समीक्षा
आँच-77
आभासी दुनियाँ …. !
ब्लागों के नाम सामान्यतया एक से लेकर दो-चार शब्दों तक सीमित हुआ करते हैं लेकिन एक ब्लाग है जो अपने नाम की विशिष्ट लम्बाई के कारण सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है। ब्लाग है “बिना लाग लपेट के जो कहा जाए वो सच है”। यह नाम नहीं वरन पूरा वाक्य ही है। यह एक विचार है कि सच को किसी अवलम्ब की आवश्यकता नहीं होती। इसमें ब्लागर का अपना संदेश भी निहित है कि उसे साफगोई पसंद है। वह सीधे, सरल और सच्चे तरीके से बात कहने में विश्वास करती है और कवयित्री का यह विचार उनकी रचनाओं में प्रतिबिम्बित भी होता है। गत 24 जून को इस ब्लाग पर एक कविता प्रकाशित हुई थी। यद्यपि कवयित्री ने इस कविता का कोई शीर्षक नहीं दिया है (लिंक) तथापि कविता में यही सच्चाई प्रकाशित होती है और कविता की विचार सूक्ष्मता प्रभावित करती है। आँच के विगत चार अंकों में इस स्तम्भ पर अर्थविज्ञान पर शास्त्रीय चर्चा होती रही। अब समीक्षा क्रम में पुनः लौटते हुए रचना जी की इस कविता को चर्चा के लिए लिया जा रहा है।
इस कविता में एक तरफ जीवन का यथार्थ है तो दूसरी ओर आत्मतोष की आकांक्षा की सहज मानवीय वृत्ति। दोनों व्यक्ति से इस कदर सम्पृक्त होते हैं कि एक से मुँह मोड़ा नहीं जा सकता तो दूसरे को आसानी से छोड़ा नहीं जा सकता। जब जीवन का यह यथार्थ दिनानुदिन की चर्या में कसैला और कड़वापन लेकर आता है तो इस सच को सभी के समक्ष प्रकट करना आसान नहीं होता। घर परिवार, रिश्ते-नाते और सम्बन्धों के बीच प्रायः ऐसी स्थितियां आती रहती हैं जब सब-कुछ मन-माफिक नहीं होता। अपेक्षा की तीव्रता के चलते एक रिक्ति बनती है जो बढ़ती रहती है। साथ ही मन को जिससे प्रसन्नता मिलती है, वह करने के लिए व्यक्ति कुछ पल के ही लिए उसी दिशा में बढ़ जाता है। धीरे-धीरे यह प्रकृति बन जाती है। मन तो आखिर मन ही है। उसका अभीष्ट आत्मतोष, अर्थात खुशी पाना है। इस रिक्ति (स्पेस) को भरने के लिए उसे भले ही छद्म दुनियाँ का ही सहारा क्यों न लेना पड़े, लेता है। वह अपने इर्द-गिर्द एक आभासी दुनियाँ की रचना कर अपने लिए खुशी ढूँढता है, जिसे अपना मन बहलाना भी कहा जाता है। वह इस सच को स्वीकार भी करता है। लेकिन इसके कारक के रूप में उन कारणों को स्वीकार नहीं करता। हॉलाकि उसका वास्तविक दुनिया से इस प्रकार बचना यथार्थ को स्वीकार न करना ही है। परंतु इस प्रकार वह सच पर आवरण डाल लोगों के सामने सहज होने का ढोंग तो कर सकता है लेकिन उसकी कसक की छाया से अपने को बचा नहीं सकता।
