फ़ुरसत में ...
भरि नगरी में शोर !
हमारे ज़माने में स्कूलों की अर्धवार्षिक परीक्षा जून में और वार्षिक परीक्षा दिसम्बर में होती थी। दिसंबर अंतिम सप्ताह के पहले तक परिणाम भी आ जाया करते थे और नव-वर्षारंभ से नई क्लास में हम चले जाते थे। अर्धवार्षिक परीक्षा के बाद एक महीने का गृष्मावकाश होता था।
अगले आधे वर्ष तक पढ़ाई चूंकि वार्षिक परीक्षा के मद्देनज़र रख कर करनी होती थी, इसलिए गर्मी की छुट्टियां, प्रायः विशेष पढ़ाई में ही बीतती थी। पिताजी का कहना था कि इस समय में वो पढाई करनी चाहिए जो तुम अब तक न कर पाए हो। हमारा मुख्य उद्देश्य होता था कि गर्मी की छुट्टी में गणित के सारे प्रश्न हल कर जाएं और सारे असाध्य साध्य भी रट जाएं। हॉल एण्ड स्टीवेन्सन से लेकर बदीउज़्ज़मां को रटते-रटते पूरी छुट्टी बीत जाती थी, और फिर उसके बाद वही क्रम, स्कूल जाना और आना लगा रहता था।
पिताजी जब काम में काफ़ी व्यस्त होते थे तो, जो भी थोड़ी बहुत हमारी ज़मीन बची थी, उसके इंतजामात के लिए हमें ही गांव भेज दिया करते थे। गर्मी छुट्टियों के दिन थे, क्लास की कोई हानि नहीं होती, इसलिए उस साल जून महीने में हमें ही आदेश मिला कि गांव जाकर पानी-वानी पटवा आऊं। हम भी अपने सारे ग्राम-प्रेम को दिल में बांधे मुज़फ़्फ़रपुर से ट्रेन द्वारा समस्तीपुर पहुंच गए और वहां स्टेशन पर बुद्दर दास आए थे रिक्शा लेकर। उनकी रिक्शा की सवारी से हम दो-ढ़ाई घंटे में सुषमा संपन्न तिरहुत के हरे-भरे अपने गांव रेवाड़ी में थे। गाँव की छटा ही निराली थी। दूरतक पसरी हुई शस्य श्यामला धरती, ज्यादा तर कच्चे घरों के बीच एकाध पक्के मकान। तिरछी, टेढी, संकड़ी और कहीं कहीं थोड़ी चौरी कच्ची सड़कें। सड़कों पर बैलगाड़ी के बैलों के गले की घुंघुरू की आवाज़ पर दौड़ लगाते बच्चे और सडकों के किनारे हाथ मे लकुटिया लिए भैंस चराते अहीर।
सज्जन, हमारे बड़े चाचा का लड़का, न सिर्फ़ मेरी ही क्लास में पढ़ता था, बल्कि मेरा सबसे अच्छा मित्र भी था। हम दोनों अगले कुछ दिनों की योजनाएं बनाने लगे। शाम तक हमारी योजनाएं बन चुकी थीं। अपनी योजना को अमल देने के लिए जब हम बाहर निकलने लगे तो बाबा हमें दालान में मिले। उनका आदेश हुआ, कि इस भयंकर गर्मी में शाम को भी लू चलती है, इसलिए पिछबारी गाछी से दो बेल लेते आएं। बेल का शरबत पीकर ही जाना चाहिए। उससे पेट ठंडा रहेगा और सुबह पेट भी साफ़ रहेगा। जिस तन्मयता से बाबा ने बेल का शरबत बनाया उसमें निंबू निचोड़ा और अपने गमछी से छान कर पहले हमें पिलाया, फिर खुद भी पिए, वह इतने वर्षों के बाद भी आंखों के सामने सजीव है।
खैर, बेल का शरबत गटकने के बाद हमारा अगला पड़ाव था झींगुर दास का काली स्थान। उनका घर उसी के बगल में था। वो वहीं मिल गए। आरंभिक हाल-चाल के बाद हम अपने मंतव्य पर आ गए। बोले आज भैंस चराने नहीं गए। तो उन्होंने बताया कि उनका बेटा केशो आज गया है और अभी खिलहा चर में चरा रहा है। बिना क्षण गंवाए हम खिलहा पहुंचे। केशो, दूर से ही दिख गया। हमने उसे भैंस की पीठ पर से लगभग धकेलते हुए हटाया और खुद छलांग लगाकर चढ गए। अगले एक घंटे तक हमने भैंस की सवारी की। वो भी बेचारी सोचती होगी कि किससे पाला पड़ा है। चैन से खाने नहीं देता। हम कभी उसे बरकुरबा की तरफ़ ले जाते, तो कभी डोरा की तरफ़।
