अंक-10
भारत और सहिष्णुता
रक्षा मंत्रालय में कार्यरत जितेन्द्र त्रिवेदी रंगमंच से भी जुड़े हैं, और कई प्रतिष्ठित, ख्यातिप्राप्त नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन कर चुके हैं। खुद भी नाटक लिखा है। न सिर्फ़ साहित्य की गहरी पैठ है बल्कि समसामयिक घटनाओं पर उनके विचार काफ़ी सारगर्भित होते हैं। वो एक पुस्तक लिख रहे हैं भारतीय संस्कृति और सहिष्णुता पर। हमारे अनुरोध पर वे इस ब्लॉग को आपने आलेख देने को राज़ी हुए। उन्हों लेखों की श्रृंखला हम हर मंगलवार को पेश कर रहे हैं।
जितेन्द्र त्रिवेदी
अब तक के विवेचन के माध्यम से यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि यदि गुमराही में पड़ जाना मानव की सहज कमजोरी है तो उससे बाहर निकालने के लिये प्रकृति ऐसे लोगों को जन्म देती है और उन्हें यह न्यायबुद्धि दे देती है जो सही-गलत, उचित-अनुचित का निर्णय इतनी घटाटोप स्थिति में भी कर लेते हैं। ऐसे विकट समय में जन-मानस को दिशा देने का काम रातो-रात या कुछ वर्षों में नहीं हो सका था अपितु इसके लिये बुद्ध और महावीर को वर्षों भटकना पड़ा। कोई भी उनकी बात सुनने को तैयार नहीं था किन्तु उन्होंने धीरे-धीरे अपनी एक छवि निर्मित की और उनकी यह 'ब्रांड इमेज’ ही उनकी बात को सुनने का कारण बनी। इस 'ब्रांड इमेज' को एक उदाहरण द्वारा देना जरूरी है जिससे यह पता चल सके कि बुद्ध ने कैसे अपनी 'ब्रांड इमेज' बनायी और उसे समय आने पर उपयोग भी किया।
इसका वर्णन बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध ग्रंथ 'महासच्चकसुत्त' में मिलता है जिसके अनुसार बुद्ध को जब घोर तपश्चर्या करते-करते सात वर्ष बीत गये तो अंत में बोधिसत्व ने मन में अचानक यह निश्चय कर लिया कि तपश्चर्या बिल्कुल निरर्थक है और उसके बिना मुक्ति मिल सकती है तब उन्होंने तपश्चर्या छोड़ कर ध्यानमार्ग का अवंलबन करने का निश्चय किया। ऐसे निश्चय के बाद उन्होंने सबसे पहले अन्न ग्रहण करना शुरू कर दिया, उस समय पांच भिक्षु इस आशा में बुद्ध की सेवा में लगे हुये थे कि यदि इन्हें तत्व ज्ञान मिला तो वे हमें भी उसकी शिक्षा दे देगें। परन्तु जब बोधिसत्व अन्न ग्रहण करने लगे तब इन पांचों ने सोचा कि, ''यह गौतम तपश्चर्या से भ्रष्ट होकर खाने-पीने की ओर मुड़ गया है और अपने क्षेत्र साधन से गिर गया है। अतः अब इसके पास हमें देने को कुछ भी नहीं है जो खुद गिर गया है वह हमें क्या देगा?'' ऐसा सोच कर वे पांचों बोधिसत्व को अकेला छोड़ उनका त्याग करके चले गये, किन्तु बोधिसत्व का निश्चय अटल रहा और उन्होंने तपश्चर्या को छोड़कर अन्न ग्रहण करते हुये शनैः शनैः ध्यानमार्ग पर चलना शुरू किया और एक दिन सुजाता की दी हुई भिक्षा ग्रहण करके वे निरंजना नदी के किनारे पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान में बैठ गये। वैशाखी पूर्णिमा की रात को बोधिसत्व को तत्व बोध हुआ और वही वृक्ष 'बोधि वृक्ष' कहलाया और तभी से वे बोधिसत्व से बुद्ध बन गये। बुद्ध बनते ही उन्हें सबसे पहले अपने उन पाँचो साथियों की याद आई जिन्हे स्वयं ज्ञान होने के बाद तत्व बोध कराने का उन्होंने वादा किया हुआ था। वे उन पाँचो की खोज में निकल पडे़ और बुद्ध ने उन्हें बनारस के पास 'ऋषिपत्तन' नामक स्थान में ढूंढ लिया। बुद्ध वहां पहुँच गये और रास्ते में उन्हे उन पांचों में से एक टकरा गया। उसकी सहायता से उन्होंने बाकी भिक्षुओं को खोज लिया। बुद्ध ने छूटते ही उससे कहा - 'मुझे तत्व बोध हो गया है' परंतु उसे इस संबंध में विश्वास ही नही हुआ। वह बोलाः
''आयुष्मान गौतम! तुम्हारी उस प्रकार की तपश्चर्या से भी तुम्हें सद्धर्म मार्ग का बोध नहीं हुआ था और अब तो तुमने तपोभ्रष्ट होकर खाना-पीना शुरू कर दिया है। ऐसी स्थिति में तुम्हें सद्धर्म का बोध भला कैसे हो सकता है।'' ऐसी विकट परिस्थिति में बुद्ध ने जब देखा कि उसके अपने प्रिय साथी ही, जिन्होंने दुख-सुख में और अन्य सब अवस्थाओं में बुद्ध को करीब से देखा है, उन पर विश्वास नहीं कर रहे हैं तब उन्होंने अपनी पुरानी जिन्दगी का जिक्र करते हुये कहाः
''हे भिक्षुओं, क्या इससे पहले मैंने कभी ऊट-पटाँग हांकी है, डींग मारी है या कभी मजाक में भी बकवास की है, यदि नहीं तो आप मेरी बात पर ध्यान दीजिए। अमृत का मार्ग मुझे मिल गया है . . . . . . .''