यथार्थ और इस आभासी दुनियाँ के मध्य कवयित्री का मन्तव्य स्पष्ट ध्वनित है – व्यक्ति का पलायन। तथापि रचना जी ने अपनी इस कविता में जिन्दगी की इन्हीं रिक्तियों को सूक्ष्म रूप से विभिन्न चित्रों के माध्यम से सजीव रुप में रेखांकित किया है। यथा सम्बन्धों के बीच शून्य जैसे - पति और पत्नी के बीच असंतोष से उपजी रिक्ति, पत्नी की घर परिवार से निराशा, स्त्री, पुरुष अथवा वृद्धजन का एकाकी जीवन - जो अपने आप में खाली और सूनेपन से भरा होता है, भाई अथवा बहन के बीच रिश्तों की दूरी, संवेदनाओं और भावनाओं के निरादर अथवा उपयुक्त संतोष न मिल पाने से उपजी रिक्ति आदि और फिर इस रिक्ति को भरने के लिए विचारों/सामग्री की तलाश करती कवयित्री की कलम ने चित्रण को यथार्थपरक बना दिया है।
कविता में जगह-जगह पूरे-पूरे वाक्य ही प्रयोग में आए हैं। चौथे पैरा में विशेष रूप से पंक्ति विच्छेद उपयुक्त नहीं है। टंकण अशुद्धियाँ एकाधिक स्थानों पर उपस्थित हैं। शब्दाधिक्य और वर्णनात्मक शैली शिल्प के प्रति कवयित्री की शिथिलता प्रकट करते हैं और काव्य की श्रेष्ठता का अपकर्ष करते है। ये कविता की प्रांजलता में तो बाधक है ही, कविता की सरसता में भी अवरोध उत्पन्न करते हैं। ज्यादा बड़ी नहीं लेकिन पर्याप्त से अधिक शब्दों में व्यक्त की गई कविता में कवयित्री की भावनाएं पाठको तक संवेदनशीलता के साथ सम्प्रेषित होती हैं। यही इस कविता का आकर्षक पहलू है।
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शब्दाधिक्य और वर्णनात्मक शैली शिल्प के प्रति कवयित्री की शिथिलता प्रकट करते हैं-
जवाब देंहटाएंरचना कवयित्री हैं ? एकाध कविता लिखने से कोई कवयित्री हो जाता है क्या ?
अच्छी समीक्षा.
जवाब देंहटाएं@ आ. अरविंद जी,
जवाब देंहटाएंमैंने ऐसी कोई परिभाषा नहीं देखी जिससे यह पता चलता कि एक कवि या कवयित्री कहलाने के लिए कितनी कविता लिखनी चाहिए।
एक कविता के रचनाकार को कवि या कवयित्री कहा जा सकता है, ऐसा मेरा मानना है।
जहां तक रचना जी का सवाल है उनके कविता के भी ब्लॉग्स हैं। लिंक ये रहे
१. http://mypoemsmyemotions.blogspot.com/
२. http://rachnapoemsjustlikethat.blogspot.com/
३. http://rachnapoemswords.blogspot.com/
@ मिश्र जी,
जवाब देंहटाएंमैं मनोज कुमार जी की बातों से सहमत हूँ। कवि शब्द पहले वेदों में आया है ईश्वर के लिए। एक ब्रह्माण्ड की रचना करने के कारण उन्हें कवि कहा गया, सरदार पूर्ण सिंह ने केवल पाँच रचनाएँ लिखी हैं और उनकी गणना उच्च कोटि के रचनाकारों में होती है। हरिऔध जी ने केवल एक महाकाव्य लिखा है और उन्हें महाकवि कहा जाता है। इसी प्रकार प्रसाद जी ने भी केवल एक ही महाकाव्य लिखा है और उन्हें महाकवि मानने से कौन इनकार कर सकता है।
यदि थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाय कि रचना जी ने यही एक कविता लिखी है, जबकि ऐसा नहीं है, तो यह उनकी अन्तिम रचना होगी यह कैसे मान लिया गया, यह मेरी समझ से तो परे है।