शाम हो चली। साये आकाश से उतर कर गांव की धरती की ओर बढ़ने लगे। ढ़िबरी और लालटेन अधिकांश घरों में जल उठे थे। पूरबरिया मैदान में बच्चों का डोल-पात का खेल बंद हो चुका था। मुनिमा का तांगा खर्र् खर्र् करते हुए काली थान की ओर जा रहा था। छौ बजिया शटल की सीटी की आवाज गांव में स्पष्ट सुनाई दे रही थी। चौपाल की गहमा-गहमी शांत ही होने वाली थी। गाय-गोरू वाले बथान में उन्हें बांध चुके थे। पूरे गांव में एक निपट सन्नाटा पसरा हुआ था। खूब सैर सपाटा करने के बाद जब हम अपने घर के दालान में क़दम रखते उसके पहले ही हमारी हरकतों की खबर पहुंच चुकी थी। बाबा कुछ गंभीर मुद्रा में हमें हमारी हरकतों के लिए डांट डपट का मूड बना चुके थे। पर हमारी ‘रिस्क्यू’ के लिए अइया (दादी को हम यही कहते थे) आ गईं। क्या हुआ, थोड़ा चढ़ ही गया तो, ई सब मुज़फ़्फ़रपुर में थोड़े मिलेगा।
अइया के हाथ की बनी मक्के की रोटी को दूध में गूड़ कर खाने का जो आनंद उस रात आया वह सिर्फ़ खा कर ही जाना जा सकता है।
रेवाड़ी वैसै तो छोटा सा ही गांव है पर वहां की सुबह अनन्त सौंदर्य लेकर आती है। पूरब की तरफ जब प्रत्यूष की लाली हरे-भरे खेतों में फैलती है तो लगता है मानो किसी दुल्हन के कपोलों पर लज्जा की लाली दौड़ गई हो। प्रसन्नता का राग बिखेरते धीरे-धीरे कलरव करते विहंग। हवा की मदमस्त ताल पर वृक्षों की लहराती शाखाएं सामूहिक नृत्य करती प्रतीत होती हैं। ऐसे में अलसाये से दूसरे दिन जब हम उठे तो मालूम हुआ कि पिछबारी गाछी में आम तोड़ा जा रहा है। हम भी पहुंचे। झींगुर दास के नेतृत्व में दो-तीन जन लगे थे आम तोड़ने में। हमने इस अवसर को गंवाना उचित नहीं समझा, चढ़ गए पेड़ पर और लगे फटाफट आम तोड़ने। हमें क्या मालूम था कि आम की डंठल से जो रस निकलता है, वह बड़ा खतरनाक होता है। रस की कई बूंदे हमारे चेहरे पर गिर गईं। जब जलन हुआ तो हमने उसे मल दिया। और फिर चेहरे पर फफोले भी हो गए। कुछेक दाग तो अब भी हैं।
दिन चढ़ गया था। नहाने की बारी आई तो सज्जन ने कहा कि चलते हैं पोखर में स्नान करने। गाँव में एक विशाल पोखड़ है। हम वहां पहुंचे। पोखड़ के किनारे घने बरगद का पेड़ था। अब नहीं रहा। पर उन दिनों वह विशाल था। पेड़ से पोखड़ में छपाछप कूदते किशोर, मवेशिओं को नहलाते किसान और पल्लू को दांतों मे दबाये घुटने भर पानी मे अधपरे पाट पर पटक-पटक कर कपड़े धोती रजक कन्याएं, गाँव के सौहार्द्र और समरसता के प्रतीक थे। इसी पोखड़ के दूसरे छोर पर महादेव का मंदिर है। जी भर कर स्नान करने के बाद हम भोला बाबा पर जल चढ़ाए और घर के लिए चल पड़े। रास्ते में गाछी पड़ता था। उसमें सावन की पींगे मारने का प्रोग्राम तो था ही साथ में एक-दो चौकियों को जोड़कर गाने बजाने का प्रोग्राम चल रहा था। काफ़ई सरस लोकगीत गाए जा रहे थे। सब बारी-बारी से गा रहे थे।} मेरी बारी आई तो जो गीत मैंने गाया उसे ही आपको पढ़ाने का आज के इस फ़ुरसत में का उद्देश्य था। तो लीजिए पेश है
बउआ!
