भारतीय काव्यशास्त्र – 75
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में ध्वनि के भेदोपभेद की चर्चा कर उसके समापन की घोषणा हो गयी। यह कहा गया कि अब गुणीभूतव्यंग्य पर चर्चा शुरु होगी। मैं जानता हूँ कि पाठकों के लिए यह एक उबाऊ शृंखला है। लेकिन शास्त्रीय विश्लेषण प्रायः इसी कोटि के होते हैं। कुछ विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न व्यक्ति होते हैं, जो नीरस विषय को भी सरस बना देते हैं। प्रकृति से वह विलक्षणता मुझे न मिल पायी। अतएव क्षमा-प्रार्थना के साथ गुरुजनों का स्मरण करते हुए गुणीभूतव्यंग्य पर चर्चा प्रारम्भ करता हूँ।
जब व्यंग्य वाच्यार्थ से अधिक चमत्कारपूर्ण न हो, तो गौण हो जाता है और उसी को गुणीभूतव्यंग्य कहा जाता है। काव्यशास्त्री इसकी गणना मध्यम काव्य के रूप में करते हैं। लेकिन आचार्य पंडितराज जगन्नाथ ने इसे भी उत्तम काव्य की श्रेणी में रखा है। उनका मानना है कि भले ही व्यंग्य गुणीभूत हो, पर है तो व्यंग्य ही। अतएव इसे वे उत्तम काव्य की श्रेणी में रखते हैं।
गुणीभूतव्यंग्य के आठ माने गए हैं- 1. अगूढ़ या स्फुट व्यंग्य, 2. इतरांग या अपरांग व्यंग्य, 3. वाच्यसिद्ध्यंग व्यंग्य, 4. गूढ़ या अस्फुट व्यंग्य, 5. सन्धिप्राधान्य व्यंग्य, 6. तुल्य- प्राधान्य व्यंग्य, 7. काक्वाक्षिप्त व्यंग्य और 8. असुन्दर व्यंग्य।
सबसे पहले चर्चा के लिए अगूढ़ व्यंग्य लेते है। जहाँ व्यंग्य वाच्यार्थ की तरह स्फुट हो, स्पष्ट हो, वहाँ अगूढ़ व्यंग्य होता है। आचार्य मम्मट ने अगूढ़ व्यंग्य के लिए निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किये हैं-
यस्यासुहृतकृततिरस्कृतिसेत्य तप्तसूचीव्यधव्यतिकरेण युनक्ति कर्णौ।
काञ्चीगुणग्रथनभाजनमेष सोSस्मि जीवन्न सम्प्रति भवामि किमावहामि।।
अर्थात पहले शत्रुओं द्वारा की जानेवाली निन्दा मेरे कानों में गरम शलाकाओं (सूइओं) की तरह चुभती थीं, वही मैं अब महिलाओं की करधनी गूँथने का काम कर रहा हूँ। मैं तो जीते हुए मृत हो गया हूँ, मैं क्या करूँ?
यह उक्ति अर्जुन की है जब वे अज्ञातवास के समय बृहन्नला के रूप में रह रहे थे। यहाँ जीवन् (जीते हुए) पद से निन्दित जीवन जी रहा हूँ यह व्यंग्य अर्थान्तर में संक्रमितवाच्य ध्वनि के अगूढ़ होने से गुणीभूत हो गया है। इसे खोजने में अधिक श्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती। एक सामान्य व्यक्ति भी उक्त व्यंग्य समझ सकता है। इस श्लोक में लक्षणामूलध्वनि के भेद अर्थान्तर-संक्रमितवाच्यध्वनि का गुणीभूतव्यंग्य होना दिखाया गया है।
निम्नलिखित श्लोक में लक्षणामूलध्वनि के दूसरे भेद अत्यन्ततिरस्कृतवाच्य-ध्वनि का गुणीभूत रूप बताया गया है-
उन्निद्रकोकनदरेणुपिशङ्तिताङ्गा गायन्ति मञ्जु मधुपा गृहदीर्घिकासु।
एतच्चकास्ति च रवेर्नवबन्धुजीवपुष्पच्छदाभमुदयाचलचुम्बि बिम्बम्।।
अर्थात् विकसित लाल कमलों के पराग से पीत वर्ण धारण किए भौंरे घर की बावड़ियों में मधुर स्वर में गा रहे हैं और इधर बन्धुजीव पुष्प (गुड़हल का फूल) की पंखुड़ियों की भाँति उदय होता सूर्य उदयाचल का चुम्बन करता सा लगता है।
यहाँ उदयाचलचुम्बि बिम्बम् में चुम्बि शब्द सामान्य संयोग के अर्थ का बोधक (स्वशब्द-वाचक) होने के कारण अर्थात् स्पष्ट होने के कारण अत्यन्ततिरस्कृतवाच्य ध्वनि गुणीभूत हो गया है। अतएव इसमें भी अगूढ़ व्यंग्य स्पष्ट है।
निम्नलिखित श्लोक में अभिधामूल-ध्वनि(संलक्ष्यक्रमव्यंग्य) के अर्थशक्तिमूल ध्वनि का गुणीभूत अगूढ़ व्यंग्य दिखाया गया है। यह श्लोक बालरामायण से लिया गया है। लंका से अयोध्या लौटते समय भगवान राम माता सीता को उन स्थानों को संकेत करते हुए दिखा रहे हैं, जहाँ-जहाँ उनकी अनुपस्थिति में युद्ध के दौरान मुख्य-मुख्य घटनाएँ घटी हैं।
अत्रासीत् फणिपाशबन्धनविधिः शक्त्या भवद्देवरे गाढं वक्षसि ताडिते हनुमता द्रोणाद्रिरत्रहृताः।
दिव्यैरिन्द्रजिदत्र लक्ष्मणशरैर्लोकान्तरं प्रापितः केनाप्यत्र मृगाक्षि राक्षसपतेः कृत्ता च कण्ठाटवी।।
अर्थात् हे मृगनयनी सीते, यहाँ हम दोनों भाइयों को नाग-पाश में बाँधा गया था, यहाँ तुम्हारे देवर के वक्ष पर शक्ति-बाण लगनेपर हनुमान द्रोण पर्वत लाए थे, यहाँ लक्षमण के दिव्य बाणों से मेघनाद परलोक भेजा गया था और यहाँ किसी ने राक्षसपति रावण के कंठ-वन (अर्थात् दस सिरों) को काटा था।
यहाँ वक्ता (श्री राम) ने स्वयं के लिए केनापि (किसी के द्वारा या किसी ने) पद प्रयोग किया है, जिसके कारण अर्थशक्तिमूल-संलक्ष्यक्रमव्यंग्य गुणीभूत हो गया है। यदि केनापि के स्थान पर तस्याप्यत्र पद प्रयोग किया जाता तो अच्छा रहता अर्थात् ऐसा होने पर गुणीभूत न होकर शुद्ध व्यंग्य होता। क्योंकि तब यह अर्थ देता कि यहाँ उसी (राक्षसपति रावण) के दसो सिर काटे गए थे, जिसने इतना बड़ा आतंक फैला रखा था, जिसके कारण हम दोनों को इस जगत में आना पड़ा आदि। अतएव इसमें संलक्ष्यक्रमव्यंग्य का गुणीभूत अगूढ़ व्यंग्य दिखाया गया है।
यहाँ हिन्दी का एक प्रसिद्ध दोहा लेते हैं, जिसमें लक्षणामूलध्वनि का गुणीभूत अगूढ़ व्यंग्य का रूप स्पष्ट होता है-
गोधन गजधन बाजिधन और रतनधन खान।
जब आवत सन्तोष धन, सब धन धूरि समान।।
यहाँ सब धन धूरि समान में मुख्यार्थ-बाधा होने के कारण यह अर्थ निकलता है कि सभी धन महत्त्वहीन हो जाते हैं, जब सन्तोष हो जाता है। इसमें व्यंग्यार्थ है कि सन्तोष आवश्यक है, उसके सामने अन्य धन अर्थहीन हैं। यह व्यंग्यार्थ अत्यन्त स्पष्ट है, इसलिए इसमें अगूढ़ गुणीभूतव्यंग्य है।
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बहुत बढ़िया पाठ||
जवाब देंहटाएंसादर वंदना ||
aadarniy sir
जवाब देंहटाएंvyang ka vishhleshhan itna vistrit bhi hota hai yah hamne pahli baar aapse hi jaana.
itni mahatv-purn jaankaari waqai me kabile tarrif hai .
iske liye aap ko v aacharya prshuram ji ko hardik badhai v
hardik naman sahit
poonam
गोधन गजधन बाजिधन और रतनधन खान।
जवाब देंहटाएंजब आवत सन्तोष धन, सब धन धूरि समान।।
इस दोहे की अति सुन्दर व्याख्या की है आपने.....व्यंग्यार्थ के माध्यम से और भी अधिक.
ज्ञान की निधि है यह श्रृंखला!!!
जवाब देंहटाएंइन सत्प्रयासों के लिए आचार्य जी का और मनोज भाई का बारम्बार साधुवाद|
जवाब देंहटाएंसुन्दर पाठ.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कड़ी।
जवाब देंहटाएंबहुमूल्य ज्ञान।
जवाब देंहटाएंआभार,