फ़ुरसत में ...
फिर बसा पाटलीपुत्र
मित्रं पिछले अंक में हमने चर्चा की थी … पाटलिपुत्र – गौरवपूर्ण इतिहास के झरोखे से झांकता उज्ज्वल भविष्य !! (लिंक)
अब आगे …
कुम्हरार के हाल के उत्खनन से ज्ञात होता है कि विश्व के प्राचीनतम महानगरों में से एक पाटलिपुत्र दो बार नष्ट हुआ था। परिनिब्बान सुत्त में उल्लेख है कि बुद्ध की भविष्यवाणी के अनुसार यह नगर केवल बाढ़, अग्नि या पारस्परिक फूट से ही नष्ट हो सकता था। 1953 की खुदाई से यह प्रमाणित होता है कि मौर्य सम्राटों का प्रासाद अग्निकांड से नष्ट हुआ था।
प्राचीन साहित्य में पाटलिपुत्र के लिए पाटलिग्राम, पाटलिपुर, कुसुमपुर, पुष्पपुर एवं कुसुमध्वज इत्यादि नामों का उल्लेख किया गया है। छठी शताब्दी ई. पूर्व में यह एक छोटे से गांव के रूप में था। बुद्ध जब अंतिम बार मगध गए थे तो गंगा और सोन नदियों के संगम के पास पाटलि नामक ग्राम बसा हुआ था जो पाटल या ढाक के वृक्षों से आच्छादित था। अपने निर्वाण से कुछ समय पहले भगवान बुद्ध ने एक दुर्ग को निर्माणाधीन अवस्था में देखा था। अजातशत्रु ( मगध सम्राट, 492-460 ई पू ) ने सर्वप्रथम यहां एक सैन्य शिविर का निर्माण कराया। मगधराज अजातशत्रु ने लिच्छवीगणराज्य का अंत करने के पश्चात, एक मिट्टी का दुर्ग पाटलिग्राम के पास बनवाया जिससे मगध की लिच्छवियों के आक्रमणों से रक्षा हो सके। पाटलिपुत्र की स्थापना का श्रेय अजातशत्रु के पुत्र उदायिन ( 460-444 ई पू ) को जाता है। सामरिक दृष्टिकोण से इसकी भौगोलिक स्थिति से प्रभावित होकर अजातशत्रु के पुत्र उदयन ने 5वीं शताब्दी ई.पूर्व के मध्य मगध की राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र स्थानान्तरित कर दिया। अजातशत्रु तथा उसके वंशजों के लिए पाटलिपुत्र की स्थिति महत्त्वपूर्ण थी। अब तक मगध की राजधानी राजगृह थी किंतु अजातशत्रु द्वारा वैशाली (उत्तर बिहार) तथा काशी की विजय के बाद मगध के राज्य का विस्तार भी काफ़ी बढ़ गया था और इसी कारण अब राजगृह से अधिक केंद्रीय स्थान पर राजधानी बनाना आवश्यक हो गया था। मौर्य शासनकाल ( 323-185 ई पू ) में विशाल मगध साम्राज्य की राजधानी के रूप में पाटलिपुत्र का अभूतपूर्व उत्कर्ष हुआ। तब से लेकर लगभग एक हजार वर्ष तक शिशुनाग, नन्द, मौर्य, शुंग एवं गुप्त इत्यादि वंशो के शासन काल में पाटलिपुत्र ही मगध साम्राज्य की राजधानी थी। बिम्बिसार, अजातशत्रु, उदायिन, नंदिवर्द्धन, महापद्मनंद, चन्द्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार, अशोक, चन्द्रगुप्त द्वितीय, समुद्रगुप्त, वर्ष, उपवर्ष, पाणिनी, कौटिल्य ( चाणक्य ), नेमिनाथ, मोग्गलिपुत्त तिष्य, कात्यायन, पतंजलि, नागसेन ( यूनानी राजा मिनांदर अथवा मिलिन्द के गुरू ), अश्वघोष, आर्यभट, वराहमिहिर, वसुवंधु, उमास्वाति ( जैन दार्शनिक ), आदि इस नगर से जुड़े रहे।
