बुधवार, 14 दिसंबर 2011

देसिल बयना – 109 : गाडर पाली ऊन को, लागी चरन कपास

 

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- करण समस्तीपुरी

भचलू कका का परिवार नगर सूरत से वापस आ गया है रेवाखंड। वैसे तो हर साल आते थे, सिजनल पंछी की तरह मगर ई बरस कुछ जल्दी आ गए। बदलते परिवेश ने मनुस की गत भी क्या कर दी है। बेचारे भचलू कका न देस के रहे न परदेस के। आधा परिवार सूरत में और आधा रेवाखंड में। रेवाखंड में पुश्तैनी खेती गिरहस्थी था। सूरत में भी काफ़ी माल-मवेशी खेती-बारी संजो लिये थे मगर दोनों जगह परवासी।

भचलु कका को नौटंकी बड़ा शौक। सुनते हैं कि कका जवानी में नौटंकी कंपनी के साथे लग गए। बैसाली, बलिया, बिजनौर, गुआलियर, दामोह, महोबा, जूनागढ़, जाम-नगर होते-होते सूरत में आकर बस गए। पाछे आधा परिवार को भी खींच लिये। जुआनी के साथे नौटंकी का शौक जाता रहा और किसानी बढ़ती गई। काफ़ी खेत-पथार अरज लिये थे सूरत में। बाहरी ही सही मगर सूरत के जथगर किसान में गिनती होने लगा भचलू कका का।

वैसे रेवाखंड में माल-मवेशी तो नहीं मगर थोड़-बहुत खेती-पथारी थी। मगर एक सीजन बाढ़ और एक सीजन रौदी... हे भगवान! मारे गए किसान। धीरे-धीरे भचलू कका सारा खेती बटाई लगाकर घरे-घरैने सूरत में जा बसे। साल में दो बार आते थे रेवाखंड। एंह... का शान होता था। भंडार पर वाला जटबा सेठ से भी जादे। गाँव के जमींदार-साहुकार भी गुजरतिया मसालेदार चाह पीने खातिर भचलू कका का दरवाजा अगोरे रहते थे।

और साल गये अगहन आते थे और रबी समेट कर जाते थे। ई दफ़े चढ़ते अगहन आ गए थे। महीना दिन से रेवाखंड मझटोली के कोनिया वाला घर से भी सांझ-सवेरे धुआँ उठने लगा था। मगर ई दफ़े न तो मसालेदार चाह पीने वालों की जमघट रहती थी ना ही कर्ज-उधार याचकों की। गए दिन बटाईदारों से भी चख-चख होती रहती थी। कहाँ एक दिन दानी राज कर्ण और आजकल तो तिनके-तिनके का हिसाब करते हैं। टोला क्या समझिये तो पूरा गाँवे भचलू कका के बदले हुए स्वभाव के अनबेसन (अन्वेषण) में जुटा हुआ था।

वही दिन खेलवना के लुगाई से झोट्टम-झोट्टी का नौबत आ गया। झगड़ा शांत हुआ तो आस-पास के मरद-मेहरारु सब बतिया रहे थे, “मार मुरी... उमर गए बुढौ खबीस कितना हो गया है...! धुर्र जाओ...! पता नहीं कौन हाहि पकड़ लिया है... अरे उ तो आते-जाते खेलवना के हाथ पर सौ-पचास रख देता था और आज धान बरोबर बंटाकर भूस्सा के लिये बट्टीदार से झोट्टम-झोट... जाओ रे कलजुग!

भिरिया वाला ईख लगा हुआ खेत ढोलना से बीचे साल में छीन लिये थे आधा-छिधा तनाजा देकर। जिस दिन पंचैती में फ़ैसला हुआ भचलू कका की आँखे चमक उठी थी। अगले ही दिन से गठिया-बात को दरकिनार कर सांझ-सवेरे अपने भिरिया का चक्कर लगा आते थे। ईंख के मोटापे के साथ-साथ बचलू कका की सहजता भी बढ़ती जा रही थी। अब टोला-मोहल्ला के एकाध लोगों को बुलाने लगे थे मसालेदार चाह पीने के लिये। सबेरे-सबेरे मुर्गा की तरह बांग देते थे, “हौजी माहटर...., बूधन भाई हौ..., ओरे फ़िरंगिया...., आबऽ हौ गंगाधर बाबू.....!”