बुद्ध की यह बात सुनते ही पांचो खुसर-फुसर करने लगे और बोले कि हाँ, यह गौतम तो ठीक कहता है कि इसने कभी भी ऊट-पटाँग बात की ही नहीं है, कभी डींग भी नही मारी है और झूठ तो यह कभी बोलता ही नहीं, तो आज भला क्यों कहेगा, इसलिये इसकी बात सुन लेते हैं और जब उन्होंने सुना तो वह कोई साधारण बात नहीं थी, अपितु वह तत्वबोध था जिसके लिये वे बुद्ध की सेवा कर रहे थे। इस घटना में हम यह देख सकते हैं कि कैसे एक ''ब्रांड इमेज'' बनती है और कैसे उसके सहारे आप अपने पर अविश्वास की स्थिति में भी जनमानस को अपनी ओर खींचने का काम कर सकते हैं।
बुद्ध बनने के बाद उन्होंने खंडन-मंडन की प्रवृत्ति की अपेक्षा अपनी बात रखने की नयी शैली विकसित की जिसे आज तर्कवाद कहा जाता है। हजारों वर्षों के इतिहास में बुद्ध ही वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने वाद-संवाद और तर्क को आधार बना कर अपनी बात कहने की आदत विकसित की। विरोधी या कुतर्की की बातों को भी ध्यान से सुनने का धैर्य जितना बुद्ध ने दिखाया उतना सबके वश में पहले नहीं था, क्योंकि ऋग्वैदकाल में मैत्रेयी एक जगह जब याज्ञवल्क्य से एक प्रश्न का समाधान हो जाने पर भी दूसरा प्रश्न पूछती हैं और उसका भी जवाब मिलने पर अन्य अनुषंगी प्रश्न पूछती जाती हैं तो झल्लाकर याज्ञवल्क्य कह उठते हैं - 'अब या तो तुम चुप हो जाओ या तुम्हारे सिर के मैं दो टुकडे़ कर दूँगा। यह पति-पत्नी के बीच अक्सर होता है और याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी के बीच भी ऐसा होना स्वाभाविक बात थी, किन्तु बुद्ध ने दुनियाँ को दिखा दिया कि मानवीय सहिष्णुता का कोई वार-पार ही नहीं है। यदि वह प्राण-पण से कोशिश करे तो अनंत काल तक सामने वाले की बातों को सुन सकता है और उसका तर्क सम्मत उत्तर दे सकता है। इस तरह बुद्ध ने वाद-संवाद की प्रक्रिया को थोथे वाग्जाल से निकालकर एक 'कला' बना दिया और उससे बाद में एक जीवन दर्शन ही विकसित हो गया जिसे हम भारत के बाद के इतिहास में बार-बार देखते हैं। ई.पू. तीसरी सदी में सहिष्णुता और समृद्ध वैचारिक बहुलता की आवश्यकता पर भारत के सम्राट अशोक ने खूब बल दिया था और विश्व की सबसे पुरानी वाद-संवाद की प्रक्रिया द्वारा विवाद निपटाने की 'आचार संहिता' की भी रचना की थी। उस 'आचार संहिता' के अनुसार विरोधी का सदैव पूर्ण सम्मान होना चाहिये। अशोक द्वारा बुद्ध से लिया गया यह सिद्धान्त बाद में भारत में हुयी राजनीतिक और धार्मिक चर्चाओं में बार-बार दिखाई देता है। कालान्तर में सहिष्णुता और सभी धर्मों से राजनीति के समान अन्तर बनाए रखने की बात को सबसे स्पष्ट रूप से भारत के मुगल सम्राट अकबर ने उठाया।
अकबर के समय जहाँ भारत में धार्मिक साहिष्णुता के सिद्धांत (दीने-इलाही) रचे जा रहे थे, वहीं यूरोप में तो उन दिनों ईसाई धर्म का विरोध करने वालों पर 'धर्म अभियोग' चला कर उन्हें अपराधी घोषित कर जिन्दा जलाया जा रहा था। मेरे कहने का दुस्साहस यह है कि जिस मध्य कालीन भारत को यूरोपीय इतिहासकारों ने बर्बर कहने की गुस्ताखी की थी, वह भारत उनके समकालीन यूरोप से कितना सभ्य और सुसंसकृत था जिसमें एक मुसलमान बादशाह अपनी विधर्मी प्रजा के धर्म और पूजा-अर्चना की व्यवस्था करने के लिये चिंतित था और उसकी यह चिंता बढ़ती हुयी मानवीय चिंता का रूप लेती गयी जिसमें सभी लोगों के लिये 'साझा धर्म' की अवधारणा विकसित हुयी जिसे अकबर ने 'दीने-इलाही' नाम दिया, शायद इसीलिये हिंदी के राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त ने लिखा हैः