जैनग्रंथ विविध तीर्थकल्प में पाटलिपुत्र के नामकरण के संबंध में उल्लेख है कि आजातशत्रु की मृत्यु के पश्चात उसके पुत्र उदयी ने अपने पिता की मृत्यु के शोक के कारण अपनी राजधानी को चंपा से अन्यत्र ले जाने का विचार किया और शकुन बताने वालों को नई राजधानी बनाने के लिए उपयुक्त स्थान की खोज में भेजा। ये लोग खोजते-खोजते गंगातट पर एक स्थान पर पहुंचे। वहां उन्होंने पुष्पों से लदा हुआ एक पाटल वृक्ष (ढाक या किंशुक) देखा जिस पर एक नीलकंठ बैठा हुआ कीड़े खा रहा था। इस दृश्य को उन्होंने शुभ शकुन माना और यहाँ पर मगध की नई राजधानी बनाने के लिए राजा को मन्त्रणा दी। फलस्वरूप जो नया नगर उदयी ने बसाया उसका नाम पाटलिपुत्र या कुसुमपुर रखा गया। बिहार और आस-पास के क्षेत्रों में आज भी आहार-रत नीलकंठ का दर्शन शुभ माना जाता है।
शिक्षा, व्यापार कला और धर्म आदि क्षेत्रों में भी यह एक महत्वपूर्ण केंद्र था । चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में विख्यात जैन आचार्य स्थूल भद्र द्वारा यहां जैन वैरागियों का एक संगति का आयोजन किया गया था। अशोक के काल में यहां तृतीय बौद्ध संगति का आयोजन हुआ था। कुछ विद्धानों की ऐसी मान्यता है कि प्रारंभिक पाल युग में भी पाटलिपुत्र का अस्तित्व राजधानी के रूप में बना हुआ था। इसके बाद इसकी पहचान राजधानी के रूप में समाप्त हो गई।
अनेक यशस्वी रचनाकारों का संबंध भी पाटलिपुत्र से रहा है। अर्थशास्त्र के रचयिता कौटिल्य (चाणक्य) तथा महाभाष्य के रचयिता पंतजलि के नाम विशेष उल्लेखनीय है।
पांचवी सदी के सुप्रसिद्ध चीनी यात्री फाहयान ने पाटलिपुत्र का वर्णन एक वैभवशाली नगर तथा ख्यातिलब्ध शिक्षा केंद्र के रूप में किया है। लगभग 300 ई.र्पू. में चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में सुप्रसिद्ध यूनानी राजदूत मेगास्थनीज की पुस्तक इंडिका में पहली बार हमें पाटलिपुत्र एवं इसके नगर प्रशासन आदि के विषय में विस्तृत विवरण प्राप्त होता है जिसमें इसके लिए पालिबोथ्रा नाम प्रयोग किया गया है। इसमें प्राप्त विवरण के अनुसार यह नगर एक समानान्तर चतुर्भुज के रूप में बसा था। जिसका विस्तार गंगा तट के साथ-साथ पूर्व-पश्चिम लगभग 14 किलोमीटर तथा उत्तर में दक्षिण लगभग 3 किलोमीटर था। नगर की परिधि का माप लगभग 36 कि.मी. था। नगर को लकड़ी के विशाल स्तंभो की सुदृढ़ प्राचीर द्वारा सुरक्षित किया गया था अतिरिक्त सुरक्षा के लिए प्राचीर के बाहर एक चौड़ी तथा गहरी खाई थी जिसका नाले के रूप में भी व्यवहार किया गया था और जिसमें जिसमें सोन नदी का पानी भरा रहता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी नगर के चारो ओर एक चौड़ी सुरक्षा प्राचीर का उल्लेख मिलता है।
पटना से सटा कुम्हरार जहां कभी मौर्य राजाओं का महल हुआ करता था अस्सी स्तंभों वाले सभागार के नीचे से एक चौड़ी नहर बहती थी जिसमें सोन नदी से पानी आता है। खुदाई में मिले अवशेषों के अनुसार सभागार में पहुंचने के लिए नौकाओं का भी सहारा लिया जाता था लेकिन खुदाई के बाद नहर के पानी को संभालने की कोई व्यवस्था नहीं हुई और पूरा हिस्सा पानी में डूब गया।
लोहानीपुर, बहादुरपुर, सन्दलपुर, बुलंदी बाग, कुम्हरार सहित पटना के अन्य कई स्थलों पर किए गए विभिन्न उत्खनन द्वारा काठ से बने सुरक्षा प्राचीर के अवशेष प्राप्त हुए हैं। मेगास्थनीज ने चंद्रगुप्त मौर्य के काठ से बने हुए राजभवन का भी उल्लेख किया है। जो ईरान के सूजा और एकबतना महलों से भी अधिक सुंदर तथा भव्य था। कुम्हरार के उत्खनन के द्वारा चमकदार एकाश्म स्तंभों वाले मौर्यकालीन सभागार का भग्नावशेष प्रकाश में आया है। यह आधुनिक ईरान के परसोपोलिस महल के समतुल्य है।
