अंक-9
भारत और सहिष्णुता
रक्षा मंत्रालय में कार्यरत जितेन्द्र त्रिवेदी रंगमंच से भी जुड़े हैं, और कई प्रतिष्ठित, ख्यातिप्राप्त नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन कर चुके हैं। खुद भी नाटक लिखा है। न सिर्फ़ साहित्य की गहरी पैठ है बल्कि समसामयिक घटनाओं पर उनके विचार काफ़ी सारगर्भित होते हैं। वो एक पुस्तक लिख रहे हैं भारतीय संस्कृति और सहिष्णुता पर। हमारे अनुरोध पर वे इस ब्लॉग को आपने आलेख देने को राज़ी हुए। उन्हों लेखों की श्रृंखला हम हर मंगलवार को पेश कर रहे हैं।
जितेन्द्र त्रिवेदी
इन सब महानुभावों की एक अजीब तरह की प्रतिक्रिया थी - पाप से घृणा करने की वजाय पापी से ही घृणा करना और जो भी चीज उसके करीब की हो उन सबसे घृणा करना। यह तो वैसा ही है कि जब किसी परिवार के एक व्यक्ति से हमारी ठन जाती है तो हम परिवार के अन्य सभी सदस्यों से भी स्वतः ही बिदक जाते हैं, चाहे उनमें कोई सदस्य भक्त प्रहलाद जैसा पुनीत और निर्दोष ही क्यों न हो। ये सब महानुभाव घोर अनिश्चय और असमंजस की स्थिति में थे। ऐसी मानसिक दशा में इन्हें बुराई के विरुद्ध जो भी सूझा, उन्होंने कहने में देरी नही लगाई। यद्यपि वे ठीक कह रहे थे किन्तु कहीं-कहीं दुराग्रह कर जाते थे, अविनीत हो जाते थे, इससे फायदा होने के बजाय नुकसान ही अधिक हुआ तथा झगड़े और बढ़ने लगे क्योंकि बहुसंख्य लोग उनकी बात समझने में सक्षम नहीं थे और जो समझने में सक्षम थे, उन्होंने समाज के डर से, लोक-लाज से उनसे दूरी बना ली। ये लोग अलग-थलग पड़ गये और निराश हो कर जंगलो में सरक गये और वहाँ ये और भी अधिक उद्धत हो गये। वे ईश्वर की भी अब निन्दा करने लगे और नास्तिक होने लग गये। इस तरह जिस व्यवस्था में वे पैदा हुये थे और अपने चिन्तन-मनन के फल स्वरूप उसकी कमियों को देखने लग गये थे तथा वे अपनी बुद्धि को न्याय-अन्याय, सही-गलत के स्तर पर ले गये थे, खुली गुमराही में पड़े होने के बावजूद लोगों द्वारा उनकी बात को तवज्जो नहीं देने से वे कुंठित होने लगे और इस तरह से वे अनिश्वरवादी हो गये। ये लोग खुद जो गुमराही के खिलाफ खड़े हुए थे वे स्वयं अलग तरह की गुमराही में पड़ गये। इस तरह की स्थिति से बचा भी नहीं जा सकता था क्योंकि विश्व सभ्यता का अध्ययन करने वाले लोग जानते हैं कि इस तरह की स्थिति अन्य सभ्यताओं में भी हुई हैं।
भारत में जो 600 ई.पू. हो रहा था वह दूसरी जगह थोड़ा बाद में हुआ। पश्चिम में जब 'फिरऔन' के भोगवाद, बलि और अनाचर से परेशान होकर पैगम्बर 'मूसा' ने अपनी जाति वालों को समझाना शुरू किया तो उनकी बात बहुत कम लोगों ने मानी और जिन्होंने मानी, उन पर आततायी 'फिरऔन' ने इतने अत्याचार किये कि पैगम्बर 'मूसा' को विवश होकर अपना प्यारा वतन छोड़ना पड़ा और जब 'फिरऔन' की सेना उनका पीछा करते हुये नील नदी तक आ गई तब एक तरफ नदी में डूबने के अलावा अन्य कोई उपाय नहीं था, सिवाय फिरऔन के द्वारा सभी की कत्लो-गारत के। ऐसे समय पैगम्बर मूसा को न चाहते हुये भी अपनी दैवीय शक्ति का सहारा लेकर अपनी लाठी की मार से पानी की धार में रास्ता बनाना पड़ा और वे अपने अनुयायियों को बचा कर निकाल ले गये लेकिन आख्यान का मजेदार अंश वह है जब मूसा उन्हें सही और सीधा-साधा रास्ता दिखा