मामी तोहर गोर,
मामा चान सन!
खाली गाल बजाबय
बाबी तोहर गंगा तन छौ
बाबा बनल हिमालय
अरे!
मौसा तोहर चोर,
मौसी मुंहक बड़जोर
मैया पान सन!
थैया-थैया ताता थैया
थैया-थैया चलू कन्हैया
जहिना भोर बसाय
धरती मैया सब दुख हरनि
खसबले कोनो बाय
बउआ मोती सन इ लोर
बीछत खाली आंचर मोर
अपने प्रान सन!
त काकिक सूगा मैना
एहि दुखिया के हंसी खुसी
आ बापक नइ हय खिलौना
तो आसि के चकमक भोर
हंसिबे खोलिके दूनू ठोर
कूटल धान सन!
Behatar, mitti kee gandh se jodati rachna, badhai
जवाब देंहटाएंयाद आया , बिहार में मुख्य परीक्षा दिसंबर में ही होती थी ...
जवाब देंहटाएंआन्ध्र में पिता को अईया का संबोधन दिया जाता है , यहाँ आपकी दादी थी ...
भैंस पर सवारी की तस्वीर होनी चाहिए थी , वहां बैलगाड़ियाँ नहीं होती ?
पूरब की प्रत्युष की लाली के बीच आम के बागान में उछलकूद , छुट्टियाँ सार्थक हो गयी...
मधुर यादें, दिलचस्प पोस्ट !
@ वाणी जी
जवाब देंहटाएंबैलगाड़ियां थीं। बल्कि बाबा (जो उन दिनों दीवान थे) की अपनी बैलगाड़ी थी, और वह भी रबड़ की टायर पर चलने वाली। उसके क़िस्से अलगे से सुनाने का मन है। वह फिर कभी।
aapke blog par aapki yadgaar ka suder chitran padha saath me sunder kavita bachchon ke pyare chitr bhi dekhe bahut pasand aaye.Manoj ji apne blog par aapko aamantrit karti hoon.
जवाब देंहटाएंगाँव की छटा ही निराली थी। दूरतक पसरी हुई शस्य श्यामला धरती, ज्यादा तर कच्चे घरों के बीच एकाध पक्के मकान। तिरछी, टेढी, संकड़ी और कहीं कहीं थोड़ी चौरी कच्ची सड़कें। सड़कों पर बैलगाड़ी के बैलों के गले की घुंघुरू की आवाज़ पर दौड़ लगाते बच्चे और----
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति,
हार्दिक बधाई ||
bahut achha laga ... apna samay khaas tha
जवाब देंहटाएंजीवंत वर्णन ,अच्छा संस्मरण
जवाब देंहटाएंप्रकृति का सुन्दर वर्णन ---
जवाब देंहटाएंपूरब की तरफ जब प्रत्यूष की लाली हरे-भरे खेतों में फैलती है तो लगता है मानो किसी दुल्हन के कपोलों पर लज्जा की लाली दौड़ गई हो। प्रसन्नता का राग बिखेरते धीरे-धीरे कलरव करते विहंग। हवा की मदमस्त ताल पर वृक्षों की लहराती शाखाएं सामूहिक नृत्य करती प्रतीत होती हैं।
बाहर गहनता से लिखा है संस्मरण ... रोचक
आपने तो बचपन याद दिला दिया . बैलगाड़ी की सवारी ,बैलों के गले में बंधे घुघरूओ से उत्पन्न मधुर संगीत , पतली पगडंडिया , उमड़ते घुमड़ते बदल , आम के पेड़ के नीचे इकट्ठे बच्चे . एकदमे सुघर लिखा है ना.
