नवगीत
ये अंधेरों में लिखे हैं गीत
श्यामनारायण मिश्र
ये अंधेरों में लिखे हैं गीत
सूर्य से इनको जंचाना चाहता हूँ।
दिनभर आकाश से आखें लड़ाकर
शहतीर के नीचे दुबककर सो गई चिडि़या,
आंखों में सतरंगी इन्द्रधनुष के अंडे
सपनों के सुख में ही खो गई चिडि़या,
कुंठा के कोबरे-करैतों की
दाढ़ से इसको बचाना चाहता हूँ ।
एक ओर घर था एक ओर जंगल
घर को अपनाकर वह परेशान क्यों है?
जिसको बेआबरू करके निकाला था
आंखों में अब भी वह मेहमान क्यों है?
आघात से अनवरत रिसता है,
इस रंग से जीवन रचाना चाहता हूँ ।
अंधेरों में लिखे गीतों को जाचने के लिये सूर्य से अच्छा कौन परीक्षक मिलेगा। बहुत सुन्दर गीत।
जवाब देंहटाएंआंखों में सतरंगी इन्द्रधनुष के अंडे
जवाब देंहटाएंसपनों के सुख में ही खो गई चिडि़या,
कुंठा के कोबरे-करैतों की
दाढ़ से इसको बचाना चाहता हूँ ।
बहुत सार्थक कथन , सुन्दर रचना
ये अंधेरों में लिखे हैं गीत
जवाब देंहटाएंसूर्य से इनको जंचाना चाहता हूँ।
सुंदर अतिसुन्दर , कई अर्थों को अपने में समाये हुई रचना।
ये अंधेरों में लिखे हैं गीत
जवाब देंहटाएंसूर्य से इनको जंचाना चाहता हूँ।
अत्यन्त ही सुन्दर विचार...बहुत अर्थपूर्ण रचना..आभार.
विवधता के रंग से भरी गीत....
जवाब देंहटाएंलिखे जरूर अन्धेरों मे जाते हैं लेकिन मन को यही सकून देते हैं। सुन्दर।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ||
जवाब देंहटाएंबधाई ||
दिनभर आकाश से आखें लड़ाकर
जवाब देंहटाएंशहतीर के नीचे दुबककर सो गई चिडि़या,
आंखों में सतरंगी इन्द्रधनुष के अंडे
सपनों के सुख में ही खो गई चिडि़या,
वरिष्ठ गीतकार श्यामनारायण मिश्र जी का सुन्दर गीत प्रस्तुत करने के लिए आभार...
अँधेरे में लिखे गीत हैं.......
जवाब देंहटाएंआंखों में सतरंगी इन्द्रधनुष के अंडे
जवाब देंहटाएंसपनों के सुख में ही खो गई चिडि़या,
कुंठा के कोबरे-करैतों की
दाढ़ से इसको बचाना चाहता हूँ ।
ये अंधेरा ही तो उजाला होने का प्रतीक है।
waah
जवाब देंहटाएंपता नहीं काव्य-प्रतीक के मायने क्या होंगे। मुझे तो सीधे सीधे यह कविता पसन्द आई! कमोबेश - कुछ इधर उधर मैं भी यही कहता अपनी दशा के साथ!
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रतीकविधान से सी एक सार्थक रचना।
जवाब देंहटाएंऐसे प्रतीक वही सृजित कर सकता है जिसकी आँखों ने सच में शहतीर के नीचे चिडियों को विश्राम करते देखा हो.......
संगीता जी के संकलन के माध्यम से आप तक आया...................बहुत सुन्दर लगी प्रस्तुत रचना....
एक ओर घर था एक ओर जंगल
जवाब देंहटाएंघर को अपनाकर वह परेशान क्यों है?
जिसको बेआबरू करके निकाला था
आंखों में अब भी वह मेहमान क्यों है?
आघात से अनवरत रिसता है,
इस रंग से जीवन रचाना चाहता हूँ ।
Nihayat sundar!
श्यामनारायण मिश्र जी के इस सुंदर गीत के लिए आभार...
जवाब देंहटाएंसादर,
डोरोथी.
chidia to andhere mein so hi jayegi..lekin aap sankalpit hain kobre karaiton se ise bachane ke liye..to phir aap ko jaagna hi padega..andhre ki hakikat tabhi saamne aayegi..jab andhere mein hi geet ki har line likhi jayegi..pyare se is geet ke liye badhai..apne blog pe amantran ke sath..
जवाब देंहटाएंबहुत प्यारा गीत है ....
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको !