गुरुवार, 15 जुलाई 2010

आँच-26

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पिछले दिनों सत्येन्द्र झा की कई लघुकथाएं इस ब्लाग पर पढ़ने को मिलीं। पाठकों की अपेक्षा थी कि उनकी कहानियों को आँच पर लिया जाए। अतः विगत सप्ताह प्रकाशित लघुकथा ‘धर्म’ ‘आँच’  के इस अंक की विषयवस्तु है।

श्री झा मूलतः मैथिली के रचनाकार हैं। ब्लाग पर आईं उनकी ये कथाएं उनके प्रकाशित कथा संग्रह में संकलित है। हिन्दी अनुवाद केशव कर्ण द्वारा किया गया है।

आलोच्य कथा का परिवेश ग्रामीण है। एक शोषक वर्ग है और एक शोषित वर्ग। बिल्दू बाबू और जोगिया अपने-अपने वर्गों के ही प्रतिनिधि हैं। शोषक के पास दीन-हीन का शोषण करने के अनेकानेक हथकंडे हैं, हथियार हैं। यदि एक सफल नहीं हुआ तो दूसरा उससे कारगर, मारक हथियार उपलब्ध है। तभी तो सात-दिन (रात सहित) खटने की मजदूरी के नाम पर पचास रुपए का आशीर्वाद देने की बात कहते हैं बिल्टू बाबू। पहले कभी यह कारगर हथियार रहा होगा निर्बल की भावनाओं के साथ खेलने का, उनके खून-पसीने की कीमत माटी के मोल लगाने का।

लेकिन अब शायद समय बदल चुका है। शोषित वर्ग के पास इतनी समझ आ चुकी है कि वह अपने श्रम की कीमत का आकलन कर सके, उसके लिए आवाज उठा सके। जागरूकता भी इतनी आ चुकी है कि सत्ता में बढ़ चुकी उसके वर्ग की भागीदारी का भी उसे भली-भाँति अहसास है। लेकिन धर्म का हथियार समस्त जागरूकताओं और इल्मों पर भारी पड़ जाता है और शोषण के विरुद्ध सीना तानकर खडे़ होने का साहस भी निरीह बन नतमस्तक हो जाता है। बडो़ का सम्मान करने की अपनी तथाकथित धर्म की रक्षा की गलतफहमी में वह सात सौ (कम से कम) रुपये की मजदूरी के बदले पचास रुपए, असंतुष्ट होते हुए भी, स्वीकार कर अपने घर की राह पकड. लेता है।

भाव, भाषा और कथ्य के निरूपण के विषय में यह लघुकथा श्रेष्ठ लघुकथाओं में सम्मिलित की जा सकती है। कथा अत्यंत संश्लिष्ठ है, कसी हुई है। कथोपकथन चरित्रों के सर्वथा अनुकूल है और सीमित शब्दों के बावजूद कथा अर्थ सम्प्रेषण में पूर्णतया सफल है। यदि कथा में कुछ इंगित करने के लिए है तो वह है, पहला- कथानक का सामान्य होना और दूसरा- जोगिया के चरित्र में विरोधाभास। धर्म के नाम पर शोषण का विषय नया नहीं है। लेकिन शिल्प का पैनापन कथा को रोचक और सम्प्रेषणीय बनाने में समर्थ है। जोगिया बदले समय में अपने समाज के जागरूक होने की बात तो करता है और सत्ता में भागीदारी होने का पूरे समुदाय को बोध भी है साथ ही आशीर्वाद के नाम पर शोषण किए जाने का भी बोध है और इसका सामना करने के लिए उसका समाज उठ खड़ा भी हो रहा है, ऐसा अपने कथन के माध्यम से वह स्पष्ट भी करता है। लेकिन इतनी जागरूकता आ चुकने के बाद भी वह, अर्थात उसका समाज, क्योंकि यहां वह अपने समाज का प्रतिनिधि है, धर्म की झूठी व्याख्या से अभी तक अनभिज्ञ है, इसका विरोध करने के प्रति प्रेरित नहीं है। यह उसके चरित्र के एक ही समय में उजागर हो रहे दो विपरीत पहलू हैं। कथा का अंत बिलकुल सामान्य तरीके से हुआ है जबकि जागरूक हो चुका जोगिया धर्म की गलत व्याख्या के विरुद्ध तर्क रखते हुए और किसी भी सूरत में अपनी मजदूरी से कम स्वीकार न करते हुए दिखाया जा सकता था। तभी यह उसके समाज में आए बदलाव को सही रूप में दर्शाता। ‘नोट को मोर कर’ में ‘मोर’ के स्थान पर ‘मोड़’ प्रयुक्त होना चाहिए था। शायद यह टंकण की त्रुटि है। अनुवाद सराहनीय है। कथा आद्योपांत मूल सी ही प्रतीत होती है।

7 टिप्‍पणियां:

  1. पिछली पोस्ट तो नही पढ पाई मगर समीक्षा देख कर ही कहानियों का मर्म समझ आता है। बहुत अच्छी लगी जानकारी। धन्यवाद।

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  2. एक अच्छी समीक्षा जो लघुकथा के विभिन्न आयमों को प्रदर्शित करता है।

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  3. लघुकथा के हिसाब से तो समीक्षा बढ़िया ही कही जायेगी!

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  4. Utkrisht sameeksha.
    Aanch ke madhyam se kahani/kavtaon ke arth ko vistar mil raha hai. is sameeksha ne bhi laghukatha ke arth khol kar rakh diya hai. Iske sath hi katha ke anya vibhinya pahaluon ke bare me bhi jankari mili.
    aabhar.

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  5. मेरा तो यह विश्वास रहा है कि आलोचना की आंच पर चढ़े बिना कोई भी रचना सम्पूर्ण नाहे एहो सकती. एक बार फिर यह पुख्ता हुआ. "मोड़" बदले "मोर" टंकण-दोष ही है !!! सुन्दर समीक्षा !!! साधु....साधु !!!!

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  6. कथानक के हर पहलू को स्पर्श करती समीक्षा अच्छी है। कपिला जी से सहमत हूँ। कथा-शिल्प की दृष्टि से देखने पर कथानक की तकनीक समझ में आती है, तब कहीं कहानी अच्छी लगती है।

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