भारत और सहिष्णुता-12
जितेन्द्र त्रिवेदी
अंक-12
इस अध्याय में मेरा यह दिखाने का प्रयत्न रहेगा कि जिस वाद-संवाद को बुद्ध ने अपने उपदेशों को कहने का माध्यम बनाया आखिर वह किस प्रकार सम्पादित होता था? बुद्ध को जब किसी से अपनी बात कहनी होती थी तो कुछ इस तरह वे पहले सामने वाले के व्यवहार को गौर से देखने के बाद बोलते थे, जिसका निदर्शन यहां "मज्झिम निकाय" के माध्यम के एक "सुत्त" से दिया जा रहा है-
राजगृह में कुछ "निर्ग्रन्थ"(वे साधु जो कि कड़े देह दंडन द्वारा आत्म बोध को पाना चाहते थे) खड़े-खड़े तपश्चर्या कर रहे थे। तथागत बुद्ध उनके पास जाकर बोले- 'हे बन्धुओं, आप अपने शरीर को इस प्रकार कष्ट क्यों दे रहे हो?' उन निर्ग्रन्थों ने जवाब दिया- 'निर्ग्रन्थ नाथपुत्त सर्वज्ञ हैं। वे कहते हैं कि हमें चलते हुये, खड़े रहते हुये, सोते हुये या जागते हुये हर स्थित में तपश्चर्या करनी चाहिये। वे हमें उपदेश देते हैं कि हे निर्ग्रन्थों, तुमने पूर्व-जन्म में जो पाप किये हैं उसे इस प्रकार के देह दण्ड से जीर्ण करो। इस प्रकार तप से पूर्वजन्म के पापों का नाश होगा और नया पाप न करने से अगले जन्म में कर्म क्षय होगा और इससे सारा दुख नष्ट होगा। उनकी ये बातें हमें प्रिय लगती है। इस पर तथागत बोले- हे निर्ग्रन्थों! क्या आप जानते है कि पूर्व जन्म में आप थे या नहीं?'
निर्ग्रन्थ- हम नहीं जानते, हे तथागत! कि पिछले जन्म में हम थे या नहीं।
तथागत- अच्छा, क्या आप यह जानते हैं कि पूर्व जन्म में आपने पाप किया था या नहीं?
निर्ग्रन्थ- वह भी हम नही जानते हे तथागत!
तथागत- क्या आपको यह मालूम है कि आपके कितने् दुख का नाश हुआ है और कितना शेष है?
निर्ग्रन्थ- वह भी हमें नहीं मालूम, हे तथागत!
तथागत- यदि ये बातें आपको ज्ञात नहीं है तो क्या इसका अर्थ यह नहीं होगा कि आप पिछले जन्म में बहेलियों की तरह क्रूरकर्मा थे और इस जन्म में उन पापों का नाश करने के लिये तपश्चर्या करते है।
निर्ग्रन्थ- आयुष्मान गौतम! हम तो बस इतना जानते हैं कि सुख से सुख प्राप्त नहीं होता है, दुख से ही सुख प्राप्त होता है।
तथागत- दुख से ही सुख प्राप्त होता है, ऐसा कहना ठीक नहीं है, हे निर्ग्रन्थों।
निर्ग्रन्थ- ‘हे गौतम! यदि सुख से सुख प्राप्त हुआ होता तो बिंबिसार राजा को आयुष्मान गौतम की अपेक्षा अधिक सुख मिला होता।‘
तथागत – ‘हे निर्ग्रन्थों आपने बिना सोचे- समझे यह बात कही है। यहां मैंने ऐसा तो कुछ कहा ही नहीं कि सुख से सुख मिलता है। यहाँ मैं आपसे इतना ही पूछँगा कि क्या बिंबिसार राजा सात दिन तक सीधे बैठकर एक भी शब्द मुँह से निकाले बिना एकांत सुख का अनुभव कर सकेगा, सात दिन की बात जाने दो, क्या वह एक दिन के लिए भी वह ऐसे सुख का अनुभव कर सकता है?’
निर्ग्रन्थ- ‘आयुष्मान उसके लिये यह संभव नहीं है।’
तथागत – तो फिर कष्ट सहने से ही सुख मिलता होता तो बिंबिसार राजा को भी वह सुख मिलता। इस तरह बुद्ध ने अपनी अनोखी शैली से निर्ग्रन्थों को सद्मार्ग कि देह दंडन से दुख का नाश फिजूल की दिमागी जमा खर्ची है।
बौद्ध धर्म मुख्यत: आचार धर्म है। बुद्ध जानते थे कि मनुष्य का अच्छा या बुरा होना, सुख या दुख पाना उसके कर्म और चरित्र पर निर्भर करता है। उनका प्रखर रूप से मानना था कि आदमी का ध्यान इस बात की बजाय कि वह क्या जानता है इस बात पर अधिक होना चाहिये कि वह करता क्या है। पैगंबर मुहम्मद ने भी ऐसा ही कहा है (हे खुदा हमें जानने, समझने, कहने की बनिस्पत अमल की तौफीक अता फरमा – पैगम्बर मुहम्मद)।
"मज्झिम निकाय" के एक "सुत्त" और पैगंबर मुहम्मद के वचन के साम्य की बहुत महत्वपूर्ण प्रस्तुति...बहुत प्रभावी लेख है यह.
जवाब देंहटाएंकारण व कारक से पर् है सुख दुख का उद्गम।
जवाब देंहटाएंहमने बहुत सी ऐसी निराधार धारणाएँ बना लीं, जिनका न तो शास्त्रीय आधार होता है और न ही वे तर्क के खाँचे में ही फिट होती हैं। बहुत सुन्दर। साधुवाद।
जवाब देंहटाएंमनोज जी
जवाब देंहटाएंइतने सुन्दर ज्ञान दर्शन तथा सुन्दर प्रस्तुति के लिए धन्यवाद
कहां कहां से नगीने खोज कर लाते हैं आप।
जवाब देंहटाएंआभार1
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चोंच में आकाश समा लेने की जिद..
इब्ने सफी के मायाजाल से कोई नहीं बच पाया।