बुकानन के द्वारा सबसे पहले पाटलिपुत्र के प्राचीन भग्नावशेष का सर्वेक्षण किया गया था। अंग्रेज विद्वान सर एलेक्जेंडर कनिंघम एवं वेगलर द्वारा भी प्राचीन पाटलिपुत्र के अवशेषों की पहचान करने का प्रयास किया गया। फिर से 1892 में अंग्रेज विद्वान बाडेल ने पटना की गहन खोजकर 1894 में उत्खनन करवाया। विख्यात विद्धान श्री पी.सी. मुखर्जी ने भी 896-97 में उत्खनन करवाया। परंतु बड़े पैमाने पर इस जगह की खुदाई 1911-12 से लेकर 1914-15 तक बी.बी स्पूनर ने किया। इस काम के लिए वित्तीय सहयोग रतन टाटा ने दिया। एक लम्बे अंतराल के बाद डा. ए.एस. अलतेकर एवं श्री विजयकांत मिश्र के निर्देशन में इस जगह का उतखनन 1951-55 तक किया गया। इन उत्खननों से 80 खम्भों वाला सभागार तथा आरोग्य विहार, के अवशेष प्राप्त हुए। इस चिकित्सालय सह संघाराम का संचालन गुप्तकाल के महान चिकित्सक धन्वन्तरि द्वारा किया जाता था।
कुम्हरार स्थित स्तंभों से युक्त मौर्यकालीन सभागार के भग्नावशेष में 80 स्तंभ आनावृत किए गए थे। इसी कारण 80 स्तंभों वाला सभागार इसका प्रचलित नाम है। इसके अलावे चार और स्तंभ मिले हैं जो संभवतः द्वार मण्डप के थे। दक्षिण की ओर प्रदेश द्वार वाले इस महाकक्ष में पूर्व से पश्चिम 8-8 स्तंभों की दस पंक्तियों थी। जिनके बीच परस्पर अन्तराल लगभग 4.57 मीटर था। उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिला के अन्तर्गत चुनार की खदाने के बलुए पत्थर से बने स्तंभ एकाश्म थे तथा मौर्यकालीन विशिष्ट चमक से युक्त थे। सभी स्तंभों की उँचाई लगभग 9.75 मीटर थी। जिसका लगभग 2.74 मीटर भाग फर्श की सतह से नीचे था। इनको काठ से बने हुए वर्गाकार आधार संरचना के सहारे खड़ा किया गया था। सभागार की छत तथा फर्श भी काठ से बने थे। दीवारों के कोई चिह्न नहीं मिलने के कारण अनुमान है कि यह भवन एक खुले मण्डप के रूप में रहा होगा। छत को ईंटों से आच्छादित कर के ऊपर से चूने का प्लास्टर किया गया था। प्रवेश द्वार के नजदीक साल की लकड़ी से बने सात चबूतरे थे जिसके सहारे लगभग तीस पदों वाली सीढि़यां बनी थी। ये सीढि़यां लगभग 13.10 मीटर चौड़ाई और 3.04 मीटर वाली एक नहर तक पहूँचती थी जो सोन नदी से जुड़ी थी। इनका व्यवहार मौका द्वारा आने वाले विशिष्ट आगन्तुक सभागार तक पहुँचने के लिए करते थे। विशाल एकाश्म स्तंभों को चुनार की खादानों से गंगा मार्ग द्वारा यहां तक पहुँचाने में भी इस नहर का प्रयोग किया गया होगा। विभिन्न विद्वानों द्वारा इस भवन का वर्णन अशोक का महल, मौर्य राजाओं का सिंहासन कक्ष, रंगमहल, सभाकक्ष आदि विभिन्न रूपों में किया गया है। लेकिन सबसे अधिक मान्य मत के अनुसार यह तीसरी शती ई.र्पू. अशोक के शासनकाल में पाटलिपुत्र में आयोजित तृतीय बौद्ध संगति के लिए बना सभागार था।