कविता में बिखराव अवश्य है, पर कवयित्री ने आजकल के जीवन से जुड़ी समस्याओं को कविता में बहुत ही मौलिक ढंग से दिखाया है, जिसपर समीक्षक ने सूत्र रूप में सशक्त ढंग से विवेचना की है। दोनों ही बधाई के पात्र हैं।
कविता पर समीक्षा के बहाने कुछ बातें तो पते की हो रही हैं। अच्छा प्रयास है।
जवाब देंहटाएंसमीक्षा अच्छी लगी
जवाब देंहटाएंसमीक्षा बहुत अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि ’बिहारी’ ने कोई महाकव्य नहीं लिखा है। कोई खंडकाव्य नहीं लिखा है। एक अदद कविता तक नहीं लिखी है। केवल सात सौ दोहे लिखकर वे न केवल इतिहास में अमर हो गये वरण हिन्दी साहित्येतिहास के एक काल-खंड का सबल प्रतिनिधित्व करते हैं। किसी भी कला का नियामक संख्या-बल नहीं, उसकी गुणवत्ता होनी चाहिये।
जवाब देंहटाएंमैं यह नहीं कहता कि आलोच्य कविता गुणवत्ता के स्तर पर बहुत उत्कृष्ट है। किंतु समीक्षक की अपनी दृष्टि है। वे मार्गदर्शक का काम करते हैं। अगर वे कमजोर रचनाओं को कसौटी पर नहीं कसेंगे तो सशक्त रचना कहाँ से मिलेगी।
वैसे भी किसी केलिये आदरसूचक शब्द प्रयोग करने के लिये किसी सिद्धांत, व्याकरण या संविधान की आवश्यकता नहीं होती।
मैने रोमन में अपनी बात कहती थी अपने पोएम ब्लॉग पर क्युकी तब गूगल ने फोनेटिक ट्रांसलेशन की सुविधा नहीं डी थी . मेरा कार्य क्षेत्र इंग्लिश से जुडा हैं और मै कंप्यूटर पर ही अपने काम करती हूँ इस लिये हिंदी में सब कुछ करना मेरे लिये असंभव हैं और रहेगा . हा रोमन से देवनागरी में लिखने की सुविधा हैं सो अपनी सोच को अब देवनागरी में व्यक्त करती हूँ .
जवाब देंहटाएंमै कविता नहीं लिखती अगर शिल्प के आधार की बात करे तो , मै केवल शब्दों के कोलाज तैयार करती हूँ .
हाँ ये जरुर कह सकती हूँ की मेरी ब्लॉग पोस्ट पर लिखी हिंदी एक १२ साल के बच्चे को भी समझ आ जाती हैं क्युकी वो उसमे शिल्प और शब्द का सही रूप नहीं खोजता . ब्लॉग पर लिखना आसन हैं इस लिये करती हूँ , करती हूँ और खुश होती हूँ क्युकी कभी टिपण्णी के लिये नहीं करती .
मनोज जी को कविता पसंद आयी उन्होने इसको समीक्षा उपयुक्त समझा इसके लिये उनका और समीक्षक का आभार .
काफी पहले भी मेरी एक कविता पर समीक्षा और बहस हुई थी आप यहाँ देख सकते हैं
http://sarathi.info/archives/288#comments
इसके अलावा एक और कविता पर भी काफी बहस हुई जो यहाँ उपलब्ध हैं
http://indianwomanhasarrived2.blogspot.com/2008/07/blog-post_10.html
हम किसी के बनाने से बनते नहीं
तो किसी के मिटाने से मिटेगे नहीं
थैंक्स
समीक्षा अच्छी है.
जवाब देंहटाएंअरविंद जी की टिप्पणी देखकर लगा कि वे रचनाजी के सच्चे फ़ालोवर हो लिये हैं। रचनाजी ने एक बार सवाल किया था-अनूप शुक्ल की हिंदी योग्यता क्या है?