भचलू कका की सहजता बढ़ने के साथ-साथ ढोलना को छोड़ पूरे टोल की खुशी बढ़ रही थी। उ दिन बाबूजी भी कह रहे थे, “चलो जो भी हो... सांझ-सवेरे कोनटा पर का काईं-कट-कट तो खतम हुआ। बीच फ़सिल में जमीन नहीं छीनना चाहिए मगर भचलू भाई एकदम गुजरतिया पारा के तरह अड़ गए थे। वैसे ढोलना को भी फ़सिल का लागत तो मिलिये गया...।”

खुशी की उमर बहुत कम होती है। उ दिन भोरे-भोर फिर भचलू कका बिकराल रूप धारन किए थे। लगता था कि बतहू महंथ का कपार फ़ोर देंगे। मगर उ में महंथ का क्या दोष? उ तो बेचारे ढांकर बछरा को सांढ़ छोड़ दिये थे। अब खुल्ला सांढ-भैंसा क्या बूझे...? उके लिये तो सभे पबलिक परोपट्टी। दू लग्गा भर ईंख को रौंद दिया था। बहुत समझाने-बुझाने तोख-भरोस देने पर शांत हुए भचलू कका।

दुपहरिये में भंडार पर जाकर गेहुमा को ईंख की रखवारी दे आए। उ भी पहलवान सांझे से तीन हाथ का ब्रहमसोंटा लेकर जुट गया। एंह... हट्ठा-कट्ठा गेहुमा भचलू कका का पुरनका कोट और कनटोप में तो पलटनिया जुआन लग रहा था। सुंघनी अम्मा मतलब कि उकी लुगाई एक नजर उठाकर देखी और फिर घुंघट काढ़ के थुकथुकाने लगी।

गेहुमा को रखवारी देकर भचलू कका भी निचिंत हो गए थे। अब आराम से तीन बखत खाना, पाँच बखत चाह और दोपहरिया में मंगटा हजाम से तारपिन के तेल से रगरौआ मालिस। अब खिलहा-भिरिया हफ़्ता दस-दिन में कभी घूम आते थे।

उधर मांझी टोल में गेहुमा की लुगाई की चलती बढ़ गई थी। गेहुमा को तो कनटोप वाला पलटन का दर्जा ही मिल गया था। पूरे पंदरह टका महीना... दरमाहा भी था। और कुछ उपरी फ़ायदा भी। सुंघनी अम्मा चाहेगी तो सब के माल-मवेशी के लिये घास मिलेगा। और भी कुछ-कुछ....! दूसरे टोले और परोसी गाँव के भी कुछ लोगों का आन-जान भी बढ़ गया था गेहुमा कने। कुछ तो बात थी। टोला-टप्पर में बहुत तरह का गुल-गुल होने लगा था मगर ढोलना आज-कल खुश था।

सांझ ढले से पहिले उ दिन भचलू कका चले गए भिरिया खेत...! ईंख खेत की आड़ से लगी साईकिल देखकर कुछ अचरज हुआ। जब तक कि कुछ समझें एक नौजवान मुँह पर गमछा बांधे साइकिल लेके दौड़ गया। मगर दूसरे तरफ़ दूसरा जुआन धरा गया। कका गेहुमा-गेहुमा चिल्लाए। “मालिक...!” गेहुमा उधर से लोटा डुलाते हुए दौड़ा...! मोकाबिले सारा पोल खुल गया।

सेंध पर पकड़ाया चोर गेहुमा के सन्मुखे रोते-रोते बोल दिया, “मालिक...! ई में हमरा का दोष है....? गाय नयी ब्यायी है। हमतो गेहुमसिंघ से पूछ कर पगारी (ईंख का ऊपरी पत्तेदार भाग) काट रहे थे। उपर से चार अना पैसा भी दिये हैं एडभांस में।” कुछ और नाम भी खुला था।