811 ई॰ के लगभग बंगाल के पाल-नरेश धर्मपाल द्वितीय ने कुछ समय के लिए पाटलिपुत्र में अपनी राजधानी बनाई। इसके पश्चात सैकड़ों वर्ष तक यह प्राचीन प्रसिद्ध नगर विस्मृति के गर्त में पड़ा रहा। बख़्तियार ख़लजी ने नालंदा को जला डाला। पठानों, खलजियों और तुग़लकों ने बारी-बारी से हमले किये और बिहार को तबाह कर डाला। दुनिया का यह सबसे ख़ूबसूरत शहर विध्वंस का शिकार हो चुका था। लेकिन इस नगर का सौभाग्य अभी सोया नहीं था। यह शहर सृजन और विनाश के दो पाटों से गुजरता रहा।
1541 ई॰ में शेरशाह ने पाटलिपुत्र को पुन: एक बार बसाया क्योंकि बिहार का निवासी होने के कारण वह इस नगर की स्थिति के महत्व को भलीभांति समझता था। अब यह नगर पटना कहलाने लगा और धीरे-धीरे बिहार का सबसे बड़ा नगर बन गया। शेरशाह से पहले बिहार प्रांत की राजधानी बिहार नामक स्थान में थी जो पाल-नरेशों के समय में उद्दंडपुर नाम से प्रसिद्ध था। शेरशाह ने पंजाब से मालवा और गुजरात तक अपना आधिपत्य जमाया। फिर पटना मुग़ल साम्राज्य के अधीन रहा। जहांगीर के द्वितीय पुत्र परवेजशाह ने 1626 ई में यहां एक मस्जिद बनवाई जो आज भी पत्थर की मस्जिद के रूप में मौजूद है। 1697 ई में बिहार के सूबेदार के रूप में औरंगजेब के पोते अजीमुश्शान की नियुक्ति की गई। पूरब में जब मुग़ल कमजोर हुआ तो बंगाल के सूबेदारों ने इसपर क़ब्ज़ा जामाया। सिराजुद्दौला और मीरज़ाफ़र के नष्ट होने पर नवाब मीरकासीम ने पाटलिपुत्र को नवजीवन दिया। शेरशाह के पश्चात मुग़ल-काल में पटना ही स्थायी रूप से बिहार प्रांत की राजधानी रही। ब्रिटिश काल में 1892 में पटना को बिहार-उड़ीसा के संयुक्त सूबे की राजधानी बनाया गया। 1912 में बंगाल का विभाजन के फलस्वरूप बिहार नाम का राज्य अस्तित्व में आया । 1935 में उड़ीसा इससे अलग कर दिया गया। सन् 2000 में झारखंड राज्य इससे अलग कर दिया गया। पटना आज भी बिहार की राजधानी है और पुनर्निर्माण के दौर से गुज़र रहा है।
सरजी इतनी सारी बातें तो मैं भी नही जनता था, शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंमहत्वपूर्ण जानकारी ||
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा ||
बधाई |
कमाल के चित्र और जानकारी है इस लेख में ...इतिहास में रूचि लेने वालों के लिए यह लेख संग्रहनीय है ! शुभकामनाएं आपको !
जवाब देंहटाएंपाटलिपुत्र के गौरव शाली इतिहास की संक्षिप्त और सारगर्भित जानकारी इस आलेख में है...आने वाले अर्थव्यवस्था और तंत्र में पटना अर्थात बिहार की भूमिका महत्वपूर्ण होने वाली है...
जवाब देंहटाएंविस्तृत इतिहास जानकर अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंपाटलिपुत्र का अभ्युदय और अवसान , संध्या और विहान , सब कुछ इस आलेख में है विद्यमान . आज तो आप इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता दोनों श्रम साध्य रूपों में सटीक लग रहे है .ऐसे ही फुरसतिया बने रहिये
जवाब देंहटाएं@ आशीष जी
जवाब देंहटाएंफ़ुरसतिया एक ही है ब्लॉग जगत में
हम त फ़ुरसताते हैं ...! :)
मनोज भाई जी इस की बधाई तो मैं आप को फोन कर के दूंगा .................
जवाब देंहटाएंमुझे आपके लेख में,बात लगी ये ख़ास.
जवाब देंहटाएंसंग्रह करने योग्य है,पटना का इतिहास.