जवाब देंहटाएंअरविंदजी का सवाल रचना कवयित्री हैं ? एकाध कविता लिखने से कोई कवयित्री हो जाता है क्या ? रचनाजी के घराने का ही सवाल है। है कि नहीं?
बाकी पोस्ट अच्छी है। कई बातों से सहमत। कुछ से असहमत लेकिन बतायेंगे नहीं किससे सहमत हैं/किससे असहमत हैं। :)
वैसे अरविंदजी के घराने की टिप्पणी करके कल को कोई मिसिरजी से पूछ सकता है-
जवाब देंहटाएंमिसिरजी वैज्ञानिक चेतना संपन्न कैसे हुये? क्या कुछ सौ वैज्ञानिक लेख लिखकर कोई वैज्ञानिक चेतना संपन्न कहला सकता है?
लेकिन कौन पूछेगा भला? मिसिरजी से सब डरते हैं। :)
हम भी पूछ थोड़ी रहे हैं एक बात कह रहे हैं बस्स! :)
mujhe lagta hia ki , bekaar ki baato me ham commentbaazi kar rahe hai .. hindi blogjagat ek bada pariwaar hai aur kam se kam yahan to ek dusare par kuch mat kaho dosto.. ab yahi ek jagah hai jo bhale hi invisible hai lekin phir bhi dilo ko jode rakhti hai ...
जवाब देंहटाएंkhush rahiye aur dusro ko bhi khush rakhiye ..
ab mere peeche mat padh jaana bhai kog.,maine hindi bhi angreji me likhi hai ... ha ha ..
chill down friends.. हिंदी ब्लॉग्गिंग अभी अच्छे समय से गाजर कर फिर से recession वाली स्तिथि में आ गया है , एक दूसरे की तारीफ करे.. न कि झगडा. यहाँ ब्लॉग तो बनते ही इसलिए है कि , बस कुछ लिखा जा सके. यहाँ किसे साहित्य का पुरूस्कार लेना है ..
एक जीवन है ,, उसे न तकलीफ देते हुए जिए और न ही तकलीफ लेते हुए ..
धन्यवाद.
आपका
विजय [ अरे वही कविताओ के मन से वाला ]
इस समीक्षा को पढने से पहले रचना जी की कविता नहीं पढ़ पाया था... अब पढ़ा हूं... कविता और समीक्षा कैसे एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं, इसका उत्कृष्ट उदहारण है यह समीक्षा ...
जवाब देंहटाएं... बीच बहस में आते हुए कहना इतना ही निवेदन है कि जो भी महिला कविता लिखती है कवियत्री हो गई... कवियत्री मुझे नहीं लगता कि विशेषण है... जिससे स्पष्ट हो कि कवियत्री कैसी कविता लिखती है.. यह शब्द कहीं से भी कविता की गुणवत्ता और स्तर की बात नहीं करता... तो इस विषय पर इतनी चर्चा हो गई यह आश्चर्यजनक है....
.. हिंदी -रोमन में लिखने के सम्बन्ध में मेरा निजी विचार है कि अब इसमें भी परहेज नहीं होना चाहिए कि हिंदी देवनागरी में है कि रोमन में... वैसे सुना है कि गूगल ब्लॉग्गिंग बंद कर रहा है ऐसे में हिंदी लिखने वालों के पास रोमन के अतिरिक्त विकल्प कम रह जायेंगे... फोंट्स में हिंदी टंकण अब भी थोडा मुश्किल है...
... आंच आज समीक्षा से इतर मुद्दों पर दहक रहा है..
"कलम अपनी साध/और मन की बात बिल्कुल ठीक कह/जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख/और इसके बाद भी हमसे बड़ा तो दिख"
जवाब देंहटाएंठीक से याद नहीं शायद डॉ रामस्वरूप चतुर्वेदी ने लिखा है....
रचना की कविताएँ नए युग की नई कविता है जो छन्द मुक्त है...वैसे भी आज नई संवेदना को व्यक्त करने के लिए नई शब्द शैली ही असरदार दिखती है.
