सोमवार, 28 मार्च 2011

चमत्कार


--सत्येन्द्र झा



टेलीविजन की उपयोगिता पर बात-विवाद चल रहा था। अधिकांश वक्ता इसे विग्यान का चमत्कार मान रहे थे परन्तु एक वक्ता ने कहा, “यह एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से पृथक करने वाला यन्त्र है। यह सबकुछ भुला देता है – अपनी मर्यादा, अपनी परम्परा, मूल्यबोध, संस्कृति... यहाँ तक कि अपना देश भी। इसे विग्यान का चमत्कार वही लोग मानते हैं जो टेलीविजन नहीं देखते। यदि कोई व्यक्ति देखकर भी अपनी मर्यादा, अपनी परम्परा, मूल्यबोध, संस्कृति और अपने देश को नहीं भूलते हैं तो उन्हे प्रकृति का चमत्कार समझना चाहिये।”

अगले दिन स्वयं को प्रकृति का चमत्कार घोषित करने के लिये टेलीविजन की दूकान पर भारी भीड़ लगी हुई थी।

(मूलकथा “अहींकें कहै छी” में संकलित 'चमत्कार' से हिन्दी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित।)

11 टिप्‍पणियां:

  1. मैंने अपनी टिप्पणियों में कई जगह लिखा है.. एक औरत को पत्थर मारते लोगों को देखकर हज़रत इसा ने कहा कि पहला पत्थर वो मारे जिसने कभी अपराध न किया हो. सभी और पत्थर मारने लगे यह साबित करने के लिए कि उन्होंने तो कोई अपराध नहीं किया कभी.
    झा जी की लघुकथाएं मर्म को छूती हैं!!

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  2. "यदि कोई व्यक्ति देखकर भी अपनी मर्यादा, अपनी परम्परा, मूल्यबोध, संस्कृति और अपने देश को नहीं भूलते हैं तो उन्हे प्रकृति का चमत्कार समझना चाहिये।”
    उक्त विचार तो salesman technique का हिस्सा बन गया,खूब है.

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  3. प्रकृति का यह चमत्कार ही पूरी पीढ़ी को भरमा रहा है।

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  4. यही तो विडम्बना है कि ज्यादातर लोग स्वयं को ऐसा चमत्कार साबित ही करना चाहते हैं, बनना नहीं।

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  5. आज यही सिद्ध करने की तो सभी में होड़ लगी है !
    सुन्दर लघु कथा !

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  6. टी. वी.,फ्रिज और कूलर तो हैं हीन संस्कृति तोडक उपादान.

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  7. कहानी में अच्छा व्यंग्य किया गया है।

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  8. bechane wale bechane ka raasta nikaal hi lete hain -
    sateek vyang.

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  9. यही तो विडम्बना है।

    सुन्दर लघुकथा। बधाई,

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