंहटाएंआज का देसिल बयना एकदम्म चकाचक है। गांव का बरा याद आया इसको पढ़-पढ़ के। अब त लगता है छठ के पहिले ही एक बार रेवाखंड जाना परेगा।
जवाब देंहटाएंजितने की टाट नहीं उतने का ताला लगा लिया।
जवाब देंहटाएंबहुत सही लिखा आपने.
बिल्कुल सही लिखा है आपने ।
जवाब देंहटाएंbahut hi saarthak aur sachchai ko anokhe dhang se batati hui shaandar post .bahut badhaai aapko.
जवाब देंहटाएंmere blog per aapkaa swagat hai .
www.prernaargal.blogspot.com
छब्बीस रूपैया में बेचारा किसी तरह जोगाड़ कर लिया होगा अलीपुरिया ताला का,मगर टाट कइसे बनाए बीपीएल। क्या पता,कभी राहुल भैया मंगनी के घर चले गए तो बेचारा जलपान करा भी पाएगा कि नहीं।
जवाब देंहटाएंआंचलिक जीवन को समर्पित एक्जिवंत औरमुखर पोस्ट .
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है ....लाजबाब
जवाब देंहटाएंपरिवेश , भाषा ,लहजा , दृश्य ,चुटीले सम्वाद ---कुछ पल के लिये हम भी कथानक के पात्र बन गये थे.लोक पुट में यही ताकत होती है.बहुत ही बढ़िया.
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