''प्रकट त्रिवेणी तट के मन में एक और संगम की चाह
हिन्दू-मुसलमान का मानस मिलन तीर्थ यह महा प्रवाह
राम-रहीम धाम होगा तब वही दुर्ग सन्नत सन्नाह
उस मंदिर का आदि-पुजारी स्वयं सिद्ध तू अकबरशाह''
आज के युग में भी उसी वाद-संवाद तथा बहुलता की स्वीकारोक्ति की परंपरा का बहुत महत्व है तथा लोकतंत्र और जन संवाद में चर्चा और तर्कों का निर्णायक महत्व झुठलाया नहीं जाना चाहिये। डा. अमर्त्यसेन ने अति आशावादी नजरिये से लिखा है कि - ''इन संरचनात्मक वरीयताओं से आगे निकलकर इस बहुलवादी परंपरा का यदि ठीक से उपयोग हो तो यह सामाजिक विषमताओं के विरोध तथा गरीबी और अभावों के निर्मूलन में भी सहायक हो सकती है। आलोचनात्मक स्वर कब से दुखी का सहारा रहे हैं तथा वाद-संवाद में भागीदारी एक सामान्य अवसर है।''
Vicharparak post, badhai
जवाब देंहटाएंइस घटना में हम यह देख सकते हैं कि कैसे एक ''ब्रांड इमेज'' बनती है और कैसे उसके सहारे आप अपने पर अविश्वास की स्थिति में भी जनमानस को अपनी ओर खींचने का काम कर सकते हैं। बुद्ध बनने के बाद उन्होंने खंडन-मंडन की प्रवृत्ति की अपेक्षा अपनी बात रखने की नयी शैली विकसित की जिसे आज तर्कवाद कहा जाता है।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति ||
सारगर्भित और गंभीर विवेचना से भरी इस श्रृखला के लिए आद. मनोज जी और जितेन्द्र जी आप दोनों बधाई के पात्र हैं ! ब्लॉग जगत को समृद्ध करने के लिए धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंयाज्ञवल्क्य, बुद्ध और अकबर के माध्यम से चिरकाल से चली आ रही सैद्धांतिक कशमकश पर रुचिकर आलेख पढ़वाने के लिए जितेंद्र जी के साथ साथ ही मनोज जी का भी बहुत बहुत आभार| मेरे प्रिय कवि मैथिली शरण गुप्त की पंक्तियाँ पढ़वाने के लिए भी बहुत बहुत आभार|
जवाब देंहटाएंसरोकारों के सौदे
सारगर्भित और प्रासंगिक लेख...
जवाब देंहटाएंविचारशील पोस्ट।
जवाब देंहटाएंजितेन्द्र त्रिवेदी के बारे में जानकर अच्छा लगा!
जवाब देंहटाएंयह आलेख बहुत ही महत्वपूर्ण है!
सार्थक विमर्श और चिंतन और चिन्तक दोनों से रु -बा -रु करवाया मनोज जी आपने .शुक्रिया .
जवाब देंहटाएंसार्थक विमर्श और चिंतन और चिन्तक दोनों से रु -बा -रु करवाया मनोज जी आपने .शुक्रिया .
जवाब देंहटाएंजिस मध्य कालीन भारत को यूरोपीय इतिहासकारों ने बर्बर कहने की गुस्ताखी की थी, वह भारत उनके समकालीन यूरोप से कितना सभ्य और सुसंसकृत था जिसमें एक मुसलमान बादशाह अपनी विधर्मी प्रजा के धर्म और पूजा-अर्चना की व्यवस्था करने के लिये चिंतित था .
जवाब देंहटाएंNice .
is gambheer vivechana ki prastuti ke liye aapko badhaai.
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