गुरुवार, 19 नवंबर 2009

लड़की

बाप रे ! गुरूवार की संध्या भी आ गयी हमें पता है आपको हमारे चौपाल की बेसब्री से प्रतीक्षा होगीलेकिन दोस्तों, क्या करें ? एक अतिथि आ गए और हमारी संस्कृति हमें सिखाती है, "अतिथि देवो भवः !" तो चलिए अब आपके मिलवा देते हैं हमारे आज के चौपाल के अतिथि, श्री हरी प्रकाश गुप्त जी से कानपुर के समीप मंधना गाँव मे जन्मे श्री गुप्त जी हिंदी के अतिरिक्त वाणिज्य एवं अर्थ-शास्त्र में स्नातकोत्तर हैं लेकिन 'मसि-कागद' का साथ कभी नहीं छूटा इस से पहले आप इनकी लघु कथा पढ़ चुके हैं ! आज पढ़िए, गुप्त जी की एक कविता ! -- करण समस्तीपुरी


लड़की
लड़की
खेलती है गली में
नुक्कड़ में,
बच्चों के साथ,
उसे छूट है
खेलने की ।
लड़की खेलती है
गुड्डे और गुड़िया से
सजाती और शृंगार करती है
फिर कराती है
शादी दोनों की ।
लड़की बनाती है
घरौदा-
मिट्टी का,
अपने मकान के एक कोने में-
एक घर,
रंगती है
पोतती है
सजाती है
बिठा देती है उसमें
गुड्डे और गुड़िया को ।
लड़की बड़ी होती है
अब नहीं खेलती
गुड्डे और गुड़िया से
घरौंदे से,
उसकी बड़ी समझ में
अब
इनकी कोई जरुरत नहीं,
उसका बनाया घरौंदा
अब भी खड़ा है-
भर दी जाती हैं
उसमें आलू, प्याज और सब्जियाँ ।
--- हरीश प्रकाश गुप्त
मैं श्री हरीश प्रकाश जी को व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ. हिन्दी, अर्थशास्त्र और वाणिज्य में परास्नातक गुप्त जी को पारिवारिक परिस्थितियों एवं उत्तरदायित्वों शीघ्र सेवाधीन होना पड़ा। कदम थम गए किन्तु कलम नहीं। गुप्त जी ने समाज के सरोकारों को बहुत नजदीक से देखा, सूक्ष्म दृष्टि से परखा तथा अन्तरात्मा से महशूश किया है। निश्छल निष्ठा एवं रंग बदलते चेहरों के व्यतिरेक के साथ सामाजिक विषमताओं से प्रेरणा ले कविता एवं लघुकथाओं में पिरोते रहे। कादम्बिनी सदृश अनेक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। नवम्बर, 1994 में कानपुर में आयोजित "कादम्बिनी साहित्य महोत्सव" में काव्य रचना हेतु युवा रचनाकार के रुप में उत्तर-प्रदेश के तात्कालीन महामहिम राज्यपाल के करकमलों से सम्मानित । सत्पुरुष सम्प्रति ओ0ई0एफ0 कानपुर में हिन्दी अनुवादक के पद पर कार्यरत हैं।
-- मनोज कुमार

26 टिप्‍पणियां:

  1. आज की परिस्थितियों का सुंदर चित्रण । हरिश जी आप लिखते रहें , यही कामना करता हूं ।

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  2. समाज में लडकियों की स्थिति पर आपकी चिंता जायज है और दिख भी रही है

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  3. आज के सामाजिक जीवन का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया है हरिश जी आपने ,आपको शुभकामनाएं।

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  4. श्री हरी प्रकाश गुप्त जी की रचना पसंद आई.

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  5. मनोज जी यह लाल रंग आंखो मै चुभता है तो पढने मै कठिनाई आती है, बाकी आप ने बहुत सुंदर कविता लिखी लेकिन बिना लडकी के घर भी तो नही बनता, ओर बिना रसोई के खाना भी नही बनता, कही ना कही हम सब एक दुसरे से कडियो के समान जुडे है.
    आप को ओर श्री हरी प्रकाश गुप्त जी को धन्यवाद इस अति सुंदर कविता के लिये

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  6. लाल रंग हटा दिया।
    भाटिया जी को धन्यवाद।

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  7. श्री हरिप्रकाश गुप्त जी की रचना बहुत बढ़िया लगा! आज की परिस्थिति को लेकर बखूबी प्रस्तुत किया है! बहुत खूब!

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  8. कविता इतनी मार्मिक है कि सीधे दिल तक उतर आती है।

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  9. लड़की बनाती है
    घरौदा-
    मिट्टी का,
    अपने मकान के एक कोने में-
    Bahut achhi kriti, yahi घरौदा hota hai jise wah jeewanbhar sajati, sawarti or banati sabse hatkar ....
    Bahut badhai .....

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  10. Bahut he sahi aur achi kavita likha hai Harish Ji ne... aur aplogon ne unki inni achi rachna hamare samne prastut ki uske liye aplogo ko dhanyawad...

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  11. श्री हरी प्रकाश गुप्त जी की रचना तो बहुत पसंद आई. साथ में आपकी प्रस्तुतीकरण की भी दाद देता हूँ.
    ब्लॉग पर अच्छे लेखकों का परिचय कराना ये उत्तम और बड़ा सेवा कार्य है.

    मनोज कुमार जी & करण समस्तीपुरी जी को मेरी शुभकानाएं !!

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  12. बहुत पसंद आइ हरीश प्रकाश गुप्त जी की यह कविता।पढ के बहुत अच्छा लगा।

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  13. श्री हरिप्रकाश जी,

    संवेदनाओं को छूती हुई कविता लड़की के जीवनचक्र का दस्तावेज महसूस होती है, घरौंदे से शुरू हो घरौंदे पर खत्म।

    मनोज का आभार एक सार्थक कविता की प्रस्तुति के लिये।

    सादर,


    मुकेश कुमार तिवारी

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  14. इस कविता में लड़की के हालात को बड़ी कुशलता से उतारा गया है।

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  15. हरीश जी, बहुत अच्छी रचना है।

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  16. इनकी कोई जरुरत नहीं,

    उसका बनाया घरौंदा

    अब भी खड़ा है-

    भर दी जाती हैं

    उसमें आलू, प्याज और सब्जियाँ ।
    ek saarthak rachna ,ladkiyon ke wazood se takraati hui,bahut sundar

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  17. इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिये आप दोनों का आभार...

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  18. 'वर्णानामर्थसंघानाम् रसानाम्छन्दसामपि' के संयोग से रचना बहुत ही मर्मस्पर्शी बन पड़ीं है !

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  19. अच्छी कविता, बढ़िया प्रस्तुति।
    साधुवाद।

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  20. अच्छी कविता । अतिथि तो वैसे भी हमारे यहां श्रद्धा का पात्र होता है,हरिश साहब तो छा गए ।

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