कर तपस्या करने पहाड़ पर चले गये तो उनके ये ही अनुयायी थोड़े ही दिन में फिर पहले से भी अधिक गुमराही में पड़ गये, इस खुली गुमराही में वे व्यभिचार में शामिल हो गए। जब मूसा पहाड़ पर से ध्यान पूर्ण करके उतरे तो देखते हैं कि उनके अपने ही लोग जिनको वे 'फिरऔन' की गुमराही से बचाकर नदी पार लेकर आये थे, किसी आदर्शवादी समाज की स्थापना की अपेक्षा में वही लोग प्रतीक पूजा, भोग-विलास और व्यभिचार में पहले से भी बुरी गुमराही में लिप्त हो गये हैं। तब मूसा ने इन गुमराह लोगों को 'टेन कमांडमेंट्स' का ज्ञान कराया और ये लोग सही राह पर आ गये किन्तु मूसा के इंतकाल के बाद वे फिर भटक गये। इसके पश्चात् ईसामसीह का आगमन हुआ और उन्होंने फिर उन्हें गुमराही से बाहर निकाला। सदियो के अंतराल के बाद फिर वही पुनरावृत्ति हुई और मनुष्य अपने जातीय स्वभाव के वशीभूत होकर फिर भटक गया और इस बार अरब में एक पैगम्बर (मोहम्मद साहब) ने उन्हें गुमराही से उबारने के लिये जद्दोजहद शुरू की और इन सभी गुमराह लोगों को पुरानी गुमराही से सबक लेने को कहा और उन्हे सचेत करते हुए पैगम्बरो का वास्ता दिया और लोगों को नई राहें-रोशनी दिखाईः
''और इससे पहले मूसा की किताब (टेन कमांडमेंटस) रही है- नायक और दयालुता; और यह कुरान उसकी तसदीक करने वाली किताब है (अरबी भाषा में) ताकि जुल्म करने वालों को सचेत करे।'' (सूरा अल-अहकाफ/आयात 12/कुरान)
पैगंबर मुहम्मद साहब की इन बातों का असर हुआ और लोग गुमराही से बाहर आने लगे लेकिन यहाँ विषय यह है कि, भारत में उत्तर वैदिक काल में जिस भोगवाद और अतिशय संग्रह की आपा-धापी की स्थिति से कुछ लोगों को वितृष्णा होने लगी थी जिससे कई नई तरह की सोच रखने वाले समूह पैदा हो गये जिनमें ये संशयवादी, अनीश्वरवादी, नास्तिक और बहुलवादी लोग थे। ऐसे समय में जिस तरह पश्चिम में फिरऔन की संस्कृति के विरुद्ध मूसा खडे़ हुये उसी तरह उत्तर वैदिक समाज के असमंजस के समय बुद्ध और महावीर जैन का आविर्भाव हुआ और इन दोनों महापुरुषों ने अपनी दीर्घ दृष्टि से लोगों को सुस्पष्ट दिशा देने का काम किया किन्तु बाद के काल में बुद्ध और महावीर के अनुयायी भी भटक गये और बौद्ध धर्म निरर्थक तंत्रवाद में और जैन धर्म धन के अकूत संचय से अनुप्राणित होने लगा और जैसे मूसा के बाद ईसा आये थे वैसे ही गीता ने फिर मनुष्य को राह दिखाई, और इसके बाद आगे जब मानव फिर अपने जातीय स्वभाव की कमजोरियों की वजह से भटका तो शंकराचार्य ने उन्हें गुमराही से बाहर निकाला इसीलिये उन्हे प्रच्छन्न बुद्ध कहा जाता है।
मानव सभ्यता की ऐतिहासिक जानकारी देने वाला सुन्दर लेख...
जवाब देंहटाएंकिन्तु बाद के काल में बुद्ध और महावीर के अनुयायी भी भटक गये और बौद्ध धर्म निरर्थक तंत्रवाद में और जैन धर्म धन के अकूत संचय से अनुप्राणित होने लगा और-------
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ||
बधाई स्वीकार करें ||
बहुत प्रेरक आलेख!
जवाब देंहटाएंअच्छी सूचनाप्रद एवं विचारणीय रचना है। साधुवाद।
जवाब देंहटाएंभारत और सहिष्णुता पर इतनी गंभीर सामग्री! जीतेन्द्र जी का यह आलेख संग्रहनीय है...
जवाब देंहटाएंगहन चिन्तनयुक्त प्रेरक लेख....
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