कुछ घसियारिन भागी गाँव की ओर कुछ बड़ी-बूढ़ी वहीं तमाशा देखने लगी। वही हाल हलवाह-चरवाह का। गाँव में भी बिजली की तरह खबर पहुँची कि भचलू कका के ईंख में दिन-दहारे चोर लग गया है...। लोग-वाग दौड़े। हमलोग तो सबसे अगारिये।

मिसिर जी के परती खेत में भचलू कका चिल्ला रहे हैं... गलिया रहे हैं। चारों तरफ़ से भीड़। भचलू कका के भाई-बंधु तो लगे लाठी-भाला नचाए। उ तो फ़ुदकन राय और मंगनीलाल बीच में घुसकर किसी तरह मामला शांत कराए, “अरे भाई...! हम कहते हैं कि नाम से कि.... कौनो कराइम के लिये कानून है कि नहीं.... अब अपने लठिया-गराँस भांज के मडल (मर्डर) कर दो फिर हरिजल (हरिजन) केस में झुलते रहने...!”

चट-पट खेते में पंचैती बैठ गया। अब जौन ईंख कट चुका था उ जुट तो नहिए सकता है। मगर फ़ैसला हुआ कि बचे हुए ईंख की रखवारी गेहुमा ईमानदारी से करेगा उ भी फ़िरी में। अगर एक्को तना कटा तो डेढ़ सौ रुपैय्या ताजन। अब जौन चोर पकराया उ को भी दंड। भचलू कका को फ़िरी में दूध देगा तीन महीना तक। सब शांति-शांति करा के पंच-पंचैती चले अपने-अपने रास्ते।

सब लोग संतुष्ट थे मगर दो जनें रस्ते-रस्ते भी सुर-संगराम मचा रहे थे। उधर दखिनवरिया पगदंदी पर सुंघनी अम्मा काली-भैरव को अराध रही थी तो इधर उतरवरिया रस्ता पर भचलू कका का गाली पुराण...!

टोल लगाचाए पर और तेज हो गये। महंगी पांडे पूछे तो और रगा-रगा कर गाने लगे, “हौ महँगी बाबू...! अपने जलमधरती पर जुलुम हौ....! लुट गए हौ बाबू...! परदेस में घाटा खाकर देस आए... और इहां इ अत्ताचार...! साल भर का पूँजी गया महिसिया के पेट में...! कट्ठा भर का ईंख काट लिया हौ....!”

“अरे मगर आप तो पलटनिया रखवार रखे हुए थे....!” महंगी पांडे का मुँह खुला रह गया। भचलू कका की दहार फिर शुरु हुई, “वही बात तो हुआ हौ बाबू...! ‘गाडर पाली ऊन को, लागी चरन कपास!’ रखवार रखे कि सांढ-भैंसा से बचाएगा... वही दिन-देखारे घसवाह लगा के कट्ठा-कट्ठा भर ईंख कटवा दिया हौ बाबू।”

मंगनी पांडे एक लंबा सा ‘हूँ....’ किए। फिर पूछे, “ओहोहो...! किसी का भरोसा नहीं रहा कका...! मगर ई ईंख में कपास कहाँ से आ गया?”

भचलू कका वहीं पांडेजी के बंसही मचान पर बैठकर किस्सा कहने लगे तो भीड़ भी वहीं रुक गयी। “हौ बाबू...! वही करम की मार...! जौन मार किस्मत ने सूरत में मारा वही रेवाखंड में। दोनो एक्कहि कहानी है हो...!”