सोचा रचना और समीक्षा पर अपने विचार रखूं...पर, यहाँ तो कुश्ती ही शुरू हो गयी...अब क्या कहूँ...विचार को सकारात्मक ढंग से लिया जायेगा,संदेह है इसमें....
जवाब देंहटाएंसमीक्षा बहुत अच्छी रही!
जवाब देंहटाएंहम भी आशा में हैं!
सभी के प्रति आदर भाव रखते हुए एक निवेदन -
जवाब देंहटाएंबेहतर होता चर्चा रचना पर ही होती, रचनाकार पर नहीं। यही आलोचना का धर्म है।
आंच देखकर आया था पर यहाँ तो शोले धधक रहे हैं.. आज कवियों की बहुतायत है.. और यही कविता की विजय है.. वे दिन हवा हुए जब कविता का अर्थ शेक्स्पियेर के सोंनेट और पन्त जी की छंदबद्धता हुआ करती थी.. गुलज़ार की कविता को कभी किसी ने टाइम्स ऑफ इंडिया की न्यूज़ हेडलाइन कह दिया था..
जवाब देंहटाएंआज वियोगी कवि होने की पहली शर्त हो न हो.. मन से कविता का प्रस्फुटन ही उसको कवि बनाता है.. बिना कोइ कविता लिखे भी कोइ कवि हो सकता है यदि वह कविता के भावों साथ सामम्न्जस्य स्थापित कर पाटा हो.. हर वो व्यक्ति शायर है जो यह समझता ही कि किस शेर पर कहाँ दाद देनी है.. इसके लिए चाहे उसने सारे जन्म कोइ भी शेर न लिखा हो!!
बहुत बढिया कविता और बहुत अच्छी समीक्षा.मैं केवल उन कविताओं को ही पसंद करता हूँ जिनकी भाषा सरल हो और जिनसे कवि या कवियित्री का मन्तव्य स्पष्ट हों.रचना जी अपनी कृति को बेवजह बौद्धिक लबादा औढाने से बचती है और यही बात मुझ जैसे एक आम पाठक को सबसे ज्यादा आकर्षित करती है.इस कविता में जो बात कही गई है वो सभी पर लागू न होती हो लेकिन ये सच है कि हममें से कई ऐसे है जो रोजमर्रा की जिंदगी के खालीपन को भरने के लिये ही यहाँ आये है पर इस बात को स्वीकार नहीं करते.अन्त में सलिल जी की कही बात से बिल्कुल सहमत हूँ.
जवाब देंहटाएंभाई अरविन्द मिश्र ने एक सार्थक-प्रश्न उठाया है तो मनोज जी ने उसका एक चलताऊ-सा जवाब दे दिया है.कवी या कवयित्री होने के लिए कोई संख्यात्मक आंकड़ा नहीं बल्कि सार्थक रचना का होना असली पैमाना है.जो रचना कोई उद्देश्य की पूर्ति करती दिखे,मन के सहज उदगार हों ,कविता होती है.जिस प्रकार लोग दस-दस ब्लॉग बनाकर 'ब्लॉगर' बन बैठे हैं उस नज़रिए से यदि 'कवयित्री' को देखें तो फिर मनोज जी की बात सही हो सकती है.
जवाब देंहटाएंअनूप शुक्ल की व्यंजना सब कुछ बयान कर देती है !
संतोष त्रेविदी जी की कविता की समीक्षा भी करिए कहा मुझ जैसी बिंदास को आप कवियत्री बना बैठे . कवि या कवियत्री वो होता हैं जो खुद को कवि या कवियत्री कहता हैं मैने तो कभी कहा नहीं
जवाब देंहटाएंफिर भी संतोष जी नाराज हैं शायाद केवल उनकी कविता को ही समीक्षा का संवेधानिक अधिकार हैं