पाटलिपुत्र का गौरवशाली इतिहास प्रस्तुत करने के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंलगभग चार वर्ष पूर्व एक वर्कशाप के सिलसिले में मैं पटना और नालन्दा गई थी. आपके लेख ने कई यादें ताज़ा कर दी.सबसे लम्बे पुल के ऊपर खड़े हो कर हजारीबाग के छोटे-छोटे स्वादिष्ट केले खाने से ले कर पटना साहिब में मत्था टेकने तक...सब स्मरण हो आया.
पाटलिपुत्र का भव्य गौरवशाली इतिहास को विस्तार से जाना ...कभी बिहार जाना हुआ तो इस दृष्टि से इस शहर को देखना रोमांचक होगा !
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक सार्थक आलेख ...
आभार !
जानकारीपूर्ण आलेख।
जवाब देंहटाएंशोधपूर्ण जानकारी ,आभार
जवाब देंहटाएंइसे तो हम सबसे ज्यादा पुरसुकून क्षणों में पढेंगे सबसे पसंदीदा विषय है.
जवाब देंहटाएंपटना शहर के अतीत के बहाने प्राचीन इतिहास एक बार फिर पढ़ने को मिला.
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा एक बार सिलसिलेवार रूप से पटना का इतिहास पढकर..
जवाब देंहटाएंbahut si baaten janne ko milin.....thank you.
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी सूचनाप्रद पोस्ट है। आभार।
जवाब देंहटाएंआपने तो पाटलिपुत्र के बारे में सब कुछ ही लिख डाला है। आज पाटलिपुत्र इतिहास के पन्नों से निकल कर विश्व वैंक तक पहुँच गया है। इसके अनुसार पाटलिपुत्र व्यापार करने के लिए देश में दिल्ली के बाद सबसे उपयुक्त शहर है। देश विदेश के कई पूंजीपतियों की नजर में इस शहर में व्यापार की अपार संभावनाएं हैं। पूंजी निवेश के लिए सरकारी अनुमति की प्रतीक्षा में हैं। सतत विकास के सोपानों पर अग्रसर होते हुए विहार के माननीय मुख्यमंत्री नीतिश कुमार नगर का कायकल्प करने में संलग्न हैं। इसकी तस्वीर बदल रही है। निकट भविष्य में हमारा शहर पाटलिपुत्र देश ही नही विदेशों में भी अपनी विशिष्ट पहचान बनाएगा।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
बुद्ध के समय से...इतिहास मगध और पाटिलपुत्र के आस-पास घूमता रहा...पटना की विस्तृत जानकारी के लिए धन्यवाद...संग्रहणीय लेख...
जवाब देंहटाएंबहुत विस्तृत जानकारी मिली ..पटना का गौरवशाली इतिहास रहा है ... चित्रों ने लेख को और भी रोचक बना दिया है ...
जवाब देंहटाएंइक आस जगी है फिर से,कि अपने पाटलिपुत्र का गौरव लौटेगा और बरसात के दिनों में पटना शहर के बीचोबीच नाव चलने का जो दृश्य हर बारिश के मौसम में अखबारों के पहले पन्ने पर छपता है,उस शर्मिंदगी से निज़ात के लिए हमारे शासक कुछ सीख सकेंगे हमारे पुरावास्तुकारों से।
जवाब देंहटाएंज्ञान वर्धन के लिए आभार .हमारे लिए उपयोगी जानकारी .हम हैं विज्ञान के विद्यार्थी साहित्य के अनुरागी .तीसरी बार पाटली पुत्र लालू -राबड़ी ने नष्ट नहीं किया क्या ?
जवाब देंहटाएंबेहतरीन जानकारी ...बहुत ज्ञानवर्धक पोस्ट ...
जवाब देंहटाएंआभार आपका इस पोस्ट के लिए ..
वाह मजा आ गया पढकर ,देखकर. काश अगर समय में पीछे जाने का कोई तरीका होता तो मैं मौर्य काल में पीछे जाकर पातलीपुत्र को देखती.बहुत बहुत शुक्रिया आपका ऐसी पोस्ट ब्लॉग पर लगाने का.मेरे जैसों की तो आत्मा तृप्त हो जाती है.
जवाब देंहटाएंबहुत ही विस्तृत जानकारी मिली...
जवाब देंहटाएंएक संग्रहणीय आलेख
महत्वपूर्ण जानकारी ||
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा ||
बधाई |