“सूरत में सब-कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। पंड्डह साल खूब कपास उपजाए। खूब कमाए। उ तो उहां से इहां तक जाहिर है। इधर कुछ दिन से कपास का मांग कम हो गया। परदेस में कमाई नहीं हो तो कैसे रहें...? अपना तबेला था ही। तोहरी काकी के लाख बिरोध को काटकर गाडर (भेंड़ का झुंड) पाल लिये। नहीं सूत तो ऊन। ऊनी कपड़ा का तो मारकिट में खूब डिमान है।” मंगनी पांडे और एकाध लोग बीच-बाच में ‘ऊँऊँ...’ ‘हूँ...’ ‘ओ...’ किए जा रहे थे। कभी-कभार उपर-नीचे माथा हिला देते थे।

कका कह रहे हैं, “हौ बाबू...! गाडर पालके खुशी... चलो ई साल ऊन बेचकर पछिला दोनों साल का रिकभरी हो जाएगा। खेती से सारा ध्यान हटा कर भेंड़ पर लगा दिये। तीन-तीन गरेरिया को गाडर की नौकरी पर रखे। साफ़-सफ़ाई, सम्फ़ू-कंघी...! सुरूज निकलने से पहिलहि बाद में चरने छोड़ देते थे।”

“बौआ... खुशी चार दिन के मेहमान! कपास फूलने का टेम आया तो एकदिन गए उ दिश। हौ बाबू...! कलेजा बैठ गया। अगल-बगल सब का खेत हरियर...! हमरे पट्टी में ई बड़का झुंड...! ससुर गरेरिया कात-किनार में बैठकर तमाखू पी रहा है और इधर गाडर सब कपास को चर-चर के खुटिया दिया...!”

“हौ बाबू...! किसी तरह कलेजा थाम के घर आए। रोते-बिलखते तोहरी काकी को कहे...! उका हिरदय और बैठ गया..! दो मिनिट हमरे निहारती रही फिर चंडी के तरफ़ फ़ुंफ़कार उठी। अब हुआ न...! हम कहते थे...कि जौन काम है वही करो...! कपास का बीज बदल दो...! हाइबिरिज (हायब्रिड) वला लत्ती लगाओ...! मगर नहीं...! बाबू साहेब गाडर पालेंगे...! ऊन बेचेंगे...! अब लो...! ‘गाडर पाली ऊन को, लागी चरन कपास!’ बेचो घड़ीघंट। ऊन बेचकर जादे मुनाफ़ा कमाने के लिये गाडर (भेंड़) पाले। ऊन तो हुआ नहीं उल्टे जो भी कपास था उहो चर गया....!”

श्रोताओं ने फिर से लंबा सा ‘हूँ...’ कहा था। कका माथे में बंधी गमछी से आँख-मुँह पोछकर फिर कहने लगे, “उ तो परदेस में जनावर ने नुकसान किया.. इहां अपना देस में ई गेहुमा...! उहाँ गाडर पाले ऊन के लिये, तो कपासे को चर कर दरिद्र कर दिया... और इहाँ रखवार रखे ईंख को सांढ़-भैंसा से बचाने के लिये तो आदमी के हाथों ही बेचने लगा...! क्या करेंगे बाबू...! एहि किस्मत है। अधिक लाभ की उम्मीद से काम करते हैं और हो जाता है उल्टा नुकसान।”

कहानी कहने के बाद भचलू चचा के ललाट पर संतोष की कुछ रेखाएं उभरी थी।

7 टिप्‍पणियां:

  1. अब तो बुधवार मतलब देसिल बयना... आम जीवन का जिस तरह चित्रण हो रहा है वह नागार्जुन, रेणु के बाद आप ही कर रहे हैं... ठेठ गाँव से चित्र उठा कर रोचकता से लिखना अदभुध प्रयास है...

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  2. बहुत-बहुत साधुवाद। देसिल बयना में काफी नवीनता देखने को मिल रही हैं।

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  3. अरे बाप रे! हमरा हाजिरी नहीं लगता त करण बाबू नाराज हो जाते.. अरे परेसान हो जाते हैं कभी कभी.. सब गडबडा जाता है..
    ई देसिल बयना के बारे में का कहें!! बस मन मोह लेते हैं आप!!

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  4. desila bayan ka koi jabab nahi hai..ab to iske intezaar ki aadat ho gayi hai..bachpan me jis ganw ko jiya tha ..ab sahar me baithakar mahsoos karne ka mauka mil jaata hai..grameen jeewan ke pahluon ko aapki saskt lakhni jeewant kar deti hai...sadar pranam ke sath

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