जवाब देंहटाएंआप बचपन में कम शैतान नहीं थे!
जवाब देंहटाएंमैथिली गीत बहुत प्यारा है।
गाँव का दृश्य और और आप द्वारा गाया जाने वाला गीत मज़ेदार लगा.आपको जानकर ताज्जुब होगा की मैंने गाँव सिर्फ पिक्चरों में देखा है.मेरा न कोई गाँव है न कोई वहां रहने का तजुर्बा.इसलिए गाँव का वर्णन मुझे सुनने और पढ़ने में अच्छा लगता है.
जवाब देंहटाएंआज आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
जवाब देंहटाएं...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
भाई साब इसे पढ़ कर मुझे तो लगा कि ये मेरी राम कहानी है| सच में, भारतीय मध्यवर्गीय परिवार खास कर पिछले 2-3 दशकों के एक जैसे ही रहे हैं| यादों के झरोखों में झाँकने का अवसर देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंऔर हाँ बैलगाड़ी वाला किस्सा भी जरूर ही जबर्दस्त और रोचक रहेगा, मैं अभी से उस का काल्पनिक रसास्वादन कर रहा हूँ|
बेहतर है मुक़ाबला करना
eh...bhaijee......bahut bahut sundar
जवाब देंहटाएंlagal ee post.......mon mast bhai gel
.........
pranam.
सजीव चित्रण से ग्राम्य जीवन का वर्णन अत्यन्त रोचक और ग्राम के प्रति अनुरक्त करनेवाला है। और मैथिलि बाल गीत का तो कोई जबाब नहीं। बहुत-बहुत साधुवाद।
जवाब देंहटाएंगाँव का दृश्य, गर्मी की छुट्टी.. का का याद दिला दिए भाई जी!
जवाब देंहटाएंसाथ में बोनस मिला ठुमक चलत रामचंद्र वाला गीत और ननिहाल को दिया जाने वाला उलाहना!
कुल मिलाकर फुर्सत में लिखा हुआ पोस्ट..दिन बना देने वाला!!
हमलोग भैंस को महीश कहते थे....और कमला की धार उसी की पीठ पर बैठ कर पार करते थे.... अब गाँव भी ऐसे नहीं रहे...
जवाब देंहटाएं@ अरुण जी
जवाब देंहटाएं... या हमने रहने नहीं दिया।
मेट्रोवाले जो हो गए हैं हम।
मनोज जी ये गीत सुना के मन में हिलोर उठने लगा... मेरी चार मामियां हैं और सब के सब गोरी हैं.... मुझे मेरे चाचा सब यही गीत सुना के खिलोद करते थे.... जब मेरे उपनयन में मामियां आई थी मेरे गाँव तो लट्टू थे मेरे चाचा सब.... और गीत के ये बोल सुनाते थे.... वाकई मौसियाँ मुह जोर होती हैं... इस गीत का रस तो मिथिला के मिटटी में ही है....
जवाब देंहटाएं@ अरुण जी,
जवाब देंहटाएंआपकी दूसरी टिप्पणी (बल्कि इसे वैल्यू ऐडिशन कहना चाहिए) के बाद मेरे मन से निकला ...
ये हुआ न!
बिना इस कमेंट के त रस ही नहीं आ रहा था इस पोस्ट में...!!! :)
भाई साहब हम तो आपके ब्लॉग पर गाँव की दर्शनीय छटा का मुग्ध भाव लिए विवरण पढ़ते जब बाल गोपालों की तस्वीरों तक पहुंचे तो मन्त्र मुग्ध हो गए उस प्राकृत सौन्दर्य को देखके .गीत का अपना नाद सौन्दर्य और भाव मुखरित रहा .अब वो दिन कहाँ अब तो समर केम्प हैं .
जवाब देंहटाएंसंस्मरण
जवाब देंहटाएंरोचक तो है ही
लेकिन कुछ ऐसी जानकारी भी लिए है
जिससे कि कुछ पाठक लगभग अपरिचित ही थे
आपके यहाँ आना सुखद लगता है
अभिवादन स्वीकारें .
प्रोफाइल में रूचि वाले कॉलम में,गायन का कहीं ज़िक्र नहीं है। कभी मुलाकात होने पर,फिर आपसे सुनना चाहेंगे।
जवाब देंहटाएंग्रामीण समाज का ऐसा सजीव चित्रण दुर्लभ है ...शुभकामनायें आपको !
जवाब देंहटाएंगांव के आत्मीय अंकन और ’नॉस्टैल्जिया’ से भरे इस स्मृति-चित्र को पढ़ कर आनन्द का अनुभव हुआ . आभार !
जवाब देंहटाएंarey waah aap gaate bhi hain...
जवाब देंहटाएंbahut sunder lok geet sunaya.
aur gaanv ka prasang bahut hi acchha laga jisme aapke prayog ki gayi shabdaawli se aapki saahityik ruchi ka bhi pata chalta hai.
आनंददायक, लाजवाब गीत.
जवाब देंहटाएंगाँव, भैंस की सवारी ,बेल का शरवत.मेरे लिए तो जैसे सब सपने जैसा है.परन्तु आपने जिस सजीवता से चित्र खींचा है लगा शायद मैं भी वहीँ कहीं हूँ.
जवाब देंहटाएंगाँव की सोंधी सुगंध लिए ...बहुत रोचक और मनमोहक संस्मरण
जवाब देंहटाएंउफ़... उस दिन मेरे इंटरनेट कनेक्शन में कुछ तकनीकी पंगा था। बहुत मुश्किल से प्रतिक्रिया पोस्ट लिख भी पाया तो पोस्ट नहीं हो सका था।
जवाब देंहटाएंहूँ..... बाबा की सिम्पनी गाड़ी (पर्दा लगा हुआ बैल-गाड़ी) थी। मैंने तो सिर्फ़ उसके किस्से सुने हैं। हाँ... अब याद आया यह गीत तो बहुत सुना है। घर के सामने वाले गायक विनोदजी से।
इसे पढ़कर मिजाज इतना नोस्टाल्जिया गया है कि एगो भोजपुरी गीत को तोड़कर गाने का मन कर रहा है,
"गंडक कनारे मोरा गांव हो.... घर पहुँचाय दे देवी मैय्या..... !" गीत का लिंक नीचे है,
http://www.youtube.com/watch?v=W61y4RFHNfE
आवारगी ने न जाने कितना कुछ दिया है साहित्य को।
जवाब देंहटाएंआदरणीय मनोज कुमार जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
ग्राम्य जीवन और प्रकृति का सुन्दर वर्णन
........मनमोहक संस्मरण
भैस की सवारी..... बचपन की फरारी ......तालाब में स्नान.... खेत में मचान......वो मस्ती...वो अल्हड़ पन ......वो कीचड....वो डांट.......कितना मजा था मनोज जी ! उफ्फ़......सब खो गया. अब कभी वापस नहीं आयेंगें वो दिन. आज के बच्चे क्या जानेंगे वो दिन ......हम कितने बदल गए हैं ! अब तो खुद को पहचानना मुश्किल हो रहा है.
जवाब देंहटाएंबचपन के दिनों की झलक के लिए आपका बहुत आभार ......एक बड़ी अनमोल संपदा जो दी है आपने स्मृतियों के रूपमें.
bahut sundar sansmran bahut kuchh yaad dila diya mujhe bhi .....
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